घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी – 4
लेखक : आनन्द बल्लभ उप्रेती :: अंक: 10 || 01 जनवरी से 14 जनवरी 2012:: वर्ष :: 35 :January 21, 2012 पर प्रकाशित
बचीगौड़ धर्मशाला परिसर में बने मंदिर से लगा मटरगली की ओर एक प्याऊ था। उस समय प्याऊ लगाना और धर्मशाला बनाना परोपकार का काम माना जाता था। ऐसे ही एक समाजसेवी परिवार के व्यवसायी राजेन्द्र कुमार जैन बताते हैं कि उनके बुजुर्ग बुलन्दशहर से आकर हल्द्वानी में बसे थे। इनके दादा पूरनमल जैन 1895 के आसपास हल्द्वानी में कारोबार करते थे, जिसे इनके पिता रामस्वरूप ने आगे बढ़ाया। पूरनमल रामस्वरूप आलू फल आढ़ती हल्द्वानी की एक विख्यात फर्म रही है। उन दिनों में लगने वाली पैठ के साथ इनका व्यापार भी चलता था। रामस्वरूप जी ने 1939 में रेलवे बाजार के एक छोर पर प्याऊ स्थापित किया और 1952 में प्याऊ की बगल में हल्द्वानी का एकमात्र जैन मन्दिर बनवाया। अब इस प्याऊ और मंदिर की देखरेख कर रहे राजेन्द्र कुमार कहते हैं कि अब तो हल्द्धानी में कोई प्यासे आदमी को पानी पिलाने को भी राजी नहीं है। हल्द्वानी के जैनियों में लाला रामगोपाल जैन का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है। कालाढूँगी रोड पर फर्नीचर मार्ट वाले हरिदत्त जी ने भी एक प्याऊ बनवाया था। गर्मियों में पानी पिलाने के लिए वे एक आदमी भी तैनात कर देते थे। आपातकाल के दौरान इस प्याऊ को तोड़ दिया गया। इस प्याऊ के पास एक बहुत बड़ा हल्दू का पेड़ था। लोग उसकी छाया में बैठा करते थे। उसे भी उससे लगी भूमि के मालिकों ने कटवा दिया। सदर बाजार में भी एक प्याऊ था। नगरपालिका भी गर्मियों में स्थान-स्थान पर अस्थाई फड़ों में प्याऊ लगा कर पानी पिलाया करती थी।
भैरव मंदिर से आगे की ओर जहाँ गुरुद्वारा है, उसके पीछे की गली कसेरा लाइन से दूसरी ओर मिली है, पीपलटोला नाम से जानी जाती थी। किसी जमाने में यहाँ तवायफें रहा करती थीं। मुजरे के शौकीन वहाँ जाया करते। दिन भर इस मुहल्ले में सन्नाटा पसरा रहता था और शाम होते ही गुलजार हो उठता। हालाँकि मेरे हल्द्वानी पहुँचने तक तवायफें नहीं रह गयी थीं, लेकिन इस इलाके से गुजरने में हम सहम जाते थे। कहा जाता था कि इस इलाके से गुजरना अच्छे-भले लोगों का काम नहीं है। लोग झेंपते और कनखियों से देखते हुए यहाँ से निकला करते। इसके पूर्व व पश्चिम, दोनों ओर पीपल के विशाल पेड़ होने से इस मुहल्ले का नाम पीपलटोला पड़ा था। अब इस इलाके को पटेल चैक के नाम से जाना जाता है। गुरुद्वारा बनने से पहले रामलीला मैदान और पीपलटोला के मकानों की कतार के बीच मंदिर तक खुला चौड़ा मैदान था। प्रारम्भ में गुरुद्वारा रामलीला मोहल्ले में डॉ. पी. पांडे के दुमंजिले में हुआ करता था। पीपलटोला के अधिकांश मकान लाला सोहनलाल के बेटे मुन्नालाल, गुलाबराय व जानकी प्रसाद के थे। गुलाबराय नगर पालिका के सदस्य भी रहे। मुन्ना लाल संगीत के शौकीन थे और बहुत अच्छे वायलिन वादक थे। उस दौर में कसेरा लाइन में पंसारियों की दुकानें थीं। चौक बाजार में पालिका के स्वामित्व की पुरानी दोमंजिला इमारत के नीचे पुलिस चौकी थी। झब्बालाल की पुरानी फर्म और रामचन्द्र महोबिया की पंसारी की दुकानें और वैद्य दामोदर प्रसाद बसंतलाल आदि की दुकानें यहाँ पर थीं। चालीस के दशक में हल्द्वानी का एकमात्र रेडियो नगरपालिका के पुलिस चौकी वाले मकान के दुमंजिले में लगा था। इस पर निगरानी नोटीफाइड एरिया कमेटी के चेयरमैंन बद्रीदत्त शर्मा की होती थी और खोलने व बन्द करने की जिम्मेदारी चौकीदार गंगादत्त की थी। राष्ट्रीय आन्दोलन व द्वितीय विश्वयुद्ध की खबरें सुनने के लिए लोग यहाँ पर एकत्र हो जाया करते थे। 1974 के अग्निकांड के बाद पटेल चौक में बहुत बदलाव आया है हालाँकि लाला शन्तिस्वरूप, चिम्मनलाल, शिवराज सरन आदि की दुकानें आज भी मौजूद हैं।
पीपलटोला की जानकारी एकत्र करने के सिलसिले में मेरा परिचय सन् 1931 में जन्मे केशवदेव वशिष्ठ से हुआ। सन् 1930 तक हल्द्वानी विभिन्न क्षेत्रों से आकर बस गए लोगों का छोटा सा केन्द्र बन गया था। पहाड़ और मैदान मूल के लोग हर त्यौहार बहुत तबियत के साथ मिल-जुल कर मनाया करते थे। उन्हीं दिनों जिला अलीगढ़ के ननसाल, चन्दौसी से पं. भीष्मदेव वशिष्ठ अपनी पत्नी कैलाशो देवी और बच्चों सहित हल्द्वानी आए। रसिक लोगों की महफिलों में कविता के शौकीन भीष्मदेव वशिष्ठ अपनी कविताओं के साथ रमने लगे। तब यहाँ का रामलीला मेला दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। यहाँ की रामलीला से प्रेरणा पाकर रामचन्द्र महोबिया, भीष्मदेव वशिष्ठ, होतीलाल उस्ताद, कन्हैया लाल चतुर्वेदी ने एक रामलीला नाटक रच डाला। उस दौर में रासलीला, नौटंकी वाले भी यहां खूब आया करते थे। मनोरंजन के इन साधनों के अलावा कवि सम्मेलन, नाटक और संगीत की महफिलों के नजारे भी यहाँ होते थे। तब शहर में खूब आम के पेड़ हुआ करते थे। लोग घरों से बाहर खुले में चारपाई डालकर बेफिक्री से सोते थे और खूब मौजमस्ती करते थे। केशवदेव कहते हैं कि अब कोठों से कोठियाँ बन चुकी हैं, लेकिन शहर में वह रौनक नहीं। सब अपने घरों तक सिमट कर रह गए हैं।
कक्षा 7 की पढ़ाई में फेल होने के बाद केशवदेव अपने पिता भीष्मदेव, जो सन् 1946 'गंगाराम- मंगतराम' फर्म में काम देखते थे, के साथ मुनीमी का कार्य सीखने लगे। पिता के साथ ही रामलीला तालीम में जाने से उनका रुझान संगीत की ओर हुआ। आज भी रामलीला और संगीत की महफिलों में वे दिखाई दे जाते हैं। 'मुनीम जी' उपनाम से जाने जाने वाले केशवदेव वर्षों से महफिलों के मिजाज और कलाकारों को सुन-सुन कर अभ्यास के बाद कई रागों को गाते हैं। प्रचलित रागों की तो उन्हें खासी पहचान भी है। रामलीला हो, होली अथवा अन्य गीत अनगिनत रचनायें उन्हें याद हैं। लगता ही नहीं है कि वे उम्र के अन्तिम पड़ाव में हैं। मुनीम जी बताते हैं कि पीपलटोला में लछिमा, सरस्वती और न जाने कितनी गाने-नाचने वाली कलाकारों (तवायफों) के साथ शंकर लाल तबला बजाया करते थे। यहीं पर भगत जी के मंदिर, जो अब पीपलेश्वर महादेव कहलाता है, में संगीताचार्य चन्द्रशेखर पन्त जी ने भी कुछ समय गायन किया। पन्त जी का गायन सुनने के लिए नक्काशीदार छज्जों से तवायफें झाँका करती थीं। लैम्प, लालटेन व गैस (पेट्रोमैक्स) की रोशनी में महफिलें सजतीं। अच्छे-भले घरों के सयाने लोग इन महफिलों में जाया करते थे। संगीत के ऐसे दीवाने भी थे, जिन्होंने पीपलटोला में अपना सब कुछ लुटा दिया। सितार, वायलिन, तबला, गायन सीखने की उनकी तमन्ना अधूरी रह गई।
कद काठी के हिसाब से लगभग चार-साढ़े चार फीट के केशवदेव वशिष्ठ बचपन में पहलवानी, तैराकी करने के कारण इस उम्र में भी चुस्त हैं। बात सन् 1980-85 के बीच की रही होगी। मुनीम जी शहर की लगभग सभी रामलीलाओं का जायजा लेने पहुँच जाया करते थे। उन दिनों मुख्य रामलीला मैदान के अलावा रामपुर रोड मुनगली गार्डन में भी कुछ असन्तुष्टों ने रामलीला शुरू कर दी थी। रामलीला के मुख्य द्वार से वे मंच की ओर बढ़ रहे थे। स्टेज पर सूर्पणखा-लक्ष्मण संवाद चल रहा था। सूर्पणखा के पात्र ने मुनीम जी को देखते ही अपना डायलॉग बदल दिया। वह बोला, ''अरे लक्ष्मण मैं तो क्या समझ कर तेरे पास आ गयी और तू है कि मान ही नहीं रया है। देख केशव मुनीम तो मेरे पीछे पड़ा हुआ है और इधर ही आ रिया है। मैं उसे छोड़ कर तेरे कने आयी हूँ।'' श्रोताओं में जोर का ठहाका लगा। मैं चकित था स्थानीय पुट के साथ बोले गए इस डायलॉग पर। मुझे आज भी मुनीम जी की कदकाठी और सूर्पणखा पर मोहित हो जाने वाले संवाद पर आनन्द आ जाता है।
बेस अस्पताल के सामने साहूकारा लाइन, वर्तमान ओके होटल से लेकर हीराबल्लभ बेलवाल जी के मकान तक की पूरी बिल्डिंग बल्यूटी ग्राम (बमोरी) के प्रेमबल्लभ बल्यूटिया के पूर्वजों की थी। अब उनके एक पुत्र ने नैनीताल रोड से लगे हिस्से में ओके होटल बना लिया है और दूसरे हिस्से में जगदम्बा प्रेस सहित कई दुकानें उस पूरी बिल्डिंग में स्थापित हैं। ओके होटल से लगी उसी बिल्डिंग में उनके दूसरे पुत्र नेत्रबल्लभ बल्यूटिया रहते थे। वे काबिल वकीलों में माने जाते थे। नारायण दत्त तिवारी का ननिहाल इन्हीं बल्यूटिया जी के घर पर था। तिवारी जी का बचपन बल्यूटी गाँव में ही बीता।
''हल्द्वानी में तहजीब को बहुत महत्व दिया जाता था,'' 85 वर्ष से अधिक की उम्र पार कर चुके नसीर अहमद सलमानी बताते हैं, ''मशहूर कोठों में साहबजादे गजरा लिये तहजीब का पाठ सीखने जाया करते थे। न उन दिनों घरों के किवाड़ बन्द किये जाते थे और न ही बदतमीजी होती थी।'' वे सन् 1952 में हल्द्वानी आये और बनभूलपुरा में किराये के मकान में रहने लगे। उस समय बनभूलपुरा में करीब डेढ़ सौ मकान थे। कालाढूंगी चौराहे पर उन्होंने नाई की दुकान खोली। फड़ में सजी दुकान में उस्तरे पर सिल्ली और चमड़े से धार लगाई जाती थी और मौसम गड़बड़ाने या अंधेरा होने पर लालटेन जलाकर रोशनी की जाती थी। दूर-दूर से घोड़े-तांगों पर लोग दुकान पर दाढ़ी-बाल बनवाने आया करते थे। चौराहे के पास 3-4 लोग फूलों के गजरे भी बेचा करते थे। शौकीन लोग हजामत बनाने के बाद इत्र वगैरह डालकर, गजरा लिये पीपलटोले को चले जाते थे। मियाँ नसीर बताते हैं कि उनसे पहले हल्द्वानी में तीन लोग बारबर का कार्य करते थे, मुरादाबाद के नूर अहमद साहब, सद्दीक अहमद और बुलन्दशहर के बाबूलाल। नसीर बताते हैं कि कालाढूँगी चौराहे पर 3-4 ही दुकानें थीं। एक लीलाधर जी, जो कांग्रेस के कार्यकर्ता थे, की चाय की दुकान थी। इस रोड पर घना जंगल था। दिन छिपने के बाद कोई नहीं दिखाई देता था। सन् 55-56 में कुसुमखेड़ा का चतुर सिंह पहली बार रिक्शा लाया। व्यापारी भेड़-बकरियों में आलू और अन्य सामान लाते थे तथा गुड़ पहाड़ ले जाते थे। बहेड़ी के रहमान मियाँ बाँसुरी बेचने आया करते थे। बाद में बहेड़ी का बैण्ड आया, जो उस जमाने में मशहूर माना जाता था। तब नगीना से मुंशी राम की कम्पनी प्रोग्राम देने आया करती थी।
आजादनगर (बनभूलपुरा) के नन्हे ठेकेदार के नाम से मशहूर मुमताज उर्फ नन्हे आजाद का 1942 में बना भवन आज भी पुरानी यादें दिलाता है। उनके पिता फिदा हुसैन जिला बिजनौर से हल्द्वानी आये थे और इनके पुत्रों में रियायत हुसैन, मुमताज (नन्हे ठेकेदार), सखावत, इम्तियाज और पुत्री अमीना बेगम हुईं। इस परिवार की आढ़त के अलावा मुख्य रूप से जंगलात की ठेकेदारी थी। काफी बड़ा कुनबा फिदा हुसैन साहब का आज भी है। परिवार के बुजुर्ग, नन्हे मियाँ के पुत्र एडवोकेट रियाज हुसैन बताते हैं कि उनके पिता के एक दोस्त बरेली के मास्टर साहब थे, जिन्होंने मकान का नक्शा बनाया। बरेली से ही मकान बनाने के लिये कारीगर आये थे और मजदूर स्थानीय थे। हल्द्वानी में इस प्रकार का नक्काशीदार यह पहला मकान है। इसके बाद ही अब्दुल्ला साहब और अन्य बिल्डिंगें बनीं। रियाज साहब बताते हैं कि शहर और इलाके के पुराने वकीलों में गंगादत्त मासीवाल, प. दयाकिशन पाण्डे, पं. घनानन्द पाण्डे, पं. नवीन चन्द्र पन्त, सईद अहमद, मौलवी सुलेमान अहमद, दान सिंह दर्मवाल थे। वह बताते हैं जिस जगह (ललित महिला इण्टर कालेज के करीब) वे रहते हैं पहले शहर का केन्द्रीय स्थान था। पुराने बाजारों में रेलवे बाजार, सदर बाजार, पटेल चौक, मीरा मार्ग भी थे। पीपलटोला की तरह ही भुलवा गली (ताज चौराहे के पास) कोठे थे और नाच-गाना तथा तहज़ीब सीखना-सिखाना होता था। रियाज साहब बताते हैं कि स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम पर बनभूलपुरा का नाम आजाद नगर और रफी अहमद किदवई के नाम पर किदवई नगर नाम रखा गया।
कालाढूँगी चौराहे पर एक पेड़ के नीचे कालू सैयद या कालू सिद्ध बाबा के नाम पर लोग गुड़ चढ़ाते थे। पहले मुसलमान भी मन्नतें माँगने यहाँ आया करते थे, लेकिन जब घंटे-घडि़याल बजने लगे और धर्म के नाम पर कुछ लोग घेराबंदी करने लगे तो उन्होंने आना छोड़ दिया। अब तो वहाँ कई मूर्तियाँ भी लग गई हैं। मंदिर के दूसरी ओर सामने देवी पान वाले की मशहूर दुकान थी।
वरिष्ठ अधिवक्ता यशवन्त सिंह के अनुसार हल्द्वानी को मंडी बनाने के उद्देश्य से मंगल पड़ाव को बसासत के रूप में तैयार किया गया। पहले काशीपुर ही यहाँ का व्यापारिक केन्द्र था। सर हैनरी रामजे के समय में काशीपुर से व्यवसायियों को यहाँ बुलाया गया और बाद में पक्के मकान बनाने का अधिकार दे दिया गया। नैनीताल की बसासत को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना भी हल्द्वानी में मंडी स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य था। सन् 1952 में दबंग किन्तु सहृदय वकील दयाकृष्ण पांडे के नगरपालिका के चेयरमैंन बनने पर बहुत से परिवर्तन आए। वे रूस की यात्रा से लौटे थे। पं. गोविन्द बल्लभ पन्त ने दो बार उनके पास मंत्री बनने का प्रस्ताव भेजा, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। चेयरमैन बनते ही शहर में नालियाँ बनवायीं। वे रात्रि में गैस लालटेन लेकर निर्माण कार्यों का निरीक्षण करते थे। तब तहसील दफ्तर की दीवार से लेकर डी.एम. कार्यालय परिसर तक का इलाका रामनगर के देवीदत्त छिमवाल के नाम लीज पर था। छिमवाल जी इस भूमि को बेचना चाहते थे। उन्होंने नगरपालिका से अनुमति माँगी। पांडे जी ने इस शर्त पर उन्हें अनुमति दी कि वे इस जमीन के बीच में से नैनीताल रोड व तिकोनिया रोड को मिलाने वाली तीन सड़कों के लिये जगह देंगे।
रामलीला हाते से लगा पार्क आज भी 'डी.के. पार्क' के नाम से जाना जाता है। यह पांडे जी के ही कार्यकाल में बना था। उन्होंने मुख्य नैनीताल रोड के समानान्तर एक ठंडी सड़क काठगोदाम तक बनाने की भी कोशिश की। 1956 में उन्होंने इस कच्ची सड़क के दोनों ओर अशोक के वृक्ष लगवाये। लेकिन भेाटिया पड़ाव से आगे इसी पार्क के मध्य में बने 'खंडेलवाल पार्क' और अन्य अवरोधों के कारण वह सपना पूरा नहीं हो सका। 1958 से 1964 तक नन्द किशोर खंडेलवाल नगरपालिका के अध्यक्ष रहे। तब उन पर नगर को बिजली देने वाले पुराने जनरेटर को बेच डालने का भी आरोप लगाया जाता था। इस पार्क के सामने सड़क के दूसरी ओर उनका अपना घर था और सामने ठंडी सड़क के मध्य में उन्होंने पार्क बना डाला। बहुत सालों तक यह सड़क निजी मिल्कियत की तरह प्रयोग में लाई जाती रही। जिसने जहाँ चाहा घेर लिया। बहरहाल अब यह सड़क सौरभ होटल तक पक्की तो बन गयी है, किन्तु पांडे जी का सपना अधूरा ही रह गया। डी. के. पार्क भी शहर के मध्य में अच्छा लगता था। लोग शाम को यहाँ बैठा करते थे। बाहर से आने वाले बहुत से लोग यहाँ बनी बैंचों व घास पर रात भी गुजार दिया करते थे। एक माली भी यहाँ रहा करता था। मैं अपने सहपाठियों पूर्णानन्द पांडे (गिरि इंस्टीट्यूट लखनऊ के अर्थशास्त्र विभाग से सेवानिवृत्त) और शोभा चन्द्र पन्त (राजकीय महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य) के साथ रोज ही शाम को इस पार्क में बैठा करता था। एक ओर राम मंदिर, दूसरी ओर भैरव मंदिर तथा पीपलेश्वर महादेव का मंदिर, एक ओर रामलीला मैदान, रामलीला मैदान की गली के पार गुरुद्वारा, दूसरी ओर राजनीति का अखाड़ा स्वराज आश्रम, राममंदिर के बाद कुमाऊँ मोटर औनर्स यूनियन का कार्यालय, बाद में रोडवेज का बस अड्डा और इसी इलाके की साहूकारा लाइन की बाजार तथा पटेल चौक, सब कुछ आसपास ही सिमटा-सिमटा सा था।
(अगले अंक में जारी)
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