Tuesday, 10 April 2012 11:07 |
आनंद कुमार अर्थशास्त्री होने के नाते लोहिया के चिंतन में बहुत बड़ा पक्ष आर्थिक नवनिर्माण का था। बगैर लाभ की खेती से लगान खत्म करने से लेकर खेती और उद्योग के दाम में एक संतुलित अनुपात रखने, खर्च पर पर सीमा लगा कर पूंजी-संचय और पूंजी-निर्माण करने तक उन्होंने एक वैकल्पिक आर्थिक रणनीति देश के सामने प्रस्तुत की थी। उन्होंने साठ साल पहले ही यह सवाल उठा दिया कि किसान बनने में जो साधन की जरूरत है उसे उपलब्ध कराने में राज्यसत्ता उदासीन रही है, इसलिए किसान का बेटा किसान नहीं बनना चाहता। लोहिया ने उस समय ही अपनी वरीयताओं में पानी को शामिल कर लिया था- पीने का पानी और सिंचाई का पानी। आज सारे देश में आधी शताब्दी बाद एक जल-नीति की जरूरत महसूस की जा रही है। वर्षा से आए पानी को बचाने से लेकर नदियों को जोड़ कर बाढ़ और सुखाड़ से देश को मुक्त कराने तक की कई तरह की व्यावहारिक और आसमानी योजनाओं की चर्चा हो रही है, लेकिन जल-नीति आज की राजनीति के मुख्य मुद्दों से गायब है। आज के लोहियावादियों को, विशेषतौर पर सत्ता में आए नेतृत्व को देश की जल-नीति के बारे में सोचना ही होगा। आज के भोगवाद के फिसलते माहौल में अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया और अफ्रीका से लेकर एशिया तक, चारों तरफ पूंजी का जोर चल रहा है। आवारा पूंजीवाद का माहौल है। जहां मुनाफा, वहां पूंजी जा रही है, जहां मुनाफा घट रहा है, वहां से पूंजी भाग रही है। ऐसे में पूंजी-निर्माण कैसे हो? भारत में भी कृषि से पूंजी भाग कर उद्योग में जा रही है और उद्योग से भाग कर देश के बाहर भी। टैक्स से पूंजी जमा करने का रास्ता हमें काले धन की ओर ले गया। लोहिया के रास्ते से कमाने की तो छूट रहेगी लेकिन खर्च पर सीमा बांधनी होगी। लोहिया की रक्षा नीति के मुताबिक हमें अपने पड़ोसियों के साथ भाई जैसा बर्ताव करना होगा, लेकिन सीमाओं के बारे में किसी भी तरह की नरमी नहीं रखनी होगी। अगर हम अपने देश की सरहद के बारे में लापरवाही बरतेंगे तो सारी दुनिया में हमारी हैसियत गिरेगी। नेहरू से लेकर वर्तमान सरकार तक, लोहिया की रक्षा नीति को अनदेखा करने के कारण रक्षा का सवाल उलझता जा रहा है। रक्षा नीति में राममनोहर लोहिया की एक बड़ी चिंता राजनीतिक नवनिर्माण की थी, जिसे उन्होंने चौखंबा राज और विश्व सरकार की कल्पना से जोड़ा था। भारत की राजनीति में अब तक की बहस केंद्र और राज्य के संबंधों तक सिमटी हुई है, जिला सरकार के निर्माण को लेकर सभी मौन हैं। जब तक गांव के लोग गांव के जीवन के बारे में अपनी पहल पर निर्णय लेने की क्षमता नहीं रखेंगे और गांवों का महासंघ कस्बों और नगरों को मिला कर जिला सरकार के रूप में सक्रिय नहीं होगा, भारत में सुशासन संभव नहीं है। एक सौ बीस करोड़ लोगों का देश दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, चेन्नई और कोलकाता के ताने-बाने से चलाना अब कठिन हो गया है। इसी का दुष्परिणाम हमारी पुलिस व्यवस्था, कर व्यवस्था, दल व्यवस्था और न्याय व्यवस्था पर है। लोहिया का चौखंबा राज का सपना समांतर तौर पर विश्व सरकार के सपने से भी जुड़ा है। हम अगर आगे की दुनिया को शांति और विकास की दुनिया बनाना चाहते हैं तो हमें विश्व सरकार के बारे में सोचना होगा, जिसमें बालिग मताधिकार के आधार पर चुनी गई गांव की सरकार, जिले की सरकार, प्रदेश की सरकार, देश की सरकार और दुनिया की सरकार की रचना करनी पड़ेगी। आखिरी बात, राममनोहर लोहिया राजनीति को सत्ता की तलाश भर नहीं मानते थे, वे इसे बादशाहत और पैगंबरी का मिलाजुला सपना कहते थे। आज सिद्धांतहीनता की आंधी ने सभी दलों को जड़ से उखाड़ दिया है और सत्ता का अर्थ साधन और संपन्नता की तलाश है। पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा, इसी दुश्चक्र में हमारा जनतंत्र फंस गया है। लोहिया ने आगाह किया था कि रचनात्मक कार्य, सत्याग्रही कार्य और संसदीय कार्य के संतुलित संयोग के बिना राजनीति का बहुत मतलब नहीं रह जाएगा। आज लोहिया के अनुयायियों के एक हिस्से को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ फिर से एक नया रास्ता बनाने का मौका मिला है। लोहिया का कहा और किया इनके लिए कितना उपयोगी है! क्या ये दरिद्रता के दलदल में धंसे हुए विराट भारतीय समाज को मुट्ठी भर लोगों की चौंधिया देने वाली संपन्नता के जरिए भुला देंगे, या गरीबी और गैर-बराबरी के दो पाटों में फंसे हुए तीन चौथाई भारत को और उसी के जरिए शेष रंगीन दुनिया को एक आशा का संकेत दे सकेंगे? |
Wednesday, April 11, 2012
लोहिया की विरासत के मायने
लोहिया की विरासत के मायने
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