Sunday, 11 March 2012 17:16 |
कुलदीप कुमार आज तो विधायक, सांसद और मंत्री बनने के कुछ ही वर्षों के भीतर करोड़पति बनना आम बात हो गई है। अपने चारों ओर नजर दौड़ाइए। बहुजन समाज के झंडाबरदार हों या समाजवाद के, हिंदुत्व के भक्त हों या गांधीवाद के, सभी अरबों-खरबों रुपए के वारे-न्यारे करते नजर आएंगे। आज हमारी संसद के कामकाज में जिन चीजों को स्वाभाविक मान लिया जाता है- मसलन शून्यकाल- उन तौर-तरीकों को मधु लिमये, ज्योतिर्मय बसु और जॉर्ज फर्नांडीज जैसे सांसदों ने कठिन संघर्ष के दौरान संसदीय हथियारों की तरह विकसित किया था। लेकिन इन दिनों सांसदों का अधिकतर समय संसद की कार्यवाही ठप्प करने में खर्च होता है, संसद में सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने में नहीं। वे खुद भी अपने को जनता के प्रति जवाबदेह नहीं समझते। उनका मानना है कि उन्हें चुनाव में जिता कर जनता ने उनकी सभी कारगुजारियों पर स्वीकृति की मुहर लगा दी है और मनमानी करने का लाइसेंस दे दिया है। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता चुनावी जीत के बाद किस तरह मदमत्त होकर विरोधियों पर हमले कर रहे हैं, वह सबके सामने है। सत्ताच्युत मायावती सरकार ने जिस निरंकुश ढंग से पांच साल शासन किया, वह भी सबने देखा है। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा फहराने वाली कांग्रेस कितनी पाक-साफ है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। सार्वजनिक जीवन में शुचिता की दुहाई देने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के आचरण को किसी टिप्पणी की दरकार नहीं है। चारों ओर फैलती जा रही मर्यादाहीनता के इस दौर में अगर मधु लिमये जैसे नेताओं की याद आती है तो यह स्वाभाविक ही है। क्या यह स्थिति इसलिए बनी है कि राजनीति से विचारों की विदाई हो गई है? या जो विचार अब भी अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं, उनकी प्रासंगिकता समाप्त या बहुत कम हो गई है? इस नव-उदारवादी अर्थनीति के युग में क्या बाजार ही सर्वाधिक शक्तिशाली सत्ता है? क्या इसीलिए अब हर चीज बेची और खरीदी जाने लगी है? विचारहीन राजनीति हमें कहां ले जाएगी? अब आदर्शों की बातें क्या सिर्फ गैर-राजनीतिक आंदोलन किया करेंगे? और, क्या अण्णा हजारे जैसे घोषित गैर-राजनीतिक आंदोलन देश की राजनीतिक व्यवस्था की चाल और चेहरा बदलने में समर्थ हो सकते हैं? आज ऐसे ही अनेक सवाल खड़े हो जाते हैं और उत्तर नहीं सूझता। वर्तमान स्थिति का विकल्प क्या है? उत्तर प्रदेश की जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग करके मायावती की निरंकुश और भ्रष्ट सरकार को हटा दिया। लेकिन उसके स्थान पर जिसे चुना है, क्या वह वास्तव में विकल्प है? क्या अगली सरकार पिछली से बुनियादी तौर पर भिन्न होगी? क्या जनता को सुशासन मिलेगा, उसकी तकलीफें कम होंगी और भ्रष्टाचार घटेगा? मन आश्वस्त नहीं होता। निरंतर छले जाना ही शायद हमारी नियति बन गई है। क्या यह नितांत निराशावादी सोच नहीं है? क्या अब भी मन में यह दृढ़ विश्वास नहीं होना चाहिए कि इस अंधेरे को चीरती हुई कोई किरण अचानक फूटेगी? लेकिन इस परिवर्तन का ध्वजावाहक कौन होगा? कौन-सी सुप्त ऐतिहासिक शक्तियां जागेंगी और राजनीति नई करवट लेगी? पता नहीं। फिलहाल तो यही लगता है कि 'खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।' |
Sunday, March 11, 2012
विचारहीनता के दौर में
विचारहीनता के दौर में
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