Sunday, March 11, 2012

स्तरीकरण के खतरे

स्तरीकरण के खतरे


Sunday, 11 March 2012 17:20

गंगा सहाय मीणा 
जनसत्ता 11 मार्च, 2012: जातिवाद के विविध रूपों पर बात करते वक्त 'प्रगतिशील' साथी हमेशा नाक-भौं सिकोड़ते और इस अंदाज में आलोचना करते हैं, मानो जाति-व्यवस्था और जाति आधारित शोषण को जिंदा रखने में हमारी बातचीत ही जिम्मेदार है। आरक्षण को लेकर ऊंची जातियों की घृणा भी जाने-अनजाने प्रकट हो जाती है। 
सवाल है कि 'जाति' नामक सामाजिक पदानुक्रम का भविष्य क्या है? क्या वास्तव में जाति की बात करने वालों की वजह से समाज में जातिवाद जिंदा है? इन सवालों का जवाब आनंद कुमार के लेख 'आधुनिक भारत में जाति का सवाल' (16 फरवरी) और उस पर मस्तराम कपूर की टिप्पणी 'इतिहास की गति' (20 फरवरी) से संवाद करते हुए सुवीरा जायसवाल के निष्कर्षों (तद्भव-15) में खोजा जा सकता है। 
जाति-व्यवस्था के बारे में सुवीरा जायसवाल का मानना है कि 'वंशानुगत पेशे, आंतर विवाह और सोपानबद्ध जातिसमाज 'अस्पृश्य' जातियों के अस्तित्व में आने से पहले उत्तर-वैदिक वर्णव्यवस्था की प्रकृति बन चुके थे और उसी चौखटे में समूहों में संविलयन और विखंडन की प्रक्रियाओं से सोपानबद्ध जातियां उभरीं।' सवाल है कि आज जाति-व्यवस्था की उपर्युक्त विशेषताएं किस स्थिति में हैं, उन्हें कैसे खत्म किया जाए और कौन-सी विशेषताएं हम उनके स्थान पर लाकर वैकल्पिक समाज की रचना करना चाहते हैं। 
आनंद कुमार की चिंता है कि 'जाति के जनतांत्रीकरण और आधुनिकीकरण की वजह से इसका नया रूप उभर रहा है, जो आरक्षित समुदायों के निम्न अंतर्विरोधों के रूप में सामने आ रहा है- स्त्री और पुरुष का अंतर, दलित-महादलित का सवाल, धार्मिक समूहों में निहित विषमता और गांव और शहर के बीच का अंतर।' सुवीरा जायसवाल के अनुसार जाति-व्यवस्था की बुनियाद है- 'पितृसत्तात्मक विचारधारा की जकड़बंदी से स्त्री के यौनत्व पर नियंत्रण और उसकी पराधीनता तथा उच्चवर्गीय हितों के परिपोषण को धार्मिक रूप से स्वीकार्य बनाना।' वहीं मस्तराम कपूर के अनुसार जाति-व्यवस्था टूट रही है, बल्कि काफी हद तक टूट चुकी है। इसलिए वे सुझाते हैं कि सभी जातियों की गणना कर उन्हें चार श्रेणियों में बांट दिया जाए, जाति के स्थान पर हर जगह इन श्रेणियों का उल्लेख किया जाए और ये श्रेणियां गतिशील हों। 
सुवीरा जायसवाल ने इस बात पर जोर दिया है कि स्त्रियां आत्मनिर्भर होकर अपने जीवन के फैसले खुद करेंगी और अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनेंगी तो इससे जाति-व्यवस्था की बुनियाद हिल जाएगी। आनंद कुमार भी इस बात से सहमत हैं। मगर क्या स्त्रियों के आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने मात्र से वे जाति की सीमाएं तोड़ने लगेंगी? यह एक-दो दशक पहले की प्रगतिशील लोगों की समझ है। अगर भारतीय समाज की ताजा स्थिति को देखें तो सिर्फ स्त्रियों की आर्थिक परनिर्भरता सजातीय या अंतरजातीय विवाहों का एकमात्र कारण नहीं है। अगर ऐसा होता तो महानगरों की सभी नौकरी-पेशा लड़कियां जाति से बाहर विवाह करतीं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। 
जाति-व्यवस्था के मूल में पवित्रता-अपवित्रता की धारणा भी है, जिसे धर्म से जोड़ कर स्थायी बना दिया गया। आधुनिकता ने तार्किकता के माध्यम से इसे एक हद तक तोड़ा है। लेकिन आधुनिकीकरण हमें उतना तार्किक नहीं बना पाया, क्योंकि शिक्षा का जीवन से उतना गहरा संबंध नहीं बन पाया। 
दुनिया में शायद ऐसा कोई देश नहीं है, जहां समाज में स्तरीकरण न हो। जाति के रूप में भारत में स्तरीकरण का रूप जन्म आधारित है। वर्ग और वर्ण या जाति में फर्क यही है कि आर्थिक स्थिति बदलने से वर्ग बदल सकता है, लेकिन वर्ण या जाति नहीं। यानी जाति अपरिवर्तनीय वर्ग है। 
इसलिए हमारा ध्यान जातिविनाश की तुलना में जाति आधारित भेदभाव और शोषण के विविध रूपों के खात्मे और तथाकथित नीची जातियों को 

ऊपर उठाने पर होना चाहिए। पिछली आधी सदी का इतिहास गवाह है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति में पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा और नौकरियों में लागू आरक्षण ने सबसे अहम भूमिका निभाई है। स्त्रियों के मुक्ति आंदोलनों से उनका सशक्तीकरण तो हुआ है, लेकिन जाति-व्यवस्था को तोड़ने में इसकी भी भूमिका बहुत सीमित रही है। 
पढ़ी-लिखी और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर सवर्ण महिलाएं पिछड़ी जाति के स्त्री-पुरुषों से कमोबेश उतनी ही घृणा करती हैं, जितनी कोई अन्य स्त्री। सशक्त महिलाएं अपने सशक्तीकरण का उपयोग जाति-व्यवस्था के खात्मे के लिए नहीं, एक नया वर्ग बनाने के लिए कर रही हैं। दलित आंदोलन भी इस सीमा से अछूते नहीं हैं। सवर्णों से अपनी मुक्ति की मांग करने वाले दलित अपने घर-परिवार में स्त्रियों के प्रति वही शोषण और दमन का रिश्ता रखते हैं। खुद दलितों के अंदर का जाति आधारित पदानुक्रम किसी से छिपा नहीं है। 
मूल सवाल वही है- जाति का खात्मा कैसे हो। आनंद कुमार के अनुसार 'सबसे बड़ी सीमा है- जाति की राजनीति से उभरे दलों द्वारा सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया से खुद को काट लेना, बल्कि सामाजिक आंदोलनों से अपरिचय का भाव।' निश्चिततौर पर किसी भी बड़े बदलाव के लिए राजनीतिक सत्ता पाना अहम है, लेकिन सामाजिक आंदोलनों से कट कर कोई भी राजनीतिक सत्ता न तो लंबे समय तक बनी रह सकती है और न ही सामाजिक बदलाव में सही भूमिका निभा सकती है। पिछले दो दशकों में दलितों-पिछड़ों की पार्टियां सत्ता प्रतिष्ठानों तक पहुंचीं, लेकिन सत्ता में आते ही उन्होंने सामाजिक आंदोलनों को तेज करने के बजाय खुद को उनसे काट लिया। नतीजतन, वे अपने लक्ष्य से भटक गर्इं। दूसरी पार्टियों की तरह वे लोगों और समुदायों को वोट बैंक   के रूप में देखने लगीं और उनके दुख-दर्दों और चिंताओं को भूल गर्इं। 
यही हाल आरक्षण या दूसरे प्रयासों से अपनी स्थिति मजबूत कर चुके दलित-पिछड़ी जातियों से आए लोगों का हुआ है। उन्होंने अपना एक अलग वर्ग बना लिया है और अपने समुदाय के उन्हीं लोगों को 'अन्य' की दृष्टि से देखने लगे, जो विभिन्न कारणों से अपनी स्थिति में सुधार नहीं कर पाए। आधुनिक परिस्थितियों में अपनी स्थिति सुधार चुकी महिलाओं की स्थिति भी इससे बहुत भिन्न नहीं है। दरअसल, वर्तमान व्यवस्था में बड़ी खामियां हैं- अन्याय, विषमता और गरीबी। इनके स्थान पर हमें न्याय, समता और समृद्धि की स्थापना करनी है। जब तक हम अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में ईमानदार नहीं होंगे, किसी भी प्रकार के भेदभाव और शोषण का नाश नहीं हो सकेगा। 
जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं रुकेगा और हम अपने से नीची स्थिति वाले की तलाश नहीं छोड़ेंगे, तब तक जाति-व्यवस्था भले खत्म हो जाए, समाज में स्तरीकरण बना रहेगा और वही गैर-बराबरी का वाहक बनेगा। इस तरह समाज में अधिकतम संभव समानता लाने के लिए एक तरफ सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण सहित तमाम सकारात्मक कार्य किए जाने की जरूरत है, दूसरी तरफ अपने व्यवहार में ईमानदारी लाकर जरूरतमंदों के लिए आवश्यक अवसर उपलब्ध कराने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। 
जातिविनाश एक अनसुलझा, अंतहीन सवाल है, जिसका कोई बना-बनाया हल नहीं है। इस संदर्भ में बहुत सारे सवाल जरूर सामने हैं, लेकिन कोई मुकम्मल जवाब नहीं। रास्ता आपसी सहमति और सामंजस्य से ही निकलेगा। ऊंची जातियों और पुरुषों सहित सत्ता-विमर्श में मजबूत स्थिति वाले व्यक्तियों और समुदायों पर भी विश्वास करना होगा। उनको साथ लिए बिना समाज में समानता का कोई भी सपना अधूरा रहेगा। साथ ही स्त्री, दलित, आदिवासी, पिछड़े आदि सभी उत्पीड़ित अस्मिताओं को एक दूसरे के आंदोलनों के प्रति सद्भाव और सहयोग का भाव पैदा करना होगा।

 
 

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