Sunday, 11 March 2012 17:11 |
मणींद्र नाथ ठाकुर भारतीय विश्वविद्यालयों के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि उच्च शिक्षा में नए प्रवेशार्थी की क्षमता का भरपूर विकास और उपयोग कैसे हो। भारत के सामने यह चुनौती ज्यादा बड़ी है। क्योंकि यहां उनके बीच का अंतर केवल वर्गीय न होकर भाषा और संस्कृति का भी है। भारत अपने युवा जनसंख्या का फायदा तभी ले पाएगा जब विश्वविद्यालय इस चुनौती का ठीक से सामना करें। इस मायने में छात्र संगठन की मांग जायज है। हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के छात्रों को बड़ी संख्या में फेल किए जाने की घटना पर न्यायालय ने विश्वविद्यालय को पुस्तकों के हिंदी में अनुवाद और हिंदी की कक्षाएं चलाने का निर्देश दिया। अक्सर अंग्रेजी के पक्षधर भाषा विवाद की जटिलता के नाम पर इसे टाल देते हैं। अब शायद इसे और टालना संभव नहीं होगा। अगर विश्वविद्यालय इस मांग को मान कर ऐसे केंद्र की स्थापना करता है तो हिंदुस्तान की कई भाषाओं में पाठ्य सामग्री उपलब्ध हो जाएगी। इससे देश के बौद्धिक विकास पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। हमारे छात्र केवल अंग्रेजी दुनिया में चल रही बहस से परिचित नहीं होंगे, बल्कि फें्रच और जर्मन जैसी भाषाओं के ज्ञान का भी लाभ ले पाएंगे। भाषा का संबंध अब राष्ट्रवाद से उतना नहीं है, जितना सामाजिक न्याय, समान अवसर और सम्मान से। गौरतलब है कि साठ के दशक में भाषा के सवाल को मूल रूप से राष्ट्रवाद से जोड़ कर देखा जाता था। एक राष्ट्रभाषा का होना राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक माना जाता था। इस चक्कर में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया। लेकिन इससे हिंदी ज्ञान की भाषा बनने से चूक गई। राष्ट्रभाषा के विकास पर ध्यान केंद्रित करने के कारण अन्य भाषाओं को समुचित सम्मान नहीं मिल पाया। इससे भाषा की समस्या ज्यादा जटिल हो गई। दक्षिणपंथी राजनीति ने जिस प्रकार भाषा को धर्म और राजनीति से जोड़ दिया, उससे यह समस्या और भी बढ़ गई। हालांकि पिछले कुछ दशकों में सिनेमा जगत के प्रभाव से हिंदी जनभाषा और संपर्क भाषा के रूप में स्थापित तो हो गई, लेकिन ज्ञान की भाषा के तौर पर अब भी इसे लंबी यात्रा तय करनी है। इस यात्रा में देश की दूसरी भाषाओं के साथ इसे सहभागिता का संबंध बनाना पड़ेगा। राज्य द्वारा स्थापित शक्ति-संबंध से बाहर निकल कर जनमानस की भाषा के तौर पर स्वीकृत होना होगा। भाषा को वर्गीय चरित्र से मुक्तकर ज्ञान के संवाहक के रूप में स्थापित करने की पहल सामाजिक न्याय के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इसलिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की घटना को इसके बहुआयामी संदर्भ में समझना जरूरी है। समझना जरूरी है कि भाषा, वर्चस्व, जाति और संस्कृति के प्रश्न आपस में जुड़े हैं। एक मुक्तसमाज की स्थापना का सपना देखने वाले छात्र समुदाय को परिवर्तन के नए व्याकरण की खोज करनी होगी। |
Sunday, March 11, 2012
परिसर और परिवेश
परिसर और परिवेश
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