Sunday, 11 March 2012 17:18 |
पवन कुमार गुप्त व्यक्तिवादी व्यक्ति अहंकारी, चालाक, खुदगर्ज, आक्रामक, भेड़चाल चलने वाला, स्वार्थवश हुक्म बजाने वाला और हीन भावना से ग्रस्त, संकुचित सोच वाला होता है। आधुनिक विकास की अवधारणा ऐसे ही व्यक्ति को प्रोत्साहित करती है। यह व्यक्ति कानून और संविधान में तो आस्था रख सकता है, पर समाज की समझ इसे नहीं होती। इस व्यक्ति को शायद राष्ट्रभक्ति की समझ हो सकती है, देशभक्ति इसे समझ नहीं आ सकती। जो समाज से कटा हुआ हो, देशभक्ति उसके पल्ले नहीं पड़ती। मौजूदा विकास विविधता को खत्म करके एकरूपता को पोषित करता है। एकरूपता में शोषण और शासन दोनों आसान होता है। विविधता खत्म होते ही समाज कमजोर पड़ते हैं। कमजोर और टूटे हुए समाज का शोषण और उस पर शासन करना आसान हो जाता है। व्यक्ति को सहज और शालीन बनाने का काम सशक्त और समृद्ध समाज ही कर सकता है। सशक्त और समृद्ध समाज स्वावलंबी, स्वायत्त और सौंदर्य दृष्टि से परिपूर्ण होता है। ऐसे समाज में दिखावा, प्रतिस्पर्धा, अश्लीलता, भोंडापन, चालाकी, आक्रामकता नहीं, बल्कि सहजता, परस्परता, विवेक, वीरता, धैर्य, ठाठ और सौंदर्य पनपते हैं। यह बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि 1750 तक दुनिया के कुल उत्पादन में भारत का हिस्सा करीब एक चौथाई होता था और वह भी गैर-कृषि उत्पाद में। कृषि उत्पाद को मिला लिया जाए तो यह प्रतिशत और ज्यादा बढ़ेगा। यह उत्पादन विभिन्न जातियों और कारीगर समाज द्वारा होता था, न कि आधुनिक औद्योगिक पद्धतियों से। ढाई-तीन सौ सालों में, जिस दौरान अंग्रेजी राज ने जमींदारी प्रथा को बढ़ावा दिया, हमारी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त और कमजोर पड़ने लगी। कमजोर समाज में विकृतियां स्वाभाविक रूप से पैदा होती हैं। पहले जमींदारी प्रथा और फिर उद्योगीकरण ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया। स्थानीय व्यवस्थाएं ढहने लगीं। अगर उस इतिहास को अलग करके भारत का ठीक से अध्ययन किया जाए तो शायद अहसास होगा कि हमारा समाज कुछ अलग तरह का रहा है। हमारे इतिहासकार इस जमींदारी काल के इतिहास से जोड़ कर उससे पहले के भारत की तस्वीर बनाते हैं, जिसमें उन्हें विकृतियां ही दिखाई पड़ती हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वालों को इस तरफ भी ध्यान देना होगा। विकास के भ्रामक सपनों से जनसाधारण को मुक्त करना होगा और उन्हें इस पर भी काम करना पड़ेगा कि समाज कैसे सशक्त और समृद्ध हो, व्यक्ति कैसे संपन्न हो। जन साधारण की शिक्षा और उसमें फिर से जान फंूकने के काम भी करने पड़ेंगे, जिससे उसकी टूटी-फूटी आत्म-छवि सुधरे और आत्म-विश्वास लौटे। विकास नहीं, हमें समृद्धि, संपन्नता और स्वावलंबन का सपना देखना होगा। |
Sunday, March 11, 2012
विकास का चेहरा
विकास का चेहरा
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