Thursday, 19 April 2012 11:05 |
सत्येंद्र रंजन निर्वाचित राजनेताओं को इतने महत्त्वपूर्ण कार्य से अलग रखना क्या लोकतांत्रिक राजनीति के प्रति अपमान के भाव को जाहिर नहीं करता? इसी तरह सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल पुलिस आॅफिसर्स (एसपीओ) की नियुक्ति को असंवैधानिक करार दिया। यह फैसला व्यापक परिणामों वाला था। बाद में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सिर्फ छत्तीसगढ़ के संदर्भ में है। यहां एक बार फिर यह सवाल उठता है कि नीति बनाना और लागू करना किसके अधिकार क्षेत्र में आता है? नदियों को जोड़ने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से विचलित लोगों से यह प्रश्न है कि ये दोनों फैसले उन निर्णयों में शामिल हैं या नहीं, जिनसे सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी 'प्रशंसा, सम्मान और आभार' हासिल किया? अगर काले धन के मामले में न्यायपालिका व्यापक अधिकारों वाला एक विशेष जांच दल बनवा सकती है, या एसपीओ नियुक्त करने के कार्यपालिका के अधिकार को रद्द कर सकती है, तो वह नदियों को जोड़ने के मामले में विशेष समिति बना कर उसके तहत इस परियोजना को लागू करने का आदेश क्यों नहीं दे सकती? अगर काले धन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जनतांत्रिक चेतना विचलित नहीं हुई, तो नदी जोड़ योजना के मामले में उसके विचलन की कोई लोकतांत्रिक साख क्यों होनी चाहिए? ये कठिन प्रश्न हैं, लेकिन भारतीय राज्य-व्यवस्था अभी विकास-क्रम के जिस मुकाम पर है, उसमें बेहद अहम हैं। अगर संस्थाओं, उनकी भूमिका और उनके अधिकार क्षेत्र के बारे में हमारी प्रतिक्रिया दूरगामी दृष्टि से नहीं, बल्कि फौरी फायदे या नुकसान की भावना से तय होती हो, तो उसकी कोई व्यापक प्रासंगिकता नहीं हो सकती। आखिर इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि जब न्यायपालिका का फैसला आपके पक्ष में हो, तो आप उसके प्रशंसक और आभारी हो जाएं, लेकिन जब निर्णय आपके अनुकूल न आए, तो आपको न्यायपालिका के अधिकारों की परिधि याद आ जाए? दरअसल, यही नजरिया जिम्मेदार है, जिस कारण देश में अनेक मामलों में न्याय का विमर्श राजनीति के दायरे से निकल कर अदालतों के कमरों में सीमित हो गया है। इससे प्रशासनिक और नीतिगत मामलों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप की जन-वैधता मजबूत होती गई है और उसी अनुपात में विधायिका और कार्यपालिका की साख घटती गई है। जबकि यह संवैधानिक मंसूबे के बिल्कुल खिलाफ है। यह दलील अक्सर दी जाती है कि विधायिका और सरकारें अपना काम ठीक से नहीं करतीं, इसलिए अदालतों को उनके कार्य-क्षेत्र में दखल देना पड़ता है। अगर इस तर्क को पलट कर कहा जाए कि न्यायपालिका मुकदमों का शीघ्र निपटारा करने में विफल रही है, लिहाजा विधायिका या सरकारों को न्याय का काम अपने हाथ में ले लेना चाहिए, तो क्या इसे स्वीकार किया जाएगा? यहां कहने का तात्पर्य बस इतना है कि शक्तियों का पृथक्करण संवैधानिक व्यवस्था की एक सुविचारित योजना है। इसमें असंतुलन लोकतंत्र के व्यापक और दीर्घकालिक हित में नहीं है। अगर शासन का कोई अंग अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता तो उसका समाधान जनता का लोकतांत्रिक दबाव ही हो सकता है। यह हल तो कतई नहीं है कि एक अंग दूसरे की जिम्मेदारियां खुद पर लेता चला जाए, भले उसमें उन जिम्मेदारियों को निभाने की क्षमता न हो और न ही उसकी जवाबदेही तय करने का कोई तरीका हो। भारतीय न्यायपालिका ने संविधान के बुनियादी ढांचे, मौलिक अधिकारों की व्याख्या और रक्षा की भूमिका से लेकर लगभग हर संवैधानिक पक्ष या सार्वजनिक विषय को अपने दायरे में ले लिया है। इसमें कई बार उसके फैसले जन-हित में होते हैं, लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी होता है। यहां यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि जन-हित कोई निरपेक्ष धारणा नहीं है, बल्कि यह हर वर्ग और व्यक्ति की अपनी समझ पर निर्भर करता है। ऐसे में किसी को काले धन पर फैसला जन-हित में महसूस हो सकता है, जबकि नदीजोड़ योजना के मामले में कोर्ट का आदेश उसे जन-हित के खिलाफ मालूम पड़ सकता है। लेकिन यह उसकी मनोगत प्रतिक्रिया या धारणा है। जबकि संवैधानिक व्यवस्था का संबंध ठोस ढांचे से है। इसीलिए अगर यह समझ है कि अदालत किसी नीतिगत मामले में फैसला नहीं दे सकती, कानून बनाने का हक उसे नहीं है, और वह प्रशासन या उसकी निगरानी की जिम्मेदारी खुद पर नहीं ले सकती, तो ऐसे हर मामले में उसकी कोशिश या दखल की आलोचना होनी चाहिए। विधायिका और सरकारें अगर अपना दायित्व निभाने में विफल हैं, तो यह राजनीति और सार्वजनिक दायरे का विषय है। वहां की गड़बड़ी को कोर्ट से ठीक कराने की कोशिश लंबे समय में समस्याएं ही पैदा कर सकती है। इसीलिए किन फैसलों के आधार पर कोर्ट की प्रशंसा, सम्मान और आभार जताने में अपने शब्द जोड़े जाएं, इसके मानदंड तय करने की आज सख्त जरूरत है। जो बात इस संबंध में जोर देकर कही जानी चाहिए वह यह है कि ये मानदंड अपनी सुविधा से तय नहीं किए जाने चाहिए। |
Thursday, April 19, 2012
लोकतंत्र की लक्ष्मण रेखाएं
लोकतंत्र की लक्ष्मण रेखाएं
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