Wednesday, 21 March 2012 10:44 |
भारत डोगरा इतना ही नहीं, विधेयक के अंत में स्पष्ट कहा गया है कि बाढ़ और सूखे जैसी स्थिति में (जब भूख या कुपोषण से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है) विधेयक के प्रावधानों के अनुसार खाद्य उपलब्ध न करा पाने पर किसी क्षतिपूर्ति का दावा स्वीकार नहीं किया जाएगा। सूखे की स्थिति तो किसी क्षेत्र में वर्षों तक भी चल सकती है, उस दौरान वहां भूख की स्थिति बहुत विकट ही होगी। विडंबना यह है कि ऐसी स्थिति में सरकार को जिम्मेदारी से यह विधेयक मुक्त करता है। भूकम्प और समुद्री तूफान जैसी अन्य आपदाओं की स्थिति में भी सरकार को ऐसी किसी जिम्मेदारी से विशेष तौर पर मुक्त करते हुए यह विधेयक कहता है कि किसी 'ईश्वरीय कृत्य (एक्ट आॅफ गॉड) के कारण उत्पन्न स्थिति में सरकार खाद्य सुरक्षा संबंधी जिम्मेदारियों से इस रूप में मुक्त होगी कि किसी क्षतिपूर्ति का दावा स्वीकार नहीं होगा। पर सामान्य स्थिति में भी क्या क्षतिपूर्ति होगी या जिम्मेदारी पूरी न करने वाले अधिकारियों के लिए दंड की क्या व्यवस्था होगी यह इस कानून में नहीं बताया गया है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस कानून की आलोचना इस आधार पर की है कि इससे सरकार पर सबसिडी का बोझ बढ़ जाएगा। पर यह आलोचना उचित नहीं है क्योंकि वास्तव में देश को भूख और कुपोषण से छुटकारा मिल जाता है तो इस महान लक्ष्य के लिए कितना भी खर्च करना वाजिब होगा। पर समस्या यह है कि वादे करने के बावजूद प्रस्तावित कानून इसमें सक्षम नहीं है। एक बड़ा सवाल यह है कि बड़ी मात्रा में अच्छी गुणवत्ता का अनाज नियमित रूप से इस कानून के विभिन्न प्रावधानों के लिए उपलब्ध होगा कि नहीं। अभी जो इस कानून की अपेक्षया सीमित जरूरतें हैं, उनके लिए भी देश में पर्याप्त अच्छा अनाज प्राप्त नहीं हो पाता है। जिस तरह देश में कृषि की हालत बिगड़ती जा रही है, उसके कारण भी यह सवाल उठता है कि भविष्य में अनाज उपलब्धता कितनी संतोषजनक होगी। कृषि में सरकार का निवेश कम हुआ है। उपजाऊ कृषि भूमि को तेजी से शहरीकरण, उद्योगों आदि के लिए सौंपा जा रहा है। किसानों का विस्थापन बढ़ता जा रहा है। महंगी और पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक कृषि तकनीकें फैलाने वाले कॉरपोरेट-हितों को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी के उपजाऊपन और मित्र कीट-पतंगों और अन्य जीवों को नष्ट किया जा रहा है। भूजल के बेतहाशा दोहन से खेती-किसानी के लिए जल-संकट बढ़ता जा रहा है। देश के नीति-निर्धारक विकास को तेज शहरीकरण से जोड़ रहे हैं। परंपरागत बीज और ज्ञान का आधार भी नष्ट होता जा रहा है। इन सब स्थितियों में सवाल उठना वाजिब है कि हमारी कृषि खाद्य-सुरक्षा का आधार बन सकेगी या नहीं। किसानों की परंपरागत आत्म-निर्भरता की व्यवस्था को नष्ट कर निरंतर महंगे बीजों और तकनीकों के माध्यम से खेती को महंगा रखा जाए, पर अनाज को निरंतर सस्ते से सस्ते में मुहैया कराए जाए, यह अंतर्विरोध कब तक चल पाएगा? अगर कृषि खासकर छोटे किसानों की स्थिति को तरह-तरह से मजबूत कर सस्ता अनाज अधिक लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए तो यह बहुत अच्छी बात होगी। पर छोटे और मध्यम किसान पहले से संकट में हैं तो इस स्थिति में सस्ते अनाज की बढ़ती बिक्री से किसानों की अनाज उपजाने की क्षमता और उत्साह पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है। आज व्यापक भूख और कुपोषण की स्थिति में बहुत-से परिवारों की सहायता जरूरी है, पर आगे चल कर दीर्घकालीन उद्देश्य तो यही होना चाहिए कि सभी मेहनतकशों की क्षमताओं और आर्थिक सुरक्षा को इतना मजबूत किया जाए कि उन्हें किसी बाहरी सहायता की जरूरत ही न पडेÞ। खाद्य सुरक्षा विधेयक अनाज उपलब्धि की एक अति केंद्रीकृत व्यवस्था पर आधारित है, जिसमें केंद्र सरकार अतिरिक्त उपज वाले क्षेत्रों से अनाज खरीद कर उसे दूर-दूर के अन्य क्षेत्रों में भेजेगी। इससे कहीं बेहतर स्थिति यह होगी कि त्रि-स्तरीय पंचायत राज के स्तर पर यानी पंचायत, ब्लाक और जिले के स्तर पर विकेंद्रित खाद्य सुरक्षा व्यवस्था स्थापित की जाए। इस व्यवस्था में एक पंचायत, ब्लाक या जिले में अनाज और अन्य जरूरी खाद्य (जैसे दलहन, तिलहन, गुड़) आदि वहां के किसानों से खरीद कर उसी क्षेत्र की सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मिड-डे मील, आंगनवाड़ी आदि के लिए उपयोग किए जाएंगे। जहां उत्पादन कम हो, वहां आसपास से खरीद की जा सकती है। साथ ही उत्पादन बढ़ाने के प्रयास तेज करने चाहिए। इस तरह स्थानीय रुचि और परंपरा के अनुसार जो खाद्य प्रचलित हैं, वही खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के अंतर्गत लोगों को मिल पाएंगे।
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Tuesday, March 20, 2012
खेती की उपेक्षा और खाद्य सुरक्षा
खेती की उपेक्षा और खाद्य सुरक्षा
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