Saturday, 14 April 2012 10:38 |
निरंकार सिंह इसमें संदेह नहीं कि किसी भी शासन-व्यवस्था की सफलता उसकी समुचित आय पर निर्भर करती है। राजनीति शास्त्र के विचारकों ने कोष की आवश्यकता और महत्त्व को रेखांकित करने के साथ ही कोष के निमित्त धन-संग्रह करने के संबंध में भी नीति प्रतिपादित की है। कोष भरने का प्रमुख साधन कर-ग्रहण माना गया है। पर कर लेने के लिए राजा स्वतंत्र नहीं था। चूंकि राज-कर का प्रत्यक्ष संबंध प्रजा से था, इसलिए धर्मशास्त्रों में राज-कर निर्धारित करने के सिद्धांत प्रतिपादित किए गए थे। कौटिल्य ने भी प्रजा से कर लेने के संबंध में राजा की स्वतंत्रता का विरोध किया है। लोकतंत्र में राजा की जगह सरकार कर लगाती है। कौटिल्य के अनुसार, प्रजा ने कर के रूप में एक निश्चित भाग अपने राजा को देना निर्धारित किया। बदले में राजा ने प्रजा के कल्याण का भार अपने ऊपर लिया। यह कर राजा का वेतन था। इसीलिए राजा को प्रजा का वेतनभोगी सेवक माना गया है। 'अर्थशास्त्र' में कहा गया है कि प्रजा ने धान्य या कृषि उपज का छठा अंश, विक्रय-द्रव्य का दसवां अंश और स्वर्ण राजा को देना निश्चित किया। पर यह आवश्यक था कि राजा अपने कर्तव्य की पूर्ति विधिवत करे। अन्यथा वह अपने इस वेतन के अधिकार से वंचित समझा जाएगा। शुक्रनीति में भी राजा के निर्वाह के लिए प्रजा द्वारा उचित अंश देने का उल्लेख मिलता है। कर के रूप में वेतन ग्रहण करने के सिद्धांत का प्रतिपादन पुराण में भी किया गया है। कर के संबंध में दूसरा सिद्धांत यह बताया गया है कि कर उचित समय और स्थान के अनुसार कर लिया जाना चाहिए। कौटिल्य ने किसी उद्योग या आय से संबद्ध कार्य के प्रारंभ में ही उस पर कर लगाने का निषेध किया है, क्योंकि अगर प्रारंभ से ही कर लगा दिया जाएगा तो उसमें वृद्धि होना कठिन हो जाएगा। अगर उस व्यवसाय के संपन्न हो जाने पर कर लगाया जाएगा तो वह किसी हानि के बिना कर देने में समर्थ हो सकेगा। पर यूपीए सरकार द्वारा इतना अधिक कर लगाए जाने के बावजूद अर्थव्यवस्था संकट में है। सरकार के अनुमान के अनुसार, पिछले वित्तवर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर महज 6.9 फीसद थी, जो 2010-11 की 8.4 फीसद विकास दर की तुलना में बहुत कम है। महंगाई दर सात फीसद से ऊपर, बेहद चिंताजनक स्तर पर बनी हुई है। एक साल के दौरान नीतिगत फैसले लेने में नाकामी और भ्रष्टाचार के कारण निवेशकों का मनोबल गिर गया है। इससे यह वास्तविक खतरा पैदा हो गया है कि कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर नौ-दस फीसद के ऊंचे स्तर को छूने की जगह लुढ़क कर छह से सात फीसद के बीच न झूलती रह जाए। ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में तुरंत तेजी लाने की जरूरत है। दो फैसले इसमें मददगार साबित हो सकते हैं। एक, पूंजी बाजार को उदार बनाने के लिए उपाय करना, और दूसरा, राजकोषीय घाटे में अच्छी-खासी कमी लाना। पिछले दशक के मध्य में भारत की विकास दर नौ फीसद थी, तब वैश्विक अर्थव्यवस्था में तेजी का माहौल था। अगले पांच वर्षों में विकास दर में इस तरह की तेजी की संभावना नहीं दिखती। भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ने से रोकने वाली बुनियादी समस्याओं को सुलझाने के लिए घरेलू मोर्चे पर गंभीर कोशिशें करनी होंगी। श्रम को प्रोत्साहन देने वाले उद्योग, कृषि, बिजली, सड़कों, कुशल कर्मियों और खाद्य सबसिडी जैसे अहम मसलों को बजट आबंटनों से नहीं सुलझाया जा सकता। नीतियों, नियमों, प्रोत्साहन और नतीजे देने वाली व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन और सुधारों की दूसरी लहर से ही इन महत्त्वपूर्ण सेक्टरों को उस जाल से निकाला जा सकता है जिसमें वे कई दशकों से उलझे हुए हैं। लेकिन वित्तमंत्री खुद एक जाल में उलझ सकते हैं। राजनीतिक माहौल सुधारों की प्रक्रिया लागू होने के लिए अनुकूल नहीं है। दरअसल, अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को लोकलुभावन योजनाओं के चक्रव्यूह से निकलना होगा जो भारी धनराशि बट््टे खाते में डाल देती हैं। इसका अधिकतर हिस्सा भ्रष्ट राजनीतिकों, अधिकारियों, ठेकेदारों और दलालों की जेब में चला जाता है। यही कारण है कि गांवों और गरीबों की दशा में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आ पाता और इन योजनाओं का भार भी जनता को उठाना पड़ता है। |
Saturday, April 14, 2012
करों का कारवां
करों का कारवां
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