Tuesday, 13 March 2012 09:46 |
कुमार प्रशांत दूसरी तरफ उन्होंने उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की जमीनी भागदौड़ देखी तो इस चुनौती को समझा और इसके जवाब में अपनी जमीनी भागदौड़ शुरू कर दी। उन्होंने पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत की और पार्टी को लोगों में भी पहुंचाया। ऐसी योजनाबद्धता से काम करना मुलायम सिंह की फितरत नहीं है। इसके दो परिणाम तुरंत आए- पार्टी के पुराने चेहरे पीछे छूटते गए और नई ताकतें जड़ जमाती गर्इं। संयत भाषा और अपनी कमजोरियों से छुटकारा पाने की कोशिश भी अखिलेश के काम आई। राजनीतिक सार्वजनिक जीवन में से भद्रता और शालीनता को हमने जिस तरह विदा कर दिया है, अखिलेश ने उसे किसी हद तक वापस किया है। उनका चुनाव प्रचार अभद्र आक्रामकता और बड़बोलेपन से अलग रहा। यह शालीनता सबको भाई। चुनाव परिणाम जैसे-जैसे शक्ल लेने लगे, राहुल गांधी का धैर्य छूटने लगा था। वे नाराज युवा कम, सिर नोचते, परेशानहाल नेता ज्यादा लगने लगे थे। सपा के घोषणापत्र जैसा कोई कागज फाड़ कर हवा में उड़ाने का उनका तेवर भी अखिलेश ने यह कह कर पचा लिया कि सावधान रहें कांग्रेस वाले, कहीं राहुल गांधी अपनी पराजय निश्चित जान कर मंच से नीचे छलांग न लगा दें। यह मौका था कि अखिलेश उन पर तीखे हमले करते, लेकिन दो-एक टिप्पणियों से अधिक अखिलेश ने कुछ नहीं कहा। वे किसी भी व्यक्तिगत आक्षेप से बचते रहे। अखिलेश ने अपनी पार्टी के साथ जुड़े समाजवादी विशेषण नहीं छोड़े, लेकिन यह भी सावधानी रखी कि समाजवाद के घटाटोप में न फंसें। इसलिए अंग्रेजी, कंप्यूटर आदि के सवाल पर जैसी खिचड़ी मुलायम सिंह ने पका रखी थी, अखिलेश ने उस बारे में कुछ भी कहे बिना पार्टी को उससे अलग कर लिया। आज समाजवाद के बारे में शायद यही सबसे समझदारी भरा कदम है। अखिलेश ने अपने साथी खड़े किए, अपने युवा कार्यकर्ताओं की फौज बनाई और उन्हें साधन-संपन्न किया। बसों, हेलिकॉप्टरों की कमी नहीं थी तो साइकिल पर निकलने वालों की भी नहीं। आइपॉड लेकर साइकिल चलाने वाला यह युवा उत्तर प्रदेश के समाज की कई आकांक्षाओं को एक साथ जोड़ सका। आठ हजार किलोमीटर की क्रांति-रथ यात्रा और ढाई सौ किलोमीटर की साइकिल यात्रा ने अखिलेश को दूसरे सारे लोगों से आगे खड़ा कर दिया। राहुल और अखिलेश के व्यक्तित्व में जो फर्क है वही उनके राजनीतिक कर्म में भी है। नेहरू खानदान इस भ्रम में रहता है कि उसे देखने भर से लोग वोट दे देते हैं। लेकिन यह जवाहरलाल नेहरू के वक्त में तो कुछ सच भी था, अब नहीं। इसलिए राहुल लोगों को, कार्यकर्ताओं को जितना कम वक्त देते थे उसमें दर्शन देने का भाव ज्यादा रहता था, राजनीतिक पहल का कम! प्रियंका ने इसे आसमानी उपस्थिति वाली स्थिति को और भी उभार दिया। जब आपकी पार्टी का आधार मजबूत हो तब ऐसी आसमानी शैली भी काम कर जाती है, लेकिन जब पार्टी की बुनियाद ही नहीं है तब यह शैली भला से ज्यादा बुरा कर जाती है। राहुल अब इसे समझ पा रहे हों शायद। अपने साथियों, पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए अखिलेश सहज उपलब्ध रहे। वे मुलायम सिंह यादव के बेटे की तरह नहीं, सपा के मुख्य चुनाव प्रचारक की तरह मैदान में थे। वे मुद्दों के बारे में राहुल गांधी की तरह स्पष्ट नहीं थे और अपनी पार्टी के अलावा दूसरे सवालों पर ज्यादा कुछ कहते भी नहीं थे। यह ऐसी कमजोरी थी, जिसे राहुल निशाने पर ले सकते थे, लेकिन राहुल की दिक्कत यह थी कि वे उत्तर प्रदेश में दिल्ली की लड़ाई लड़ रहे थे, जबकि अखिलेश उत्तर प्रदेश में लखनऊ की लड़ाई लड़ रहे थे। स्वाभाविक था कि वे मतदाताओं, युवकों को ज्यादा अपने लगे। अब, जब अखिलेश राजनीति में अपनी दूसरी भूमिका निभाने को हैं, उन्हें पता चलेगा कि जो वादे उन्होंने किए हैं, उन्हें पूरा करने के लिए उन्हें भी किसी स्तर पर मायावती बनना पड़ेगा। एक अनुमान के मुताबिक जितने वादे सपा ने किए हैं उन्हें पूरा करने में उसे छियासठ हजार करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। उत्तर प्रदेश का खजाना मायावती ने खाली कर रखा है। अब अखिलेश को बताना है कि इतने पैसे कहां से आएंगे! फिर यह भी देखना है कि अखिलेश में पार्टी और प्रशासन को नाथने की क्षमता कितनी है। उत्तर प्रदेश को गुंडागर्दी, अव्यवस्था, दिशाहीन प्रशासन और राजनीतिक फिजूलखर्ची से तुरंत छुटकारा चाहिए। मुलायम सिंह और मायावती ने अपने शासन-काल में इन सभी स्तरों पर उत्तर प्रदेश को एकदम खोखला कर दिया है। प्रशासन का निम्न-स्तरीय राजनीतिकरण हुआ है। मुलायम सिंह की सपा इसी शैली में काम करने की अभ्यस्त रही है। अखिलेश की सपा चाहे तो बड़ी आसानी से इसी शैली में काम कर सकती है। मगर ऐसा करने के साथ ही सपा और अखिलेश की संभावनाएं बिखर जाएंगी। |
Tuesday, March 13, 2012
अखिलेश की जीत का अर्थ
अखिलेश की जीत का अर्थ
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