Sunday, March 11, 2012

अशोक वाजपेयी काल को हराते शमशेर

कभी-कभार


Sunday, 11 March 2012 17:13

अशोक वाजपेयी 
काल को हराते शमशेर 
जनसत्ता 11 मार्च, 2012: 'उद्भावना' पत्रिका का वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे द्वारा सुसंपादित विशेषांक, जिसे 'होड़ में पराजित काल' नाम दिया गया है, लेखकों पर विशेषांकों की लंबी परंपरा में एक प्रतिमान की तरह आया है। विष्णु खरे इससे पहले पाब्लो नेरूदा पर भी ऐसा ही अनूठा और अविस्मरणीय विशेषांक 'उद्भावना' का ही संपादित कर चुके हैं। बहुत जतन और कल्पनाशीलता से, समझ और संवेदना से सामग्री एकत्र की गई है। छह सौ दस पृष्ठों वाले इस पुस्तकाकार अंक को अब निश्चय ही शमशेर पर एक प्रामाणिक संदर्भग्रंथ की तरह देखा जा सकता है जो कि वह है भी। संपादक का मुख्य आग्रह शमशेर को हर हालत में एक बड़ा प्रतिबद्ध कवि सिद्ध करना है, जो कि एक सर्वथा प्रत्याशित बात है, जिस पर आपत्ति नहीं की जा सकती। 
विष्णु यह जमाने से कहते-मानते रहे हैं कि हमारे समय में बड़ा या महत्त्वपूर्ण या विचारणीय कवि या लेखक प्रतिबद्ध ही हो सकता है। कई बार लगता है कि वे प्रतिबद्धता पर इस कदर दुराग्रह करते हैं कि कविता पर आग्रह क्षीण हो जाता है। बड़े लेखक हैं, हुए हैं जो उनकी परिभाषा के अनुसार प्रतिबद्ध नहीं हैं। इसके बावजूद उनकी यह व्याख्या दिलचस्प है: '... मुक्तिबोध अपने आराध्य का 'पावन', तल्लीन स्वरूप देखकर डरते तो हैं, किंतु उसकी स्तुति कर उसकी एकांत निजता को उद्विग्न न करते हुए लौट आते हैं, विजयदेव नारायण साही स्वयं को और हमें वैष्णवी कमली पहनाना चाहते हैं और रामविलास शर्मा भर्त्सना से अपनी भयबाधा हरना चाहते हैं। उनके आराध्य कोई और, कुछ और हैं।' 
विष्णु का यह इसरार किसी हद तक मोहक है कि 'जब शमशेर का समूचा प्रतिबद्ध पक्ष सामने आएगा- वह अब भी सामने है, लेकिन टूटा हुआ बिखरा हुआ है, इसलिए अपनी आश्चर्यजनक पूर्णता में उतना दिखाई नहीं देता- तब हम जानेंगे कि उनकी कविता का भवन बहुकक्षीय है, उसका वृहत्तर वास्तुशास्त्र उसे एक अन्विति देता है।... शमशेर भवन, जो गोथिक या बारोक शैली का नहीं है, अपने 'पवित्र' और 'बारीक काम' के बावजूद या उसकी वजह से भी, हमें डराता नहीं, आकृष्ट करता है। यदि वह लैबरिंथ, मेज या तिलिस्म भी है तो आकर्षक चुनौती भरा है। एकाध कपाट शमशेर ने शरारतन बंद भी कर रखा हो तो लाजिमी हो तो उसे तोड़ कर घुस जाना चाहिए। तब हम देखेंगे कि शमशेर की कोई मूर्ति या समाधि अंदर नहीं है, वे खुद हमारे साथ तोड़ो तोड़ो तोड़ो कारा में शामिल थे।' 
शमशेर पर लिखे गए कई बुजुर्गों के निबंध भी इस अंक में शामिल किए गए हैं, जिनमें मुक्तिबोध, साही, रघुवंश, नामवर सिंह, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, मलयज, कुंवर नारायण आदि शामिल हैं। हमसे बाद वाली पीढ़ी के भी कई कवियों-आलोचकों ने शमशेर पर लिखा है, जो इस अंक में प्रकाशित हैं। शमशेर की रचनाओं का भी एक सुघर और 'प्रतिबद्ध' संचयन संपादक ने इस विशेषांक में प्रकाशित किया है, जो उसे कई अर्थों में पूर्णता देता है। इसमें संदेह नहीं कि शमशेर की शती के अवसर पर यह सबसे अच्छे प्रकाशनों में से एक है।

पुस्तक मेले में 
हालांकि मैं इस स्तंभ में और नामवर सिंह अपने एक सार्वजनिक भाषण में पुस्तकों के लोकार्पण की प्रथा को बंद करने का आह्वान कर चुके हैं, हम दोनों ही उसका स्वयं पालन नहीं कर पा रहे हैं। इस बार का विश्व पुस्तक मेला तो, एक बार फिर, लोकार्पणों से आक्रांत था। हम ही ने अच्छी-बुरी अनेक पुस्तकों का प्रकाशकों या लेखकों के आग्रह पर लोकार्पण किया। उनमें दुर्भाग्य से ऐसी अनेक पुस्तकें शामिल हैं, जिन्हें पढ़ने का सुयोग बाद में जुट नहीं पाएगा। लोकार्पण के पक्ष में इतना भर कहा जा सकता है कि इस बहाने कुछ लोग जुट जाते हैं और लेखकों को यह अच्छा लगता है कि उनकी पुस्तकों को कुछ नोटिस, थोड़ी देर के लिए सही, लिया गया। इस बार यह देखने को भी आया कि पुस्तक मेले का अंग्रेजी मीडिया ने कोई खास नोटिस नहीं लिया, जैसे कि वह कोई ध्यान देने योग्य घटना न हो। इसके बरक्स कुछ हिंदी अखबार लगातार खबरें और नव प्रकाशित और लोकार्पित पुस्तकों के ब्योरे देते रहे। किसी ने बताया कि इस बार अंग्रेजी पुस्तकों के स्टालों में उतनी भीड़ नहीं थी जितनी कि हिंदी पुस्तकों के स्टालों में। खुदा करे यह सच हो। 
नामवर सिंह के बोले गए को लिखित और छपित रूप में पुस्तकाकार रूप में लाने की प्रक्रिया शायद अब पूर्णता को पहुंच रही है। राजकमल ने आशीष त्रिपाठी के सुघर संपादन में अगली चार पुस्तकें प्रकाशित कीं इस बार: 'साथ-साथ', 'सम्मुख', 'साहित्य की पहचान', और 'आलोचना और विचारधारा'। नामवर जी कह रहे थे कि अब और नहीं बचा। कौन जाने उन्हें खुद ठीक से पता न हो। कृष्ण बलदेव की डायरी 'जब आंख खुल गई' (राजपाल), कुंवर नारायण की डायरी और नोटबुक्स से चुने अंश 'दिशाओं का खुला आकाश' (वाणी) और राजी सेठ की पुस्तक 'मेरे साक्षात्कार' (भावना) से आए। 

नामवर जी के आरंभिक कवि और आलोचनात्मक जीवन का अच्छा लेखा-जोखा भारत यायावर ने 'नामवर होने का अर्थ' में किताबघर से प्रकाशित किया है। बीकानेर के उत्साही प्रकाशक सूर्य प्रकाशन मंदिर ने प्रभात त्रिपाठी की दो पुस्तकें 'पुनश्च' (आलोचना) और कहानी-संग्रह 'तलघर और अन्य कहानियां' के अलावा अनिरुद्ध उमट की आलोचना-पुस्तक 'अन्य का अभिज्ञान' और पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर की मूलत: कन्नड़ में लिखी आत्मकथा 'रसयात्रा'   का हिंदी में मृत्युंजय द्वारा किया अनुवाद प्रकाशित किए। राजकमल से विनोद कुमार शुक्ल का नया कविता संग्रह 'कभी के बाद अभी' और निशांत का कविता संग्रह 'जी हां लिख रहा हूं' प्रकाशित हुए। वहीं से गीतांजलिश्री का नया कहानी संग्रह 'यहां हाथी रहते थे' आया। शिल्पायन ने नई कथाकार जयश्री राय का उपन्यास 'औरत जो नदी है' प्रकाशित किया। सुरेश सलिल द्वारा संपादित 'शमशेर: चुनी हुई कविताएं' मेधा बुक्स ने छापी है और विष्णु खरे द्वारा अनूदित एस्ती (एस्टोनिया) के राष्ट्रीय महाकाव्य 'कलेवपुत्र' हिंदी में उद्भावना ने प्रकाशित किया। वाणी ने यतींद्र मिश्र की कला संबंधी निबंधों की पुस्तक 'विस्मय का बखान' और 'कभी-कभार' से एक वृहत् संचयन 'यहां से वहां' प्रकाशित किए।

जन्मशतियों से आगे 
अगर जिस व्यापक पैमाने पर शमशेर, अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल से लेकर अश्क, नेपाली, भुवनेश्वर आदि की जन्मशतियां पिछले लगभग सवा वर्ष में मनाई गई हैं, उससे लगता है कि हिंदी साहित्य-समाज में अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और उनके अवदान पर विचार और पुनर्विचार करने के मनोभाव अब भी सक्रिय हैं। इस दौरान शतायु हुए कई लेखकों को, उम्मीद है, उनको लेकर हुए हो-हल्ले के कारण, विशेषत: युवा वर्ग में, नए पाठक भी मिले होंगे। अकादेमिक जगत में साहित्य को लेकर जो जड़ता या समकालीन साहित्य को लेकर अपरिपक्व हड़बड़ी व्याप्त रही है उसमें कुछ कमी शायद आई होगी। स्वयं हिंदी में आधुनिकता की यात्रा कितनी दुष्कर और जटिल-बहुल रही है कुछ इसकी समझ में विस्तार हुआ होगा। इतनी उम्मीद करना तो शायद ज्यादती होगी कि इन पूर्वजों को लेकर जो पूर्वग्रह रूढ़ हुए हैं वे समाप्त हुए होंगे। पर इतना कहा जा सकता है कि उन पर कुछ पुनर्विचार जरूर हुआ लगता है। इसका थोड़ा नकारात्मक पक्ष यह है कि ऐसा पुनर्विचार जिन्होंने किया है उनमें से कुछ की अपनी विश्वसनीयता में इधर कुछ ह्रास हुआ है। यह नोट करना दिलचस्प है कि साठ की आयु के निकट पहुंची पीढ़ी के लेखकों में, इनमें से कई लेखकों के प्रति, पूर्वग्रह वैसे ही हैं: इस पीढ़ी ने बहुत कम पुनर्विचार किया है। वैसे तो यह भी किसी हद तक सही है कि इस पीढ़ी ने विचार ही कितना कम किया है! हिंदी में सृजनात्मक लेखकों में आलोचनावृत्ति का शिथिल होना इसी पीढ़ी से शुरू हुआ।
शती-समारोहों में कुछ कमियां भी रहीं। भारतीय ज्ञानपीठ से अज्ञेय रचनावली के छह खंड तो निकल गए, लेकिन बाकी का पता नहीं। शमशेर की रचनावली रंजना अरगड़े की अन्यथा व्यस्तता के कारण अटकी हुई है। किसी युवा आलोचक ने शतायु लेखकों में से किसी पर स्वतंत्र पुस्तक लिखने का उद्यम नहीं किया: नितांत समसामयिकता का आतंक ही ऐसा है कि पूर्वजों पर कुछ जमकर सोच-विचार कर लिखना गैर-जरूरी हो गया है। अलबत्ता इस बात से संतोष किया जा सकता है कि इस सिलसिले में दो सौ से अधिक आयोजन हुए हैं, जिनका कुछ न कुछ अच्छा प्रभाव पड़ा ही होगा।
अभी यह सिलसिला, सौभाग्य से, थमा नहीं है। शमशेर-शती तो जनवरी में समाप्त हो गई, पर उन पर केंद्रित एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण विशेषांक इसी महीने लोकार्पित हुआ। वरिष्ठ कवि-अनुवादक सुरेश सलिल ने शमशेर की कविताओं का बहुत जतन-समझ से संचयन किया है, जो मेधा बुक्स ने हाल ही में प्रकाशित किया है। अज्ञेय पर एकाग्र सौ लेखकीय संस्मरणों का अभूतपूर्व संचयन 'अपने अपने अज्ञेय' वाणी से निकला और वसुधा डालमिया के संपादन में 'हिंदी माडर्निज्म' मनोहर ने प्रकाशित किया है। कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद इसी सप्ताह अज्ञेय पर दो दिनों का राष्ट्रीय आयोजन कर रही है। नटरंग प्रतिष्ठान भी इसी महीने अज्ञेय की कविताओं के नाट्यपाठ की एक शाम आयोजित कर रहा है।
एक तरह से हिंदी समाज में बढ़ती-व्यापती जातीय विस्मृति के विरुद्ध, भूलने के विरुद्ध यह अभियान ही था जो जरूरी और वांछनीय दोनों था। उसे चलते रहना चाहिए, अनेक स्तरों पर।

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