Saturday, 10 March 2012 13:37 |
अरुण कुमार 'पानीबाबा' इस असाधारण 'व्यवस्था' पर कोई विवाद नहीं है कि गुजरात से बंगाल तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक समूचा प्रजातंत्र या तो वंशवाद पर निर्भर है या व्यक्तिवादी करिश्मे का मोहताज है। करिश्मों की लंबी सूची पर गौर करें- मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, एमजीआर, एनटीआर, वाइएसआर, बंगाल में माकपा, मुंबई में शिवसेना, गुजरात में नरेंद्र मोदी, बिहार में नीतीश कुमार और इस बार उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव... अंतहीन सिलसिला है। यह करिश्मे की फितरत है कि उसमें से अपराधीकरण और वंशवाद जुड़वां भाई-बहन की तरह पैदा हो जाते हैं। वास्तव में मूल करिश्मा तो फिरंगी हुकूमत द्वारा आयोजित विभाजित आजादी थी। शेष करिश्मा उस मूल करिश्मे का तर्कसंगत प्रतिफलन है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि यह घटनाक्रम महात्मा गांधी की दो विफलताओं से उपजी जटिलता है। पहली विफलता, देश का बंटवारा। दूसरी विफलता, योग्य-उपयुक्त उत्तराधिकारी का पूर्ण अभाव। ये दो विफलताएं बापू के कुल सत्य-संघर्ष को बौना कर देती हैं। यह कड़वा सच है कि आजादी की वेला में जिस नेतृत्व को सत्ता हस्तांतरित हुई वह नैतिकता में कमतर था, उसका राजनीतिक कद ऊंचा नहीं था। गांधी की विफलता की अति विस्तृत और जटिल कथा के मात्र दो पहलुओं का जिक्र यहां संभव है। एक, फिरंगी हाकिम ने गांधी से मिली शिकस्त को निरस्त कर दिया और अंतिम दांव यों खेला कि गांधी के जीते-जी देश पुन: गुलाम हो गया, यानी इस सोने का अंडा जनने वाली मुर्गी का साम्राज्यवादी शोषण निरंतर जारी है। यह चाल गांधी को धोखा देकर ही चली जा सकती थी। ऐसा करने में फिरंगी सफल इसलिए हो सका क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संघर्ष से थक चुका था। दूसरी बात पहली से ज्यादा कड़वी है- गांधीजी ने इस सौदेबाजी को अपनी आंखों से देखा। वायदे के मुताबिक उचित समय पर इच्छामृत्यु का वरण नहीं किया। बलिदान का सर्वथा उपयुक्त मुहूर्त आजादी से छह माह पूर्व का था, न कि पांच माह बाद का। गांधी की शहादत की विवेचना हमारा विषय नहीं, हम केवल याद दिला रहे हैं: औपनिवेशिक निजाम (प्रशासन से लेकर संविधान और चुनावी आडंबर तक) की निरंतरता सत्ता हस्तातंरण की शर्त थी। इसीलिए राष्ट्रीय आंदोलन के आवे में तप कर निकली फौज की 'नए निजाम' में भूमिका शून्य हो गई। इस तथ्य के दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध हैं कि शिमला सम्मेलन और अंतरिम मुखिया बनने के दौरान ही पंडितजी खंडित आजादी और भारतीय प्रशासनिक सेवा के लौह-ढांचे (स्टील फ्रेम) को बरकरार रखने का संकल्प ले चुके थे। इसी दौरान वे अपने पुराने साथियों की क्षुद्रता, कांग्रेसियों के अंतर्कलह, संगठन हथियाने के लिए किए जाने वाले हथकंडों, विविध अयोग्यता आदि से क्षुब्ध हो चुके थे। औपनिवेशिक हुकूमत की कार्यशैली, ऊंची नैतिकता और व्यवहार कौशल के वे अपने बचपन से कायल थे। इन्हीं कारणों से मजबूर होकर उन्हें फिरंगी हुकूमत से सौदेबाजी करनी पड़ी थी। नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने पहला आम चुनाव उसी अंदाज में लड़ा जैसे 1937 और 1946 में लड़ा था। संगठन की भूमिका गौण थी- नेतृत्व द्वारा मनोनीत प्रबंधकों ने सरकारी हाकिमों, मुलाजिमों के सहयोग से आयोजन किया था। मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए गए थे। 'चुनाव प्रबंधन' की व्यवस्था के बावजूद निर्वाचन पर्व के दौरान भीड़-प्रदर्शन अनिवार्य है। प्रबंधक और उम्मीदवार को 'नेताजी' की जनसभा के लिए भीड़ जुटानी पड़ती है। बस इसी प्रक्रिया में प्रबंधक उम्मीदवार बन जाता है और उम्मीदवार जुगाड़ू प्रबंधक। इस विश्लेषण के विपरीत, यह भी सच है कि प्रथम चुनाव से ही आम मतदाता ने शराब-कबाब, पैसे और सांप्रदायिक-जातिवादी स्वार्थों के दबाव के बावजूद अद््भुत संयम और विवेक का परिचय दिया है। इस विश्लेषण का निष्कर्ष यह नहीं है कि जनता इस विवेक से प्रभावित होकर मुलायम सिंह यादव वंश, नेहरू वंश की लीक से हट कर कोई नई ताबीर लिखनी शुरू कर देगी। वैसी पहल की तदबीर तो जनता को दो कदम और आगे बढ़ कर स्वयं रचनी होगी। उसी की बुनियाद पर मुल्क की नई तकदीर की इबारत लिखी जा सकेगी। |
Saturday, March 10, 2012
चुनाव तंत्र बनाम लोकतंत्र
चुनाव तंत्र बनाम लोकतंत्र
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