Thursday, May 10, 2012

कृषि का नया नापाक ढांचा

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कृषि का नया नापाक ढांचा

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कृषि के इस नये नापाक ढांचे से किसानों को बड़ा नुकसान होगाकृषि के इस नये नापाक ढांचे से किसानों को बड़ा नुकसान होगा
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इन दिनों भारत खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के स्वागत में पलक-पांवड़े बिछा रहा है। योजना-आयोग में 10वीं और 11वीं पंचवर्षीय योजनाओं में खाद्य प्रसंस्करण के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। ऐसी इकाइयों की स्थापना के लिए भारी अनुदान दिया जा रहा है। यही नहीं खाद्य एवं कृषि मंत्रालय राष्ट्रीय नीतियों में उद्योग जगत के हितों के अनुरूप संशोधन कर रहा है। हाइब्रिड बीज, कृषि उपकरण, रासायनिक खाद और कृषि ऋण के क्षेत्र में भारी अनुदान दिया जा रहा है। बैंक, बीज उत्पादक कंपनियां, उत्पादक इकाइयां और रिटेल चेन कंपनियां आपस में गठजोड़ कर नया कृषि ढांचा तैयार कर रहे हैं जिसमें कृषि वैज्ञानिक भी शामिल हो गए हैं।

कुछ समय पहले चंडीगढ़ से नई दिल्ली आते हुए रास्ते में अंबाला के पास कुछ किसानों से मिलने के लिए रुक गया। एक छोटे किसान राजेन्द्र दहिया ने गर्व से बताया कि उन्होंने कुछ दिन पहले ही एक कॉफी हाउस में 160 रुपए में कॉफी पी। मैं समझ सकता हूं कि राजेन्द्र दहिया के लिए एक कप कॉफी के लिए 160 रुपये खर्च करना कितना मुश्किल रहा होगा। घर पर यह दस रुपए से भी कम में बन जाती है। दरअसल इस सबके पीछे बड़ी कंपनियों की जबरदस्त मार्केटिंग रणनीति है। इसी आंच से कोई नहीं बच पाता। कम्पनियाँ इसी में जुटी रहती हैं कि किस तरह लोगों की जीभ को कब्जे में लिया जाए और फिर उन्हें उनके उत्पादों की लत डाल दी जाए। खूबसूरत पैकेजिंग और आक्रामक मार्केटिंग के बल पर खाने-पीने की नयी आदतें डाली जा रही हैं।

कंपनियां हमें जो खिलाना चाहती हैं वह लगभग जबरन खिलाने में कामयाब हो रही हैं। जब तक हम यह समझते हैं, हमारा परंपरागत स्थानीय पौष्टिक भोजन थाली से गायब हो जाता है। खाने की बदलती आदतों के दायरे में पूरा खाद्य तंत्र आ गया है। इसलिए मैं अमेरिका के अहिंसक आंदोलन ''वॉलस्ट्रीट पर कब्जा करो'' में खाद्य आंदोलन से जुड़े एनजीओ, समुदाय समूह और किसानों द्वारा भाग लेने से हैरान नहीं हूं। अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता एरिक होल्ट ने अपने निबंध ''खाद्य तंत्र पर कब्जा करों'' में भूख, जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों और वॉलस्ट्रीट के निवेशकों व उद्यमियों की असीम शक्ति के बीच संबंध सिद्ध किया है।

यह संबंध साफ-साफ दिखाई दे रहा है। बड़ी-बड़ी कपंनियां भारत में प्रवेश के लिए जबरदस्त लॉबिंग कर रही है। इनमें वॉलमार्ट स्टोर्स, स्टारबाक्स और वित्तीय सेवाप्रदाता जैसे मोर्गन स्टेनले शामिल हैं। कुछ अन्य विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां जैसंे, फाइजर, डाउ केमिकल्स और टेलीकॉम की दिग्गज कंपनी एटीएंडटी भारत में अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए प्रयासरत है। अमेरिका में बच्चो में बढ़ते मोटापे से चितित प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने पहले ही कुछ कंपनियों को अमेरिका से चलता कर दिया है। उन कंपनियों ने भारत में घुसने का प्रयास तेज कर दिया है।

यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब भारत खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के स्वागत में पलक-पांवड़े बिछा रहा है। योजना-आयोग ने 10वीं और 11वीं पंचवर्षीय योजनाओं में खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। ऐसी इकाइयों की स्थापना के लिए भारी अनुदान का प्रावधान किया है। यही नहीं, खाद्य एवं कृषि मंत्रालय राष्ट्रीय नीतियों में उद्योग जगत के हितों के अनुरूप संशोधन कर रहा है।  उनका कहना है कि भारत में महज दो प्रतिशत खाद्यान्न का ही प्रसंस्करण होता है। वे यह नहीं बताते कि अमेरिका में जहां से यह विचार आयातित किया गया है, जंक फूड धीमे जहर में तब्दील हो गए हैं। अमेरिका में हर साल चार लाख से अधिक लोग मोटापे और इससे जुड़े रोगों के कारण मर जाते हैं।

इसकी शुरुआत करीब चार दशक पहले हरित क्रांति से हुई थी। कृषि अनुसंधान, कृषि नीतियां, ऋण आपूर्ति, अनुदान और प्रौद्योगिकी आदि के बल पर अधिक पैदावार वाली फसलों की किस्मों को प्रोत्साहित किया गया, जिनमें भारी मात्रा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल होता था। तबसे प्रौद्योगिकी को वित्तीय पैकेज मिलना शुरू हो गया, जिससे किसान इसकी तरफ ललचाने लगे। पिछले कुछ सालों में रासायनिक खाद को और लोकप्रिय बनाने के लिए अनुदान दिया गया, किन्तु जैविक तरीको से होने वाली खेती पर कोई अनुदान नहीं दिया गया। यह देखकर बड़ी हैरानी होती है कि बैंक संकर जाति की नस्लों की गायों के लिए तो ऋण देने के लिए तत्पर रहते हैं, जबकि देशी गायों के लिए नहीं। श्वेत क्रांति के 40 साल से अधिक होने के बाद अब जाकर राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) को देशी गायों के फायदे का अहसास हुआ हैं।

इसी प्रकार खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के कुछ बड़े खिलाड़ियों ने औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खाने-पीने की आदतों को बदल डाला है। भूरे पौष्टिक चालव के स्थान पर सफेद पोलिश्ड चावल, गुड़ व भूरी चक्कर के स्थान पर सफेद चीनी का चलन है। ये दोनों औद्योगिक उत्पादक बढ़ती डायबिटीज और जीवनशैली से जुड़ी अन्य बीमारियों में योगदान दे रहे हैं। अमेरिकी विशाल खाद्य कंपनियों के भारत में प्रवेश से उपभोक्ताओं के पास पौष्टिक खाद्य पदार्थों के विकल्प और भी कम हो जाएंगे।

उदाहरण के लिए केवल अमेरिका में वालमार्ट के स्टोर में औसतन 40 हजार खाद्य उत्पाद सजे होते हैं और इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इसीलिए यह देश स्वास्थ्य महामारी के संकट का सामना कर रहा है। हानिकारक प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों का जितना सेवन बढ़ेगा, उतना ही अधिक अर्थव्यवस्था को लाभ होगा। ज्यादा से ज्यादा लोग बीमार पड़ेंगे तो दवा और स्वास्थ्य उद्योग को उतना ही अधिक फायदा होगा। शायद यही कारण है कि सरकार कृषि के इस बीमार ढांचे को बढ़ावा दे रही है जो न केवल किसानों के बल्कि आम नागरिकों के सेहत के लिए भी आखिरकार नुकसानदेह ही साबित होगी.

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