Friday, 06 April 2012 10:40 |
रामेश्वर मिश्र संविधान में सर्वाधिक अनुसरण इंग्लैंड का किया गया, इंडिया एक्ट 1935 को आधार बनाया गया। पर इंग्लैंड का अलिखित संविधान वहां की सभी श्रेष्ठ परंपराओं को विधिक मान्यता देता है; वहां के सभी राजनीतिक दल वहां के प्रोटेस्टेंट चर्च के विराट तंत्र को निर्विघ्न काम करने देते हैं और राज्य, प्रशासन और न्याय-व्यवस्था में प्रोटेस्टेंट पंथाचार्यों (बिशप आदि) की अधिकृत रूप से खासी भूमिका है। दूसरी ओर, वहां कोई भी दल बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक इंग्लैंड में व्याप्त भयंकर अमानवीय प्रथाओं- नस्लवाद, स्त्री में आत्मा का होना न स्वीकार करना, चर्च और बिशपों के पास अद््भुत और असीमित न्यायिक, दंडात्मक, शैक्षणिक और सामाजिक अधिकार होना, भिन्न पंथ वालों की खुलेआम पिटाई को विधिक मान्यता, गैर-ईसाई को दंडनीय और दयनीय हीदन्स मानना, गैर-गोरों को अविकसित मानव मानना, आदि- की चर्चा तक नहीं करता। एक राष्ट्रीय चुप्पी है और हजारों वर्षों तक प्रताड़ित समूहों को आरक्षण देने की कोई चर्चा तक नहीं है। कोई भी प्रमुख दल वहां वर्गों के संघर्ष की बात नहीं करता है। वर्ग विश्लेषण केवल अकादमिक क्षेत्र तक सीमित है। वह भी आंशिक रूप में। कोई भी हाउसेज या प्रमुख कुलों के सफाए की बात तक नहीं करता। पर भारत के राजनेता तो बिना किसी व्यापक अध्ययन के सदा समाज वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की भंगिमा में बोलते हैं। मानो बिना विशद अध्ययन के भी समाज वैज्ञानिक या दार्शनिक बना जा सकता है, केवल किसी पार्टी का सदस्य बनते ही। समाज के विषय में ज्ञान कुछ न हो, पर आप उसके भविष्य की दिशा तय करेंगे। जाति मिटाएंगे, वर्ग लड़ाएंगे आदि-आदि। इसका दिलचस्प परिणाम यह है कि जाति को भारत की सबसे प्रमुख सामाजिक संस्था बताया जाता है और फिर उसे नष्ट करने को एक श्रेष्ठ आदर्श भी बताया जाता है। यहां तक कि यह भी कह दिया जाता है कि हिंदू धर्मशास्त्रों ने जाति को ही मुख्य सामाजिक इकाई माना है। मैंने आज तक ऐसे सभी लोगों से पूछा कि कृपया बताएं कि किस हिंदू यानी भारतीय धर्मशास्त्र में जाति को भारतीय समाज की इकाई बताया गया है, क्योंकि मैंने प्राय: सभी धर्मशास्त्र श्रद्धा से पढेÞ हैं और मुझे तो कहीं भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता, जो आज तक कोई जाति-विरोधी व्यक्ति इसका उत्तर नहीं दे पाया। वे कभी वर्णों का हवाला देते हैं तो कभी जनों या कुलों का। रोचक बात यह है कि इन महानुभावों को यह तथ्य भी ज्ञात नहीं है कि वर्तमान में पिछले डेढ़ सौ वर्षों से जो भौगोलिक क्षेत्र इतिहास में पहली बार यूरोप कहा जा रहा है, उस संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में शताब्दियों तक राज्य और चर्च यानी धर्मपंथ या उपासनापंथ- दोनों ही क्षेत्रों में सर्वोपरि सत्ता कुलों यानी 'हाउसेज' की ही रही है और आज भी एक बड़ी सीमा तक है। चर्च में तो कुलों का सर्वोपरि महत्त्व है ही, विभिन्न राजाओं के भी कुलों का ही महत्त्व है, व्यापार में भी शीर्ष पर वहां कुलों का ही महत्त्व है, कला और अन्य क्षेत्रों में भी 'हाउसेज' का विशिष्ट महत्त्व है। न्यायाधीशों के चयन के लिए भिन्न-भिन्न यूरोपीय देशों में जो परिषदें बनती हैं, उन सभी में चर्च के बिशप आदि महत्त्वपूर्ण सदस्य होते हैं और ये सभी चर्च मुख्यत: 'हाउसेज' को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण बिशप और पंथाधिकारी अपने अमुक हाउस से जुडेÞ होने पर गर्व करता है। भारत में स्वयं कांग्रेस के लोग 'नेहरू-गांधी हाउस' से जुड़ कर परम गौरव का अनुभव करते हैं, जो यूरोप के अनुसरण में ही है। हो सकता है, कल को सपा भी मुलायम-अखिलेश यादव कुल का गौरव प्रचारित करे, अन्य पार्टियां भी अन्य कुलों का गौरव महिमामंडित करें। यही चलेगा। कुल-विशेष का गौरव और जातियों का विरोध! वाह! कुलों से चिपटेंगे और जाति को झिड़केंगे। क्या कहने! (जारी)... |
Friday, April 6, 2012
जाति धर्म से ऊपर यानी क्या
जाति धर्म से ऊपर यानी क्या
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