Wednesday, 11 April 2012 10:48 |
अजेय कुमार इन तमाम तथ्यों के बावजूद हमारे अधिकतर बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों ने 'समाजवाद फेल हो गया है' के तर्क के आगे घुटने टेक दिए हैं। और तो और, कई पूर्व कम्युनिस्ट और वामपंथी मित्र, जिन्होंने अपनी जवानी में समाजवाद का सपना देखा था और उसके लिए लाठी-गोली खाई थी, आज अपने आप को ऐसे मुकाम पर पाते हैं जब उनमें से अधिकतर को निराशा और खौफ के अलावा कोई भविष्य नहीं दिखता। वे इस कदर थके हुए लगते हैं कि रफी का वह गाना 'कोई सागर दिल को बहलाता नहीं' याद आता है। उनका मन है कि अब उन्हें कोई एक ऐसी शांत पहाड़ी पर बैठा दे जहां उन्हें केवल आराम करना हो। किसी घुमावदार पगडंडी और टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलने का जोखिम उठाने की न तो उनमें इच्छा है और न ताकत। बातचीत में उनके पास गुजरे जमाने की रणनीतियों और नजरिए के सिवा कुछ नहीं है। कल की संभावनाओं को टटोलने, उनकी शिनाख्त करने की कोई जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती। एक खास किस्म का 'सिनीसिज्म' दिखता है। पूरे मीडिया का दबाव इतना ज्यादा है कि नोम चोम्स्की के शब्दों में- ''आज हर बुद्धिजीवी को अपने विचारों पर कायम रख पाने में दक्ष बनाने के लिए एक प्रशिक्षण कोर्स की सख्त जरूरत है।'' दूसरी समस्या, जो ज्यादा गंभीर है, वह है बीसवीं सदी के समाजवाद के प्रयोग से उत्पन्न वाजिब शंकाओं को सुलझाने की। सोवियत संघ के जमाने में एक मित्र जब वहां से घूम कर लौटे तो उनका एक संस्मरण यह भी था कि मास्को में जब उन्हें बाल कटवाने थे तो उन्होंने अपने मुहल्ले में नाई की दुकान को बंद पाया। उन्हें बताया गया कि सरकारी नाई कर्मचारी सात दिनों बाद आएगा और तभी मुहल्ले के लोग अपने बाल कटवा पाएंगे। सोवियत मॉडल की यह कमी थी कि उसने जीवन के हर क्षेत्र में राज्य की मिल्कियत को लागू किया। राज्य के तहत सभी छोटे-बड़े कल-कारखाने थे, वहां अफसरशाही ने जन्म लिया, मजदूरों की भागीदारी नहीं के बराबर थी। इक्कीसवीं सदी के समाजवाद में यह सब नहीं चलेगा। सामाजिक मिल्कियत और राज्य-मिल्कियत में फर्क करना होगा। छोटे-छोटे उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना जरूरी नहीं। योजनाकृत अर्थव्यवस्था समाजवाद की रीढ़ होती है, लेकिन सभी आर्थिक निर्णय लेने में जन-साधारण की भागीदारी को आश्वस्त करना होगा। इसी तरह राजनीतिक व्यवस्था में भी जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। एक पार्टी-शासन के दिन लद गए। बहु-पार्टी व्यवस्था लागू करनी होगी। राज्य और पार्टी के बीच विभाजन रेखा स्पष्ट करनी होगी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी। उत्पादन में व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को तरजीह देनी होगी। मास्को के संस्मरण में उन मित्र ने एक बात और बताई थी कि बाजार में केवल दो तरह के साबुन उपलब्ध थे। एक, कपड़े धोने के लिए, और दूसरा, नहाने के लिए। इक्कीसवीं सदी के समाजवाद में यह पर्याप्त नहीं। जहां तक सोवियत संघ में साधारण जनता को प्राप्त सुख-सुविधाओं की बात है, उन्हें यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। फुटबॉल की तरह गोल-मटोल बच्चे; खाने-पीने-रहने, शिक्षा और रोजगार की कोई समस्या नहीं थी। इंजीनियरों और डॉक्टरों में महिलाओं का प्रतिशत अधिक था। आज वहां वेश्यावृत्ति का बोलबाला है, अनगिनत भिखारी मास्को की सड़कों पर मिल जाते हैं। गुंडागर्दी चरम पर है। आज जनता के विशालतम हिस्से को यह समझना होगा कि समाजवाद में ही मानवीय गरिमा की हिफाजत की जा सकती है। जीवन के सभी क्षेत्रों में सृजनात्मकता को बढ़ावा समाजवाद ही दे सकता है। मार्क्स ने एक जगह कहा था कि कला और राजनीति साधारण आदमी को तभी अपनी ओर खींचने में कामयाब होगी, जब उसका पेट भरा हो। पूंजीवाद ने जनता के एक विशाल हिस्से को दुनिया की खूबसूरत कलाओं से महरूम रखा है। सबसे पहले यह समझना होगा कि जड़ समाजवाद या जड़ मार्क्सवाद जैसी कोई चीज नहीं होती। मार्क्सवाद में भी शोध होना चाहिए और जरूरत हो तो नई परिस्थितियों के अनुसार उसमें बदलाव भी लाने चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बदलाव ऐसे नहीं हों कि मार्क्सवाद इसके बाद मार्क्सवाद रह ही न पाए, उसकी शक्लो-सूरत पूरी तरह बदल जाए और वह पहचान में भी न आए। कुछ लोग गांधीवाद, आंबेडकरवाद, लोहियावाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद आदि का एक मुरब्बा तैयार करने की सलाह देते हैं। ये सभी 'वाद' महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन इन सब पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ही बात हो सकती है और कुछ नए निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। क्रांति महज एक नारा नहीं है। वह एक जरूरत है। विवेक, विज्ञान और विचारधारात्मक वर्चस्व के जरिए मजदूर वर्ग की पार्टियां अपना नेतृत्व कायम करेंगी। यह समाज बदलेगा। नई क्रांतियां जन्म लेंगी। |
Wednesday, April 11, 2012
इस सदी में समाजवाद
इस सदी में समाजवाद
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