Thursday, April 5, 2012

बिहार के विकास का रास्ता

बिहार के विकास का रास्ता

Thursday, 05 April 2012 11:08

अरविंद मोहन 
जनसत्ता 5 अप्रैल, 2012: यह बहस अभी जारी है कि बिहार के सौवें साल का जश्न मनाया जाना चाहिए या नहीं, या फिर मनाया जाए तो कब। लेकिन राज्य सरकार यह जश्न मना रही है और विधान परिषद ने तो पिछले साल ही शताब्दी समारोह मना कर और छह खंड की किताब छाप कर अपने हिस्से का काम निपटा दिया। असल में 12 दिसंबर 1911 को ही अलग राज्य बनाने की घोषणा हुई थी। इसके लिए 22 मार्च 1912 को अधिसूचना जारी हुई और पहली अप्रैल 1912 को स्टुअर्ट बेली ने बिहार के लेफ्टिनेंट गवर्नर का पद ग्रहण किया। इन तिथियों से बिहार के जन्म की तारीख उलझी है। 
दूसरी ओर, सौ साल का बिहार या हजारों साल का बिहार, गौरव और शानदार विरासत से लबरेज बिहार या विकास के हर मानक पर सबसे फिसड्डी रहने वाला बिहार जैसे मुद््दे भी उठते रहे हैं। यह बहस चलती रहे तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन इस मौके पर एक परिघटना के रूप में बिहार की चर्चा हो यह ज्यादा जरूरी है, क्योंकि इधर बिहार एक प्रदेश न होकर कमजोरी और पिछडेÞपन का प्रतीक और न जाने किन-किन कमजोरियों का ठिकाना बन गया है।
तारीख का भी महत्त्व है, पर इस रंग-रूप में बिहार तो सौ साल पहले ही आया था और इसे उन्हीं अग्रेजों ने बनाया था, जिन्होंने उससे पचपन साल पहले के विद्रोह में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के चलते बिहार को दबाना और कमजोर रखना शुरू कर दिया था। इससे यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है कि बिहार का विभाजन भी इस शोषण की मंशा से या यह बंगाल को कमजोर करने के लिए किया गया था, या फिर घोषणा के अनुरूप प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने के लिए। तब का बंगाल राष्ट्रीय चेतना का गढ़ बनने लगा था। बंगालियों और तब के राष्ट्रीय आंदोलन के लोगों ने तो इसे ऐसा ही माना था। पर यह कहने में हर्ज नहीं है कि विभाजित बिहार बदहाल रहा है और छोटा राज्य बनने से कोई प्रशासनिक दक्षता नहीं आई।
यह बात भी बड़े शान से कही जा सकती है कि 1857 के पहले का बिहार इतिहास के किसी दौर में कमजोर और बदहाल नहीं था। सबसे घनी आबादी का सीधा मतलब सबसे उर्वर जमीन और समृद्ध अर्थव्यवस्था है। बिहार का इतिहास बताता है कि नमक और मेवों को छोड़ कर बिहार कभी किसी चीज के लिए बाहरी दुनिया पर आश्रित नहीं रहा और यह मलमल, रेशम, शोरा और बंदूक या हथियारों के निर्यात के लिए दुनिया भर में जाना जाता था। मुंगेर की बंदूक फैक्टरी जितनी पुरानी फैक्टरी और कहीं नहीं है और खुद बिहार में भी बंदूक की संस्कृति पैदा करने में इसकी बड़ी भूमिका है। कपड़े के निर्यात से बिहार कितना कमाता था, यह इतिहास में दर्ज है। 
यह देखना दुखद है कि नीतीश कुमार हों या कोई और, किसी के विकास के एजेंडे में यह परिचित और कामयाब रहा रास्ता अपनाने की सुगबुगाहट तक नहीं है। नोनियों के शोरे की पूछ नए रसायनों ने घटा दी है, पर कपास के कपड़ों और रेशम की पूछ अब भी है। इस उद्योग या शिल्प का पतन रसायन आने से नील या शोरे की पूछ कम होने की तरह नहीं हुआ। मैनचेस्टर की मिलों का धंधा चमकाने के लिए जुलाहों और करघों पर जुल्म ढाए गए।
बिहार की खेती का दोहन हुआ। सोनपुर और छपरा में दुनिया का सबसे लंबा प्लेटफार्म गिनीज बुक के लिए नहीं बना था। पटना के गोलघर का निर्माण खेती की पैदावार को जमा करके रेल और नदी के रास्ते कलकत्ता और फिर इंग्लैंड ले जाने के लिए हुआ था। अपनी जरूरत के लिए खेती को बदला गया। नील की खेती और उससे जुड़े जुर्म की कहानियां लोग अब भी नहीं भूले हैं। 
निलहे गए तो चीनी वाले आ गए। उन्हीं इलाकों और फार्मों पर चीनी मिल वालों का कब्जा हुआ, जिन पर पहले निलहों का कब्जा था। अफीम की खेती, चाय बागान, तंबाकू की खेती का जोर भी इसी दौर में बढ़ा। यह हैरान करने वाला तथ्य है कि आज तक बिहार के एक भी चीनी मिल या स्थापित अर्थ में बड़े कारखाने का मालिक कोई बिहारी नहीं है। प्रकाश झा ने चीनी मिल लगाने की शुरुआत बड़ी धूमधाम से की, लेकिन वे भी आधे रास्ते चल पाए।
लेकिन सबसे बुरा हुआ दक्षिण बिहार के खनिज भंडार पर अंग्रेजों की नजर पड़ने से। दरअसल, सब कुछ खोद कर बाहर ले जाने की होड़ शुरू हुई। अभ्रक से लेकर तांबा तक समाप्तप्राय है। मगर जब माल बाहर ले जाने की जगह दक्षिण बिहार में ही कारखाने लगा कर उत्पादन शुरू हुआ तो रोजगार से लेकर कमाई तक किसी भी चीज में बिहारियों को उनका हिस्सा नहीं दिया गया। 
सन 1956 में देश में हर जगह समान दर पर माल उपलब्ध कराने की नीति, यानी 'फ्राइट इक्वलाइजेशन' के बाद इन खनिजों के लोभ में बिहार में ही कारखाना लगाने की जरूरत भी नहीं रही। कारखानों का मुख्यालय लंदन या कलकत्ता रहा, जिससे टैक्स का राजस्व भी बिहार को नहीं मिला। टाटानगर से बंबई और कलकत्ता के लिए तो तूफानी गाड़ियां थीं, लेकिन पटना और मुजफ्फरपुर विलायत जितने दूर थे। उत्तर और दक्षिण बिहार के बीच अब कुछ रेल जुड़ाव हुआ है, लेकिन सत्तर के दशक तक भारी तकलीफ उठा कर ही लोग यहां से वहां जा सकते थे।

बिहार में उद्योग-धंधे लगाने का काम यहां की राजनीतिक अराजकता के चलते भी रुका और यह भी हुआ कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद प्रदेश में जमा होने वाली पचहत्तर फीसद रकम बाहर जाने लगी। सो, पेट काट कर भी जो बचत होती थी, वह भी दूसरे और खासकर विकसित राज्य चट करने लगे। बिहार की हालत यह हो गई कि वह अपने लोगों   के धन और श्रम का इस्तेमाल कर पाने की हालत में भी नहीं रहा। 
बिहार से दो करोड़ लोग बाहर गए हैं या ढाई करोड़, यह राज्य सरकार को भी मालूम नहीं है। उसमें अपने लोगों के लिए संवेदनशीलता भी नहीं बची है। जबकि प्रवासी मजदूर अपमान और जलालत झेल कर भी हर साल हजारों करोड़ रुपए ले आते हैं और सचमुच पहाड़ तोड़ कर अपने परिवार का पालन करते हैं। ऐसे बिहार के आर्थिक विकास का सपना कभी पूरा होगा या नहीं, या किस रूप में होगा, कहना मुश्किल है।
इसके बावजूद बिहार और बिहारियों में काफी कुछ ऐसा है जो न सिर्फ उन्हें कायदे से जिंदा रहने का हौसला, बल्कि एक भी तरीका देता है जो अभी बाकी लोगों को सीखना होगा। ये चीजें बिहार को बचाए हुए हैं और आगे के लिए भी संभावनाएं जगाती हैं। दिवंगत किशन पटनायक कहते थे कि बिहार में कभी भी अलगाववादी और हिंसक आंदोलन नहीं चल सकता, क्योंकि बिहारी अब भी पैसे वालों की जगह शिक्षक को आदर देते हैं। जिस समाज में भौतिक समृद्धि की जगह ज्ञान और यश की तमन्ना ऊपर हो, उसका मूल्यबोध गड़बड़ा नहीं सकता। 
भरपेट भोजन या पूरे बदन पर कपड़ा न हो, लेकिन ज्ञान की लालसा, ज्ञानी का आदर करने का संस्कार होना ही बिहारी होना है। आज सूचना और ज्ञान के इस युग में बिहार के लिए यही स्थिति मुक्ति का मार्ग बन जाए तो हैरान होने की बात नहीं होगी। पर दुखद यह है कि राज्य सरकार और यहां के राजनीतिक आकाओं की योजनाओं और प्राथमिकताओं में इस संपदा को समेटने और इसका इस्तेमाल करने की मंशा कहीं नजर नहीं आती।
बिहारियों में आज भी शारीरिक श्रम और पढ़ने-लिखने की भूख कम नहीं हुई है। बिहारी मजदूर से कामचोरी की शिकायत नहीं की जा सकती तो वहां के विद्यार्थी से पढ़ाई में ढील देने की। बिहार और बिहारियों के लिए यही दो चीजें सबसे बड़ा बल हैं। सारी दरिद्रता के बावजूद बिहार के लोग सबसे ज्यादा अखबार, पत्रिकाएं और किताब खरीदते हैं तो इसी भूख को मिटाने के लिए। 
आज किसी भी अखिल भारतीय प्रतियोगिता में बिहारी विद्यार्थी औसत से ऊपर ही प्रदर्शन करते हैं और यह भी लठैत मराठियों के लिए जलन की चीज बनती है। बिहार का बड़े से बड़ा दादा भी चार अच्छे काम करके यश पाना चाहता है, अपने इलाके में नाम दिलाने वाला काम कर जाना चाहता है। बुद्ध, महावीर, अशोक और चंद्रगुप्त की भूमि में नेक काम से, यश से अमर होने की चाह आज तक कुछ सार्थक प्रभाव रखे हुई है तो यह कम बड़ी बात नहीं है। यह बाद के बिहारी समाज के अपने मूल्य-बोध को भी बताता है।
आज भी एकाधिक चीजों में यह दिखता है। बिहारियों की भाषा में कर्तृवाच्य की जगह कर्मवाच्य (एक्टिव वॉयस की जगह पैसिव वॉयस) का प्रयोग भी ऐसी ही एक चीज है- 'आया जाय, खाया जाय, बैठा जाय' बोलने की परंपरा पुरानी है और कहीं न कहीं अहं को महत्त्व न देने, उसे तिरोहित करने और दूसरों को सम्मान देने से जुड़ी है। व्यक्ति को जान-परख कर (जिसमें जाति पूछने का चलन सबसे भद््दा होकर आज सबसे प्रमुख बन गया है) उसी अनुरूप उसके संग व्यवहार करना शंकराचार्य के दिनों से जारी है। इस बीच इसमें बुराइयां न आई हों या बदलाव न हुए हों, यह कहना गलत होगा। लेकिन अब भी इन चीजों का बचा होना और व्यवहार में रहना यही बताता है कि बिहारी समाज अपने रास्ते से कम भटका है।
सौ साला जश्न मनाते हुए अगर हम बिहार के गुणों, शक्तियों, ऊर्जा के स्रोतों को ध्यान में रखेंगे तो न सिर्फ पिछड़ेपन का दर्द कम होगा, बल्कि आगे के लिए रास्ता निकालने में मदद मिलेगी। दुखद यह है कि जिन लोगों को इन चीजों का पता होना चाहिए और जो इस सौ साला जश्न के अगुआ हैं, वही इन बातों से बेखबर हैं। बीपीओ उद्योग कहने को ही उद्योग है, उसमें पूंजी और मशीन बहुत कम लगती है। बस बिजली, अच्छा माहौल, अच्छे लोग और थोड़ी पूंजी चाहिए। लेकिन बिहारी बच्चे बंगलोर-हैदराबाद जाकर काम करेंगे, उन्हें बिहार में काम देने की कोई पहल नहीं दिखती। लालू प्रसाद तो इस व्यवसाय का मजाक ही उड़ाते रहे, नीतीश कुमार ने भी कुछ कर दिया हो यह नहीं दिखता। बिहार के विकास का रास्ता उसके खेत-खलिहानों, उसके मजदूरों के काम, वहां के लोगों की ज्ञान-संपदा और उसके उन्नत संस्कारों से निकलेगा।

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