डॉ0 सरोज कुमार शुक्ल गरीबी, मनुष्यता और मानवाधिकार के लिए खतरे की घंटी है। भूखा आदमी कुछ भी कर सकता है: 'वुभुक्षित: किं न करोति पापम्' गरीबी की दुनिया से अलग आज का संसार देश और काल की सीमाओं को लांघकर एक परस्पर निर्भर व्यापक संरचना का रूप ले रहा है। यह सब संचार तथा आवागमन के क्षेत्र में हुई क्रान्ति से बंड़ी तीव्र गति से घटित हो रहा है। अब कोई भी देश अपनी आर्थिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक दुनिया में अलग-थलग नहीं रहा। ज्ञान-विज्ञान और अनुभव के क्षेत्र में दूसरे देशों से सहयोग लेकर ही आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो पाता है। इस दृष्टि से क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक संगठन और संस्थान बनाए गए हैं और सहयोग के नए द्वार खुलते जा रहे हैं। आज सही अर्थों में विष्व में सांस्कृतिक आदान-प्रदान और पूंजी-निवेश का विभिन्न देशों में विस्तार वैश्वीकरण की एक प्रभावी व्यवस्था का जन्म दे रहे हैं। 'यह एक मनोरम दृष्य है पर अधूरा दृश्य। इसका एक और पहलू भी है जो हमें प्रिय नहीं है। वह गरीबी से जुडा है।' स्मरणीय है कि अपने स्वभाव में वैश्वीकरण एक महंगी प्रक्रिया है जिसमें अर्थव्यवस्था बहुत विशाल पैमाने पर सक्रिय होती है। साथ ही वैश्वीकरण जिस तरह घटित हो रहा है वह कुछ पूर्व स्थापित और बडे देशों के निहित लाभ की अवधारणाओं पर टिका है। इसमें बहुत कुछ मान लिया गया है कि भागीदारी करने वाले देषों की आर्थिक सम्पन्नता की स्थिति अमुक स्तर तक होगी। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। आज वैश्वीकरण की प्रक्रिया में हर तरह के देश धनी, गरीब, आधुनिक, परंपरा प्रधान, सभी अन्धाधुन्ध शामिल हो रहे हैं मानों यही विकास का एक मात्र रास्ता है। भागीदारी का धनी और गरीब देशों पर अलग-अलग तरह का असर पड रहा है। कई विचारक इसे प्रछन्न नव साम्राज्यवाद 'नियो इम्पीरियलिज्म' के आगाज के रूप में देखते हैं जिसमें संपन्न देश एक नए तरह के उपनिवेश बना रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ (एमएनसी) इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं जिनमें अधिकांश पूंजी धनी देशों के उद्योगों की होती हैं। इनके लाभ भी स्वभावत: उन्हीं को अधिक मिलते हैं। वैश्वीकरण के कुछ और भी प्रभाव दिखते हैं जो मीडिया, फैशन, उपभोक्ता - व्यवहार के रूप में देखे जा सकते हैं। मैक्डोनाल, केन्टकी चिकिन फ्राई (केएफसी), पिज्जा, पेप्सी, कोका कोला आदि के अतिरिक्त सौंदर्य प्रसाधनों के तमाम ब्रैंड जिस तरह भारतीय बांजार में छा रहे हैं और यहां के उपभोक्ताओं की रुचि, पसन्द और जरूरतों को गढ रहे हैं। इनका आक्रामक विज्ञापन किसी से छिपा नहीं है। इसके फलस्वरूप इनकी मांग दिनों दिन बढती ही जा रही है। इन सबके बीच एक वैभव और सम्पन्नता की संस्कृति पनप रही है। जिसके नीचे की जमीन खिसक रही है। सरलता, सहजता, आत्मनिर्भरता, अपरिग्रह जैसे भारतीय जीवन मूल्य पृष्ठभूमि में खिसकते जा रहे हैं। गरीबी निरपेक्ष न हो कर एक सापेक्ष अवधारणा है। रोटी, कपंडा, मकान, शिक्षा तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से हीन स्थिति में रहना गरीबी का द्योतक है। पर हम अपनी आर्थिक स्थिति को दूसरों के साथ तुलना करके देखते हैं और अपने को तुलनात्मक रूप से कम आंक कर गरीब अनुभव करते हैं। गरीबी की स्थिति इस तरह हमेशा ही बनी रहती है। 'पर गरीबी वास्तविकता भी है और मनोभाव भी।' सामाजिक यथार्थ की दृश्टि से गरीबी की वास्तविकता ही महत्वपूर्ण है जिसमें रोटी, कपड़ा और मकान की कमी सदियों से से महसूस की जाती है। भारत में गरीबी की स्थिति में सुधार हुआ है पर गरीबी और अमीरी के बीच की खाई और भी गहराती जा रही है जो गरीबी का मनोभाव तीव्र करती है। साथ ही पारंपरिक आजीविका के आधारों के बदलने के साथ-साथ सामाजिक ढांचा भी बदल रहा है। सरकारी नीतियां धीरे-धीरे निजी क्षेत्र को प्रमुखता दे रही हैं। उदारीकरण तथा निजीकरण की प्रक्रिया जिस गति से बढ रही है। इसके फलस्वरूप आम आदमियों के लिए श्क्षिा और स्वास्थ्य की सरकारी व्यवस्था दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है। एक तरह सामाजिक सुरक्षा का कवच दुर्बल होता जा रहा है और इसका असर गरीबों की स्थिति पर बुरा असर पड रहा है। गरीब, सामाजिक दृश्टि से हाशिए पर होते हैं और उनके लिए मानव अधिकार की स्थापना के मार्ग में अनेक रोडे होते हैं। ऊपरी तबके के लोग गरीबों के हक के साथ छेडख़ानी करते है। उन्हें पारिश्रमिक भी कम मिलता है और शिक्षा आदि में उनकी भागीदारी भी कम होती है। मानव अधिकार के सूचकांक पर यदि ध्यान करें तो वे बहुत नीचे आते हैं। उनके जायज हक उन्हें नहीं मिलते और प्राय: उनकी अवहेलना होती रहती है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में गरीबी का स्थान नहीं है। वैश्वीकरण सामाजिक विविधता के प्रति संवेदनशील नहीं है। भारतीय समाज और यहां की व्यवस्था वस्तुत: एक निर्णायक बिन्दु पर स्थित है जहां पर यह तय करना होगा कि वैश्वीकरण किस रूप में और कितने संतुलन के साथ स्वीकार किया जाए। इसे संतुलित रूप में ही स्वीकार करना हितकर होगा। भारत में गरीबी को मानव अधिकार के संदर्भ में आलोचनात्मक रूप से परखने के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर संवाद की महती आवश्यकता है। तभी हम अपने संसाधनों तथा सांस्कृतिक बनावट के मुताबित नए ढंग से परिभाषित कर उसे असली जामा पहनाने में सक्षम हो सकेंगे। (डॉ0 एस0 के0 शुक्ल) 521-ए, टाईप -ढ्ढङ्क सेक्टर - 3, आर.के.पुरम नई दिल्ली - 110022 |
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