Sunday, April 29, 2012

संकट यह विकराल है, कहां बैठे डबराल हैं! [ #Anantar ]

http://mohallalive.com/2012/04/29/anantar-this-week-on-vishnu-khare-and-manglesh-dabral-controversy/

 आमुखनज़रियामीडिया मंडीशब्‍द संगत

संकट यह विकराल है, कहां बैठे डबराल हैं! [ #Anantar ]

29 APRIL 2012 8 COMMENTS

आवाजाही के हक में

♦ ओम थानवी

इंटरनेट बतरस का एक लोकप्रिय माध्यम बन गया है। घर-परिवार से लेकर दुनिया-जहान के मसलों पर लोग सूचनाओं, जानकारियों, विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, प्रतिक्रिया देते हैं। ब्लॉग, पोर्टल या वेब-पत्रिकाएं और सार्वजनिक संवाद के 'सोशल' ठिकाने यानी फेसबुक-ट्वीटर आदि की खिड़कियां आज घर-घर में खुलती हैं।

गली-मुहल्लों, चाय की थड़ी या कहवा-घरों, क्लबों-अड्डों या पान की दुकानों की प्रत्यक्ष बातचीत के बरक्स इंटरनेट की यह बतरस काम की कितनी है? मेरा अपना अनुभव तो यह है कि त्वरित और व्यापक संचार के बावजूद इंटरनेट के मंचों पर बात कम और चीत ज्यादा होती है।

उदाहरण के लिए हाल में इंटरनेट पर विकट चर्चा में रहे दो कवियों का मसला लें। विष्णु खरे और मंगलेश डबराल को लेकर कुछ लोगों ने रोष प्रकट किया। उन्हीं की विचारधारा वाले 'सहोदर' उन पर पिल पड़े। मंगलेश तो नेट-मार्गी हैं नहीं, ई-मेल भेज-भिजवा देते हैं। विष्णु खरे चौकन्ने होकर ब्लॉग-ब्लॉग की खबर रखते हैं, उन्हीं के शब्दों में, '(ताकि) देख पाऊं कि उनमें जहालत की कौन-सी ऊंचाइयां-नीचाइयां छुई जा रही हैं।' इसी सिलसिले में वे इंटरनेट पर नयी पीढ़ी के जुझारू ब्लॉगरों-नेटवर्करों से जूझते देखे गये, डबराल नहीं। हालांकि डबराल की चुप्पी को लोग संदेह की नजर से देख रहे हैं।

हुआ यों कि विष्णु खरे एक ब्लॉग पर हिंदी कवियों पर की गयी टीका से त्रस्त हुए। गुंटर ग्रास की इजराइल-विरोधी कविता 'जो कहा जाना चाहिए' इंटरनेट के जमाने में दुनिया के कोने-कोने में चर्चित हो गयी है। तब और ज्यादा, जब उस कविता में 'दुनिया के अमन-चैन का दुश्मन' करार दिये जाने पर भड़क उठे इजराइल ने अपने देश में गुंटर ग्रास के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने उस कविता का हिंदी अनुवाद अपने ब्लॉग 'जनपथ' पर दिया जो मेल-फेसबुक आदि के जरिये प्रसार पा गया। कविता के साथ दी गयी उनकी वह टिप्पणी विष्णु खरे को नागवार गुजरी, जिसमें कहा गया था कि साहित्य व राजनीति में दूरी बढ़ती जा रही है और कवि-लेखक सुविधापसंद खोल में सिमटते जा रहे हैं।

खरे ने, अपने स्वभाव के अनुसार, कड़े तेवर में ब्लॉग लेखक को लिखा : 'जब कोई जाहिल यह लिखता है कि काश हिंदी में कवि के पास प्रतिरोध की ग्रास-जैसी सटीक बेबाकी होती तो मैं मुक्तिबोध सहित उनके बाद हिंदी की सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय-राजनीतिक प्रतिवाद की कविताएं दिखा सकता हूं, आज के युवा कवियों की भी, जो ग्रास की इस कविता से कहीं बेहतर हैं… लेकिन वे (ग्रास) और इस मामले में उनके आप सरीखे समर्थक इसराइल की भर्त्सना करते समय यह क्यों भूल जाते हैं कि स्वयं ईरान में इस्लाम के नाम पर फासिज्म है…'

सार्वजनिक हुए पत्राचार में यह सवाल भी उठा कि विष्णु खरे ने दिल्ली के पुस्तक मेले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और शिवसेना से जुड़े दलित कवि नामदेव ढसाल की किताब का लोकार्पण क्यों किया। लोकार्पण के वक्त उनके साथ मंगलेश डबराल भी थे। खरे ने जवाब दिया : 'नामदेव ढसाल मराठी कविता के सर्वकालिक बड़े कवियों में है। आज उसका महत्त्व अपने समय के तुकाराम से कम नहीं… मराठी में कौन नहीं जानता कि नामदेव शिव सेना और आरएसएस से संबद्ध है… मैं मानता हूं कि अलाहाबाद में पाकिस्तान और पार्टीशन थेओरी का प्रतिपादन करने वाले अल्लामा इकबाल का फिरन निरपराध मुस्लिम-हिंदुओं के खून से रंगा हुआ है। फिर भी हम उन्हें बड़ा शायर मानते हैं और भारत के अनऑफिशियल, जन-मन-गण से कहीं अधिक लोकप्रिय, राष्ट्र-गीत 'सारे जहां से अच्छा' को गाते हैं या नहीं?'

यहां यह याद करना उचित होगा कि पिछले साल के अंत में मुंबई में विष्णु खरे ने जब एक लाख रुपये का एक विवादग्रस्त 'परिवार' पुरस्कार (जिसे स्वीकार करने के बाद उन्होंने लंबा स्पष्टीकरण भी दिया) लिया, तब भी शर्त रखी थी कि 'पुरस्कार मुझे नामदेव ढसाल या चंद्रकांत पाटील के हाथों दिया जाए।'

मंगलेश इंटरनेट पर इस तरह उलझे

हीने के पहले रविवार की बात है। इंटरनेट के बौद्धिक हिंदी साहित्य के बदलते सरोकारों पर एकाग्र थे। मंगलेश उनकी बहस के केंद्र में, बल्कि निशाने पर थे। वे एक कार्यक्रम में गये थे, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार के जीवनीकार राकेश सिन्हा की संस्था भारत नीति प्रतिष्ठान (आईपीएफ) ने आयोजित किया था। कार्यक्रम समांतर सिनेमा पर केंद्रित था। मंगलेश जी ने उसकी अध्यक्षता की। राकेश सिन्हा ने फेसबुक पर अपने पन्ने (जिस पर सजे स्थायी फोटो में सिन्हा के साथ पूर्व सरसंघ चालक केएस सुदर्शन, भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और रविशंकर प्रसाद खड़े मिलते हैं) पर उक्त कार्यक्रम की तीन तस्वीरें प्रसारित कर दीं। इनमें एक में सिन्हा (प्रतिष्ठान के निदेशक के नाते) मंगलेश डबराल को गुलाब के फूल दे रहे हैं; दूसरी तस्वीर में मंगलेश उनके साथ मंच पर बैठे हैं।

जैसा कि फेसबुक जैसे तुरता मगर संक्षिप्त टिप्पणियों वाले माध्यम में होता है, इस प्रसार पर बेहिसाब प्रतिक्रियाएं आयीं। सिन्हा के अपने पन्ने पर, जाहिर है, एक ढंग की। मसलन, किन्हीं अनुरोध पासवान ने लिखा : 'शानदार… डबराल जाने-माने वामपंथी हैं, फिर भी उन्होंने आपके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 'थिंक टैंक' मंच पर शिरकत की…'

'मोहल्ला लाइव' पोर्टल (पत्रिका) चलाने वाले पत्रकार अविनाश दास ने फेसबुक पर सिन्हा-डबराल की तस्वीर देते हुए लिखा : 'अभी उस दिन मंगलेश डबराल को कॉमरेड चंद्रशेखर की हत्या की साजिश के सूत्रधार शहाबुद्दीन को बरी करने के खिलाफ जंतर-मंतर पर कविता पढ़ते देखा था। और अब ड्रैक्युला नरेंद्र मोदी की पार्टी भारतीय जनता पार्टी के विषैले विचारक राकेश सिन्हा के साथ मंच साझा करते हुए देख रहा हूं। ये वही मंगलेश डबराल हैं न, जिन्होंने योगी आदित्यनाथ के साथ एक मंच पर मौजूद उदय प्रकाश के खिलाफ भयानक मोर्चाबंदी कर दी थी?'

कथाकार प्रभात रंजन इंटरनेट की 'जानकीपुल' पत्रिका के संपादक हैं। उन्होंने भी फेसबुक पर लिखा : 'मैं हेडगेवार के जीवनीकार राकेश सिन्हा के साथ अपने प्रिय कवि मंगलेश डबराल को मंच पर देखकर हतप्रभ हूं… कॉमरेड तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?'

दोनों टिप्पणियों पर कोई तीन सौ प्रतिक्रियाएं एक ही रोज में आ गयीं। सौ प्रतिक्रियाएं तो टिप्पणियों को महज 'लाइक' बता कर सहमति जताने वाली थीं। बाकी की बानगी देखिए…

 गिरिराज किराडू : 'समांतर सिनेमा पर बात करने के लिए क्या यही मंच बचा था?'
 प्रकाश राय : 'कूढ़मगज और बूढ़मगज प्रगतिशील बौद्धिकों की यही नियति है।'
 शारदा दुबे : 'बौद्धिक गिरगिट हर जगह मौजूद हैं।'
 नवनीत बेदार : 'कृष्ण करें तो लीला, हम करें तो…?'
 सुशीला पुरी : 'पहाड़ पर लालटेन जलाने और वास्तव में रोशनी होने में बहुत फर्क है…'
 प्रेमचंद गांधी : 'संकट यह विकराल है, कहां बैठे डबराल हैं!'


सबसे आक्रामक तेवर में वहां उदय प्रकाश मौजूद थे। लंबी टिप्पणी में उन्होंने लिखा…

'मैं इन दैत्यों, सत्ता के तिकड़मबाजों और मनोरोगियों को जानता हूं… मानवीय सरोकारों वाली विचारधाराओं से उनका कोई लेना-देना नहीं है… वे घोर जातिवादी हैं… मैं, मेरा परिवार, लाखों अल्पसंख्यक, वंचित, सत्ताहीन और पिछड़े वर्ग के लोग बुरी तरह इन दगाबाजों के कृत्यों के शिकार बने हैं…'


उदय प्रकाश की दूसरी टिप्पणी…

'क्या हम हिंदी के अप्रतिम कवि – और प्रगतिशील कविता की वृहत्रयी में से एक – त्रिलोचन को याद करें, जो पहले स्वयं वामपंथी संगठन से निकाले गये, फिर दिल्ली से उनको शहर बदर करके हिंदू तीर्थ-स्थल हरिद्वार भेज दिया गया। अत्यंत विषम परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हुई… क्या हम शैलेश मटियानी को याद करें, जिन्हें जिंदा रहने और अपना परिवार पालने के लिए कसाई (चिकवा-गीरी) का काम करना पड़ा, ढाबों में बर्तन मांजने पड़े?… क्या हम स्वदेश दीपक के बारे में सोचें, जो 'दास्तान-ए-लापता' हैं?… सच यह है कि हिंदी कविता, साहित्य, अकादेमिकता, मीडिया, अखबार… सब कुछ इन्हीं के अधीन है, इनमें से अधिकांश अर्ध-शिक्षित या अशिक्षित हैं, मीडियॉकर और अयोग्य हैं… ये शहीद चंद्रशेखर की स्मृति में आयोजित सभाओं में कविताएं पढ़ते हैं और सत्ताओं द्वारा फूल-मालाओं से लाद दिये जाते हैं। हम मार्क्स या बुद्ध का नाम लेते हैं और औलिया से अपनी खैरियत की दुआ मांगते हैं…!'


उदय प्रकाश की उत्तेजना का कारण है। वे सोलह साल सीपीआई के पूर्णकालिक सदस्य रहे हैं। उससे भी ज्यादा- बाईस वर्ष सीपीएम से जुड़े जनवादी लेखक संघ में सक्रिय रहे। सात साल पहले उनका मोहभंग हुआ, जब मार्क्सवादी लेखकों को अर्जुन सिंह जैसे नेताओं की गोद में जा बैठते पाया। वे अब भी वामपंथी हैं, लेकिन किसी पार्टी या पार्टी के पोशीदा अखाड़े के सदस्य नहीं हैं। उनकी देश और देश से बाहर बढ़ी प्रसिद्धि से रश्क करने वाले साथी अब उनकी निंदा के मौके ढूंढ़ते हैं। तीन साल पहले गोरखपुर में उदय के फुफेरे भाई का निधन हो गया। वे जिस कॉलेज के प्राचार्य थे, वहां उनकी बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में कॉलेज की कार्यकारिणी के अध्यक्ष और विवादग्रस्त सांसद योगी आदित्यनाथ ने उदय प्रकाश को उनके भाई की स्मृति में स्थापित पुरस्कार दिया। परमानंद श्रीवास्तव सरीखे शहर के वरिष्ठ लेखक वहां सहज मौजूद थे, पर दिल्ली में जैसे भूचाल आ गया।

लेखकों के एक बड़े समूह ने उदय प्रकाश के खिलाफ एक 'विरोध-पत्र' जारी किया जिसमें लिखा था: '… हम अपने लेखकों से एक जिम्मेदार नैतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं और इस घटना के प्रति सख्त-से-सख्त शब्दों में अपनी नाखुशी और विरोध दर्ज करते हैं।' बयान पर मंगलेश डबराल और विष्णु खरे के अलावा ज्ञानरंजन, मैनेजर पांडे, असद जैदी, लीलाधर जगूड़ी, आनंदस्वरूप वर्मा, पंकज बिष्ट, वीरेन डंगवाल, आलोकधन्वा आदि कोई साठ लेखकों के नाम थे।

एक लेखक के किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के विरोध में इतनी बड़ी तादाद में हिंदी लेखक न कभी पहले एकजुट हुए, न बाद में। उदय बार-बार कहते रहे कि उन्हें खबर नहीं थी, न अंदाजा कि उनके और भाई की स्मृति के बीच वहां योगी आदित्यनाथ आ जाएंगे। यह भी कि उनके विचार मंच पर योगी के साथ बैठने से नहीं बदले हैं। पर उनकी बात नहीं सुनी गयी।

कुछ लेखक-पत्रकार जरूर तब उदय प्रकाश के समर्थन में आये। दिलीप मंडल (अब हिंदी इंडिया टुडे के संपादक) ने आदित्यनाथ की मौजूदगी पर लामबंद होने वाले लेखकों के प बंगाल की (तत्कालीन) जनवादी सरकार की हिंसा पर चुप्पी साधने को आड़े हाथों लिया : 'अच्छा होता अगर योगी आदित्यनाथ के हाथों उदय प्रकाश कोई सम्मान न लेते… (पर) शायद उससे भी अच्छा होता कि उदय प्रकाश के आदित्यनाथ से सम्मान लेने के खिलाफ गोलबंदी दिखाने वाले साहित्यकारों ने लालगढ़ में आदिवासियों के संहार के खिलाफ या नंदीग्राम और सिंगुर में राजकीय हिंसा के खिलाफ भी ऐसा ही वक्तव्य जारी किया होता…'

दिलचस्प बात है कि उदय प्रकाश ही नहीं, अन्य मार्क्सवादी लेखक भी जब-तब अपने हमकलम साथियों के रोष का शिकार होते रहे हैं। मसलन, सुलभ शौचालय वाले बिंदेश्वरी पाठक से पुरस्कार लेने पर त्रिलोचन। या केदारनाथ सिंह अटल बिहारी वाजपेयी और विष्णु नागर त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी के हाथों सम्मानित होने के लिए। पंकज बिष्ट देहरादून में रमाशंकर घिल्डियाल 'पहाड़ी' की जन्मशती पर भाजपाई कवि रमेश पोखरियाल 'निशंक' के साथ मंच पर बैठे तो इसकी चर्चा भी तल्खी में हुई।

ऐसे में मंगलेश डबराल के राकेश सिन्हा के साथ उठने-बैठने की चर्चा होना स्वाभाविक था। यों मंगलेश पहले गोविंदाचार्य के साथ भी मंचासीन हो चुके हैं, लेकिन मामला बात सामने आने और मुद्दा बनने भर का है।

लेकिन क्या ये प्रसंग सचमुच ऐसे हैं, जिन्हें लेकर इतना हल्ला होना चाहिए? क्या हम ऐसा समाज बनाना चाहते हैं, जिसमें उन्हीं के बीच संवाद हो जो हमारे मत के हों? विरोधी लोगों के बीच जाना और अपनी बात कहना क्यों आपत्तिजनक होना चाहिए? क्या अलग संगत में हमें अपनी विचारधारा बदल जाने का भय है? क्या स्वस्थ संवाद में दोनों पक्षों का लाभ नहीं होता? यह बोध किस आधार पर कि हमारा विचार श्रेष्ठ है, दूसरे का इतना पतित कि लगभग अछूत है! पतित है तो उस पर संवाद बेहतर होगा या पलायन? क्या संघ परिवार और उसके हमजात शिवसैनिकों ने पहले ही हमारे यहां प्रतिकूल विचार या सृजन को कुचलने का कुचक्र नहीं छेड़ रखा है? असहिष्णुता की काट के लिए एक उदार और सहिष्णु रवैया असरदार होगा या उसी असहिष्णुता का जो किसी एकांगी विचारधारा या (लेखक) संघ की राजनीति से संचालित होती है? एक मतवादी घेरे में पनपने वाला समाज कितना लोकतांत्रिक होगा? दुर्भाव और असहिष्णुता का यह आलम हमें स्वतंत्र भारत का एहसास दिलाता है या स्तालिनकालीन रूस का?

कहा जाएगा कि विपक्षी मंच पर जाकर प्रगतिशील विचारधारा के लोग प्रतिगामी विचारधारा को एक तरह की विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। यह भी एक खुशफहमी है। क्या इस तर्क को उलट कर यों नहीं दिया जा सकता कि आपके विचार का ही असर यानी विश्वसनीयता है, जो विपक्षी को भी आपकी ओर देखने को विवश कर रही है!

प्रगति या जन-गण की बात करने वाले अपनी ही विचारधारा के घेरे में गोलबंद होने लगे, इसके लिए खुद 'विचार'-वान लेखक कम कसूरवार नहीं हैं। पहले देश में कभी एक कम्युनिस्ट पार्टी थी और उसके पीछे चलने वाला एक लेखक संघ। पार्टी टूटी तो संघ के लेखक भी टूट गये। एक और लेखक संघ बना। बाद में एक और। इन लेखक संघों ने अक्सर अपने मत के लेखकों को ऊंचा उठाने की कोशिश की है और दूसरों को गिराने की। एक ही विचारधारा के होने के बावजूद लेखक संघों में राग-विराग देखा जाता है। लेखक का स्तर या वजन भी संघ के विश्वास के अनुरूप तय होने लगा है। इसी संकीर्णता की ताजा परिणति है कि कौन लेखक कहां जाए, कहां बैठे, क्या कहे, क्या सुने – इसका निर्णय भी अब लेखक संघ या सहमत-विचारों वाले दूसरे लेखक करने लगे हैं।

गौर करने की बात है कि हिंदी साहित्य में ऊंच-नीच या अपने-पराये का जो सांस्कृतिक जातिवाद पनप रहा है, वह कला या सिनेमा आदि की दुनिया में देखने को नहीं मिलता। वहां धुर विरोधी एक मंच, प्रदर्शनी या समारोह में शिरकत कर सकते हैं, अपने साथियों के फतवे की फिक्र किये बगैर। हमारे समाज में भी, जहां घोर जातिवाद व्याप्त है, कट्टर से कट्टर लोग विजातीय घर या घेरे में थोड़ी आवाजाही बनाये रखते हैं!

मंगलेश डबराल सिनेमा गोष्ठी के मामले में शायद इसलिए निशाना बने, क्योंकि पहले वे खुद ऐसी शिरकतों का विरोध करते आये हैं। उदय प्रकाश तो साम्यवादी लेखक ही थे, जिनके खिलाफ लामबंदी की गयी। वरना गोपीचंद नारंग जब साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष बने, तो मंगलेश डबराल ने अकादेमी के तमाम कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था। ऐसे तेवर के चलते उन्होंने राकेश सिन्हा के बुलावे को स्वीकार किया तो विवाद के बीज वहां जाते वक्त शायद वे खुद बो गये थे। वे कह सकते हैं कि राकेश सिन्हा बुद्धिजीवी हैं, आदित्यनाथ पर तो संगीन आरोप लगते रहे हैं।

तब, अगर नामवर सिंह या विभूतिनारायण राय यह कहें कि तरुण विजय ने कभी आदित्यनाथ जैसा हिंसक बयान नहीं दिया और विजय की जिस किताब का लोकार्पण उन्होंने पुस्तक मेले की भीड़ में किया, वह सांस्कृतिक लेखों का संकलन मात्र है, तो इसमें आपत्ति क्यों हो? दूसरे, क्या राकेश सिन्हा गोपीचंद नारंग से बड़े लेखक हैं? अज्ञेय जन्मशती आयोजनों का मंगलेश और जन संस्कृति मंच के अन्य लेखकों ने बहिष्कार किया। मंच के अध्यक्ष मैनेजर पांडे ने अपने स्तर पर जरूर शिरकत की। पर इसके लिए उन्हें मंच के लोगों से सुनना पड़ा, ऐसा उन्होंने खुद बताया। क्या अज्ञेय राकेश सिन्हा से भी कमतर बुद्धिजीवी थे?

जैसे मंगलेश जी के विपरीत विचार-मंच पर चले जाने से उनके अचानक उदारचेता लोकतांत्रिक हो जाने का आभास होता है, विष्णु खरे के कथन से सहसा उनके रूपवादी हो जाने का भ्रम पैदा होता है। नामदेव ढसाल संघ और शिवसेना से संबद्ध होने के बावजूद तुकाराम जितने महान कवि हैं और इकबाल भारत-पाक बंटवारे के जनक और नितांत सांप्रदायिक होकर भी बड़े कवि के सम्मान के हकदार हैं। जैसे ढसाल को तुकाराम के सदृश सबसे पहले दिवंगत दिलीप चित्रे ने ठहराया था, विचार से सृजन की दूरी की बात हिंदी में आधी सदी पहले 'तीसरा सप्तक' में विजयदेव नारायण साही ने कही।

मजदूरों के बीच काम करने वाले समाजवादी साही ने अपने 'वक्तव्य' में कहा था: 'शेली महान क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूं; लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांतिकारी होना नहीं चाहता। बाबा तुलसीदास महान संत कवि थे, लेकिन वह संसद के चुनाव में खड़े हों तो उन्हें वोट नहीं दूंगा। नीत्शे का 'जरथ्रुष्‍ट उवाच' सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान कृतियों में से एक है। उसकी एक प्रति पास रखता हूं और आपसे भी सिफारिश करता हूं।' कुछ इसी तरह के अभेद की बात फणीश्वरनाथ रेणु ने अज्ञेय पर एक संस्मरण लिखते हुए कही थी।

विदेश में तो अभेद का यह सलीका बगैर किसी गांठ के जाने कब से कायम है। वामपंथी पाब्लो नेरूदा कवि के नाते वहां आदर पाते हैं तो दक्षिणपंथी, यहां तक कि फासीवाद समर्थक एजरा पाउंड भी। कला में पाब्लो पिकासो साम्यवादी होकर प्रतिष्ठित होते हैं, तो कला-मर्मज्ञ आंद्रे मालरो दक्षिणपंथी सरकार में मंत्री बनकर। साम्यवादी जॉर्ज ऑरवेल अपनी वैचारिक काया-पलट के बावजूद सिद्ध कथाकार माने जाते हैं और ज्यां जेने ढेर अपराधों-सजाओं के बाद नाटककार के रूप में याद रखे जाते हैं। ज्यां पाल सार्त्र ने जेने की सजा माफ कराने की मुहिम ही नहीं छेड़ी थी, जेने पर उन्होंने एक किताब भी लिखी जिसका नाम था, 'संत जेने'!

विष्णु खरे तो विश्व-साहित्य के पंडित हैं। वे बताएं, हिंदी के कतिपय विचारवादी जैनेंद्र कुमार, अमृतलाल नागर, इलाचंद्र जोशी, फणीश्वरनाथ रेणु, विजयदेव नारायण साही, धर्मवीर भारती, भवानी प्रसाद मिश्र, नरेश मेहता, मनोहरश्याम जोशी या हमारे बीच सृजनरत कुंवर नारायण, कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखकों की लगभग अनदेखी क्यों करते हैं? निर्मल वर्मा और अज्ञेय के नाम से तो वे जैसे छड़क ही खाते हैं। एक को विचारधारा के स्तर पर साम्यवाद से मोहभंग के लिए साहित्य में तिरस्कृत करने की कोशिश की जाती है, दूसरे को उसका तमाम सृजन नजरअंदाज करते हुए व्यक्तिवाद, पूंजीवाद, जानकी-यात्रा इत्यादि के नाम पर। यह दूसरी बात है कि ऐसा कोई तिरस्कार इन लेखकों को आधुनिक हिंदी साहित्य में उच्च प्रतिष्ठा हासिल करने से रोक नहीं पाया। अगर अब कुछ वामपंथी आलोचक भी उनका गुणगान करते हैं तो शायद उन लेखकों की अपूर्व प्रतिष्ठा के दबाव के चलते ही।

बहरहाल, साहित्य अगर अनुभव से पैदा होता है, विचारधारा से नहीं तो नामदेव ढसाल या इकबाल वाले तर्क को खरे जी हिंदी साहित्य में लागू कराने की पहल क्यों नहीं करते? पहले, अपने ही समानधर्मा लेखक समुदाय के बीच!

शीर्षक सौजन्‍य : प्रेमचंद गांधी | अनंतर को अखबारी कतरन के रूप में यहां पढ़ें : जनसत्ता एडिट पेज

Om Thanvi Image(ओम थानवी। भाषाई विविधता और वैचारिक असहमतियों का सम्‍मान करने वाले विलक्षण पत्रकार। राजस्‍थान पत्रिका से पत्रकारीय करियर की शुरुआत। वहां से प्रभाष जी उन्‍हें जनसत्ता, चंडीगढ़ संस्‍करण में स्‍थानीय संपादक बना कर ले गये। फिलहाल जनसत्ता समूह के कार्यकारी संपादक। उनसे om.thanvi@ expressindia.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

8 Comments »

  • dr anurag said:

    सहूलियत की इमानदारियो का झंडा अक्सर हिंदी साहित्य के मैदान में फैलता रहा है . वैचारिक असहमतियो के पाले में दूसरे किस्म की असहमतिया पहले भी सांस लेती थी पर तब उन का क्रोस इक्जामेनेशन नहीं होता था . हाँ ये जरूर है संवादों के नए पुलों पर चढ़कर लोग पर्सनल अटैक भी करने लगे है .जाहिर है इस माध्यम के कुछ साइड इफेक्ट्स तो होगे ही .पर लेखक अब कुछ भी लिखकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने वाली उस छूट का मजा अब लेने से वंचित है . कोई भी कही भी उसके पुराने लिखे को खोजकर जवाबदेही कर सकता है . गूगल इस नयी दुनिया का भगवान् है .जिसका कोई मंदिर नहीं .पर किसी ने एक बार कहा था अदब ओर आर्ट कभी कभी तटस्थ नहीं रह सकते यानी सत्ता या गलत से उनकी मुखालफत रहनी चाहिए . ओर सत्ता या गलत कोई भी" वाद "कर सकता है

  • Tapas Agnihotri said:

    बहुत संतुलित, दो टूक और दोमुंहे साम्यवादियों की कलाई खोलने वाला लेख है| डबराल ही नहीं, नामवर सिंह, वीएन राय, विष्णु खरे, पंकज बिष्ट सब बेनकाब हो गए हैं|

  • कमलेश माथुर said:

    लेख है या बम?

  • गंगा ढाबा लाइव said:

    ये मठों के टूटने का दौर है. ओम थानवी ने शानदार बात लिखी है. यह सारे तथाकथित वाम विचारक पतन की पराकाष्ठ हैं. अभी जनज्वार में प्रसिद्ध वाम पंथी पत्रकार आनंद स्वरुप वर्मा की पोल खोली गयी (http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/2521-debate-prachand-baburam-bhattrai-nepali-maoist-anand-swaroop-verma-kiran-vaidya) और फिर तो इनके ताश के महल ढहते ही जा रहें है. बधाई ओम जी को और उन सबको जो धिक्कारने का सहस रखते है.

    गंगा ढाबा लाइव

  • Salil said:

    Lekh Dabral par nahin hai mitra. Ochhi mansikta par hai, chahe RSS ki ho chahe pragtishil ya janvadi jan ki. Jansata mein mool ka shirshak dabral ya v khare par nahin hai — <> hai. isliye lekh par batiyaye, shirshak par nahin.

  • Chanda Kumar said:

    Glad to see you Mr Thanvi back with his write-ups.

    As always, his article conveys the underneath message in a very subtle way! And his trademark style of 'talking to reader' than to 'write for reader' makes it even more interesting on an issue that people would generally avoid talking even when they would think its spoiling the fun!

    Courage, is not always a physical expression! At times, one has to speak the heart out, without bothering about reactions. It may or may not please people concerned but he suggests how it should have been practiced. Journalism of Courage is the Tag line of the Indian Express Group and its so fitting here :)

    And the central theme is the need of the time which is neglected with increasing platforms of Media: keeping the tradition alive for healthy and unbiased discussions!!

    I am a prolific user of social media (excluding Blogs) and I can see what exactly the article is talking about! But it takes us to the larger question – The fundamental approach of the medium (or any other platform, for that matter!) is to enable free exchange of expressions. If even virtual expression can't be respected and/or tolerated, what's then meaning of our cry for freedom of expression?

    The pertinent and unattended questions that is put forth, the zest of the article, do slightly indicate towards certain serious aftermath if we let this happening the way it is happening.

  • manushi said:

    थानवी जी ने सुन्दर लेख लिखा है. उन्होंने उन छ्छ्ले कमेंट्स भी अपने लेख में शामिल किया है जिसमे प्रो राकेश सिन्हा को टार्गेट किया गया है. ऐसा छ्छ्ला लिखने वाले थानवी , डबराल, उदय प्रकाश , विष्णु खरे जैसे सहिय्त्याकारो का सहारा लेकर इन्टरनेट पर कुकुरमुत्ते की तरह जीवित हैं. कोई संघ के विचारक को दक्षिणपंथी तो कोई विशिला विचारक कह रहा है. यही है स्टार संवाद का. ऐसे लोग ही दस बीस साल बाद थानवी, विष्णु खरे , उदय प्रकाश और डबराल का स्थान लेंगे? भारत नीति प्रतिष्ठान (i pf) संवाद का एक विश्वशनीय मंच बनकर उभरा है. रामशरण जोशी, आशुतोष , डा रामजी सिंह , ज्ञानेंद्र पाण्डेय, प्रोफ अमिताव कुंडू , आशा दस, आलोक मेहता, अभय कुमार दुबे जैसे लोग प्रतिष्ठान के कार्यक्रम में शिरकत कर चुके है. कुकुरमुत्तो के चलाने से हाथी की चल रुकता नहीं है, लोग प्रतिष्ठान के मंच पर आने के लिए तैयार बैठे हैं. संघ को जो लोग हत्य्रार और दक्षिणपंथी मानते हैं उन्हें अकेले राकेश सिन्हा जबाब देने के लिए तैयार बैठे हैं. किसी में औकाद है तो सर से बहश करने की हिम्मत दिखाए. उनसे मिलकर देखि तुम्हारी प्रगतिशीलता धरी की धरी रह जाएगी .

  • ashok dusadh said:

    shiyar ka rang utarne laga hai ,om thanvi jee keval isharo se ingit karne se kam nahi chalnewala hai .sare communisto ,socialisto ne ek vicharadharatkam avrodh khada kar diya tha bahujano aur brahman fasisto ke bich ,sidhe muthbhed nahi hone diya.ab sabka color uttar raha hai.brahman produced vichardhara sadio se is desh ke liye nasoor bani hai.jisko jahan jana hai vahi jayega ,usi ko protosahit karega.savand pe vivad to ek nautanki hai.agar imandar hai to unhe us prakriya ka bhi 'shalya-kriya' karna chaiye jiske tahat kathit communist, socialist ,fundamentalist, rightist vina bhed -bhav ke ek dusre se bhaichara nibhate hue manch share karate hai.dalit pichada ,minority, unki shiksha,unka svasth,unki pragati …jaye bhand me.ye to vaise hi 'arkshan se pidit' ho jate hai jaise dakshinpanthi.vichardhara jab alag ho to samvad kisliye sir…shayad gandhi jee ki tarah hridya parivartan me visvash ho -jo ab tak kisi ka hua nahi

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