Friday, 17 February 2012 09:59 |
अरविंद कुमार सेन खाद्य मुद्रास्फीति का आधार भी कैलोरी से हट कर प्रोटीन खपत की तरफ खिसक गया है। बीपीएल परिवारों में चीनी की मांग कम होने के कारण राज्य भी तय मियाद के भीतर अपने कोटे की चीनी नहीं उठा रहे हैं। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड ने 2011-12 में भी अपने कोटे की लेवी चीनी नहीं उठाई है और कारखानों में दो पेराई सत्रों की लेवी चीनी का ढेर लगा हुआ है। एक ओर चीनी के भंडारण की दिक्कत है, वहीं दूसरी ओर चीनी मिलें नकदी की किल्लत से जूझ रही हैं और मिल मालिक गन्ना किसानों का भुगतान रोक कर बिना ब्याज का पैसा इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर सरकार गरीबों का भला करना चाहती है तो मिल मालिकों और गन्ना किसानों को गोटी बनाने के बजाय लेवी चीनी की खरीद बाजार भाव पर की जानी चाहिए। चीनी उद्योग इस कदर लाइसेंस राज की जकड़ में फंसा हुआ है कि इसे 'संरक्षण का शिशु' कहा जाता है। सरकार को लेवी चीनी देने के बाद भी चीनी मिलें अपने हिसाब से चीनी की बिक्री नहीं कर सकती हैं। कृषि मंत्रालय के अधीन चीनी महानिदेशालय हर माह चीनी बिक्री का कोटा जारी करता है और तय मात्रा से कम या ज्यादा चीनी बेचने पर जुर्माना लगाया जाता है। चीनी कोटे का आबंटन जारी करके सरकार चीनी की कीमतों पर नियंत्रण रखने का भ्रम पाले रखती है, लेकिन अतीत में कई मर्तबा इस सरकारी नियंत्रण की पोल खुल चुकी है। सन 2006-07 में नौकरशाहों के किताबी गुणा-भाग के आधार पर कम उत्पादन का हवाला देते हुए यूपीए सरकार ने चीनी के निर्यात पर रोक लगा दी। उस समय घरेलू बाजार में चीनी का बंपर उत्पादन (रिकॉर्ड 31 करोड़ टन) हुआ था वहीं वैश्विक बाजार में भारतीय चीनी की मांग बनी हुई थी। निर्यात रुकते ही घरेलू बाजार में चीनी की कीमतें जमीन पर आ जाने से मिलों की हालत खस्ता हो गई, वहीं किसानों ने गन्ने की फसल से तौबा कर ली। नतीजतन बाद के सालों में चीनी की कीमत दोगुनी होकर पैंतीस रुपए प्रतिकिलो का आंकड़ा पार कर गई। कोटा आबंटन प्रणाली के चलते चीनी उद्योग कालाबाजारी का गढ़ बन गया है और मिल मालिक बडेÞ पैमाने पर पिछले दरवाजे से चीनी की बिक्री करते हैं। चीनी विनियंत्रण में एक पेच मालिकाना हक का भी है। सरकार से लेकर निजी कारोबारी तक चीनी कारोबार में कूदे हुए हैं। देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र चीनी उद्योग में मचे घमासान का ज्वलंत उदाहरण है। किसान और पूंजी की भागीदारी वाले महाराष्ट्र के चीनी उद्योग का सहकारी मॉडल अब विफल हो गया है। भाजपा, राकांपा और कांग्रेस के नेता चीनी उद्योग में कूद पड़े हैं और मिलों का मालिकाना हक सहकारी से निजी क्षेत्र में तब्दील होता जा रहा है। महाराष्ट्र में चीनी मिलें कर्ज हासिल करने के लिए बैंकों में आवेदन करती हैं और इसकी गारंटी राज्य सरकार देती है। बताने की जरूरत नहीं कि इन कर्जों का भुगतान मिल मालिक नहीं करते और बैंक अपना कर्ज राज्य सरकार से वसूलते हैं। बीते साल के आखिर में महाराष्ट्र सरकार ने बडेÞ नेताओं के कब्जे वाली चीनी मिलों को कर्ज अदा करने के लिए एक सौ छियालिस करोड़ रुपए का राहत पैकेज किसानों के नाम पर जारी किया था। किसान हितों की दुहाई देकर की जाने वाली इस लूट में महाराष्ट्र के सभी दलों के छोटे-बडेÞ नेता शामिल हैं। यह हैरत की बात नहीं कि केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार चीनी उद्योग को नियंत्रण-मुक्त किए जाने के विरोध में जमीन-आसमान एक किए हुए हैं। चीनी उद्योग देश का तीसरा सबसे बड़ा संगठित उद्योग है और इससे देश के पांच करोड़ गन्ना किसानों को रोजगार मिलता है। हमारे देश में गन्ने की शुरुआती कीमत सरकार तय करती है, वहीं आखिरी उत्पाद यानी चीनी की कीमत मिल मालिक तय करते हैं। ऐसे में किसान और उपभोक्ता, दोनों में किसी को फायदा नहीं होता है। देश का चीनी उद्योग नेताओं और पूंजीपतियों की एक लॉबी की मुनाफे की हवस का शिकार होकर रह गया है। चीनी मिलों का आधुनिकीकरण, उद्योग में नया निवेश, गन्ने की नई किस्मों पर अनुसंधान, फसल के रकबे में बढ़ोतरी, बेहतर रिकवरी और गन्ने की फसल में पानी की खपत कम करने जैसे कई सवाल नेपथ्य में चले गए हैं। चीनी मिलों और गन्ना किसानों के हित एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, लिहाजा अगर सरकार उद्योग, किसान और उपभोक्ताओं का भला करना चाहती है तो बंपर उत्पादन के बीच चीनी को नियंत्रण-मुक्त करने का इससे बेहतर समय कोई और नहीं हो सकता। |
Friday, February 17, 2012
चीनी का चक्रव्यूह
चीनी का चक्रव्यूह
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