Tuesday, April 17, 2012

आप मुंह के अलावा और कहां कहां से बोलते हैं विष्‍णु खरे?

http://mohallalive.com/2012/04/17/letter-to-letter-conversation-between-vishnu-khare-and-abhishek-shrivastav/
 शब्‍द संगत

आप मुंह के अलावा और कहां कहां से बोलते हैं विष्‍णु खरे?

17 APRIL 2012 17 COMMENTS

पत्रकार-अनुवादक अभिषेक श्रीवास्‍तव ने पिछले दिनों गुंटर ग्रास की उस कविता का अनुवाद किया और तमाम ब्‍लॉग मॉडरेटरों को भेजा, जिसकी वजह से इजराइल ने अपने दरवाजे गुंटर ग्रास के लिए बंद कर दिये हैं। अभिषेक ने एक टिप्‍पणी भी लिखी, जिसमें प्रतिरोध की जरूरत और हिंदी समाज और लेखक की भूमिका पर सवाल खड़े किये गये थे। अभिषेक की इस कवायद से हिंदी के वरिष्‍ठ कवि, आलोचक, अनुवादक, पत्रकार विष्‍णु खरे बिफर पड़े और उन्‍होंने अभिषेक को व्‍यक्तिगत रूप से एक मेल लिखा। हिदायत दी कि ये किसी ब्‍लॉग पर नहीं छपना चाहिए। लेकिन अभिषेक ने उन्‍हें जवाबी पत्र देते हुए लिखा कि चूंकि मामला व्‍यक्तिगत नहीं है, सार्वजनिक है, इसलिए इसे पब्लिक डोमेन में आने दीजिए। लिहाजा हम पब्लिक डोमेन में आ चुके विष्‍णु जी का वह पत्र मोहल्‍ला में शेयर कर रहे हैं और साथ में अभिषेक श्रीवास्‍तव का जवाब भी : मॉडरेटर

श्री अभिषेक श्रीवास्तवजी,

हिंदी के अधिकांश ब्लॉग मैं इसीलिए पढ़ता हूं कि देख पाऊं उनमें जहालत की कौन सी नयी ऊंचाइयां-नीचाइयां छुई जा रही हैं। लेकिन यह पत्र आपको निजी है, किसी ब्लॉग के वास्ते नहीं।

ग्रास की इस्राईल-विरोधी कविता के संदर्भ में आप शुरुआत में ही कहते हैं :

"एक ऐसे वक्त में जब साहित्य और राजनीति की दूरी बढ़ती जा रही हो, जब कवि-लेखक लगातार सुविधापसंद खोल में सिमटता जा रहा हो…"

क्या आप अपना वह स्केल या टेप बताना चाहेंगे जिससे आप जिन्हें भी "साहित्य" और "राजनीति" समझते और मानते हों, उनके बीच की नजदीकी-दूरी नापते हैं? पिछली बार आपने ऐसी पैमाइश कब की थी? किस सुविधापसंद खोल में सिमटता जा रहा है लेखक? असुविधा वरण करने वाले लेखकों के लिए आपने अब तक कितने टसुए बहाये हैं?

मेरे पास हिंदी की बीसियों पत्रिकाएं और पुस्तकें हर महीने आती हैं। मुझे उनमें से दस प्रतिशत में भी ऐसे अनेक संपादकीय, लेख, समीक्षाएं, कहानियां और कविताएं खोजना मुश्किल होता है जिनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देश या वैश्विक राजनीति उपस्थित न हो। वामपंथी पत्रिकाएं, जो कई हैं, वे तो हर विभाग में शत-प्रतिशत राजनीतिक हैं। हिंदी में तीन ही लेखक संघ हैं – प्रगतिशील, जनवादी और जन-संस्कृति मंच – और तीनों के सैकड़ों सदस्य और सदस्याएं राजनीतिक हैं। कुछ प्रकाशन-गृह राजनीतिक हैं। कई साहित्यिक ब्लॉग राजनीतिक हैं।

वामपंथी साहित्यिक मुख्यधारा के साथ-साथ दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श की विस्तीर्ण सशक्त धाराएं हैं और दोनों राजनीतिक हैं। उनमें सैकड़ों स्त्री-पुरुष लेखक सक्रिय हैं। सारे संसार के सर्जनात्मक साहित्य में आज भी राजनीति मौजूद है, अकेली हिंदी में सियासी सुरखाब के पर नहीं लगे हैं।

यदि मैं नाम गिनाने पर जाऊंगा तो कम-से-कम पचास श्रेष्ठ जीवित वरिष्ठ, अधेड़ और युवा कवियों और कथाकारों के नाम लेने पड़ेंगे जो राजनीति-चेतस हैं। मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय आदि ने भी भाड़ नहीं झोंका है। कात्यायनी सरीखी निर्भीक राजनीतिक कवयित्री इस समय मुझे विश्व-कविता में दिखाई नहीं देती। आज हिंदी साहित्य दुनिया के जागरूकतम प्रतिबद्ध साहित्यों में उच्चस्थ है।

पिछले दिनों दूरदर्शन द्वारा आयोजित एक कवि-गोष्ठी में एक कवि ने कहा कि जो कविता मैं पढ़ने जा रहा हूं, उसे टेलीकास्ट नहीं किया जा सकेगा, किंतु मैं सामने बैठे श्रोताओं को उसे सुनाना चाहता हूं। यही हुआ मध्य प्रदेश के एक कस्बे के आकाशवाणी एफएम स्टेशन द्वारा इसी तरह आयोजित एक कवि-सम्मेलन में, जब एक कवि ने आमंत्रित श्रोताओं को एक राजनीतिक कविता सुनाई तो केंद्र-प्रबंधक ने माइक पर आकर कहा कि हम राजनीति को प्रोत्साहित नहीं करते बल्कि उसकी निंदा करते हैं। यह गत तीन महीने की घटनाएं हैं।

जब कोई जाहिल यह लिखता है कि काश हिंदी में कवि के पास प्रतिरोध की ग्रास-जैसी सटीक बेबाकी होती तो मैं मुक्तिबोध सहित उनके बाद हिंदी की सैकड़ों अंतर्राष्ट्रीय-राजनीतिक प्रतिवाद की कविताएं दिखा सकता हूं, आज के युवा कवियों की भी, जो ग्रास की इस कविता से कहीं बेहतर हैं। ग्रास की इस कविता का चर्चा इसलिए हुआ कि वह जर्मन है, नात्सी-विरोधी है और अब नोबेल-पुरस्कार विजेता भी। यदि वह अपनी किशोरावस्था में हिटलर की युवा-टुकड़ी में शामिल भी हुआ था, तो यह उसी ने उद्घाटित किया था, किसी का स्कूप नहीं था और जाहिर है उस भयानक जमाने और माहौल में, जब नात्सी सैल्यूट न करने पर भी आपको न जाने कहां भेजा जा सकता था, 16-17 वर्ष के छोकरे से बहुत-ज्यादा राजनीतिक जागरूकता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। स्वयं ग्रास की मां को अपने परिवार की रक्षा के लिए अपना शरीर बेचना पड़ा था, हिंदी के मतिमंदो।

मैं ग्रास के साथ वर्षों पहले दिल्ली में कविता पढ़ चुका हूं। भारत-केंद्रित उनके अत्यंत विवादास्पद यात्रा-वृत्तांत Zunge Zeigen का मेरा हिंदी अनुवाद 1984 में राधाकृष्ण प्रकाशन से छप चुका है और शायद अभी भी उपलब्ध होगा। आप जैसे लोग यदि उसे पढ़ेंगे तो आपको उन्हें और मुझे गालियां देते देर नहीं लगेगी। मैं तब उन्हें निजी तौर पर भी जानता था। निस्संदेह वे संसार के एक महानतम उपन्यासकार हैं। कवि भी वे महत्वपूर्ण हैं। बेहतरीन चित्रकार हैं और विश्व-स्तर की एचिंग करते हैं।

लेकिन वे और इस मामले में उनके आप सरीखे समर्थक इस्राईल की भर्त्सना करते समय यह क्यों भूल जाते हैं कि स्वयं ईरान में इस्लाम के नाम पर फासिज्‍म है, वामपंथी विचारों और पार्टियों पर जानलेवा प्रतिबंध है, औरतों पर अकथनीय जुल्म हो रहे हैं, लोगों को दरख्तों और खंभों से लटका कर पाशविक मृत्युदंड दिया जाता है, सैकड़ों बुद्धिजीवी और कलाकार अपनी राजनीतिक आस्था के कारण जेल में बंद हैं और उनके साथ कभी-भी कुछ-भी हो सकता है?

मुझे मालूम है ग्रास ने कभी ईरान के इस नृशंस पक्ष पर कुछ नहीं लिखा है। आपने स्वयं जाना-लिखा हो तो बताइए।

संस्कृत के एक सुभाषित का अनुवाद कुछ इस तरह है : "उपदेशों से मूर्खों का प्रकोप शांत नहीं होता"। न हो। मूर्ख अपनी मूर्खता से बाज नहीं आते, हम अपनी मूर्खता से।

कृपया जो लिखें, यथासंभव एक पूरी जानकारी से लिखें। ब्लॉग पर दिमाग खराब कर देने वाले अहोरूपं-अहोध्वनिः उष्ट्र-गर्दभों की कमी नहीं। उनकी जमात हालांकि अपनी भारी संख्या से सुरक्षा और भ्रातृत्व की एक भावना देती अवश्य है, पर संस्कृत की उस कथा में अंततः दोनों की पर्याप्त पिटाई हुई थी। यूं आप खुदमुख्तार हैं ही।

विष्णु खरे

Vishnu Khare Image(विष्‍णु खरे। हिंदी कविता के एक बेहद संजीदा नाम। अब तक पांच कविता संग्रह। सिनेमा के गंभीर अध्‍येता-आलोचक। हिंदी के पाठकों को टिन ड्रम के लेखक गुंटर ग्रास से परिचय कराने का श्रेय। उनसे vishnukhare@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

विष्‍णु जी,
नमस्‍कार।

ल सुबह आपका पत्र पढ़ा। पहले तो समझ ही नहीं पाया कि आपको मुझे पत्र लिखने की ऐसी क्‍या जरूरत आन पड़ी। कहां आप और कहां मैं, बोले तो क्‍या पिद्दी, क्‍या पिद्दी का शोरबा। फिर ये लगा कि यह पत्र 'निजी' क्‍यों है, चूंकि मैंने तो आज तक आपसे कभी कोई निजी संवाद नहीं किया, न ही मेरा आपसे कोई निजी पूर्व परिचय है। लिहाजा एक ही गुंजाइश बनती थी – वो यह, कि आपने हिंदी लेखकों-कवियों के एक प्रतिनिधि के तौर पर यह पत्र लिखा है। यही मान कर मैंने पूरा पत्र पढ़ डाला।

सच बताऊं तो पत्र पढ़कर मुझे सिर्फ हंसी आयी। मैंने तीन बार पढ़ा और तीन बार हंसा। पिछली बार इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में देखा आपका घबराया हुआ चेहरा अचानक मेरी आंखों में घूम गया। मैंने सोचा कि एक कविता, जो अब वैश्विक हो चुकी है, उसके अनुवाद से जुड़ी मेरी एक सहज सार्वजनिक टिप्‍पणी पर आप मुझे कोने में ले जाकर क्‍यों गरिया रहे हैं। जाहिल, मतिमंद, ऊंट, गदहा जैसे विशेषणों में बात करने की मेरी आदत नहीं, जो आपने मेरे लिए लिखे हैं। मैं अपने छोटों से भी ऐसे बात नहीं करता, जबकि आप मुझसे दोगुने से ज्‍यादा बड़े हैं और आपकी कविताएं पढ़ते हुए हमारी पीढ़ी बड़ी हुई है। ये सवाल अब भी बना हुआ है कि एक सार्वजनिक टिप्‍पणी पर लिखे गये निजी पत्र को किस रूप में लिया जाए।

बहरहाल, आपने पत्र में मुझसे कुछ सवाल किये हैं। अव्‍वल तो मैं आपके प्रति जवाबदेह हूं नहीं, दूजे हिंदी लेखकों के 'राजनीति-चेतस' होने के बारे में आपकी टिप्‍पणी इतनी बचकानी है कि मैं आपको अपने पैमाने बता भी दूं तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आपकी ही दलील को 'एक्‍सट्रापोलेट' करूं तो इस देश की 121 करोड़ जनता राजनीति-चेतस दिखने लगेगी क्‍योंकि 55-60 फीसदी जनता मतदान करते ही राजनीतिक हो जाती है और जो मतदान नहीं करते, वे भी किसी राजनीतिक सोच के चलते ही मतदान नहीं करते। अगर राजनीतिक होने का अर्थ इतना ही है तो मुझे सबसे पहले आपसे पूछना होगा कि आप राजनीति-चेतस होने से क्‍या समझते हैं। मैं लेकिन यह सवाल नहीं करूंगा क्‍योंकि मैंने आपकी तरह खुद को सवाल पूछने वाली कोई 'निजी अथॉरिटी' नहीं दे रखी है।

क्‍या आपको याद है अपनी टिप्‍पणी जो आपने विभूति नारायण राय वाले विवाद के संदर्भ में की थी, "… दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदी भाषी समाज यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है…" फिर आप किस 'राजनीति-चेतस' सैकड़ों कवियों की अब बात कर रहे हैं, जो ग्रास से बेहतर कविताएं हिंदी में लिख रहे हैं? ये कौन सा प्रलेस, जलेस और जसम है जिनके सैकड़ों सदस्‍य राजनीतिक हैं? भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार के संदर्भ में अपनी कही बात आप भूल गये क्‍या? बस एक 'निजी' सवाल का जवाब दे दीजिए… आप मुंह के अलावा कहीं और से भी बोलते हैं क्‍या?

आवेश के लिए खेद, लेकिन क्‍या आप मुझे बता सकते हैं कि पिछले दिनों के दौरान कुडनकुलम संघर्ष, जैतापुर संघर्ष, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के पैसों से बने अय्याशी के ठौर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, पत्रकार अहमद काजमी और सुधीर धावले जैसों की गिरफ्तारी, पत्रकार हेम पांडे की फर्जी मुठभेड़ में हत्‍या, आफ्सपा और यूएपीए या फिर ऑक्‍युपाई वॉल स्‍ट्रीट और अन्‍ना हजारे मार्का वीकेंड दक्षिणपंथी उभार जैसे किसी भी विषय पर हिंदी के किस कवि-लेखक ने कितना और क्‍या-क्‍या लिखा है? आप तो बीसियों 'राजनीति-चेतस' पत्रिकाएं पढ़ते हैं? 'समयांतर', 'फिलहाल' और 'समकालीन तीसरी दुनिया' जैसी लिटिल मैगजीन के अलावा कोई साहित्यिक पत्रिका इन ज्‍वलंत विषयों पर विमर्श करती है क्‍या?

आप रेडियो स्‍टेशन पर किसी कवि द्वारा श्रोताओं को राजनीतिक कविता सुनाने की बात बताते हैं और केंद्र प्रबंधक के दुराग्रह का जि़क्र करते हैं। यदि मैं आपको बताऊं कि आप ही के राजनीतिक बिरादर मंगलेश जी ने बतौर संपादक आज से छह साल पहले सहारा समय पत्रिका में कुछ ब्राजीली कविताओं का अनुवाद छापने से इनकार कर दिया था, तो क्‍या कहेंगे आप? रेडियो केंद्र प्रबंधक तो बेचारा सरकारी कर्मचारी है, जो अपनी नौकरी बजा रहा है। यदि मैं आपको बताऊं कि दंतेवाड़ा और आदिवासियों पर कुछ कविताएं लिख चुके इकलौते मदन कश्‍यप मेरी और मेरे जैसों की कविताएं बरसों से दबा कर बैठे हैं, तो आप क्‍या कहेंगे? सरजी, दिक्‍कत सरकारी कर्मचारियों से उतनी नहीं जितनी खुद को मार्क्‍सवादी, वामपंथी आदि कहने वाले लेखकों की हिपोक्रिसी से है।

अब आइए कुछ राजनीतिक बातों पर। आपको शिकायत है कि इजरायल की भर्त्‍सना करते वक्‍त मैं ईरान का फासिज्‍म भूल जाता हूं। ये आपसे किसने कहा? आप अगर वामपंथी हैं, मार्क्‍सवादी हैं, तो गांधीजी की लाठी से सबको नहीं हांकेंगे, इतनी उम्‍मीद की जानी चाहिए। हमारे यहां एक कहावत है, "हंसुआ के बियाह में खुरपी के गीत"। यहां अमेरिका और इजरायल मिल कर ईरान को खत्‍म करने की योजना बनाये बैठे हैं, उधर आपको ईरान के फासिज्‍म की पड़ी है। ईरान को अलग से, वो भी इस वक्‍त चिन्‍हित कर आप ऐतिहासिक भूल कर रहे होंगे। आपको समझना होगा कि आपकी गांधीवादी लाठी इजरायल समर्थित अमेरिकी साम्राज्‍यवाद को ईरान पर हमले की लेजिटिमेसी से नवाज रही है। कहां नहीं सैकड़ों बुद्धिजीवी और कलाकार अपनी राजनीतिक आस्था के कारण जेल में बंद हैं? आपने कभी जानने की कोशिश की भारत में ऐसे कितने लोग जेलों में बंद हैं? स्‍टेट हमेशा फासिस्‍ट होता है, लेकिन आप यदि राजनीति-चेतस हैं तो यह समझ सकेंगे कि कब, किसका फासिज्‍म प्राथमिक है। ये राजनीति है, कविता नहीं।

पढ़ी होगी आपने गुंटर ग्रास के साथ कविता, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। फर्क इससे पड़ता है कि आप किस वक्‍त कौन सी बात कह रहे हैं। और फिलहाल यदि गुंटर ग्रास इजरायल को दुनिया के अमन-चैन का दुश्‍मन बता रहे हैं, तो वे वही कर रहे हैं जो ऐतिहासिक रूप से जरूरी और सही है। आप सोचिए, मार्क्‍सवाद का सबसे 'रेनेगेड' तत्‍व भी आज की तारीख में इजरायल का डिफेंस नहीं करेगा। आप किस वामपंथी धारा से आते हैं, बाई द वे? फिर से पूछ रहा हूं… मुंह के अलावा कहीं और से भी बोलते हैं क्‍या आप? पहली बार पर्सनली पूछा था, लेकिन इस बार ये सवाल पर्सनल नहीं है, क्‍योंकि ये आपकी राजनीति से जुड़ा है।

विष्‍णु जी, आप समकालीन हिंदी लेखकों की अराजनीतिकता और निष्क्रियता की आड़ मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय को नहीं बना सकते। और ये भी याद रखिए कि आप खुद अब समकालीनता की सूची में नहीं रहे। मुझे मत गिनवाइए कि कौन राजनीतिक था और कौन नहीं। जो मेरे होश में आने से पहले चले गये, उनका लिखा ही प्रमाण है मेरे लिए। कात्‍यायनी को आप विश्‍व कविता में देखना चाहते हैं, मैंने उनके साथ लखनऊ की सड़क पर नारे लगाये हैं चार साल। अब तक जिनसे भी नाटकीय साक्षात्‍कार हुआ है, सबकी पूंछ उठा कर देखी है मैंने। अफसोस कि अधिकतर मादा ही निकले। एक बार दिवंगत कुबेर दत्‍त ने भी ऐसे ही निजी फोन कॉल कर के मुझे हड़काया था। 'निजी' चिट्ठी या फोन आदि बहुत पुरानी पॉलिटिक्‍स का हिस्‍सा है, जो अब 'ऑब्‍सॉलीट' हो चुका है।

आपको बुरी लगने वाली मेरी टिप्‍पणी सार्वजनिक विषय पर थी। उसके सही मानने के पर्याप्‍त सबूत भी मैंने आपको अब गिना दिये हैं। चूंकि आपने आग्रह किया था, इसलिए आपके पत्र का जवाब निजी तौर पर ही दे रहा हूं और अब तक मैंने आपका पत्र सार्वजनिक नहीं किया है, लेकिन आपकी पॉलिटिक्‍स को देखते हुए मुझे लगता है कि बात विषय पर हो और सबके सामने हो तो बेहतर है। जिस अथॉरिटी से आपने चिट्ठी लिखी है, उस लिहाज से अनुमति ही मांगूंगा कि अपनी चिट्ठी मुझे सार्वजनिक करने का सौभाग्‍य दें। जरा हिंदी के पाठक भी तो जान सकें कि हिंदी का समकालीन प्रतिनिधि लेखक अपनी दुनिया के बारे में क्‍या सोचता-समझता है।

बाकी हमारा क्‍या है सरजी, एक ही लाइन आज तक कायदे से समझ में आयी है, "तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब, पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार…" अगर आपको लगता है कि गुंटर ग्रास पर आपका कॉपीराइट है, तो मुबारक। हमको तो राइट से सख्‍त नफरत है। आपने एक बार लिखा था, "दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़कलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है।" (याद है न!) कहने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि हम लोग पूर्वांचल के हैं, टट्टी की ओट नहीं खेलते। अब तो दिक्‍कत ये है कि हमें कोई छाप भी नहीं रहा। एक इंटरनेट ही है जहां अपने आदर्शों के बनाये मठों और गढ़ों को चुनौती दे सकते हैं हम। हम वही कर भी रहे हैं। अपने आदर्श लेखक-कवियों से हमें असुरक्षा पैदा हो गयी है अब, साहित्‍य के सारे विष्‍णु अब असहिष्‍णु होते जा रहे हैं। इसीलिए हम वर्चुअल स्‍पेस में 'सुरक्षा' ढूंढ रहे हैं (ठीक ही कहते हैं आप)। अब आप किसी भी वजह से हिंदी के ब्‍लॉग पढ़ते हों, ये आपका अपना चुनाव है। डॉक्‍टर ने कभी नहीं कहा आपसे कि 'जाहिलों' के यहां जाइए।

और 'जाहिलों' को, खासकर 'पूर्वांचली हुड़कलल्लुओं' को न तो आप डिक्‍टेट कर सकते हैं, न ही उनकी गारंटी ले सकते हैं, मिसगाइडेड मिसाइल की तरह। इसीलिए कह रहा हूं, अपनी चिट्ठी सार्वजनिक करने की अनुमति दें, प्रभो। चिंता मत कीजिए, मेरी चिट्ठी आपके इनबॉक्‍स के अलावा कहीं नहीं जाएगी। मैं चाहता हूं कि आपकी चिट्ठी पर हिंदी के लोग बात कर सकें, सब बड़े व्‍याकुल हैं कल से।

अभिषेक श्रीवास्‍तव

Abhishek Srivastava(अभिषेक श्रीवास्‍तव। व्‍यापक जन सरोकारों से जुड़े युवा पत्रकार। काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय और आईआईएमसी से शिक्षा-दीक्षा। कई न्‍यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। इन दिनों स्‍वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं। जनपथ के ब्‍लॉग राइटर। उनसे guru.abhishek@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

17 Comments »

  • shubham said:

    हिन्दी के लेखकों की राजनीतिक प्रतिबद्धता जैसी 'फनी' बात कर के आदरणीय विष्णु खरे जी पता नहीं किसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं । परंपरावादी, संकीर्ण और हिप्पोक्रट लेखकों की जितनी बड़ी संख्या अभी हिंदी में है, शायद ही कहीं हो । ईरान को लेकर उनका वक्तव्य दुखद है । और इंटरनेट से उन्हें इतनी दिक्कत क्यों है ? यहां युवा बुजुर्गों का झोला ढोए बिना लिख रहे हैं इसलिए ? बताने की जरूरत नहीं कि प्रिंट में जितना कचरा छपता है, जिसे विद्वान संपादक देखते-परखते हैं, इससे कहीं साधारण और डरपोक होता है । अगर आप चम्मचों की एक नई पीढ़ी के पैरोकार हैं तो आपका सपना आपको सादर..

  • अनूप शुक्ल said:

    विष्णु खरे जी ने लिखा है- "हिंदी के अधिकांश ब्लॉग मैं इसीलिए पढ़ता हूँ कि देख पाऊँ उनमें जहालत की कौन सी नई ऊंचाइयां-नीचाइयां छुई जा रही हैं. लेकिन यह पत्र आपको निजी है, किसी ब्लॉग के वास्ते नहीं."

    उनके इस वाक्य से एक बार मुझे अपनी लिखा एक वाक्य याद आया-"अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है। " विष्णुजी की यह टिप्पणी उनकी ब्लाग के बारे में सीमित समझ की परिचायक है। :)

  • dr anurag said:

    कविता ओर कवि की गुणवत्ता पर बात न करते हुए गर इस पत्र की बात करे तो मुझे तो पूरे पत्र में एक या दो बार उत्तेजना में कहे गए वाक्य को छोड़ कर विष्णु जी की कोई भी बात ऐसी नहीं लगी जिसे अनुचित कहा जा सके .अलबत्ता इस पोस्ट का शीर्षक जरूर अटपटा ओर हद दर्जे का भद्दा है .असहमति जताने के ओर भी सभ्य तरीके है .हिंदी साहित्य में किसी के भी संस्मरण उठा कर देख ले कमलेश्वर ,राजेन्द्र यादव ,मोहन राकेश ,रविन्द्र कालिया ,मन्नू भंडारी ,कन्हैय्या लाल नंदन उसमे किसी दूसरे स्थपित व्यक्ति के मानवीय गुण दोष दिख जाते है चाहे वो अगेय ही क्यों न हो. रचनात्मक समृद्धि की दृष्टि से हिंदी साहित्य में टोटा नहीं है बस लोगो तक पहुंचे नहीं है वैसे भी इन दिनों "बाहर" के लिखे से चमत्कारिक रूपसे सम्मोहित होने की परंपरा सी चल पड़ी है . रचनात्मक, बौद्धिक दृष्टि से परिपूर्ण रचनाये तो ठीक है पर जब बेहद साधारण रचनाये भी उसी दृष्टि से तुली जाती है तो ऐसा लगता है जैसे अपने आप को" बौदिक" कहलाने की लाइन है जिसमे कोई पीछे नहीं रहना चाहता .

  • दिलीप खान said:

    अपने 'निजी' पत्र से विष्णु खरे ये जता गए हैं कि समकालीन हिंदी साहित्यिक अखाड़े को लेकर वो किस तरह के दिवास्वप्न में हैं और वैश्विक राजनीति में इज़रायल-ईरान-अमेरिका-भारत-बुद्धिजीवी के रिश्तों की गांठ को वो किस मासूमियत से ईरानी फ़ासीवाद में बांधना चाहते हैं। अंतरराष्ट्रीय मामलों में राजनीतिक दिवालियापन के शिकार भारत के ज़्यादातर बुद्धिजीवियों के प्रतिनिधि उदाहरण हैं विष्णु खरे। शायद ईरानी मामले में विष्णु खरे के राजनीतिक ज़मीन से ही कवि-लेखक सोच रहे होंगे, इसलिए यहां के ज़्यादातर 'वामपंथियों' ने ईरानी मामले पर चुप्पी साध रखी है।
    चार कविता-कहानी लिखकर क्रेडिट कूटने की अदम्य चाह रखने वाले लेखकों-कवियों और इससे मोहसक्त प्रतिनिधियों के गले में ये बात हड्डी की तरह अटक जा रही है कि आप उनकों उनके हक़ का पानी मार रहे हैं। कई विषयों पर उठाए गए कुछ सवालों को लेकर विष्णु खरे मुझे बेहद पसंद रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि वो सब बेहद तैयारी के साथ लिखे गए होंगे। यह टिप्पणी बेहद स्वाभाविक और उनके असली राजनीतिक दर्शन को बयां करती-सी लगती है।
    विष्णु जी, आप इस अधिकारभाव से मत लिखिए/बोलिए कि आप उम्र में हमसे पहले पैदा हुए और साहित्व में लंबे समय से दख़ल रखते हैं तो जाहिल, मतिमंद जैसा कुछ भी लिखकर हमें हरका देंगे। हालांकि यह आपकी लेखनी के भीतर पैबस्त है। और आप इन्हीं विशेषणों से कई बार बौद्धिक बढ़त बनाने में लग जाते हैं।

  • shahroz said:

    दिक्‍कत सरकारी कर्मचारियों से उतनी नहीं जितनी खुद को मार्क्‍सवादी, वामपंथी आदि कहने वाले लेखकों की हिपोक्रिसी से है।……अब तक जिनसे भी नाटकीय साक्षात्‍कार हुआ है, सबकी पूंछ उठा कर देखी है मैंने। अफसोस कि अधिकतर मादा ही निकले।…अब, साहित्‍य के सारे विष्‍णु अब असहिष्‍णु होते जा रहे हैं।…shabaas abhishek!!!!
    haan इस पोस्ट का शीर्षक जरूर अटपटा ओर हद दर्जे का भद्दा है . anurag ji se yahan sirf sahmat!

  • निखिल आनंद गिरि said:

    आदरणीय विष्णु जी,

    "हिंदी के अधिकांश ब्लॉग मैं इसीलिए पढ़ता हूं कि देख पाऊं उनमें जहालत की कौन सी नयी ऊंचाइयां-नीचाइयां छुई जा रही हैं।"

    अगर हिंदी के वरिष्ठ कवियों (जिन्हें हम अपने समय में देख-सुनकर कविता लिखना सीख रहे हैं) की इंटरनेट और ब्लॉग के बारे में ऐसी राय है, तो हम हिंदी ब्लॉगर्स सिवाय अफसोस के और कर भी क्या सकते हैं…हिंदी के कौन से साहित्यिक मंच ऐसे हैं जहां जहालत नहीं है…बेहतर होता आप उन 'अधिकांश' किताबों और अखबारों पर ही सवाल उठाते कि वो कितने पक्षपाती, सुस्त, कुंठाग्रस्त और गिरोहबाज़ हैं….हिंदी ब्लॉग को तो अभी जुमा-जुमा चार दिन हुए हैं….देखिए, कैसे आपकी उम्र के कई कवि यहां आराम से चटाई बिछाकर हवा ले रहे हैं और खुश हैं….आप भी आ जाते तो थोड़ी जहालत भी कम हो जाती और हमें उन पत्रिकाओं को ख़रीदने की जहमत भी नहीं उठानी पड़ती जिनमें कई बार दो कौड़ी की सामग्री भी नहीं होती….

  • दिलीप खान said:

    पूंछ उठाकर देखा तो सब मादा निकले–वाले जुमले से असहमत। अभिषेक, आपसे इस तरह के लैंगिक पूर्वाग्रह से लैस जुमलों की मैं उम्मीद नहीं करता। बस। बाकी शानदार जवाब और टिप्पणी।

  • Abhishek Srivastava said:

    दिलीप जी,

    धूमिल की इन स्‍त्री विरोधी पंक्तियों के अपने पत्र में प्रयोग पर खेद। आपकी असहमति वाजिब है, मैं खुद वही मानता हूं। शायद दस फीसदी अचेतावस्‍था या कहें आवेश में ऐसी गलतियां चली जाती हैं। आपकी टिप्‍पणी देखने से पहले साथी जितेंद्र कुमार ने फोन कर के इस ओर ध्‍यान दिलाया था। लिखते वक्‍त मुझे और सचेत रहना चाहिए था। आगे से ध्‍यान रखूंगा।

  • विनीत कुमार सिंह said:

    मैंने भी ग्रास की ये कविता पढ़ी थी, फेसबुक पर किसी की वाल पर शायद। मुझे अब तक समझ नहीं आया कि इस एक कविता को लेकर विष्णु खरे जी इतना आवेशित क्यों हो उठे कि उन्होंने हिन्दी ब्लॉगों को लपेटे में लेते हुए जहालत का घर बता डाला। मुझे बस इतना कहना है कि अभिषेक जी ने अच्छा जवाब दिया। कुछ बातें नहीं भी अच्छी लगते हुए काफी बातें अच्छी लगीं।

  • अमिता नीरव said:

    पोस्ट के शीर्षक पर अनुराग की और लैंगिक पूर्वाग्रह पर दिलीप की आपत्ति से पूरी तरह से सहमत हूँ। यदि कोई शुतुरमुर्ग की तरह रेत में ही सिर गड़ाए रखना चाहेगा तो आप क्या कर लिजिएगा… ऐसा क्यों लगने लगा है जैसे ब्लॉग और कागज़ी (माफ कीजिएगा, इस वक्त इससे बेहतर शब्द समझ नहीं आ रहा है, इसके लिए) साहित्य दो अलग-अलग और एक तरह से साहित्य की दो प्रतिद्वंद्वी धाराओं का रूप लेती जा रही है। क्यों बड़े नामी-गिरामी हिंदी लेखक ब्लॉग की दुनिया पर लानत मलामतें भेज रहे हैं, जबकि इस माध्यम में क्षुद्र राजनीति और सतही स्वार्थ उस तरह से घुसपैठ नहीं कर सकते जिस तरह से इन दिनों हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में नजर आने लगी हैं।
    रही बात हिंदी लेखकों के राजनीतिक-सामाजिक सरोकारों की तो मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और उस पीढ़ी के लेखकों-कवियों के कर्म पर तो कोई सवाल ही नहीं है, सवाल तो इस दौर के साहित्यकारों के लिए है। बाजार की बीन पर नाचते इस दौर में वैसे किसी भी साहित्यकार-कलाकार से प्रतिबद्धता की उम्मीद करना ही बेमानी है। और यदि विष्णुजी अपनी प्रतिबद्धता के लेकर मुत्तमईन है तो फिर दूसरों के लिए छाती-पीट क्यों मचा रखी है…?

  • aarti singh said:

    A. हमारा बालीवुड, हालीवुड से कमतर नहीं. .स्वदेशी की महत्ता समझो..लौडे-लपाड़ों ने फालतू रायता फैला रक्खा है. कुछ समझते-बूझते हैं नहीं. कैरेट किसे कहते हैं..कुछ पता भी है?

    B. बड़े हुए तो क्या हुआ ?? 24 कैरेट ढूंढते हो.. अंग्रेज से लड़ना है, तो क्या हिटलर से हाथ मिला लें ??

    C. गुरुकुल के ज़माने से बाहर आइये जनाब..इंटरनेट का ज़माना है. चेले चीनी नहीं रहे, मिर्च सरीखे हो गए हैं. अंगुलबाजों की कमी नहीं.. अपनी इज्जत अपने हाथ है. अशालीन/उत्तेजक भाषा लेखक की क्रांतिकारी संगत को भी दर्शाती है.

  • राजन said:

    अभिषेक जी के जवाब से असहमत होने का कोई कारण ही नहीं हैं.हाँ कहीं कहीं भाषा पर वे भी नियंत्रण खो बैठे हैं,इसे बचा जा सकता था.ब्लॉग लेखन के बारे में एक बार राजेंद्र यादव जी भी यही बात कह चुके हैं,इसलिए कोई आश्चर्य तो नहीं हैं विष्णु खरे जी के कथन पर भी.ये लोग अपने अलावा किसीको कुछ समझते ही नहीं.
    और ये शीर्षक जरूर अविनाश जी ने ही चुना होगा.ऐसा काम तो वे ही कर सकते हैं.

  • Sanjai said:

    Dono Lala ji log ek doosare ki Marketing kar rahe hain. har cheese ko sarvjanik kar publicity pane ki cheap koshish

  • Palash Biswas said:

    I am very sad to read this unwanted debate. We never do support the fascist way adopted by the Iran ruling class. But we oppose the Global order nexus of Zionism, Global Hinudutva and corporate Imperilism.I do not know any literature which goes against the Sense of history and oppose equality and Justice. Political consciousness is important becuase we all are the victims of political system accrose the Border.

    I had been respecting the poet Vishnu Khare very very much. Abhishek mis a young, committed writer and I see no justification to stop him. if it is so important, Mr khare could have expressed his opinion on any suitable forum / who does stop him? Well, I do agree with some of the friends objecting Abhishek`s language. it could have been moderate. But the intolerance is first expressed by the Senior poet himself. If he is not guilty , why should we finger at Abhishek?

    The focus poin should be this : whetehr mr khare supports israel? Is Israel democrte enough to launch an all out attack against the Muslim community in alliance with the Corporate imperialims. The oil war continues. India is a partner with US and Israel in America`s War against Terror. Does Vishnu Khare mean that we should support Zionist Israel and the Global order and Corporate Imperialism.

    I do not know Gunter. But I have been reading him for long. i am not a scholar. But those peopel who are engaged in the revival of the Anti Communist US Agents as Classical Poets, they make all the associations.

    Mr Khare, we are virtually on the street and none of us dare to compete the writers or poets enlisted by you. Nor we do consider ourselves engaged in the Sacred Field of Literature. If literature has to do nothing with the suffering ninety nine percent people, i need not that literature. apolitical stance of poets in hidi has been a liong traditions. Thhey may flare up Fire but always try to be coopted into the elite gange of paid beneficiaries.We know several names who had been engaged in revolution in seventies and now have become pets. I believe , Abhishek would not count Mr Khare amongst them.

    But provide Mr. Vishnu Khare is defending ISRAEL it means he is alos supporting the repression of aborigine humanscape in the Himalayas and Centre India, in the East, west and south assisted by Mossad and CIA.

    For me the Greater question is has Mr Khare changed his stance and does support israel as the Hindutva Forces and the Ruling Hegemony and the Government of India incs do! It would be rather a greater Shock for us who consider Mr Khare a very important poet of our time.

    Let other writers and Poets should clarify their stance, it would help us to undertand their works in Future.

  • Mahendra Singh said:

    विष्णु खरे भी दूध के धुले नहीं हैं लेकिन एक बुढ़ाते हुए कवि गुंटर ग्रास की सस्ती कविता को सिर्फ इसलिए महान कहना कि वो इस्रेअल के विरोध में है और इससे अभिषेक जैसे टटपुन्जिये लेखक की सड़ी हुई यहूदी विरोध की विचारधारा को एक संबल मिलता है भी कोई सराहनीय कदम नहीं है. वैसे अभिषेक को पता होना चाहिए कि जिस तरह से विष्णु खरे को वो समकालीन नहीं मानते वैसे ही गुंटर ग्रास को भी आधुनिक पाश्चात्य विचारक भी अप्रसांगिक ही मानते हैं और ग्रास की कही बातों को कोई महत्व नहीं देता. इस्रायल का विरोध ही करना है तो किसी समकालीन विद्वान या लेखक/कवि की कविता का अनुवाद करना चाहिए था.

  • arun narayan said:

    अभिषेक भाई,
    विष्णु खरे यथास्थितिवाद से लड़ने वाले अपने किस्म के अनूठे जुझारू व्यक्ति रहे हैं। हिंदी के कई मठाधीषों-चाहे वे नामवर सिंह हों या अषोक वाजपेयी की पोल उन्होंने खोली है। लगता है यह सब करते हुए उनके अंदर ही एक किस्म का ब्राहणवाद हावी हो गया। आपने अपनी बात तल्खी से कही है। दरअसल उनके साथ इसी तरह बात ही हो सकती थी नहीं तो वे पुनः आपकी ऐसी की तैसी कर बैठने का हर एक तुरूप गोली बारूद की तरह इस्तेमाल करते। अभिषेक भाई आपने जो टिप्पणी दी है उससे हिंदी के कई मठाधीषों के होष उड़ जाएंगे क्यांेकि अब उनकी पाजीगरी ज्यादा दिनोें तक नहीं चल सकती। अरुण नारायण

  • mk chand said:

    visnu khare uvach
    लेकिन वे और इस मामले में उनके आप सरीखे समर्थक इस्राईल की भर्त्सना करते समय यह क्यों भूल जाते हैं कि स्वयं ईरान में इस्लाम के नाम पर फासिज्‍म है, वामपंथी विचारों और पार्टियों पर जानलेवा प्रतिबंध है, औरतों पर अकथनीय जुल्म हो रहे हैं, लोगों को दरख्तों और खंभों से लटका कर पाशविक मृत्युदंड दिया जाता है, सैकड़ों बुद्धिजीवी और कलाकार अपनी राजनीतिक आस्था के कारण जेल में बंद हैं और उनके साथ कभी-भी कुछ-भी हो सकता है?
    abhisek srivastav uvach
    , "हंसुआ के बियाह में खुरपी के गीत"। यहां अमेरिका और इजरायल मिल कर ईरान को खत्‍म करने की योजना बनाये बैठे हैं, उधर आपको ईरान के फासिज्‍म की पड़ी है। ईरान को अलग से, वो भी इस वक्‍त चिन्‍हित कर आप ऐतिहासिक भूल कर रहे होंगे। आपको समझना होगा कि आपकी गांधीवादी लाठी इजरायल समर्थित अमेरिकी साम्राज्‍यवाद को ईरान पर हमले की लेजिटिमेसी से नवाज रही है। कहां नहीं सैकड़ों बुद्धिजीवी और कलाकार अपनी राजनीतिक आस्था के कारण जेल में बंद हैं? आपने कभी जानने की कोशिश की भारत में ऐसे कितने लोग जेलों में बंद हैं? स्‍टेट हमेशा फासिस्‍ट होता है, लेकिन आप यदि राजनीति-चेतस हैं तो यह समझ सकेंगे कि कब, किसका फासिज्‍म प्राथमिक है। 'ये राजनीति है, कविता नहीं।'
    bahana guntur grass ki kavita ,sahitya ki pratibdhta kin vicharon ke sath ho, rajneeti is bat ki. bhai, ek aur kahawat hai,"lauri kapare bhent na, pahle hi se baap-baap"

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