घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी- 3
लेखक : आनन्द बल्लभ उप्रेती :: अंक: 09 || 15 दिसंबर से 31 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 :January 2, 2012 पर प्रकाशित
गार्गी यानी गौला नदी के तट पर बसा और नहरों के जाल से घिरा हल्द्वानी इस समय पेयजल संकट से त्रस्त है। जल संकट के पीछे सही नियोजन का अभाव और विभागीय उदासीनता तो कारण हैं ही, यहाँ बस जाने की होड़ में आबादी का अंधाधुंध फैलाव भी बड़ा कारण है। आदमी चाहे पहाड़ का हो या मैदान का, वह एक बार कुमाऊँ के प्रवेश द्वार हल्द्वानी में पहुँचा नहीं कि यहीं का होकर रह जाना चाहता है। उसे न यहाँ अधिक गरम लगता है न अधिक ठंडा। पहाड़ का पहाड़ और मैदान का मैदान। यहाँ बस जाने की होड़ ने उपजाऊ जमीन को लील लिया है और बदल दिया है कंक्रीट के जंगल में। आबादी के इस अप्रत्याशित फैलाव ने नियोजन को भी प्रभावित कर दिया है।
इस क्षेत्र में साफ और मीठे पानी के चार बड़े स्रोत हैं। गौला नदी, भीमताल, नैनीताल और सात ताल की झीलें। इनसे घरेलू, सिंचाई तथा औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए पानी लिया जाता है। किन्तु इन स्रोतों का पानी लगातार प्रदूषित होता जा रहा है। नगर के मध्य व नगर के बाहरी क्षेत्रों से गुजरने वाली नहरों का जल 10-15 वर्ष पूर्व तक इतना साफ तो था कि लोग उसे सीधे उपयोग में ला सकते थे और नहाने-धोने का तो कार्य चलता ही रहता था। आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में तो तब नलों द्वारा पेयजल आपूर्ति का कोई प्राविधान ही नहीं था। किन्तु अब इन नहरों में बहाये जा रहे कचरे, यहाँ तक कि घरों के अवशिष्ट जल की निकासी व सीवरेज की निकासी ने उस जल को किसी काबिल नहीं छोड़ा है। रानीबाग के पास गौलानदी में भीमताल से आने वाले और नैनीताल से आने वाले जल का आधा-आधा भाग साफ पहचान करा देता है कि कौन सा जल नैनी झील का है और कौन सा भीमताल का है। बढ़ती आबादी और गैर जिम्मेदाराना मानव प्रवृत्तियों के कारण नैनीताल झील का पानी भी लगातार प्रदूषित होता जा रहा है। ज्योलीकोट, दोगाँव, भुजियाघाट में बढ़ती आबादी, पर्यटकों द्वारा विसर्जित कचरा, बसों-ट्रकों और आवासीय विद्यालयों द्वारा विसर्जित गंदगी यहाँ के जल स्रोतों, गधेरों से होकर बलिया नाले में मिल रही है। यह कीचड़युक्त नाला दोगाँव के गधेरे से पूर्व सातताल से आ रहे दोगुने से भी अधिक साफ पानी को प्रदूषित कर देता है। रानीबाग के आसपास की ग्रामीण आबादी के साथ एच.एम.टी. घड़ी फैक्ट्री व सिंचाई विभाग के आवासीय परिसरों की गंदगी हैड़ाखान से आ रही गौला नदी में मिल रही है। रानीबाग में चित्रशिला श्मशानघाट की बहुत बड़ी मान्यता है। इसलिए वहाँ बड़ी संख्या में दूर-दूर से दाह संस्कार के लिए शव लाए जाते हैं। लेकिन कभी जल की अधिकता और कभी कमी के कारण यह क्षेत्र इतना अधिक प्रदूषित हो जाता है कि राख, कोयला, अधजले शवों के अवशेष सीधे पेयजल में समाहित हो जाते हैं। गर्मियों के मौसम में जब जल का प्रवाह कम हो जाता है तब तो स्थिति वीभत्स होकर रह जाती है।
भीमताल की झील हल्द्वानी के लिए जीवनदायिनी है। झील के बंध से गर्मियों में पुष्पभद्रा गधेरे में लगातार पानी छोड़ा जाता है जो हल्द्वानी और आसपास के अतिरिक्त पानी की आवश्यकता को पूरा करता है। लेकिन अब भीमताल की सीवर व्यवस्था की निकासी यहाँ से हो जाने के कारण यहाँ का जल भी प्रदूषित हो गया है। काठगोदाम में जहाँ गौला नदी में बैराज बनाकर नहरें निकाली गयी हैं तथा जहाँ से हल्द्वानी-काठगोदाम शहर के घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी लिया जाता है, विशेषकर गर्मियों में यहाँ बने तालाब में गंदगी की पर्त गौला नदी के प्रदूषण की कहानी स्वयं कहती है। इसी बैराज स्थल के पास और इससे निकलने वाली नहरों से पीने के लिए पानी लिया जाता है। काठगोदम का सारा कचरा किसी न किसी रूप में गौला नदी या नहरों में मिलता है। हल्द्वानी शहर नलों से मिलने वाले प्रदूषित जल के लिए रोता रहता है लेकिन मुख्य पाइप लाइनों के पास अपने सीवर टैंक बना डालने, सीवर लाइनों को नहर में डाल देने में परहेज नहीं कर रहा है। पुरानी व टूटी पाइप लाइनों में हवा के दबाव से घुस रहा प्रदूषित कचरा जल शोधन की सारी प्रक्रिया को ही मटियामेट कर रख देता है। कई बार नलों में पानी के साथ लाल कीड़े भी निकलते देखे गये हैं। जल संस्थान और जल निगम की लड़ाई के बीच पाइप लाइनों में हो रहा जल रिसाव व उस रिसाव के स्थान से प्रदूषित जल का पाइप लाइनों में प्रवेश रोकने जैसे सामान्य काम भी नहीं हो पा रहे हैं। हल्द्वानी से आगे नए शहर के रूप में विकसित हो रहे लालकुआँ और उसके आसपास सेंचुरी पेपर मिल से छोड़े गये रसायन भू-गर्भीय जल प्रदूषण का कारण बन गये हैं। इस प्रदूषण से फसलें भी क्षतिग्रस्त हो रही हैं। इस क्षेत्र की नदियों, झीलों, चश्मों और भू गर्भीय जल को प्रदूषण से बचाने के लिए दीर्घकालीन योजना बनाये जाने की जरूरत है। मगर इस दिशा में कोई गम्भीर नहीं है। समस्या का एक निदान तो 1974 में प्रस्तावित जमरानी बाँध परियोजना ही थी, जो राजनीति का शिकार बन कर रह गयी है।
कहा जाता है कि तराई – भाबर का यह इलाका 21 बार उजड़ा और बसा है। इसमें कितनी सत्यता है, पता नहीं। लेकिन पुरावशेषों से बहुत कुछ जाना जा सकता है। ऊँचा पुल से गौला नदी तक हल्द्वानी की भूमि का अध्ययन करने से लगता है कि कभी गौला नदी यहाँ बहती होगी। समय के साथ नदी का रुख बदलना आम बात है। आज भी बरसात के दिनों में गौला अपना रूप दिखा ही देती है। पानी के नहरों में बँट जाने और तटबंधों पर रोक लगाने से मार्ग बदलने की प्रक्रिया में कमी आ गई है। किन्तु खतरा बना ही रहता है। गौला में अनियंत्रित खदान से भी खतरा बढ़ गया है। स्टोन क्रशरों ने हरीतिमा को रेगिस्तान में बदल डाला है। काठगोदाम से आगे का पहाड़ी हिस्सा भी गौला नदी के प्रवाह में परिवर्तन ला देता है। 1992 व 1998 में काठगोदाम से तकरीबन 10 किमी. दूर भीमताल विकासखंड के ग्राम अमियाँ में गौला में सामने की पहाड़ी से हुए भू स्खलन से तीन किमी. लम्बी झील बन गयी। लगभग 500 मीटर चौड़ी सामने वाली पहाड़ी गौला में समा गई और गौला के पानी को अवरुद्ध कर गई। जल स्तर बढ़ जाने से कई गाँव डूब गये और लोग घरों, जंगलों में शरण लेने चले गए। सामने की पहाड़ी में बसा पसौली गाँव तो लगता था कि नीचे आकर गौला में ही दफन होकर रह जाएगा। इस तरह के प्राकृतिक खतरे और उन खतरों से होने वाले परिवर्तन पहले भी होते रहे हैं लेकिन अब इन खतरों को स्वयं लोग प्रकृति से छेड़छाड़ कर बढ़ा रहे हैं।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए जमरानी बाँध की बहुउद्देश्यीय परियोजना का सपना देखा गया था। कहा गया था कि इससे तराई-भाबर के ही नहीं पीलीभीत, रामपुर, बरेली तक के खेतों में हरियाली लाई जायेगी। वर्षा के अनियंत्रित जल को नियंत्रित किया जायेगा, बाढ़ और भूस्खलन को रोका जायेगा और विद्युत उत्पादन किया जायेगा। पर्यटन से रोजगार की सम्भावनाओं को भी देखा गया था। जून 1968 की सिरफोड़ गर्मी में के.सी. पन्त तत्कालीन विद्युत मंत्री के.एल. राव को अपने साथ दौरे पर लाये थे। के.एल. राव ने अमरीकी विशेषज्ञ ब्रुक की टीम से सर्वेक्षण करवा कर इसे मंजूरी दे दी। 1974 में 61.25 करोड़ रुपये की लागत की यह परियोजना भारत सरकार के समक्ष प्रस्तुत हुई और 1975 में इसे स्वीकृति मिल गई। 1976 में नारायण दत्त तिवारी की अध्यक्षता में के.सी. पन्त ने इसका शिलान्यास किया। 10 करोड़ की लागत का पहले चरण का कार्य भी पूरा हो गया।
अब वह पहले चरण का कार्य नेस्तनाबूत हो गया है। लाखों रुपये की मशीनें व उपकरण जंक खा गये। जमरानी बाँध कालोनी के नाम पर पूरी एक कालोनी का निर्माण किया गया जहाँ इस मृतप्राय परियोजना की लाश को पहरा देने वाले लोग जाड़ों में धूप सेंकते, चाय की दुकानों में गप्पें हाँकते या ताश खेलते और गर्मियों में पंखे के नीचे उँघते रहते। इस पहरा देने पर तीन-चार लाख रुपये प्रतिमांह खर्च होता रहा, जो लगातार बढ़ता ही चला गया। अब वह कालोनी भी बंजर पड़ी है।
पुनर्मूल्यांकन के बाद एक बार इस योजना को 136.91 करोड़ और बाद में 144.84 करोड़ और फिर 934 करोड़ आँका गया। केन्द्र सरकार, प्रदेश सरकार, योजना आयोग, सिंचाई विभाग, वित्त आयोग, पर्यावरण विभाग, वन विभाग और इसी तरह के सम्बद्ध-असम्बद्ध मंत्रालयों में घूमती फिर रही है परियोजना की फाइल।
जमरानी परियोजना के पीछे दूरदृष्टि थी। राजनीति के चक्र में फँस कर इसने दम तोड़ लिया। एक जमाने में इसके लिये नारायण दत्त तिवारी और के.सी. पन्त के बीच की खींचतान को जिम्मेदार ठहराया जाता था। कहा जाता था कि चूँकि पन्त जी ने इसका शिलान्यास किया है, इसलिए तिवारी जी इस में अडं़गा डाल रहे हैं। लेकिन अब तो दोनों ही महारथी इस क्षेत्र को अलविदा कह चुके हैं। अब अड़ंगा कौन डाल रहा है ? अलबत्ता चुनाव आते हैं तो यह मुद्दा लौट-फिर कर फिर शीर्ष पर आ जाता है। किसान आन्दोलन करते हैं, सामाजिक संगठन आन्दोलन करते हैं, राजनैतिक दल धरना देते हैं। अच्छी वैतरणी है यह चुनावबाजों के लिए!
पुराने बाशिन्दों का मानना है कि अंग्रेज हुकूमत अधिक संजीदा थी। उस दौर में भाबर में बनी जिस नहर व्यवस्था के कारण यहाँ बसासत संभव हुई, आज उन नहरों का रखरखाव तक नहीं हो पा रहा है। अंग्रेजी शासन में सन् 1895 में जारी लोक निर्माण विभाग की सिंचाई शाखा को एक अधिसूचना में कहा गया था कि नैनीताल, सातताल, भीमताल, और नौकुचियाताल झील का पानी भाबर क्षेत्र के पेयजल के लिए दिया जायेगा। इसी के तहत ही गौला नदी का जल स्तर घटने पर हर वर्ष 15 मई को भीमताल झील का पानी गौला में छोड़ दिया जाता है। लेकिन बढ़ती आबादी और घटते जल स्तर के चलते अब यह व्यवस्था नाकाफी है।
बचीगौड़ धर्मशाला से लगी मटरगली में धीरे-धीरे एक बाजार विकसित हो गया। बाजार से होकर जाने वाली नहर के बन्द होने पर कुछ लोग वहाँ बैठ कर मटर, रायता और चाय बेचने लगे। तभी यह नाम पड़ गया। यहीं महादेव गिरी महाराज ने भैरव मंदिर की स्थापना की, जिसे भैरव चौक के नाम से जाना जाता है। ऐड़ाद्यो (अल्मोड़ा) में संचालित संस्कृत स्कूल की दयनीय स्थिति से परेशान महादेव गिरी महाराज ने यहाँ दूसरा संस्कृत विद्यालय स्थापित कर प्रथम प्रधानाचार्य के रूप में आयुर्वेदाचार्य पं. गोपालदत्त भट्ट की नियुक्ति करवायी। तीन-चार साल बाद यह नवाबी रोड में स्थानान्तरित कर दिया गया। महादेवगिरी की शिष्या बसन्ती माई बहुत समय तक इसकी प्रबन्ध्क रहीं। तीसरा संस्कृत विद्यालय 'कपिलाश्रमी संस्कृत विद्यालय' के नाम से सन् 1960-61 में मुखानी नहर के पार खुला। महादेवगिरि महाराज मूल रूप से गया (बिहार) के रहने वाले बताये जाते हैं। उन्हें सर्वप्रथम 1932 में ऐड़ाद्यो के घने जंगल में एक बांज वृक्ष की खोह में दिगम्बर अवस्था में तपस्या करते हुए देखा गया। इसके बाद भक्तों का ताँता उनके पास लगने लगा और भक्तों के दबाव पर उन्हें सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख होना पड़ा। उन्होंने कई मंदिरों, आश्रमों और पाठशालाओं का निर्माण करवाया।
बचीगौड़ धर्मशाला के पूर्व की ओर स्वराज आश्रम है। आजादी की लड़ाई में यह सेनानियों का अड्डा था तो आजादी के बाद यह काँग्रेस पार्टी का कार्यालय बन गया। आजादी की लड़ाई के सिलसिले में कुछ गुमनाम लोगों की चर्चा किया जाना जरूरी है। एक थे दलीप सिंह कप्तान। बड़े जीवट के आदमी। वे उन दिनों बमोरी, जो घनी झाडि़यों और पेड़-पौधों से घिरा गाँव था, में रहा करते थे। पुलिस या किसी का बमोरी पहुँचना सहज नहीं था। वे क्रान्तिकारियों को अपने घर पर पनाह दिया करते थे। उन दिनों एक कहावत प्रचलित थी, ''फौज न फर्रा- कप्तान दलीप सिंह, दवा न दारू- वैद्य गंगा सिंह, जमीन न जायदाद- थोकदार जीवन सिंह।'' किसी फौज के कप्तान न होते हुए भी दलीप सिंह कप्तान कहे जाते थे। 29 मार्च 1968 को उनका लगभग गुमनामी में निधन हुआ।
नगरपालिका ने बचीगौड़ धर्मशाला में ही एक व्यायामशाला का प्रबंध कर दिया। मैं 1962 में जब हल्द्वानी आया तो मेरे दो सहपाठी, गौलापार निवासी भूपाल सिंह रौतेला और मटरगली में मिठाई-दूध की दुकान चलाने वाला स. गुरुचरण सिंह इस व्यायामशाला में व्यायाम के लिए जाया करते थे और अच्छे बौडी बिल्डर थे। भूपाल सिंह ने मेरी दुबली-पतली काया को देख मुझे भी व्यायामशाला आने के लिए प्रेरित किया। मैं अपने एक दूसरे साथी, पूर्णानन्द पांडे, जो मेरी ही काया से मेल खाता था, को लेकर शाम को व्यायाम के लिए जाने लगे। हम यहाँ सुदूर पहाड़ से पढ़ने आए थे। हमारे पास ऐसे साधन नहीं थे कि व्यायाम के बाद की थकान ही पूरी कर सकें, पौष्टिक भोजन तो दूर की चीज थी। भूपाल भाई का हमें बॉडी बिल्डर बनाने का सपना पूरा नहीं हो सका। अलबत्ता हम दोनों नया बाजार के एक संगीत विद्यालय में सायंकाल संगीत सीखने लगे।
'संगीत कला केन्द्र' संभवतः हल्द्वानी की सबसे पुरानी संगीत संस्था है। इसकी स्थापना सन् 1957 में कृष्णचन्द्र भट्ट व गिरीश चन्द्र भट्ट द्वारा नगर के कुछ उत्साही नवयुवकों की सहायता से 'रंगमंच' के नाम से हुआ। उद्देश्य अच्छे नाटकों का आयोजन करना था। इसके द्वारा हल्द्वानी, रुद्रपुर तथा अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये। कुछ प्रमुख रंगकर्मियों के हल्द्वानी छोड़ बाहर चले जाने से संस्था का विकास रुक सा गया तो 1 अगस्त 1959 को कृष्णचन्द्र भट्ट ने संस्था का पुनर्गठन किया। सौ से अधिक सदस्य बन गये और 27 नवम्बर 1959 को संस्था पंजीकृत हुई। प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद ने सन् 1960 में यहाँ परीक्षा केन्द्र स्थापित कर दिया। इस पाठशाला में शास्त्राय, सुगम तथा लोक संगीत के अतिरिक्त हारमोनियम, तबला, सितार, तथा बाँसुरी वादन की प्रथम वर्ष तक की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया। संगीत विभाग द्वारा हल्द्वानी के बाल विद्यालय के लिए कम पारिश्रमिक पर अध्यापकों का प्रबन्ध करने की योजना के तहत 1961 में सरस्वती शिशु मन्दिर तथा अन्य बाल विद्यालयों को अध्यापक उपलब्ध कराये गये। नृत्य शिक्षा के लिये सन् 1961 में काठगोदाम में भी कुछ समय के लिये एक सायंकालीन पाठशाला चलाई गई। साहित्य विभाग द्वारा एक रात्रि प्रौढ़ पाठशाला का संचालन किया गया। कवि सम्मेलन, मुशायरा के साथ ही एक छोटा पुस्तकालय भी शुरू हुआ।
नैनीताल के दुर्गालाल साह पुस्तकालय की तरह हल्द्वानी में 15 अक्टूबर 1953 को एक पुस्तकालय की स्थापना की गई। इसका शिलान्यास तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त ने किया। पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की हजारों पुस्तकें थीं और एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग इस पर निर्भर था। कई पत्र-पत्रिकायें नियमित रूप से वाचनालय में आया करती थीं और सुबह-शाम समाचार पत्र पढ़ने वालों की भीड़ लगी रहती थी। पुस्तकालय की व्यवस्था का जिम्मा नगरपालिका का था। बाद में व्यवस्था शिथिल हो गई, बहुमूल्य पुस्तकें गायब हो गयीं, जो शेष बचीं वे दीमकों व सीलन के कारण बेकाम हो गयीं। अब पुस्तकालय का जीर्णोद्धार तो हो चुका है, किन्तु उन बहुमूल्य पुस्तकों की पूर्ति तो नहीं की जा सकती। एक अच्छे पुस्तकालय की कमी सालती है। इस पुस्तकालय के अलावा आजाद नगर लाइन नं. 1 व काठगोदाम में भी एक पुस्तकालय नगरपालिका द्वारा संचालित किया जाता है।
अगले अंक में जारी
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