Tuesday, January 31, 2012

बदतर देश को बेहतर दिखाइए, 10 से 12 लाख रुपये कमाइए!

बदतर देश को बेहतर दिखाइए, 10 से 12 लाख रुपये कमाइए!

26 JANUARY 2012 NO COMMENT
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♦ प्रकाश के रे

बिना डॉक्युमेंट्री फिल्मों के देश उस परिवार की तरह है, जिसके पास फोटो अलबम नहीं हो।

पैत्रिसियो गुजमान, फिल्मकार

लोगों को निष्क्रिय और आज्ञाकारी बनाये रखने का चालाक तरीका यह है कि स्वीकार्य विचारों का दायरा कठोरता से संकुचित कर दिया जाए, लेकिन उस दायरे में खुली बहस के लिए अनुमति हो।

नोम चोम्‍स्की, चिंतक


ह कुफ्र हमारे समयों में होना था… का मलाल लिये पाश को गुजरे चौथाई सदी का वक्त हो चला है। वह कवि आज होता, तो शायद यह कहता कि इस अश्लीलता से बेशर्म को बेपर्द होते हमें ही देखना था। कुछ दिनों पहले हमने देखा किस तरह कई पत्रकार बेहद बेईमान कंपनियों द्वारा प्रायोजित पुरस्कार लेने के लिए कतार में लगे थे। अभी अभी खत्‍म हुए साहित्य के नाम पर लगे एक चर्चित मेले में दुनिया की सबसे खूंखार कॉर्पोरेटों द्वारा फेंके गये चंद सिक्कों के बदले बड़े-बड़े लेखक-विचारक गाल बजा रहे थे। इसी कड़ी में फिल्म बनाने के लिए धन देनेवाले एक ट्रस्ट ने भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के लिए देश के बाहर देश की छवि बेहतर बनाने के लिए डॉक्युमेंट्री बनाने के लिए आवेदन आमंत्रित किये हैं।

इस निविदा पर विस्तार में जाने से पहले यह साफ कर देना जरूरी है कि मुझे किसी के किसी-तरह से पैसा या पुरस्कार कमाने पर कोई आपत्ति नहीं है। मुझे आपत्ति इस बात से है कि ऐसा पत्रकारिता, साहित्य, कला आदि के पवित्र दावों की आड़ में किया जा रहा है। पत्रकारिता और साहित्य को जनहित का काम कह कर इनसे संबंधित संस्थाएं और लोग सरकार से कई तरह की सहूलियतें पाते हैं, जिनका भुगतान अंततः जनता करती है। इसलिए जब किसी को लगता है कि बड़ी-बड़ी बातों के पीछे बेईमानी की जा रही है, तो चुप रहना मुश्किल हो जाता है। इसी वजह से पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट (पीएसबीटी) द्वारा विदेश मंत्रालय के लिए फिल्म बनाने के लिए मांगे गये आवेदन के बारे में कुछ सवाल उठाना जरूरी हो जाता है। अब आदर्शवादी सिनिसिज्म का कोई मतलब नहीं है, यह समय क्रुद्ध होने का है।

यह ट्रस्ट पिछले कई सालों से सरकार, संयुक्त राष्ट्र संघ और फोर्ड फाउंडेशन सहित कई संस्थाओं के सहयोग से देश में स्वतंत्र फिल्म-निर्माण को प्रोत्साहित करता आ रहा है और उसने बड़ी संख्या में नवोदित फिल्मकारों को अवसर प्रदान किया है। इस संस्था द्वारा बनी फिल्मों ने निस्‍संदेह डॉक्युमेंट्री आंदोलन को मजबूत किया है और विषय-वस्तु तथा कला के स्तर पर उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, अदूर गोपालकृष्णन, अरुणा वासुदेव आदि सिनेमा के बड़े नाम इस ट्रस्ट के सदस्य हैं। हर साल इस ट्रस्ट द्वारा विभिन्न विषयों पर फिल्में बनाने के लिए प्रस्ताव मांगे जाते हैं और चुने गये प्रस्तावकों को फिल्म बनाने के लिए एक नियत राशि दी जाती है।

दो दिन पहले घोषित की गयी सूचना के मुताबिक इस वर्ष की फिल्में भारत के विदेश मंत्रालय के पब्लिक डिप्लोमेसी डिवीजन के लिए बनायी जाएंगी, जिनका बजट 10 से 12.5 लाख प्रति फिल्म के हिसाब से होगा। ये फिल्में भारतीय दर्शकों के लिए नहीं, बल्कि विदेशों में भारत की सकारात्मक छवि दिखने के लिए प्रोपेगैंडा के लिए इस्तेमाल की जाएंगी। यहां तक तो मामला ठीक है, लेकिन इस घोषणा से मेरी परेशानी तब शुरू होती है, जब शुरू में ही उसमें कह दिया गया है कि फिल्मों में भारत के 'सॉफ्ट पॉवर' को दिखाना होगा। आगे बात करने से पहले इस 'सॉफ्ट पॉवर' की अवधारणा को समझना जरूरी है।

'सॉफ्ट पॉवर' एक कूटनीतिक अवधारणा है, जिसे हार्वर्ड विश्‍वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर जोसेफ न्ये ने 1990 की अपनी पुस्तक बाउंड टू लीड: डी चेंजिंग नेचर ऑव अमेरिकन पॉवर में पहली बार प्रतिपादित किया था। 2004 में एक अन्य किताब सॉफ्ट पॉवर: द मीन्स टू सक्सेस इन वर्ल्ड पॉलिटिक्स में उन्होंने इसे और विस्तार दिया और आज वैश्विक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में इसका प्रयोग खूब होता है। इस सिद्धांत के अनुसार, एक देश अपने मूल्यों, संस्कृति, नीतियों और संस्थाओं जैसे 'प्राथमिक करेंसी', प्रो न्ये के शब्दों में, का उपयोग कर दूसरे देशों के साथ माकूल संबंध स्थापित कर 'जो चाहे सो' कर सकता है। इस सिद्धांत पर विद्वानों में कई विचार हैं, लेकिन शक्तिशाली देश इसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहे हैं।

इस बहस में जाने के बजाय प्रो न्ये के बारे में कुछ कहना जरूरी है। प्रो न्ये नव-उदारवादी प्रोफेसर होने के साथ अमेरिकी प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। वे अमेरिकी सुरक्षा सहायता, विज्ञान और तकनीक तथा परमाणु-अप्रसार के विभाग में रहे हैं। क्लिंटन के शासनकाल में राष्ट्रीय खुफिया समिति के अध्यक्ष रहे, जिसका काम खुफिया सूचनाओं का आकलन कर राष्ट्रपति को सलाह देना था। क्लिंटन-प्रशासन में ही वे अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के उप-मंत्री भी रहे। फिलहाल वे इंटरनेट/साइबर सुरक्षा के एक बड़े प्रोजेक्ट के साथ-साथ कई संस्थाओं और प्रकाशनों से जुड़े हैं, जिसमें कुख्यात कॉन्सिल ऑन फॉरेन रिलेशन भी शामिल है। प्रो न्ये अमेरिका में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सबसे प्रभावपूर्ण विद्वानों में शुमार किये जाते हैं। इनके बारे में यह सब जानना इसलिए आवश्यक है ताकि उनके विचारों के निहितार्थों को समझा जा सके। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिका के सम्मोहन में पड़ी भारत की सरकार प्रो न्ये के विचारों की नकल बिना किसी फेरबदल और संकोच के कर रही है।

इससे पहले कि कुछ पाठक मुझ पर अंध-अमरीका विरोध का आरोप लगाएं, पीएसबीटी द्वारा सुझाये गये विषयों की सूची पर नजर डालें। हालांकि, ये विषय फिल्मकारों को महज संकेत/सुझाव के तौर पर बताये गये हैं और फिल्मकार अपनी मर्जी से विषय चुन सकते हैं। चूंकि 'सॉफ्ट पॉवर' के दायरे में यही सब बातें आती हैं, इसलिए बहुत अलग कुछ सोचने के लिए कोई मौका भी नहीं है।

संकेत/सुझाव के तौर पर दिये गये विषय इस प्रकार हैं…

 नालंदा की परंपरा (!)
 ध्यान, खुशी के विज्ञान और कला (!)
 भारत में चाय – इसकी भूमिका और पीने के विभिन्न तरीके
 आयुर्वेद
 हॉलीवुड में भारत – शेखर कपूर, मीरा नायर, दीपा मेहता (!!)
 दुनिया के लिए अंग्रेजी में भारतीय लेखन (!)
 बासमती की कहानी
 वाराणसी – भारतीय सभ्यता का आधार
 स्त्री और ईश्वर – भारत की आध्यात्मिक/धार्मिक परंपराओं में स्त्री का स्थान
 भारतीय जवाहरात – आभूषण की कला, शिल्प और उसकी भूमिका तथा उसकी वैश्विक उपस्थिति
 दुनिया में भारतीय महिला सीईओ
 नोबेल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन – गरीबों के लिए दृष्टि
 बॉलीवुड – भारतीय फिल्म उद्योग का चित्रण उसके सेक्युलर परंपरा को ध्यान में रखते हुए जहां मुस्लिम कलाकार हिंदू देवताओं की भूमिका निभाते हैं
 भारत को समझना – मार्क तुली | प्रताप भानु मेहता | जगदीश भगवती | आशीष नंदी के साथ भारत की विविधता और उसकी संभावनाओं का चित्रण
 जुगाड़ – भारतीय आविष्कार
 भारत और परमाणु-अप्रसार
 कश्मीर स्थित 900 साल पुराने हिंदू मंदिर का मुस्लिम पुजारी
 गौहर जान – गायिका, नृत्यांगना या तवायफ – जिन्होंने पहली बार 1900 में गाना रिकॉर्ड कराया और सम्राट जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक में भी प्रस्तुति दीं (!)
 भारत-चीन सीमा पर रहने वाले समुदायों और भारत के प्रति उनके गहरे लगाव का चित्रण
 अमजद अली खान और उनके सुपुत्र-परंपरा का प्रवाह
 श्याम बेनेगल | मृणाल सेन | अदूर गोपालकृष्णन – दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित भारतीय सिनेमा की तीन महान हस्तियां
 शंकर (आचार्य) के पदचिन्हों पर भारत में सेक्युलर परंपराएं


दिलचस्प बात है कि ट्रस्ट की वेबसाइट पर जब पहले दिन यह सूचना डाली गयी थी, तो विषयों की सूची में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी शामिल था, लेकिन उसे अब हटा लिया गया है। समझा जा सकता है कि फेस्टिवल को लेकर चल रहे विवाद को लेकर ऐसा किया गया होगा। अगर यह सूची मात्र संकेत या सुझाव के लिए डाली गयी है, तो फिर फेस्टिवल को हटाने की जरूरत क्या थी!

दरअसल भारत की सरकार, उसके नौकरशाहों और उनकी कृपा पर कल्चर-कल्चर करने वाले लोगों की समझ के मुताबिक भारतीय संस्कृति का मतलब हमेशा संकुचित होता है। यह सूची हमारे समझदारों के मानस में बैठी प्राच्यवादी कुंठाओं का परिणाम है, जिसके बारे में एडवर्ड सईद बरसों पहले अपनी किताब ओरियंटलिज्म में लिख चुके हैं। बहरहाल, इस सूची की संकीर्णताओं, सीमाओं और इसके निहितार्थों को समझने की जिम्मेवारी सुधी पाठकों पर छोड़ते हुए मैं इन विषयों से जुड़ी सरकार की नीतियों को संक्षेप में रेखांकित करने की कोशिश करूंगा।

नालंदा की परंपरा का क्या मतलब है? सच्चाई तो यह है कि ऐसी कोई परंपरा नहीं है और अगर कुछ है तो वह है नालंदा में प्रस्तावित नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय। और इस सूची में 'परंपरा' का मतलब शायद यही है। यह सर्वविदित है कि इस विश्‍वविद्यालय को लेकर तमाम विवाद हैं, जिसका पूरा विवरण यहां देने की जरूरत नहीं है, लेकिन कुछ तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिए :

 इस विश्‍वविद्यालय के मार्गदर्शक प्रो अमर्त्य सेन हैं (इनका नाम भी सांकेतिक विषयों की सूची में शामिल है), लेकिन वे कभी भी इससे जुड़े विवादों पर कुछ भी नहीं कहते।
 विश्वविद्यालय की 'कुलपति' गोपा सब्बरवाल हैं, जो इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में समाजशास्त्र की रीडर मात्र थीं। उनका बौद्ध अध्ययन से कोई लेना-देना नहीं है, जबकि यह विश्‍वविद्यालय इसी आधार पर बन रहा है। नियमों के तहत वह इस पद के योग्य नहीं हैं।
 राज्यसभा में सरकार कहती है कि उसने कोई कुलपति नियुक्त नहीं किया है, जबकि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी में उसी सरकार का कहना है कि गोपा सब्बरवाल कुलपति हैं।
 गोपा जी की तनख्वाह पांच लाख रुपये मासिक है, जो कि किसी भी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति के वेतन से दुगुने से भी अधिक है।
 नियमों को ठेंगा दिखाते हुए गोपा जी ने अपनी दोस्त और दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर अंजना शर्मा को प्रस्तावित विश्वविद्यालय में ऑफिसर-ऑन-स्पेशल ड्यूटी बना दिया, जिनका मासिक वेतन तीन लाख तीस हजार है। इतना वेतन देश के किसी कुलपति का भी नहीं है।
 'कुलपति' बनने से पूर्व गोपा जी जिस कॉलेज में कार्यरत थीं, उसकी प्राचार्य मीनाक्षी गोपीनाथ पीएसबीटी के मैनेजिंग ट्रस्टी राजीव मेहरोत्रा की पत्नी हैं।
 प्रधानमंत्री की बेटी उपिंदर सिंह भी इस प्रस्तावित विश्‍वविद्यालय की सलाहकार मंडली में है। इस मंडली में भारत के दो लोग हैं। दूसरी सदस्य उनकी दोस्त नयनजोत लाहिड़ी हैं।


भारत-चीन सीमा के समुदायों में भारत के प्रति गहरे अनुराग की बात तो यह सूची कर रही है लेकिन उस सच का कोई क्या करें कि भारत ने सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं भी स्थापित नहीं की है। इसके पीछे यह डर है कि युद्ध के दौरान चीनी इन सड़कों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इस बकवास का बुरा नतीजा उत्तर-पूर्व में पिछले साल आये भूकंप के दौरान देखने को मिला, जब पीड़ितों को बचने और उन तक राहत-सामग्री पहुंचाने में काफी मुश्किलें आयीं। आखिर हम दुनिया को इन समुदायों में भारत के प्रति 'गहरे अनुराग' को दिखा कर क्या हासिल करना चाहते हैं, जब हम उन्हें बुनियादी सुविधाएं और अधिकार नहीं दे सकते हैं?

इसी तरह कश्मीर का मामला है। क्या दुनिया नहीं देख रही है कि भारत और राज्य की सरकार आम कश्मीरियों के साथ क्या कर रही है? क्या हम कश्मीर में होने वाले मानवाधिकार हनन और वहां से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के हकूक को लेकर थोड़ा-सा भी गंभीर हैं? तथाकथित सेक्युलर परंपरा का हवाला देकर हम किसे मूर्ख बनाना चाहते हैं? एक तरफ सरकार और ट्रस्ट परमाणु अप्रसार को लेकर फिल्म बनाना चाहते हैं और दूसरी ओर देश में हम थोक के भाव से परमाणु ठिकाने और परमाणु-संयंत्र स्थापित कर रहे हैं, जिसका खामियाजा उन क्षेत्रों के लोगों को भुगतना पड़ रहा है।

अगर सरकार ईमानदार है और अगर ट्रस्ट में कुछ शर्म बाकी है, तो वह इन विषयों पर फिल्म बनवाये…

 भारत की सरकार की शह पर भारतीय कॉर्पोरेटों द्वारा अफ्रीका में जमीनों और संसाधनों की लूट
 अरब के तानाशाहों को भारत द्वारा हथियारों की बिक्री
 अरब में भारतीय श्रमिकों की दशा और सरकार की खामोशी
 परमाणु-ऊर्जा के नाम पर धोखाधड़ी
 विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा काला-धन आदि।


अगर सरकार को बेशर्मी ही करनी है, तो यह करदाताओं और गरीबों के धन को बौद्धिक रूप से ठूंठ फिल्मकारों में बांटकर न किया जाए। अगर ट्रस्ट को लॉबी के धंधे में ही लगाना है, तो वह यह काम 'स्वतंत्र' फिल्मों और फिल्मकारों की आड़ में न करे।

(प्रकाश कुमार रे। सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के साथ ही पत्रकारिता और फिल्म निर्माण में सक्रिय। दूरदर्शन, यूएनआई और इंडिया टीवी में काम किया। फिलहाल जेएनयू से फिल्म पर रिसर्च। उनसे pkray11@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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