Wednesday, April 11, 2012

लोहिया की विरासत के मायने

लोहिया की विरासत के मायने


Tuesday, 10 April 2012 11:07

आनंद कुमार 
जनसत्ता 10 अप्रैल, 2012:  उत्तर प्रदेश के चुनाव में मतदाताओं ने लोहिया का नाम लेने वाली समाजवादी पार्टी के पक्ष में जो स्पष्ट जनादेश दिया है, उससे बहुत-से लोगों में लोहिया की नीतियों, कार्यक्रमों और सपनों के बारे में नई जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। राममनोहर लोहिया भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े सपनों को अपनी राजनीति की मूल पूंजी मानते थे, इसीलिए जब आजादी की लड़ाई पूरी होने के ठीक बाद उनके अपने आंदोलन के बड़े नेताओं ने सत्ता प्रतिष्ठान में प्रवेश के लिए कुछ आत्मघाती समझौते किए, जिनमें भारत और पाकिस्तान का बंटवारा शामिल था, तब लोहिया को अपनी मूल संस्था छोड़ने की प्रेरणा और विवशता, दोनों महसूस हुर्इं। 
आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन जैसे तपे-तपाए कर्मयोगियों के साथ राममनोहर लोहिया ने जो समाजवादी भारत बनाने का सपना देखा, उसमें पहले ही आम चुनाव में जनता का रुझान बड़े व्यापक स्तर पर जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद की कांग्रेस की तरफ हो जाने के कारण एक विषाद का भाव, आत्मविश्वास के अभाव का भाव पैदा हो गया था। फिर अंतर्कलह का दौर चला। बिखराव का सिलसिला आया। ढेर सारे समाजवादी अपने नायकों को छोड़ कर सत्ता की नई मशीन यानी कांग्रेस की तरफ मुड़ गए और कुछ ने राजनीति से विश्राम ही ले लिया। 
राममनोहर लोहिया कई मायनों में अनूठे समाजवादी साबित हुए। क्योंकि उन्होंने बजाय चुनाव के जनसंघर्ष को अपनी राजनीति की जमीन बनाने की कोशिश की। चूंकि गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में उन्होंने अपने को एक समर्थ और असरदार सत्याग्रही बनाने में सफलता प्राप्त की, ग्यारह बार वे अंग्रेजों की जेल में बंद किए गए थे, इसलिए सत्याग्रही समाजवाद की तलाश में उन्होंने सिविल नाफरमानी का रास्ता पकड़ा। सिविल नाफरमानी किस बात के लिए? जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रनायक की नीतियों के खिलाफ कौन-सी वैकल्पिक नीतियों का सिलसिला लोहिया बनाना चाहते थे?
लोहिया के चिंतन में समाजवाद के प्रति किताबी आस्था नहीं थी। मार्क्स और गांधी, दोनों के चिंतन के श्रेष्ठ पक्ष को समेटते हुए वे बीसवीं सदी के स्वाधीन मनुष्य के अनुकूल समाजवाद की कल्पना करते थे, जिसमें जनतंत्र, अहिंसा, विकेंद्रीकरण, समता और संपन्नता लाजिमी तत्त्व थे। आखिर ऐसा समाज किन नीतियों से बनता? लोहिया के चिंतन में छह नीतियों का समन्वय था, जिसे हम क्रमश: भाषा नीति, दाम नीति, जाति नीति, रक्षा नीति, पानी नीति और सत्ता नीति कह सकते हैं। 
उनकी दृष्टि में यह बहुत जरूरी था कि स्वतंत्रता को पूरा करने के लिए हम राज्यसत्ता, व्यापार, प्रशासन और सुरक्षा का काम देसी भाषाओं में चलाएं। अंग्रेजी को वे ज्ञान-विज्ञान के लिए उपयोगी मानते थे, लेकिन जिस तरह से अंग्रेजी का इस्तेमाल भारत का सुविधाप्राप्त वर्ग हथियार के तौर पर करता था, और आम लोगों को सशक्त बनने से रोकने के लिए करता था, उसके खिलाफ उन्होंने अंग्रेजी के बजाय देसी भाषाओं का आंदोलन चलाया और यह उनकी भाषा नीति का सारांश था। 
वैश्वीकरण के दौर में जब आज अंग्रेजी का बल और बढ़ गया है, अंग्रेजी के जानने वाले और बढ़ गए हैं, पूरे देश में निम्न वर्ग और मध्यमवर्ग में अंग्रेजी के वर्चस्व के बारे में कोई बहस नहीं बची है, तब लोहिया की भाषा नीति को लेकर बहुत सारे नए आलोचक और नए निंद्र बन गए हैं। लोहिया भाषा को एक सांस्कृतिक पूंजी मानते थे। संस्कृति और अस्मिता की ढाल मानते थे। लेकिन इसके साथ ही वे जनतंत्र की बुनियाद यानी लोगों की हिस्सेदारी को जरूरी मानते थे। हिस्सेदारी के लिए संसद से लेकर न्यायालय तक एक विदेशी या सामंती भाषा ही माध्यम बने तो फिर वह जनतंत्र कैसा? वहां लोगों की हिस्सेदारी कैसी?
लोहिया की दूसरी नीति, जो समाज में आलोचना का शिकार बनी और बाद के दौर में प्रशंसा का आधार बनी, वह जाति नीति थी। उनकी जाति नीति में पिछड़ों के विशेष अवसर का सूत्र निकला था। उनका मानना था कि योग्यता के आधार पर अवसर सारी दुनिया का चलन है, लेकिन भारत में स्त्रियों समेत नब्बे प्रतिशत लोग अवसर के अभाव में पिछड़ते चले गए हैं। 
अब उनके हाथ में अवसर योग्यता के आधार पर कभी नहीं आने वाला है, क्योंकि वे निरक्षर हैं, निर्धन हैं, आत्मविश्वास-विहीन हैं और कौशल भी उनका करीब-करीब नष्ट हो चुका है। इसलिए अवसर देकर योग्यता पैदा करनी पड़ेगी। पिछड़ों को विशेष अवसर के सिद्धांत में उनके हिसाब से चालीस प्रतिशत अवसर योग्यता के आधार पर और साठ प्रतिशत अवसर विशेष अभाव और वंचना को दूर करने के लिए दिए जाने चाहिए। 
उनकी मान्यता थी कि सभी स्त्रियां पिछड़ी रखी गई हैं इसलिए सभी स्त्रियों को पिछड़ा वर्ग में मानना होगा। आदिवासी समाज, कई हजार साल से हाशिए पर खड़ा है। उसकी जमीन, जायदाद, भाषा, संस्कृति- सबको गैर-आदिवासी समाज ने दबोच रखा है। इसके बाद अनुसूचित जाति के लोग हैं जिन्हें हमने अस्पृश्य कहा, दोषयुक्त माना और अनदेखा किया। एक चौथा वर्ग है बहुत बड़ा, जो कला-कौशल की दृष्टि से, संपत्ति के स्वामित्व की दृष्टि से, राज्यसत्ता में हिस्सेदारी की दृष्टि से वंचित वर्ग में था, जिसे लोहिया ने पिछड़ा वर्ग कहा। पांचवां हिस्सा भारत के सभी अल्पसंख्यकों के बीच में चल रही छिपी जाति व्यवस्था के शिकार अत्यंत पिछड़े अल्पसंख्यकों का है। 
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और शैक्षणिक-सामाजिक दृष्टि से अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जा चुकी है। कुछ व्यवस्थाएं आधी शताब्दी से   ज्यादा समय से चल रही हैं, कुछ व्यवस्थाओं को चलते हुए दो दशक पूरे हो गए हैं। स्त्रियों के आरक्षण का सवाल अभी आधे-अधूरे ढंग से पेश हुआ है। 
पंचायतों में उनको पचास फीसद तक आरक्षण है,लेकिन संसद और विधानसभाओं में उनकी मौजूदगी उनकी जनसंख्या के अनुपात में बीस फीसद से भी कम है। आज जो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक रूपांतरण चल रहा है, जिसे मोटे तौर पर हम जनतंत्रीकरण के नाम से जानते हैं, उसमें आरक्षण की नीति को लेकर इसके लाभार्थियों और विरोधियों, दोनों में नई दृष्टियां पनपी हैं, जिनमें लोहिया-दृष्टि से आगे जाने का आग्रह है। 

आरक्षण में आरक्षण आज के पिछड़े वर्गों की मुख्यधारा का स्वर बन गया है। क्या लोहिया आरक्षण में आरक्षण के पक्ष में होते, क्या वे आरक्षण को संविधान में प्रदत्त व्यवस्था से आगे ले जाने के लिए कहते या वे आरक्षण को अगले पांच से पंद्रह वर्ष के अंदर समाप्त करने के लिए कहते? ये सवाल भारत की जाति व्यवस्था के सच को जानने वाले और न जानने वाले, सबके मन में हैं। लोहिया के वारिसों को लोहिया की समाज नवनिर्माण की नीति- जिससे जाति टूटे और समाज जुडेÞ- पर काम करना पड़ेगा। 
अर्थशास्त्री होने के नाते लोहिया के चिंतन में बहुत बड़ा पक्ष आर्थिक नवनिर्माण का था। बगैर लाभ की खेती से लगान खत्म करने से लेकर खेती और उद्योग के दाम में एक संतुलित अनुपात रखने, खर्च पर पर सीमा लगा कर पूंजी-संचय और पूंजी-निर्माण करने तक उन्होंने एक वैकल्पिक आर्थिक रणनीति देश के सामने प्रस्तुत की थी। उन्होंने साठ साल पहले ही यह सवाल उठा दिया कि किसान बनने में जो साधन की जरूरत है उसे उपलब्ध कराने में राज्यसत्ता उदासीन रही है, इसलिए किसान का बेटा किसान नहीं बनना चाहता। 
लोहिया ने उस समय ही अपनी वरीयताओं में पानी को शामिल कर लिया था- पीने का पानी और सिंचाई का पानी। आज सारे देश में आधी शताब्दी बाद एक जल-नीति की जरूरत महसूस की जा रही है। वर्षा से आए पानी को बचाने से लेकर नदियों को जोड़ कर बाढ़ और सुखाड़ से देश को मुक्त कराने तक की कई तरह की व्यावहारिक और आसमानी योजनाओं की चर्चा हो रही है, लेकिन जल-नीति आज की राजनीति के मुख्य मुद्दों से गायब है। आज के लोहियावादियों को, विशेषतौर पर सत्ता में आए नेतृत्व को देश की जल-नीति के बारे में सोचना ही होगा। 
आज के भोगवाद के फिसलते माहौल में अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया और अफ्रीका से लेकर एशिया तक, चारों तरफ पूंजी का जोर चल रहा है। आवारा पूंजीवाद का माहौल है। जहां मुनाफा, वहां पूंजी जा रही है, जहां मुनाफा घट रहा है, वहां से पूंजी भाग रही है। ऐसे में पूंजी-निर्माण कैसे हो? भारत में भी कृषि से पूंजी भाग कर उद्योग में जा रही है और उद्योग से भाग कर देश के बाहर भी। टैक्स से पूंजी जमा करने का रास्ता हमें काले धन की ओर ले गया। लोहिया के रास्ते से कमाने की तो छूट रहेगी लेकिन खर्च पर सीमा बांधनी होगी। 
लोहिया की रक्षा नीति के मुताबिक हमें अपने पड़ोसियों के साथ भाई जैसा बर्ताव करना होगा, लेकिन सीमाओं के बारे में किसी भी तरह की नरमी नहीं रखनी होगी। अगर हम अपने देश की सरहद के बारे में लापरवाही बरतेंगे तो सारी दुनिया में हमारी हैसियत गिरेगी। नेहरू से लेकर वर्तमान सरकार तक, लोहिया की रक्षा नीति को अनदेखा करने के कारण रक्षा का सवाल उलझता जा रहा है। रक्षा नीति में राममनोहर लोहिया की एक बड़ी चिंता राजनीतिक नवनिर्माण की थी, जिसे उन्होंने चौखंबा राज और विश्व सरकार की कल्पना से जोड़ा था। भारत की राजनीति में अब तक की बहस केंद्र और राज्य के संबंधों तक सिमटी हुई है, जिला सरकार के निर्माण को लेकर सभी मौन हैं। जब तक गांव के लोग गांव के जीवन के बारे में अपनी पहल पर निर्णय लेने की क्षमता नहीं रखेंगे और गांवों का महासंघ कस्बों और नगरों को मिला कर जिला सरकार के रूप में सक्रिय नहीं होगा, भारत में सुशासन संभव नहीं है। एक सौ बीस करोड़ लोगों का देश दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, चेन्नई और कोलकाता के ताने-बाने से चलाना अब कठिन हो गया है। 
इसी का दुष्परिणाम हमारी पुलिस व्यवस्था, कर व्यवस्था, दल व्यवस्था और न्याय व्यवस्था पर है। लोहिया का चौखंबा राज का सपना समांतर तौर पर विश्व सरकार के सपने से भी जुड़ा है। हम अगर आगे की दुनिया को शांति और विकास की दुनिया बनाना चाहते हैं तो हमें विश्व सरकार के बारे में सोचना होगा, जिसमें बालिग मताधिकार के आधार पर चुनी गई गांव की सरकार, जिले की सरकार, प्रदेश की सरकार, देश की सरकार और दुनिया की सरकार की रचना करनी पड़ेगी। 
आखिरी बात, राममनोहर लोहिया राजनीति को सत्ता की तलाश भर नहीं मानते थे, वे इसे बादशाहत और पैगंबरी का मिलाजुला सपना कहते थे। आज सिद्धांतहीनता की आंधी ने सभी दलों को जड़ से उखाड़ दिया है और सत्ता का अर्थ साधन और संपन्नता की तलाश है। पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा, इसी दुश्चक्र में हमारा जनतंत्र फंस गया है। लोहिया ने आगाह किया था कि रचनात्मक कार्य, सत्याग्रही कार्य और संसदीय कार्य के संतुलित संयोग के बिना राजनीति का बहुत मतलब नहीं रह जाएगा। 
आज लोहिया के अनुयायियों के एक हिस्से को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ फिर से एक नया रास्ता बनाने का मौका मिला है। लोहिया का कहा और किया इनके लिए कितना उपयोगी है! क्या ये दरिद्रता के दलदल में धंसे हुए विराट भारतीय समाज को मुट्ठी भर लोगों   की चौंधिया देने वाली संपन्नता के जरिए भुला देंगे, या गरीबी और गैर-बराबरी के दो पाटों में फंसे हुए तीन चौथाई भारत को और उसी के जरिए शेष रंगीन दुनिया को एक आशा का संकेत दे सकेंगे?

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