आंदोलनकारियों का चिन्हीकरण खतरे की घंटी
लेखक : हरीश जोशी :: :: वर्ष :: :February 22, 2012 पर प्रकाशित
उत्तराखंड राज्य आन्दोलनकारियों के चिन्हीकरण को लेकर शुरू की गयी सरकारी कवायद ने राज्य के बाशिन्दों को आंदोलनकारी और गैर आंदोलनकारी को दो धड़ों में विभाजित कर दिया है।
वर्ष 1994 में पृथक उत्तराखंड राज्य की माँग के ज्वार का रूप ले लेने के बाद इस भूभाग की 60 लाख की पर्वतीय जनसंख्या में से लगभग 40 लाख की आबादी अलग-अलग शक्तियों, यथा छात्रशक्ति, मातृशक्ति, शिक्षक-कर्मचारी शक्ति, भूतपूर्व सैनिकों आदि के रूप में बैनरों के साथ सड़कों पर बनी रही। इसी ज्वार का असर रहा कि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के दौरान ही पृथक राज्य ब्लूप्रिन्ट लगभग बन गया, जिसके वैधानिक व विधायी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए 6 वर्ष का समय लगने के बाद वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। 1994 के अभूतपूर्व जनान्दोलन में 42 लोगों की शहादत हुई। परन्तु 2002 में हुए राज्य के पहले आम चुनावों के बाद सत्ता में आयी कांग्रेस की एन. डी. तिवारी सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों को सुविधायें दिये जाने का कुटिल निर्णय लेकर उत्तराखंडवासियों के बीच फूट के बीज बो दिये।
1994 में राज्य की कुल आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा आंदोलन का प्रत्यक्ष हिस्सा रहा। जो शेष 25 प्रतिशत बचा, वह राज्य से बाहर होने या बीमारी, अशक्तता, विकलांगता और वृद्धावस्था के कारण आंदोलन में सीधे शिरकत नहीं कर सका। हालाँकि भावनात्मक रूप से उसका भी आंदोलन से जुड़ाव बना रहा। ऐसे में प्रदेश की इतनी बड़ी आबादी के योगदान को भुलाकर, चंद लोगों को राज्य आंदोलनकारी का खिताब व सरकारी सुख सुविधाओं से नवाजना वर्तमान जनसंख्या के 95 प्रतिशत हिस्से के गले नहीं उतर रहा है।
राज्य आंदोलन को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की तरह देखा जाना स्वतंत्रता संग्रामियों का मखौल उड़ाना है। यदि मुजफ्फरनगर में आंदोलनकारी महिलाओं के साथ किये गये दुष्कर्म को अलग कर दें तो स्वतंत्रता संग्रामियों ने जिन यातनाओं को झेला, उसका सहस्रांश भी उत्तराखंड में नहीं देखा गया। बेतर यही होगा कि या तो राज्य के प्रत्येक परिवार को आंदोलनकारी होने का प्रमाण पत्र जारी किया जाये या फिर आंदोलनकारी चिन्हीकरण की प्रक्रिया को यहीं पर विराम दे दिया जाये। इससे प्रदेश में सौहार्द का वातावरण बना रहेगा। यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि जिस आत्मनिर्भर और कल्याणकारी राज्य का सपना देखा गया था, वह तो अभी भी सपना है। ऐसे में यदि कोई अपने को आन्दोलनकारी समझता है तो उसे इस सपने को साकार करने के संघर्ष में उतरना चाहिये, न कि अपने को आन्दोलनकारी घोषित करने की जद्दोजहद में पड़ना चाहिये। जनता में व्याप्त असंतोष के रूप में एक बड़े जनान्दोलन की जमीन तैयार है।
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