Sunday, 11 March 2012 17:17 |
गोपाल प्रधान हाल में जब देवास एंट्रिक्स करार मामले में चार वैज्ञानिकों को भविष्य में कोई भी सरकारी पद नहीं सौंपने का फैसला आया तो वैज्ञानिकों ने इसे अन्याय माना। तब प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री ने बयान दिया कि यह फैसला वैज्ञानिकों को सबक सिखाने के लिए किया गया है। थोड़े ही दिनों बाद बिहार के हड़ताली डॉक्टरों के बारे में एक मंत्री ने कहा की सरकार डॉक्टरों के हाथ काटना भी जानती है। इस भाषा का उत्स महज पूंजी के संरक्षण में नहीं, चुनाव जीतने के लिए पहले जिन अपराधियों की मदद ली जाती थी उनकी राजनीतिक जमात में शामिल होने में निहित है। यह ऐसा सच है, जिसे आज राजनीतिक वर्ग सुनना ही नहीं चाहता। सांसदों के विशेषाधिकार भी अपराधियों को राजनीति की ओर आकर्षित कर रहे हैं। नहीं तो क्या कारण है कि इतने सारे अपराधी लोकतंत्र के प्रति आस्थावान होकर चुनाव लड़ने और जीत कर सांसद बनने को लालायित रहते हैं। जब राजनीति में इस समुदाय का धड़ल्ले से प्रवेश होगा तो उसकी भाषा राजनीति की भाषा बनेगी ही। देश के मुखिया का पद इस समय एक अर्थशास्त्री के पास है और अर्थशास्त्र में आम जनता के प्रति एक बेहद अपमानजनक सिद्धांत को मंत्र की तरह सभी नेता दोहराते हैं। उस सिद्धांत को अंग्रेजी में ट्रिकल डाउन इफेक्ट कहते हैं। इस सिद्धांत के मुताबिक अगर देश के मुट्ठी भर धनी लोगों के पास पैसा आएगा तो इसका असर कुल अर्थतंत्र पर स्वास्थ्यकर होगा। माने तब भीख भी अधिक मिलने लगेगी, घर के नौकर को भी ज्यादा पगार मिलेगी, बेयरा को टिप भी अधिक मिलेगी। आजकल हमारे देश के शासक अमेरिकी मालिकों की ऐसी ही समृद्धि के सहारे सुखकर जीवन की आशा में हैं। तभी तो खुद प्रधानमंत्री ने व्यक्तिगत रुचि लेकर अमेरिका के साथ न सिर्फ परमाणु समझौता किया, बल्कि अमेरिका के परमाणु विरोधियों को काबू में रखने के लिए अमेरिकी सरकार को उकसा भी रहे हैं। हमारे सामने एक ऐसा शासक समुदाय है, जो देश की हालत सुधारने के लिए नहीं, बल्कि निजी मान-सम्मान को लेकर बेहद संवेदनशील है। विरोध में बोलने वाले किसी भी आदमी को देशद्रोही और लोकतंत्र विरोधी कहने और साबित करने के लिए कमर कसे हुए हैं। एक समय अदालतें अचानक जिस तरह अवमानना को लेकर संवेदनशील हो उठी थीं, आज राजनीतिक वर्ग उससे भी अधिक अपने अधिकार और मान-अपमान को लेकर सजग दीख रहा है। काश ऐसी ही सजगता उसके भीतर देश की बेहतरी और सम्मान को लेकर होती! लेकिन जो है नहीं, उसका गम क्या! घाटे में चल रही देशी-विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने की जैसी बेकरारी नेताओं में है अगर वैसी ही बेचैनी आत्महत्या करने वाले किसानों को कर्ज से उबारने के लिए होती तो क्या कहना! |
Sunday, March 11, 2012
अहंकार की भाषा
अहंकार की भाषा
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