Wednesday, January 25, 2012

अंग्रेजी का साहित्यिक उपनिवेश

अंग्रेजी का साहित्यिक उपनिवेश


Wednesday, 25 January 2012 10:26

शंभुनाथ 
जनसत्ता 25 जनवरी, 2012 : साहित्य से भी बड़ा साहित्य उत्सव है, यह जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने साबित किया। इस पर आश्चर्य हो सकता है कि जिस साहित्य के सामाजिक विस्थापन का लोग रोना लेकर बैठ जाते हैं, इस उत्सव में उसका कितना हल्ला मचा, देश-विदेश के लेखकों को देखने-सुनने के लिए कितनी भीड़ें उमड़ीं, और पांच दिनों में देखते-देखते करोड़ों की किताबें बिक गर्इं। जयपुर साहित्य उत्सव एक नए ट्रेंड की सूचना है। अब देश भर में इसके छोटे-छोटे प्रतिबिंब बन रहे हैं। इसलिए इसे अच्छी तरह समझने की जरूरत है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में साहित्यकार ही नहीं, फिल्मी हस्तियों, मंत्रियों, अमेरिका-इंग्लैंड से आए मीडिया के लोगों, हजारों विद्यार्थियों-नौजवानों और निश्चय ही प्रकाशकों का भी एक बड़ा जमावड़ा था। सेलिब्रिटी बने हुए कुछ लेखक आदि दुर्लभ दृश्य थे तो काफी लेखक दर्शक थे। उत्सव में अमेरिका की खरबपति आकर्षक महिला विनफ्रे भी आर्इं। शहर के होटलों के तीन हजार कमरे बुक थे। गुलाबी शहर में अनगिनत लेखक गुलाबी गुलाबी। मेरे जैसे दूरदर्शकों को पहली बार यह लगा, यह साहित्य का तूफान है। कुछ सालों में ही यह चीज इतनी अधिक बढ़ गई। इतना तामझाम, इतना प्रचार और सबकुछ एक बड़े सांस्कृतिक विस्फोट-सा और इन सब पर अंग्रेजी की एक विराट रेशमी चादर। इस माहौल में होना एक बौद्धिक स्टेटस का मामला बन गया। जयपुर साहित्य उत्सव ऐसी घटना है, जो कई बार आशा से अधिक भय पैदा करती है।
इस साहित्य उत्सव में भारतीय भाषाओं के इने-गिने लेखक आमंत्रित थे। इनकी न कोई आवाज थी और न ये मुख्य दृश्य में थे। इनकी सिर्फ औकात दिखाई जा रही थी। चारों तरफ अंग्रेजी का दबदबा था। मुझे नहीं पता हिंदी के दिल्ली में रहने वाले जो लेखक जयपुर उत्सव में गए थे, वे इसमें भारतीय भाषाओं की पददलित स्थिति देख कर कितनी शर्म महसूस कर रहे थे। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय भाषाओं के लेखकों का आम अनुभव यही होगा कि यह उत्सव अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों बल्कि अंग्रेजी में लिखने वाले गैर-पश्चिमी मूल के लेखकों को प्रमोट करने के लिए है। यह निश्चय ही सबसे अधिक भारत में अंग्रेजी का साहित्यिक उपनिवेश बनाने का मामला है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की कारीगरी अभूतपूर्व है। इसके पीछे विभिन्न स्रोतों से पैसे का अपार बल तो है ही। विदेशी लेखकों और साहित्य प्रेमियों को सबसे अधिक मुग्ध करने वाली बात है दो सौ चालीस साल पुराने डिग्गी पैलेस के विराट हरे-भरे बहुमूल्य परिसर में इस उत्सव का आयोजन। इस पैलेस में भारत की राजछवि है, एक इतिहास है। इसके साथ ही उत्सव है साहित्यिक सत्रों के बाद लोकशिल्पियों का प्रदर्शन, ताकि राजछवि और लोकछवि के बीच साहित्यिक अड््डा, तमाशा और मस्ती जम उठे। 
1857 पर लिखने वाले 'द लॉस्ट मुगल' के लेखक डेलरिंपल और इस उत्सव के संयोजक (प्रोड्यूसर) संजय रॉय दोनों मुख्यत: रहते दिल्ली में हैं, पर उन्होंने साहित्य उत्सव के लिए चुना जयपुर शहर को। इसके निहितार्थ अस्पष्ट नहीं हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल मुख्य रूप से इतिहास, लोकसंस्कृति और साहित्य को नव-औपनिवेशक खेल में बदलने का एक आनंद भरा अभियान है।
समझना मुश्किल नहीं है कि इस फेस्टिवल में गुलजार, जावेद अख्तर और प्रसून जोशी जैसे व्यावसायिक गीतकार ही बड़े कवि का दृश्य क्यों बनाते हैं। फेस्टिवल में कपिल सिब्बल भी बड़े कवि हैं। वे पिछले साल भी आमंत्रित थे, इस बार भी। इस बार तो अशोक वाजपेयी ने उनसे वार्ता की जुगलबंदी की। ऐश्वर्या-अभिषेक की संतान को मुंबई में देखते हुए, मथुरा के ट्रैफिक से टकरा कर, स्लम और ताजमहल दोनों का मजा लेते हुए धनाढ्य अमेरिकी लेडी विनफ्रे चमकते-दमकते जयपुर फेस्टिवल पहुंचीं। आखिरकार उन्हें किस हैसियत से आमंत्रित किया गया था? अब अस्पष्ट नहीं है कि इस फेस्टिवल के लिए आमंत्रण नीति के पीछे कुछ सोची समझी निश्चित योजनाएं हैं। 
कई बार जयपुर फेस्टिवल को डीएससी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के रूप में याद किया जाता है। डीएससी सड़क और पुल बनाने वाली एक बड़ी कंपनी है। इसमें साहित्य-प्रेम कैसे जगा, पता नहीं। इसने पिछले साल से दक्षिण एशियाई साहित्य के लिए पचास हजार डॉलर का डीएससी प्राइज शुरू किया है, जो इस साल भी दिया गया। यह अब भारत से दिया जाने वाला सबसे बड़ी राशि का पुरस्कार है। 
यह भीतर से लगभग पूर्व निर्धारित है कि पुरस्कार उपन्यास के लिए दिया जाएगा और वह भी अंग्रेजी में लिखे गए गैर-पश्चिमी लेखक के उपन्यास के लिए। यह एशिया में अंग्रेजी के ताज में एक और कोहिनूर है। दरअसल, तीन साल पहले सलमान रुश्दी ने इसी फेस्टिवल में बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था कि अंग्रेजी में लिखा गया भारतीय साहित्य ही भारतीय साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है, पश्चिम में इसी की स्वीकृति है। 'वर्नाकुलर' में लिखा साहित्य महत्त्वहीन है, यह बात जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों की मानसिकता में छिपे रूप में घुसी हुई है।

वैश्वीकरण ने भारत में अंग्रेजी का साम्राज्यवाद बढ़ाया है। मध्यवर्ग के पढ़े-लिखे नए लोग फास्टफूड, फैशन और पश्चिमी जीवन शैली में जी रहे हैं। चेतन भगत के उपन्यासों की अगर लाखों प्रतियां बिक रही हैं, इसी तरह अगर अंग्रेजी में छपे दूसरे लेखकों के उपन्यासों की भी बड़ी खपत है तो इसकी वजह यह है कि इस समय हिंदी,   मराठी, तमिल, बांग्ला, मणिपुरी आदि सभी परिवारों से अंग्रेजी को बड़ी संख्या में पाठक मिल रहे हैं। ये अपनी राष्ट्रीय भाषा के साहित्य को त्याग कर अंग्रेजी की चीजें पढ़ रहे हैं। जयपुर फेस्टिवल में ज्यादातर जमावड़ा ऐसे भारतीय पाठकों और साहित्यप्रेमियों का है, जो जड़विहीन हैं, अन्यथा विनफ्रे, चेतन भगत, शशि थरूर इतने क्यों पसंद किए जाते और ये ही दुर्लभ दृश्य क्यों बनते। स्पष्ट है, पश्चिमी देशों में अंग्रेजी पुस्तकों के घटते जा रहे पाठकों की क्षतिपूर्ति एशियाई क्षेत्र के पाठकों से हो रही है, जो एशिया में अंग्रेजी के बढ़ते साहित्यिक उपनिवेश का एक प्रमुख लक्षण है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अंग्रेजी पुस्तक बाजार की ही एक असरदार सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। पेंग्विन जैसों का व्यापार भारत में बढ़ा है। यह उत्सव सबसे पहले एक बाजार है। अंग्रेजी में भारतीय लेखन से कभी एतराज नहीं है, पर यह तो देखना ही होगा कि विदेशी पंखों वाली भारतीय चिड़िया कैसी है। इसमें मिट््टी की कोई आवाज है या नहीं, यह 'साहित्यिकता कम-मनोरंजन ज्यादा' में कितनी फंसी है, यह किस हद तक अमेरिकी प्रभाव से मुक्त है और किस हद तक नव-औपनिवेशिक सांस्कृतिक लीला का अंग है।
आखिरकार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की उपलब्धि क्या है? सलमान रुश्दी हीरो- जयपुर फेस्टिवल जीरो। लगभग पचीस साल बासी कढ़ी में उबाल आया और पूरा मामला पश्चिमी मूल्य बनाम मुसलिम कट््टररवाद- हंटिगटन की सभ्यताओं की टकराहट के जाल में फंस गया। सलमान रुश्दी ने नहीं आकर कायरता का परिचय दिया। अंग्रेजी के चार भारतीय लेखक 'द सैटनिक वर्सेज' से कुछ पंक्तियां पढ़ कर भाग गए, उनमें से एक न्यूयार्क भागा। 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आंदोलन क्या भगोड़ों की जमात के बल पर चलेगा? कबीर, सूफी, लिंकन, गांधी और गणेशशंकर विद्यार्थी के समय में क्या कम खतरे थे? सरकार और जयपुर फेस्टिवल के आयोजक दोहरे चरित्र के निकले ही, अंग्रेजी के भारतीय लेखकों ने भी बता दिया कि वे मुद्दा उठा सकते हैं, पर लड़ नहीं सकते।
सलमान रुश्दी प्रकरण में यह संदेह किया जाना शायद निर्मूल नहीं होगा कि उसका प्रचार पहले आयोजकों ने खुद किया। पिछली दफा उनकी आयद अलक्षित रह गई थी। जितना फायदा एक विवादग्रस्त लेखक से मिलना चाहिए, उतना नहीं मिला। इसलिए इस बार पहले से हल्ला किया गया। आखिर मार्केटिंग वाले युवकों का खेल है। उन्हें बेचने, हल्ला उठाने के तौर-तरीके आते हैं। मीडिया में ''शैतान की आयतें'' लिखने वाले रुश्दी चाहे आएं न आएं, उनका शोर उन्हें इतना प्रचार दे सकता था, जो आज तक किसी नायक-नायिका की शिरकत तक ने नहीं दिया। अगर हमारा यह संदेह गलत है तो पूछा जाना चाहिए कि फिर इतने विवादास्पद लेखक के आने की खबर कोे पिछली बार की तरह पोशीदा क्यों नहीं रखा गया। 
आयोजकों को बात तब समझ में आई जब बात हाथ से निकल गई। राज्य सरकार से उन्हें आए साल काम पड़ने वाला है। उन्होंने आंखें दिखार्इं और ये डर गए। आखिरी दिन अपनी खाल बचाने के लिए वीडियो वार्ता की योजना बनाई, सरकार ने उसकी इजाजत भी नहीं दी। आयोजक फिर समर्पण की मुद्रा में खड़े हो गए। कायर केवल रुश्दी या भगोड़े लेखक नहीं हैं, आयोजक भी इसी श्रेणी में आ खड़े हुए हैं।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने स्पष्ट कर दिया, यह विराट बड़ा ही तुच्छ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अंग्रेजी का साहित्यिक उपनिवेश ठिठक जाएगा। आज हमारे सामने एक मुख्य प्रश्न यह है कि हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं पर पश्चिम का और अंग्रेजी का जो सांस्कृतिक आक्रमण है, उसका हमारे पास क्या जवाब है। हमें उसका अंग बन जाना है या एक विकल्प देना है? क्या 'भारतीय साहित्य उत्सव' शुरू नहीं किया जा सकता? भारत में अंग्रेजी के बन रहे उपनिवेशों का सामना राष्ट्रीय पुनर्जागरण से ही संभव है। 
यह सही है कि हिंदी का बौद्धिक मानस बड़ा विभाजित और स्वकेंद्रवादी है। फिर भी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के नव-औपनिवेशिक दुश्चक्र की समझ भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक उत्सव का रूप देने के लिए प्रेरित कर सकती है। इसमें एशिया के लेखकों को विशेष रूप से बुला कर एक नया अर्थ दिया जा सकता है। यह उत्सव तामझाम से नहीं, सार्थक आवाजों से भरा हो। जयपुर फेस्टिवल जैसे अवसरों पर जो अंग्रेजी की जूठन से तृप्त न हो जाते हों, वे इस नई शुरुआत के लिए सोचें।

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