Thursday, April 19, 2012

लोकतंत्र की लक्ष्मण रेखाएं

लोकतंत्र की लक्ष्मण रेखाएं

Thursday, 19 April 2012 11:05

सत्येंद्र रंजन 
जनसत्ता 19 अप्रैल, 2012: सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले नदियों को जोड़ने की परियोजना पर अमल करने का आदेश सरकार को दिया। यह एक विवादास्पद परियोजना है। लेकिन हम यहां बात परियोजना की व्यावहारिकता या पर्यावरण पर उसके संभाव्य प्रभावों से जुडेÞ विवाद की नहीं करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से एक मुद्दा और उठा। वही यहां हमारी चर्चा का विषय है। 
उस पर गौर करने के लिए अंग्रेजी की एक मशहूर पत्रिका के संपादकीय के इस हिस्से पर गौर करते हैं, जो अपने वामपंथी विचारों के लिए जानी जाती है- ''यह आदेश न सिर्फ अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और उन दसियों लाख लोगों के लिए एक भीषण दुर्घटना है जो सैकड़ों परियोजनाओं से विस्थापित होंगे, बल्कि अंतर-राज्यीय संबंधों और संघीय व्यवस्था के लिए भी इसका वैसा ही परिणाम होगा। उससे भी ज्यादा और अत्यावश्यक रूप से यह हमारे गणतंत्र के बुनियादी ढांचे के लिए एक हादसा है। इस बड़े पैमाने की परियोजना- जिसका व्यापक प्रभाव देश में जीवन के हर पहलू पर पडेÞगा, जो व्यापक अर्थ में केंद्र और राज्य सरकारों और देश के विभिन्न विधानमंडलों के खिलाफ जाता है, और जिसके गंभीर अंतरराष्ट्रीय परिणाम होंगे- के मामले में आदेश जारी करने में सुप्रीम कोर्ट खुद को सक्षम पाता है, यह जाहिर करता है कि इस मामले में किस हद तक न्यायिक अतिक्रमण हुआ है।'' (इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटकल वीकली, 17 मार्च 2012)
रामास्वामी आर अय्यर देश के जाने-माने जल विशेषज्ञ हैं और सरकार में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने सामाजिक आंदोलनों से खुद को जोड़ा। उनकी बात गंभीरता से सुनी जाती है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर उन्होंने लिखा- ''हाल के समय में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक उल्लेखनीय निर्णयों से हमारी प्रशंसा, सम्मान और आभार हासिल किया है। दुखद है कि अब उसने नदियों को जोड़ने की परियोजना पर एक ऐसा असाधारण निर्णय दिया है, जिससे हममें से कई लोगों में भयाकुलता और निराशा पैदा हुई है।'' 
इसके आगे अय्यर ने फैसले की व्याख्या की- ''क्या प्रस्तावित विशेष समिति और मंत्रिमंडल परियोजना की जांच करने और इस निष्कर्ष पर आने को स्वतंत्र हैं कि यह अस्वीकार्य है और इसे अवश्य नकार दिया जाना चाहिए? नहीं, उन्हें परियोजना पर अमल करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश है और अगर ऐसा करने में वे नाकाम रहे तो उन्हें अवमानना की कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता है। परियोजना पर निर्णय करने का अधिकार सरकार के हाथ से ले लिया गया है, इसका इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट ने किया है, सरकार और योजना आयोग की हैसियत अधीनस्थ कार्यालयों या सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर अमल करने वाली एजेंसियों की तरह बना दी गई है।'' (द हिंदू, 2 मार्च, 2012)
भारतीय संविधान के तहत शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था से परिचित और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के महत्त्व को समझने वाले किसी व्यक्ति में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर वैसी प्रतिक्रिया ही हो सकती है, जैसी उपर्युक्त टिप्पणियों में दिखी है। इसलिए इनमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन समस्या उस राय में है, जो रामास्वामी अय्यर की टिप्पणी की शुरुआती पंक्तियों में जाहिर हुई है। यानी यह कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाल के कई निर्णयों से उन जैसे लोगों की 'प्रशंसा, सम्मान और आभार' हासिल किया है। 
इन पंक्तियों के लेखक ने रामास्वामी अय्यर की राय और लेखों को हमेशा गंभीरता से लिया है और उनके प्रति गहरे सम्मान की भावना रखता है। इसलिए आगे कही जाने वाली बातों को उनकी निजी आलोचना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वैसे भी उनकी राय का यहां उल्लेख इसलिए किया गया है, क्योंकि वह समाज में मौजूद सोच की एक धारा की नुमाइंदगी करती है। ऐसी ही राय की अभिव्यक्ति चर्चित इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के इस मुद्दे पर जारी एक साझा बयान में भी हुई। चूंकि यह धारा खुद को मुख्यधारा की राजनीति से अलग जन आंदोलनों या व्यापक सार्वजनिक हित की प्रतिनिधि मानती है, इसलिए उसकी प्रतिक्रिया पर इस संदर्भ में जरूर विचार किया जाना चाहिए।
समस्या यह है कि इस धारा की प्रतिक्रिया पर अक्सर अल्पकालिकता या फौरी फायदे की भावना हावी रहती है। इसलिए यह संदेह करने का पर्याप्त आधार है कि चूंकि नदियों को जोड़ने का विचार पर्यावरण संरक्षण या सार्वजनिक हित की उनकी अपनी समझ के खिलाफ है और सुप्रीम कोर्ट ने इस परियोजना पर अमल का आदेश दिया है, इसलिए अचानक उन्हें कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारों की फिक्र हुई है। वरना, न्यायपालिका द्वारा शासन के इन अंगों के अधिकार-क्षेत्रों का अतिक्रमण एक परिघटना बना हुआ है। यह अनेक वर्षों से जारी है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई आदेश दिए, जिन्हें इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ज्यादा विस्तार में गए बिना यहां काले धन के बारे में जारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गौर कर लेना उचित होगा।
राम जेठमलानी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विदेशों में जमा काले धन के जटिल मुद्दे पर फैसला दिया। कोर्ट ने सरकार द्वारा गठित उच्चस्तरीय समिति (जिसमें वित्त एवं सुरक्षा संबंधी अनेक मंत्रालयों के सचिव शामिल हैं) का विशेष जांच दल के रूप में पुनर्गठन किया। आदेश दिया गया कि उसमें सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व जज शामिल किए जाएं (जो दल की अध्यक्षता करेंगे), और इस जांच दल को अनेक तरह के कार्य करने के लिए अधिकार-संपन्न कर   दिया गया। 

इस दल को सिर्फ विदेशों में जमा काले धन के मामलों में जांच और अभियोग चलाने का ही अधिकार नहीं दिया गया, बल्कि उन्हें आवश्यक संस्थागत ढांचा तैयार करने की कार्य-योजना बनाने को भी कहा गया, जिससे काले धन के खिलाफ मजबूती से कार्रवाई हो सके। यानी नीति और संस्थागत ढांचा तैयार करने की जिम्मेदारी अ-निर्वाचित नौकरशाहों और पूर्व जजों को सौंप दी गई। 
निर्वाचित राजनेताओं को इतने महत्त्वपूर्ण कार्य से अलग रखना क्या लोकतांत्रिक राजनीति के प्रति अपमान के भाव को जाहिर नहीं करता? इसी तरह सलवा जुडूम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल पुलिस आॅफिसर्स (एसपीओ) की नियुक्ति को असंवैधानिक करार दिया। यह फैसला व्यापक परिणामों वाला था। बाद में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सिर्फ छत्तीसगढ़ के संदर्भ में है। यहां एक बार फिर यह सवाल उठता है कि नीति बनाना और लागू करना किसके अधिकार क्षेत्र में आता है?  
नदियों को जोड़ने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से विचलित लोगों से यह प्रश्न है कि ये दोनों फैसले उन निर्णयों में शामिल हैं या नहीं, जिनसे सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी 'प्रशंसा, सम्मान और आभार' हासिल किया? अगर काले धन के मामले में न्यायपालिका व्यापक अधिकारों वाला एक विशेष जांच दल बनवा सकती है, या एसपीओ नियुक्त करने के कार्यपालिका के अधिकार को रद्द कर सकती है, तो वह नदियों को जोड़ने के मामले में विशेष समिति बना कर उसके तहत इस परियोजना को लागू करने का आदेश क्यों नहीं दे सकती? 
अगर काले धन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जनतांत्रिक चेतना विचलित नहीं हुई, तो नदी जोड़ योजना के मामले में उसके विचलन की कोई लोकतांत्रिक साख क्यों होनी चाहिए? ये कठिन प्रश्न हैं, लेकिन भारतीय राज्य-व्यवस्था अभी विकास-क्रम के जिस मुकाम पर है, उसमें बेहद अहम हैं। अगर संस्थाओं, उनकी भूमिका और उनके अधिकार क्षेत्र के बारे में हमारी प्रतिक्रिया दूरगामी दृष्टि से नहीं, बल्कि फौरी फायदे या नुकसान की भावना से तय होती हो, तो उसकी कोई व्यापक प्रासंगिकता नहीं हो सकती। आखिर इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि जब न्यायपालिका का फैसला आपके पक्ष में हो, तो आप उसके प्रशंसक और आभारी हो जाएं, लेकिन जब निर्णय आपके अनुकूल न आए, तो आपको न्यायपालिका के अधिकारों की परिधि याद आ जाए?
दरअसल, यही नजरिया जिम्मेदार है, जिस कारण देश में अनेक मामलों में न्याय का विमर्श राजनीति के दायरे से निकल कर अदालतों के कमरों में सीमित हो गया है। इससे प्रशासनिक और नीतिगत मामलों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप की जन-वैधता मजबूत होती गई है और उसी अनुपात में विधायिका और कार्यपालिका की साख घटती गई है। जबकि यह संवैधानिक मंसूबे के बिल्कुल खिलाफ है। यह दलील अक्सर दी जाती है कि विधायिका और सरकारें अपना काम ठीक से नहीं करतीं, इसलिए अदालतों को उनके कार्य-क्षेत्र में दखल देना पड़ता है। अगर इस तर्क को पलट कर कहा जाए कि न्यायपालिका मुकदमों का शीघ्र निपटारा करने में विफल रही है, लिहाजा विधायिका या सरकारों को न्याय का काम अपने हाथ में ले लेना चाहिए, तो क्या इसे स्वीकार किया जाएगा? 
यहां कहने का तात्पर्य बस इतना है कि शक्तियों का पृथक्करण संवैधानिक व्यवस्था की एक सुविचारित योजना है। इसमें असंतुलन लोकतंत्र के व्यापक और दीर्घकालिक हित में नहीं है। अगर शासन का कोई अंग अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता तो उसका समाधान जनता का लोकतांत्रिक दबाव ही हो सकता है। यह हल तो कतई नहीं है कि एक अंग दूसरे की जिम्मेदारियां खुद पर लेता चला जाए, भले उसमें उन जिम्मेदारियों को निभाने की क्षमता न हो और न ही उसकी जवाबदेही तय करने का कोई तरीका हो।
भारतीय न्यायपालिका ने संविधान के बुनियादी ढांचे, मौलिक अधिकारों की व्याख्या और रक्षा की भूमिका से लेकर लगभग हर संवैधानिक पक्ष या सार्वजनिक विषय को अपने दायरे में ले लिया है। इसमें कई बार उसके फैसले जन-हित में होते हैं, लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी होता है। यहां यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि जन-हित कोई निरपेक्ष धारणा नहीं है, बल्कि यह हर वर्ग और व्यक्ति की अपनी समझ पर निर्भर करता है। ऐसे में किसी को काले धन पर फैसला जन-हित में महसूस हो सकता है, जबकि नदीजोड़ योजना के मामले में कोर्ट का आदेश उसे जन-हित के खिलाफ मालूम पड़ सकता है। लेकिन यह उसकी मनोगत प्रतिक्रिया या धारणा है। जबकि संवैधानिक व्यवस्था का संबंध ठोस ढांचे से है। 
इसीलिए अगर यह समझ है कि अदालत किसी नीतिगत मामले में फैसला नहीं दे सकती, कानून बनाने का हक उसे नहीं है, और वह प्रशासन या उसकी निगरानी की जिम्मेदारी खुद पर नहीं ले सकती, तो ऐसे हर मामले में उसकी कोशिश या दखल की आलोचना होनी चाहिए। 
विधायिका और सरकारें अगर अपना दायित्व निभाने में विफल हैं, तो यह राजनीति और सार्वजनिक दायरे का विषय है। वहां की गड़बड़ी को कोर्ट से ठीक कराने की कोशिश लंबे समय में समस्याएं ही पैदा कर सकती है। इसीलिए किन फैसलों के आधार पर कोर्ट की प्रशंसा, सम्मान और आभार जताने में अपने शब्द जोड़े जाएं, इसके मानदंड तय करने की आज सख्त जरूरत है। जो बात इस संबंध में जोर देकर कही जानी चाहिए वह यह है कि ये मानदंड अपनी सुविधा से तय नहीं किए जाने चाहिए।

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