Tuesday, 20 March 2012 10:54 |
सुधींद्र भदौरिया जब मायावती मुख्यमंत्री थी तों उत्तर प्रदेश की जीडीपी आठ प्रतिशत थी। जब मुलायम सिंह के कार्यकाल (2003-2007) में उत्तर प्रदेश की जीडीपी दो से तीन प्रतिशत थी। मायावती के कार्यकाल में मान्यवर कांशीराम आवास योजना के तहत आवासहीन निर्धन लोगों को आवास दिए गए जिनकी संख्या लाखों में है। इसी तरह सात लाख बच्चियों को मुफ्त में साइकिल और पचीस हजार तक के वजीफे दिए गए। उत्तर प्रदेश ने कृषि उपज बढ़ाने में एक विशिष्ट स्थान हासिल किया जिसे केंद्र सरकार ने भी सराहा। बसपा सरकार के खिलाफ उसके विरोधियों और नवदौलतिया वर्ग ने अखबारों और टेलीविजन में दो प्रचार बहुत किए। एनआरएचएम घोटाले को बढ़ा-चढ़ा कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया। असलियत यह कि यह घोटाला हाइकोर्ट के निर्देश से 2005 में सामने आया, जब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। 2007 में जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो बाबूसिंह कुशवाहा स्वास्थ्य मंत्री बनाए गए। फिर जो कुछ हुआ वह कुशवाहा की, और केंद्र सरकार के जो अधिकारी इस योजना की निगरानी कर रहे थे उनकी जिम्मेदारी थी। जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम या राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में हुए घोटालों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, उन्हीं तर्कों के आधार पर मायावती अन्य लोगों की करतूतों के लिए कैसे जिम्मेदार हो सकती हैं? मूतिर्यों पर हुए खर्च को भी विपक्ष ने बहुत तूल दिया। क्या इस देश में दो दलित प्रेरणास्थल बनाना- एक नोएडा में है और एक लखनऊ में- गलत काम था? बाबा साहब आंबेडकर सामाजिक विषमता और अन्याय को समाप्त करने के सबसे बडेÞ प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं। महात्मा फुले पिछडेÞ वर्ग में जन्मे उन महापुरुषों में हैं जिन्होंने दलितों और सामाजिक रूप से अन्य वंचितों में अलख जगाने का काम किया। भारत में जहां महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था, सावित्री बाई फुले ने सभी बालिकाओं के लिए ज्ञान के दरवाजे खोलने का काम किया। इसी तरह बिरसा मुंडा उन महापुरुषों में हैं जिन्होंने आजादी को वनवासियों के घर ले जाने का बीड़ा उठाया था। संत कबीर ने हिंदुओं और मुसलमानों में एकता, प्रेम और करुणा का भाव पैदा किया और सामूहिक चेतना-बोध के प्रतीक बने। कांशीराम ने मायावती को आगे रख इन आदर्शों से प्रेरित जनता को राजनीतिक सत्ता तक पहुंचाने का काम किया। इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि को कुछ वर्गों और नवधनाढ्य समूहों ने देश के सामने गलत रूप में पेश किया। इस चुनाव में कुछ निहित स्वार्थों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश में इस तरह के परिणाम आए। कांग्रेस ने मुसलिम वोटों को लुभाने के लिए जो वादा किया उससे वह खुद हाशिये पर चली गई और ग्यारह प्रतिशत वोटों पर सिमट गई। हर चुनाव में राम मंदिर का राग अलापने वाली भाजपा बसपा की कमियां ही निकालती रही और खुद बाबूसिंह कुशवाहा से लेकर बादशाह सिंह तक को गले लगाती रही। उसका चुनाव परीक्षाफल भी एक अनुत्तीर्ण छात्र का रहा। इन दोनों पार्टियां के वोट और सीट जोड़ दें तो भी वे बहुजन समाज पार्टी की बराबरी नहीं कर सकतीं। इन्हें अपनी भूमिका पर सख्त आत्मचिंतन की जरूरत है। बसपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में छब्बीस फीसद वोट मिले। वह अपने मूल जनाधार, जिनमें दलित और ओबीसी हैं, को बचाने में सफल रही। उसे कुछ वोट अन्य निर्धनों के भी मिले। समाजवादी पार्टी को उनतीस फीसद वोट मिले। अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से महज तीन प्रतिशत वोट पर सीट का आंकड़ा कुछ अप्रत्याशित हो गया। अगर बसपा की जीती हुई और दूसरे स्थान वाली सीटों को मिला दें तो वे करीब तीन सौ हो जाती हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मतदाताओं का ध्रुवीकरण समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच में हुआ। ध्रुवीकरण की इस प्रक्रिया में अन्य सभी दल लड़ाई से बाहर हो गए। पिछली बार के मुकाबले बसपा के वोट फीसद में आई थोड़ी-सी कमी सपा के लिए फायदेमंद रही। पर उत्तर प्रदेश का यह चुनाव एक कदम आगे जाकर कई कदम पीछे ले जाने वाला भी साबित हो सकता है। पिछले दिनों की हिंसात्मक घटनाओं से ऐसा लगता है। नई सरकार को डॉ लोहिया की नसीहत के मुताबिक अपने घोषणापत्र पर छह महीने में अमल करना चाहिए। अगर नहीं करती है तो डॉ लोहिया के अनुसार ऐसी सरकार के बने रहने का कोई औचित्य नहीं होगा। |
Tuesday, March 20, 2012
एक कदम आगे कई कदम पीछे
एक कदम आगे कई कदम पीछे
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