Wednesday, April 11, 2012

इस सदी में समाजवाद

इस सदी में समाजवाद


Wednesday, 11 April 2012 10:48

अजेय कुमार 
जनसत्ता 11 अप्रैल, 2012: सन 1990-91 में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी शिविर के ढह जाने के बाद जिस बुद्धिजीवी के लेखन की ओर हमारे यहां ही नहीं, यूरोप और अमेरिका में भी सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया गया, वह थे फ्रांसिस फुकूयामा। 1992 में फ्री प्रेस से छपी अपनी पुस्तक 'इतिहास का अंत और आखिरी मानव' में फुकूयामा ने लिखा था- 'हम केवल शीतयुद्ध के अंत को नहीं देख रहे हैं या युद्धोत्तर इतिहास में एक विशेष समयावधि के गुजर जाने को ही नहीं देख रहे हैं, बल्कि इतिहास के अंत को देख रहे हैं। यानी मानवता के वैचारिक उद्भव के आखिरी पड़ाव को देख रहे हैं। 
पश्चिमी उदार जनतंत्र का सर्वव्यापीकरण ही सरकार चलाने का अंतिम ढांचा होगा।' बर्लिन की दीवार ढह जाने के बाद एक बार फिर फुकूयामा ने भविष्यवाणी की कि उदार जनतंत्र की हर जगह विजय होगी। उनका तर्क था कि बीसवीं सदी की विभिन्न विचारधाराओं में संघर्ष का युग समाप्त हो चुका है और वे सभी नाकाम हो चुकी हैं। लगभग छह वर्ष पहले अपनी पहली पुस्तक 'इतिहास का अंत और आखिरी मानव' के पेपरबैक संस्करण की भूमिका में भी फुकूयामा ने इन्हीं तर्कों को दोहराया था। लेकिन आज फुकूयामा कहां खडेÞ हैं!
2008 के वित्तीय संकट के बाद फुकूयामा ने अपनी पुरानी धारणा को गलत माना है और 'अमेरिकी उदार जनतंत्र के विजयी होने' की अपनी घोषणा पर भी संदेह व्यक्त किया है। उन्होंने न केवल इराक और अन्य मुल्कों पर अमेरिका की बमबारी का विरोध किया है, बल्कि 11 सितंबर, 2001 के आतंकवादी हमले के बाद अपनाई गई अमेरिकी विदेश नीति की भी भर्त्सना की है। 
चीनी राष्ट्रपति हू जिन-ताओ की वाशिंगटन यात्रा के बाद फुकूयामा ने लिखा, 'पिछले दशक में वाशिंगटन की विदेश नीति अत्यधिक सैन्यीकृत और इकतरफा रही है, जिससे विश्व में अमेरिका के प्रति विरोध उपजता है। रीगनवाद ने बजट घाटों, अंधाधुंध कर कटौती और अपर्याप्त वित्तीय नियमन के अलावा कुछ नहीं दिया था। आज इन समस्याओं की तरफ ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन अमेरिकी मॉडल के साथ एक गहरी समस्या है, जिसका हल दूर-दूर तक नजर नहीं आता। चीन अपने आपको बहुत जल्दी ढाल लेता है, मुश्किल निर्णय लेने में और उन्हें क्रियान्वित करने में प्रभावशाली ढंग से काम करता है। ...लेकिन आज अमेरिका के सामने जो दीर्घकालीन वित्तीय चुनौतियां हैं, उन्हें दूर करने में वह इच्छुक दिखाई नहीं देता। अमेरिका में जनतंत्र की बेशक अंतर्निहित वैधता है जो चीनी व्यवस्था में कम है, लेकिन यह किसी के लिए एक मॉडल प्रस्तुत नहीं करता...।' 
फुकूयामा आगे लिखते हैं, 'अमेरिका के संस्थापकों ने माना था कि बेलगाम ताकत, बेशक उसे जनतांत्रिक वैधता प्राप्त हो, खतरनाक सिद्ध होगी। इसीलिए उन्होंने कार्यपालिका की ताकत को सीमित करने के लिए एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था का निर्माण किया था, जहां कार्य-शक्तियां अलग-अलग विभागों में बंट जाएं। ...आज इस व्यवस्था के न रहने से अमेरिका मुसीबत में फंस चुका है।' फुकूयामा ने अपना मन बदल लिया है। इसमें गलत कुछ नहीं है। एक जमाने में कींज ने कहा था- 'जब तथ्य बदलते हैं, मैं अपने विचार बदल लेता हंू।'
वर्ष 2025 तक अगर विश्व की यही साम्राज्यवादी वैश्वीकृत नीतियां चलती रहीं तो उस वर्ष में अनुमानित जनसंख्या का सत्तर प्रतिशत एक डॉलर से कम कमा पाएगा। दरअसल, नाकाम पूंजीवाद हुआ है, जिसने बेशक एक ओर ऐसे अमीर कॉरपोरेट उच्चवर्ग को जन्म दिया है जिसके नुमांइदे सुबह मुंबई होते हैं और शाम को वाशिंगटन, फिर अगले दिन पेरिस। ये वे लोग हैं जो अपने कुत्तों और नवजात शिशुओं से अंग्रेजी में बात करते हैं और अपने नौकरों और ड्राइवरों से हिंदी में। दूसरी ओर, इसने करोड़ों भूखे-नंगे लोगों को पैदा किया है जो नित नए उत्पीड़न, दमन और बेदखलियां झेल रहे हैं।
हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'क्राइसिस दिस टाइम' के अपने एक लेख में नोम चोम्स्की ने उस अमेरिकी मजदूर जोसेफ एंड्रयू स्टैक का जिक्र किया है जिसने 18 फरवरी 2010 को अपने दफ्तर पर उसी तरह एक छोटे विमान से हमला किया जैसा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 11 सितंबर, 2001 को अल-कायदा ने किया था। इस आत्महत्या से पहले उसने एक घोषणापत्र लिखा, जिसका बहुत कम जिक्र हुआ है। इस घोषणापत्र में कुछ चीजें गौर करने लायक हैं। इसमें वह मजदूर उस समय को याद करता है जब वह छात्र था और उसे बहुत कम पैसों पर गुजारा करना पड़ता था। 
उसके पड़ोस में एक अस्सी वर्षीय बुढ़िया रहती थी जो एक सेवानिवृत्त इस्पात-मजदूर की विधवा थी। इस्पात-मजदूर तीस वर्ष तक नौकरी करता रहा, उसे उम्मीद थी कि उसे पेंशन मिलेगी और बुढ़ापे में उसकी सेहत का बंदोबस्त कंपनी करेगी। जोसेफ स्टैक ने देखा कि इस्पात कारखाने के प्रबंधन ने उस विधवा के पति की सारी पेंशन हड़प ली और स्वास्थ्य-देखभाल के लिए उसे फूटी कौड़ी भी न मिली। 
चोम्स्की के अनुसार, स्टैक ने अपने घोषणापत्र में लिखा- ''हमारे यहां हर कानून की दो व्याख्याएं हैं। एक अमीरों के लिए और दूसरी हम जैसों के लिए।''... ''अमेरिकी चिकित्सा-व्यवस्था और उससे जुड़ी दवा और बीमा कंपनियां एक क्रूर मजाक हैं, जो प्रतिवर्ष हजारों-लाखों लोगों की हत्या करती हैं। यह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें मुट्ठी भर ठग और लुटेरे साधारण जनता पर अकल्पनीय अत्याचार करते हैं ...और जब गाड़ी रुकने लगती है तो सरकार कुछ ही दिनों में लुटेरों की मदद के लिए अपने खजाने खोल देती है।''

यह उस देश का हाल है जिसे हम पूंजीवाद   का जनक कह सकते हैं। अमेरिका में 1973 से नब्बे प्रतिशत अमेरिकी परिवारों की आय में केवल दस फीसद की वृद्धि हुई, जबकि ऊपर के एक प्रतिशत लोगों की आय में तीन गुना वृद्धि हुई है। पूंजीवाद में दरअसल पूंजी की जरूरतों और इंसान की जरूरतों में हमेशा टकराव रहा है। आज सवाल यह नहीं है कि बड़े-बड़े पूंजीपति, भ्रष्ट मंत्री, घोर अपराधी, फैशन डिजाइनर, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्ताधर्ता, व्यापारी और प्रोफेशनल तबके पूंजीवाद को कैसे आंकते हैं। दरअसल, सवाल यह है कि मानवता और इंसानियत पूंजीवाद को कैसे आंकती है।
इन तमाम तथ्यों के बावजूद हमारे अधिकतर बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों ने 'समाजवाद फेल हो गया है' के तर्क के आगे घुटने टेक दिए हैं। और तो और, कई पूर्व कम्युनिस्ट और वामपंथी मित्र, जिन्होंने अपनी जवानी में समाजवाद का सपना देखा था और उसके लिए लाठी-गोली खाई थी, आज अपने आप को ऐसे मुकाम पर पाते हैं जब उनमें से अधिकतर को निराशा और खौफ के अलावा कोई भविष्य नहीं दिखता। वे इस कदर थके हुए लगते हैं कि रफी का वह गाना 'कोई सागर दिल को बहलाता नहीं' याद आता है। उनका मन है कि अब उन्हें कोई एक ऐसी शांत पहाड़ी पर बैठा दे जहां उन्हें केवल आराम करना हो। 
किसी घुमावदार पगडंडी और टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलने का जोखिम उठाने की न तो उनमें इच्छा है और न ताकत। बातचीत में उनके पास गुजरे जमाने की रणनीतियों और नजरिए के सिवा कुछ नहीं है। कल की संभावनाओं को टटोलने, उनकी शिनाख्त करने की कोई जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती। एक खास किस्म का 'सिनीसिज्म' दिखता है। पूरे मीडिया का दबाव इतना ज्यादा है कि नोम चोम्स्की के शब्दों में- ''आज हर बुद्धिजीवी को अपने विचारों पर कायम रख पाने में दक्ष बनाने के लिए एक प्रशिक्षण कोर्स की सख्त जरूरत है।''
दूसरी समस्या, जो ज्यादा गंभीर है, वह है बीसवीं सदी के समाजवाद के प्रयोग से उत्पन्न वाजिब शंकाओं को सुलझाने की। सोवियत संघ के जमाने में एक मित्र जब वहां से घूम कर लौटे तो उनका एक संस्मरण यह भी था कि मास्को में जब उन्हें बाल कटवाने थे तो उन्होंने अपने मुहल्ले में नाई की दुकान को बंद पाया। उन्हें बताया गया कि सरकारी नाई कर्मचारी सात दिनों बाद आएगा और तभी मुहल्ले के लोग अपने बाल कटवा पाएंगे। सोवियत मॉडल की यह कमी थी कि उसने जीवन के हर क्षेत्र में राज्य की मिल्कियत को लागू किया। राज्य के तहत सभी छोटे-बड़े कल-कारखाने थे, वहां अफसरशाही ने जन्म लिया, मजदूरों की भागीदारी नहीं के बराबर थी। इक्कीसवीं सदी के समाजवाद में यह सब नहीं चलेगा।
सामाजिक मिल्कियत और राज्य-मिल्कियत में फर्क करना होगा। छोटे-छोटे उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना जरूरी नहीं। योजनाकृत अर्थव्यवस्था समाजवाद की रीढ़ होती है, लेकिन सभी आर्थिक निर्णय लेने में जन-साधारण की भागीदारी को आश्वस्त करना होगा। इसी तरह राजनीतिक व्यवस्था में भी जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। एक पार्टी-शासन के दिन लद गए। बहु-पार्टी व्यवस्था लागू करनी होगी। राज्य और पार्टी के बीच विभाजन रेखा स्पष्ट करनी होगी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी। उत्पादन में व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को तरजीह देनी होगी। मास्को के संस्मरण में उन मित्र ने एक बात और बताई थी कि बाजार में केवल दो तरह के साबुन उपलब्ध थे। एक, कपड़े धोने के लिए, और दूसरा, नहाने के लिए। इक्कीसवीं सदी के समाजवाद में यह पर्याप्त नहीं। 
जहां तक सोवियत संघ में साधारण जनता को प्राप्त सुख-सुविधाओं की बात है, उन्हें यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। फुटबॉल की तरह गोल-मटोल बच्चे; खाने-पीने-रहने, शिक्षा और रोजगार की कोई समस्या नहीं थी। इंजीनियरों और डॉक्टरों में महिलाओं का प्रतिशत अधिक था। आज वहां वेश्यावृत्ति का बोलबाला है, अनगिनत भिखारी मास्को की सड़कों पर मिल जाते हैं। गुंडागर्दी चरम पर है।
आज जनता के विशालतम हिस्से को यह समझना होगा कि समाजवाद में ही मानवीय गरिमा की हिफाजत की जा सकती है। जीवन के सभी क्षेत्रों में सृजनात्मकता को बढ़ावा समाजवाद ही दे सकता है। मार्क्स ने एक जगह कहा था कि कला और राजनीति साधारण आदमी को तभी अपनी ओर खींचने में कामयाब होगी, जब उसका पेट भरा हो। पूंजीवाद ने जनता के एक विशाल हिस्से को दुनिया की खूबसूरत कलाओं से महरूम रखा है।
सबसे पहले यह समझना होगा कि जड़ समाजवाद या जड़ मार्क्सवाद जैसी कोई चीज नहीं होती। मार्क्सवाद में भी शोध होना चाहिए और जरूरत हो तो नई परिस्थितियों के अनुसार उसमें बदलाव भी लाने चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बदलाव ऐसे नहीं हों कि मार्क्सवाद इसके बाद मार्क्सवाद रह ही न पाए, उसकी शक्लो-सूरत पूरी तरह बदल जाए और वह पहचान में भी न आए। कुछ लोग गांधीवाद, आंबेडकरवाद, लोहियावाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद आदि का एक मुरब्बा तैयार करने की सलाह देते हैं। ये सभी 'वाद' महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन इन सब पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ही बात हो सकती है और कुछ नए निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
क्रांति महज एक नारा नहीं है। वह एक जरूरत है। विवेक, विज्ञान और विचारधारात्मक वर्चस्व के जरिए मजदूर वर्ग की पार्टियां अपना नेतृत्व कायम करेंगी। यह समाज बदलेगा। नई क्रांतियां जन्म लेंगी।

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