क्यों जरूरी है इस वक्त हम सबका माओवादी हो जाना!
क्यों जरूरी है इस वक्त हम सबका माओवादी हो जाना!
♦ चंद्रिका
92पेज के फैसले में तीन जिंदगियों को आजीवन कारावास दिया जा चुका है। बिनायक सेन के बारे में उतना कहा जा चुका है, जितना वे निर्दोष हैं और उतना बाकी है, जितना सरकार दोषी है। अन्य दो नाम पियूष गुहा और नारायण सान्याल, जिनका जिक्र इसलिए सुना जा सका कि बिनायक सेन के साथ ही इन्हें भी सजा मुकर्रर हुई, शायद अनसुना रह जाता। पर जिन नामों और संख्याओं का जिक्र नहीं आया वे 770 हैं, जो बीते बरस के साथ छत्तीसगढ़ की जेलों में कैद कर दिये गये। इनमें हत्याओं और यातनाओं को शामिल नहीं किया गया है। इनमें अधिकांश आदिवासी हैं, पर सब के सब माओवादी। छत्तीसगढ़ का आदिवासी होना थोड़े-बहुत उलट फेर के साथ माओवादी होना है और माओवादी होना अखबारी कतरनों से बनी हमारी आंखों में आतंकवादी होना। यह समीकरण बदलते समय के साथ अब पूरे देश पर लागू हो रहा है। सच्चाई बारिश की धूप हो चुकी है और हमारा जेहन सरकारी लोकतंत्र का स्टोर रूम। दशकों पहले जिन जंगलों में रोटी, दवा और शिक्षा पहुंचनी थी, वहां सरकार ने बारूद और बंदूक पहुंचा दी। बारूद और बंदूक के बारे में बात करते हुए शायद यह कहना राजीव गांधी की नकल करने जैसा होगा कि जब बारूद जलेगी तो थोड़ी गर्मी पैदा ही होगी। दुनिया की महाशक्ति के रूप में गिने जाने वाले देश की सत्ता से लड़ना शायद और यकीनन आदिवासियों की इच्छा नहीं रही होगी, पर यह जरूरत बन गयी कि जीने के लिए रोटी और बंदूक साथ लेके चलना और जंगलों की नयी पीढ़ियों ने लड़ाइयों के बीच जीने की आदत डाल ली।
अब तो बस देश की जनता अपनी जरूरतें पूरी कर रही है। मसलन आदिवासियों को जीने के लिए जंगल की जरूरत है और जंगल को पेड़ों की जरूरत, पेड़ों को उस जमीन की जरूरत जिसकी पीठ पर वे खड़े रह सकें, उस पीठ और जमीन की जरूरतें है कि उन्हें बचाया जा सके उखड़ने और खोदे जाने से और इन सारे बचाव व जरूरतों को पूरा करने के लिए के लिए जरूरी है माओवादी हो जाना। कार्पोरेट और सरकार की जुगलबंद संगीत को पहाड़ी और जंगली हवा में न बिखरने देना। सरकार की तनी हुई बंदूक की नली से गोली निकाल लेना, अपनी जरूरतों के लिए जरूरत के मुताबिक जरूरी हथियार उठा लेना। शहर के स्थगन और निस्पंदन से दूर ऐसी हरकत करना कि दुनिया के बुद्धिजीवियों की किताबों से अक्षर निकलकर जंगलों की पगडंडियों पर चल-फिर रहे हों। इस बिना पर इतिहास की परवाह न करना कि लिखा हुआ इतिहास लैंपपोस्ट के नीचे चलते हुए आदमी की परछाईं भर है, बदलते गांवों के साथ अपने नाम बदलना और पुलिस के पकड़े जाने तक बगैर नाम के जीना, या मर जाना, कई-कई नामों के साथ। नीली पॉलीथीन और एक किट के साथ जिंदगी को ऐसे चलाना कि समय को गुरिल्ला धक्का देने जैसा हो। उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के विगत वर्षों के संघर्ष, जिनका माओवादियों ने नेतृत्व किया, जीवन जीने के लिए अपनी अस्मिता के साथ खड़े होने के सुबूत हैं। जिसे भावी प्रधानमंत्री की होड़ में या निर्विरोध चुना जाने वाला, सनसनीखेज यात्राएं करता कांग्रेस का युवा नेता हाल के एक बड़े अधिवेशन में एक तरफ उड़ीसा के आदिवासियों की जीत करार देता है और कहता है कि आम आदमी वो है जो व्यवस्था से कटा हुआ है। तो दूसरी तरफ देश की लोकतांत्रिक संरचना उन्हें माओवादी कहकर जेल में या सेना के शिकारी खेल में खत्म कर रही है।
इस पूरी परिघटना के एक विचारक नारायण सान्याल, उर्फ नवीन उर्फ विजय उर्फ सुबोध भी हैं इसके अलावा इनके और भी नाम हो सकते हैं, जिनका पुलिस को पता नहीं भी हो। पोलित ब्यूरो सदस्य माओवादी पार्टी, कोर्ट के दस्तावेज के मुताबिक उम्र 74 साल और पेशा कुछ नहीं। बगैर पेशे का माओवादी। शायद माओवादियों की भाषा में प्रोफेशनल रिवोल्यूशनरी कहा जाता है और माओवादी होना अपने आप में एक पेशा माना जाता है। उर्फ तमाम नामों के साथ नारायण सान्याल को कोर्ट में पेशी के लिए हर बार 50 से अधिक पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती है। तथ्य यह भी कि नारायण सान्याल किसी जेल में दो माह से ज्यादा रहने पर जेल के अंदर ही संगठन बना लेते हैं। देश की जेलों में बंद कई माओवादियों के ऊपर ये आरोप हैं और उन्हें दो या तीन महीने में जेल बदलनी पड़ती है। बीते 25 दिसंबर को चंद्रपुर जेल के सभी माओवादी बंदियों को नागपुर जेल भेजना पड़ा क्योंकि पूरी जेल ही असुरक्षित हो गयी थी। प्रधानमंत्री का कहना है कि पूरा देश ही असुरक्षित है और माओवादी उसके सबसे बड़े कारक हैं।
लिहाजा बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केंद्रीय बिंदु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका पर है। नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है। कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कॉलर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर। क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं? यह खारिजनामा छह लाख छत्तीसगढ़ के आदिवासी विस्थापितों को भी खारिज करना होगा। जिसे रमन सिंह यह कहते हुए पहले ही खारिज कर चुके हैं कि जो सलवा-जुडुम में नहीं है वो सब माओवादी है और अब सलवा-जुडुम कैंप में गिने चुने ही लोग बचे हैं, बाकी आदिवासी जंगलों में लौट चुके हैं।
(चंद्रिका। पत्रकार, छात्र। फ़ैज़ाबाद (यूपी) के निवासी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के बाद फिलहाल महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अध्ययन। आंदोलन। मशहूर ब्लॉग दखल की दुनिया के सदस्य। उनसे chandrika.media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
संघर्ष, समाचार »
नागरिक मोर्चा ♦ कहा जा रहा है कि कुछ "बाहरी तत्व" मज़दूरों को भड़का रहे हैं। ऐसा कहने वाले मंडलीय कमिश्नर, पुलिस के अफ़सर और भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ सीधे-सीधे संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं। क्या वे नहीं जानते कि देश का क़ानून किसी भी व्यक्ति को कहीं भी जाकर अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने की इजाज़त देता है? ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 भी मजदूरों को बाहर से अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार देता है। वार्ताओं में मज़दूरों की ओर से उनके प्रतिनिधि के रूप में गैर-मज़दूर समर्थक पहले भी भागीदारी करते रहे हैं। मगर अपने अहंकार और मालिकपरस्ती की रौ में आकर इन्होंने गोरे शासकों को भी पीछे छोड़ दिया है।
नज़रिया »
विश्वजीत सेन ♦ पश्चिम बंगाल के अब तक के घटनाक्रम को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस समझौते का नतीजा दुखदायी ही होगा, चूंकि ममता बनर्जी स्वभाव से कम्युनिस्ट विरोधी हैं। सिद्धार्थ शंकर राय के मुख्यमंत्रित्व काल में नक्सल-विरोधी दमन अभियान को नेतृत्व देनेवालों में एक वह भी थीं। गुजरात दंगे के दौरान भी वह एनडीए मंत्रिमंडल में बनी रहीं। फिर तहलका प्रकरण के दौरान मंत्रिमंडल से अलग हुईं। उनका एक प्रिय नारा है – पश्चिम बंगाल को लाल-मुक्त करो। लाल यानी कि कम्युनिस्ट। जिनके रग रग में कम्युनिस्ट विरोध समाया है, उनसे आप क्या उम्मीद कर सकते हैं?
नज़रिया »
विश्वजीत सेन ♦ क्या रविलाल सिंह मुड़ा का पेट कभी भरा-पूरा रहा? लकड़ियां, पत्ते चुनने वाले का पेट क्या कभी भरा-पूरा रह सकता है? उनके परिवारवालों का? इसीलिए तो माओवादी उन्हें अपने दस्ते में शामिल करना चाहते थे और देखिए रविलाल की उद्दंडता। उन्होंने माओवादियों को नकार दिया। तभी तो उन्हें मरना पड़ा।माओवादी दोषी नहीं हैं। वे तो रविलाल के सामने विकल्प रख ही चुके थे – उनकी 'क्रांति' में शामिल होने का। दोषी हैं तो रविलाल जिन्होंने इस विकल्प को ठुकरा दिया। अब आप ही बताएं जनाब, ऐसे नासमझ लोगों के साथ कैसा बर्ताव किया जाना चाहिए? माओवादियों की आचार संहिता कहती है, उन्हें गोली से उड़ा देना चाहिए।
असहमति, नज़रिया »
विश्वजीत सेन ♦ मार्क्स ने जब अपने दर्शन की नींव रखी थी, तब उन्होंने सर्वहारा को संबोधित करते हुए कहा था – 'तुम्हारे पास खोने के लिए बेड़ियों के सिवा कुछ भी नहीं है'… पर बेड़ियां सिर्फ हाथ और पैर में नहीं दिमागों में भी होती है, इस बात का अंदाजा मार्क्स को भी नहीं था। उन्होंने'दिमाग' के संदर्भ में हद से हद धर्म की बात की थी, जिसकी तुलना उन्होंने 'अफीम' से की थी। अफीम तो आदमी जब चाहे छोड़ सकता है, लेकिन उनके मस्तिष्क को जिन बेड़ियों ने जकड़ रखा है, उनको केौन तोड़ेगा? वैज्ञानिक चिंतन से दूर-दूर का रिश्ता नहीं, ऐसी बातें करना और सिर्फ करना ही नहीं, उन पर पूरी निष्ठा के साथ अमल करना, माओवादियों की फितरत में है।
नज़रिया »
चंद्रिका ♦ बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केंद्रीय बिंदु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका पर है। नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है। कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कॉलर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर। क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं?
नज़रिया, बात मुलाक़ात »
अरुंधती राय ♦ आप एक ऐसी अवस्था का निर्माण कर रहे हैं जिसमें राष्ट्रविरोधी की परिभाषा यह हो जाती है कि जो अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए काम कर रहा है, यह अपने आप में विरोधाभासी और भ्रष्ट है। विनायक सेन जैसा आदमी जो सबसे गरीब लोगों के बीच काम करता है अपराधी हो जाता है, लेकिन न्यायपालिका, मीडिया तथा अन्यों की मदद से जनता के एक लाख 75 हजार करोड़ रुपये का घोटाला करने वालों का कुछ नहीं होता। वे अपने फार्म हाउसों में, अपने बीएमडब्ल्यू के साथ जी रहे हैं। इसलिए राष्ट्रविरोधी की परिभाषा ही अपने आप में भ्रष्ट हो चुकी है… जो कोई भी न्याय की बात कर रहा है, उसको माओवादी घोषित कर दिया जाता है। यह कौन तय करता है कि राष्ट्र के लिए क्या अच्छा है।
नज़रिया, मोहल्ला पटना »
विश्वजीत सेन ♦ जाति या वर्ण को आधार बनाकर रणनीति तय करने का जो बुरा नतीजा सामने आया, वह यह है कि माओवादी संगठन जाति के आधार पर बंटने लगा। केवल वही नहीं, माओवादी नेताओं की मानसिकता भी उसी के अनुरूप ढलने लगी। इसका ज्वलंत उदाहरण तब सामने आया, जब कजरा मामले में माओवादी कमांडर अरविंद यादव ने अभय यादव की जगह लुकस टेटे को मार गिराया। लूकस टेटे आदिवासी थे और ईसाई भी। ये दोनों पहचान वर्ण व्यवस्था के बाहर की है। इस हत्या के विरोध में माओवादी कमांडर बगावत पर उतर आये। दोनो पक्षों के बीच जमकर गोलियां चलीं। इस आपसी संघर्ष को अगर आप 'लोकयुद्ध' कहें तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?
नज़रिया, मोहल्ला पटना »
विश्वजीत सेन ♦ ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा सीमित है। प बंगाल अनकी जूतियों तले रहे, बस। इतना ही हो जाए, तो वो फूल कर बाग-बाग हो जाएंगी। देश में क्या हो रहा है, अर्थतंत्र में क्या हो रहा है, यहां तक कि रेल मंत्रालय में क्या हो रहा है, इससे उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनकी स्थिति एक घरेलू झगड़ालू औरत जैसी है, जो अपने जेठ के परिवार को नीचा दिखाकर खुश रहती है, उसे और कुछ नहीं चाहिए। लेकिन माओवादियों को क्या कहें? इस नीच, गंदी महत्वाकांक्षा की बलिवेदी पर खुद को जो कुर्बान कर रहे हैं, क्या उन्हें हम क्रांतिकारी कह सकते हैं? विगत डेढ़ वर्षों में जंगलमहल में सैकड़ों लोगों की जान गयी है। मगर क्यों? इसलिए की ममता बनर्जी प बंगाल की मुख्यमंत्री बनें। वैसा अगर हो भी गया तो क्या हो जाएगा?
नज़रिया, मोहल्ला पटना »
विश्वजीत सेन ♦ खोज करने पर ऐसी सैकड़ों घटनाएं मिलेंगी। सारे सवालों के बाद एक सवाल जो सबसे बड़ा सवाल बन कर उभरता है, वह यह है कि श्रमिकों की मुक्ति, किसानों की मुक्ति, दलितों की मुक्ति, आदिवासियों की मुक्ति, बुद्धिजीवियों की, स्त्रियों की मुक्ति और किसकी नहीं मुक्ति पर जो अपनी जान न्योछावर करते हैं, वही माओवादी इस स्थिति को बर्दाश्त कैसे कर रहे हैं? 'क्रांति' के नाम पर ऐसे दुराचारों को बर्दाश्त करना क्या उचित है? 'बर्दाश्त' करने की इस आदत ने अतीत में विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन को काफी क्षतिग्रस्त किया है। अवश्य ही वे घटनाएं, अलग किस्म की थीं, लेकिन उन घटनाओं के चलते मनुष्यता कलंकित हुई थी। वैसे ही उपरोक्त घटनाओं ने भी मनुष्यता को ही कलंकित किया है।
शब्द संगत »
रंजीत वर्मा ♦ हम जो अब तक मारे नहीं गये / शामिल थे शवयात्रा में / एक गुस्सा था जो दब नहीं रहा था / एक दुख था जो थम नहीं रहा था… लोगों ने कहा, हमने पहले ही कहा था उनकी ताकत को चुनौती मत दो / शवयात्रा तो निकलनी ही थी / लेकिन क्या यह सचमुच ताकत है / नहीं यह ताकत नहीं मक्कारी है / और अगर यह ताकत है भी तो सोचिए कि यह उनके पास / कहां से आयी और यह किसलिए है / और इसको लेकर ऐसा अंधापन / समझ लीजिए वे अपनी नींव की ईंट पर चोट कर रहे हैं… हमें मारे जाने का ब्लूप्रिंट हाथ में लिये / उनके पैरों का राग-विकास पर थिरकना देखिए / हमें बेदखलियाते लूटते ध्वस्त करते / बूटों के कदमताल पर मुख्यधारा का उनका आलाप सुनिए…
No comments:
Post a Comment