Wednesday, May 9, 2012

आशुतोष की किताब में फेसबुक पीढ़ी की भीड़ का आह्लाद है

http://mohallalive.com/2012/05/07/dinesh-agrahari-review-on-anna-13-days-that-awakened-india/

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आशुतोष की किताब में फेसबुक पीढ़ी की भीड़ का आह्लाद है

7 MAY 2012 8 COMMENTS

आशुतोष की किताब और अन्ना आंदोलन पर कुछ सवाल

♦ दिनेश अग्रहरि

टीवी पत्रकार आशुतोष की किताब Anna: 13 Days that Awakened India के बहाने दिनेश अग्रहरि के इस आलेख से मेरी बुनियादी असहमति ये है कि इसमें भीड़ की चंद टुकड़ि‍यों के आईने में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ मौजूदा आंदोलन को समझने और उसकी सीमा बताने की कोशिश की गयी है। साथ ही गांधी के एक नारे को भी इस आंदोलन की गैर-शुचिता को रेखांकित करने के लिए सामने लाया गया है कि खुद बदलोगे, जग बदलेगा। दरअसल आम आदमी को भी भ्रष्‍ट आचरण के लिए व्‍यवस्‍था के अनेकानेक छिद्र ही प्रेरित करते हैं। ट्रेन में टीटीई को रिश्‍वत देने जैसे उदाहरण दरअसल आम आदमी को दोषी ठहराने के लिए जायज नहीं हैं बल्कि इससे रेलवे की रिजर्वेशन व्‍यवस्‍था की कमियां ही उजागर होती हैं। बहरहाल हमारी राजनीतिक व्‍यवस्‍था में पॉलिसी के लेवल पर ऐसी कई संवैधानिक सहूलियतें हैं, जिनके जरिये गलत लोगों को आसानी से लाभ दिया जा सकता है। भ्रष्‍टाचार के खिलाफ मौजूदा आंदोलन दरअसल इन्‍हीं पॉलिसियों की पारदर्शिता और उन पर नजर रखने के लिए है। बेशक इस आंदोलन में कई सारी कमियां हो सकती हैं और कई सारे गेंदामल इस बहती गंगा में हाथ धोने आ गये हो सकते हैं।

अविनाश

स आलेख को लिखने की शुरुआत में ही यह साफ करना चाहूंगा कि देश के करोड़ों लोगों की तरह मैं भी भ्रष्टाचार (घूसखोरी) खत्म करने के अन्ना ही नहीं बल्कि किसी भी द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन का समर्थक हूं। जब-जब अन्ना का दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर-मंतर पर धरना-अनशन हुआ, मैं वहां अन्ना टोपी लगाये एक बार जरूर पहुंचा हूं (इस बात के जोखिम के बावजूद कि हमारे तत्कालीन संपादक अन्ना आंदोलन को अच्छी नजरों से नहीं देखते थे)। हाल में जब मैंने आशुतोष की किताब "अन्ना : 13 डेज दैट अवैकेंड इंडिया" पढ़ कर खत्म की, तो पूरा आंदोलन फिर से मेरी यादों में जी उठा, लेकिन इसी के साथ फिर से मेरे मन को उन सवालों ने भी कोंचना शुरू कर दिया, जो इस आंदोलन की शुरुआत से ही मुझे परेशान करते रहे हैं। अन्ना टीम का कोई भी व्यक्ति मेरा करीबी नहीं है, जिससे मैं इन सवालों पर कुछ तर्क-वितर्क कर सकूं। फेसबुक पर आंदोलन के जो कुछ मेरे समर्थक दोस्त मिलते हैं, वे विचारों से इतने क्रांतिकारी हैं कि आंदोलन के विरोध में एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं करते और अन्ना आंदोलन का विरोध करने वालों के शाब्दिक नरसंहार तक पर उतर आते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि मैं जब तक इन सवालों को उगल नहीं दूंगा, मुझे चैन नहीं मिलेगा और इस पर अपने दोस्तों की राय से ही मेरे मन की उथल-पुथल शांत होगी।

मुझे पुस्तक समीक्षा लिखने नहीं आती, इसलिए यहां मैं समीक्षा लिखने का प्रयास नहीं कर रहा। पुस्तक समीक्षा का मतलब तो मैं यही समझता हूं कि किसी पुस्तक की अच्छाइयों और कमियों पर प्रकाश डाला जाए। अच्छाइयों एवं कमियों का यह अनुपात कितना हो, यह अक्सर लेखक के साथ समीक्षक के व्यक्तिगत रिश्ते से भी तय होता है। अच्छी बात यह है कि सिवाय फेसबुक पर दोस्त रहने के आशुतोष जी से मेरा कोई व्यक्तिगत संपर्क नहीं है। इसलिए मैं अच्छे से चीर-फाड़ कर सकता हूं।

आशुतोष एक जबर्दस्त एंकर और सफल संपादक हैं। उनके नेतृत्व वाले चैनल आईबीएन-7 की आक्रामकता का मैं कायल हूं। इस बार उन्होंने अपना हुनर पुस्तक लेखन में दिखाया है। मेरे हिसाब से पुस्तक लेखन एक कला है, जो सबको नहीं आती। मैंने कई पत्रकारों की किताबें पढ़ी हैं, उनमें कई काफी बोरिंग, अकादमिक टाइप की होती हैं जो कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा मिलाकर बना कुनबा ही लगता है। लेकिन कला के हिसाब से देखें तो आशुतोष इस विधा में भी सफल रहे हैं। तो सबसे पहले आशुतोष की किताब की कुछ अच्छाइयों की बात करता हूं। वास्तव में यह पुस्तक अन्ना आंदोलन का एक जीवंत इतिहास है और साथ ही इतनी रोचक शैली में लिखी गयी है कि यह इतिहास की अकादमिक पुस्तकों से काफी अलग भी है। आशुतोष इस आंदोलन के एक तरह से एंबेडेड इतिहासकार जैसे रहे हैं, जिसने पूरे आंदोलन को कवर करते हुए उसके बारे में लिखा है। जिस तरह से आजादी के बाद के इतिहास के लिए हम विपिन चंद्रा या रामचंद्र गुहा की किताबों पर भरोसा करते हैं, उसी तरह अब अन्ना के रामलीला मैदान और जंतर-मंतर के इतिहास के लिए लोग आशुतोष की किताब का हवाला देंगे। हालांकि, यह सिर्फ अकादमिक तौर पर लिखी इतिहास की किताब नहीं है। यह किताब काफी रोचक शैली में लिखी गयी है और आशुतोष ने इसमें इतिहास से लेकर वर्तमान तक के कई आख्यानों का हवाला दिया है और बीच-बीच में अपनी निजी जिंदगी के भी कुछ संस्मरण पेश किये हैं। पुस्तक की भाषा (अंग्रेजी) भी ऐसी है कि मेरे जैसे अंग्रेजी विरोधी प्रदेश से आये लोगों को भी समझ में आ जाए और साथ ही उन्होंने चेतन भगत की तरह ग्रामर को बहुत तोड़ने-मरोड़ने की जरूरत भी नहीं समझी है।

अब बात करते हैं इस किताब की कमियों पर। आशुतोष के किताब की सबसे बड़ी कमी भी यही है कि उन्होंने एक तरह से एंबेडेड इतिहास लिखा है। वे पूरी तरह से खुलकर अन्ना आंदोलन का समर्थन करते रहे हैं और यही एक रिर्पोटिंग और इतिहास का एक कमजोर पहलू साबित होता है। हम लोग तो उस पीढ़ी के पत्रकार हैं, जिनको एसपी सिंह और राजेंद्र माथुर जैसे लोगों के साथ काम करने का मौका नहीं मिला है, लेकिन उनके साथ के लोगों का काम देखकर ही हम कुछ सीखने या अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं कि बेहतरीन पत्रकारिता कैसे की जा सकती है। मेरे मन में यह जिज्ञासा होती है कि आज अगर एसपी होते तो वे अन्ना आंदोलन पर क्या नजरिया रखते? क्या वे आशुतोष जैसे कई पत्रकारों की तरह खुलकर आंदोलन के सिपाही बन जाते या तटस्थ होकर इस आंदोलन की रिपोर्टिंग करने की कोशिश करते? मेरा व्यक्तिगत तौर पर तो यह मानना है कि जब आप किसी आंदोलन या विचारधारा के समर्थक होते हैं तो आप उसकी रिपोर्टिंग निष्पक्ष तरीके से नहीं कर सकते। जब आप किसी को भगवान मान लेते हैं, तो आपको उसकी तरफ से कोई भी गलती या उसमें कोई कमी नहीं दिखती। मुझे याद है कि जब मैं गोरखपुर में विद्यार्थी परिषद का कार्यकर्ता हुआ करता था, तो संघ के आनुषंगिक संगठनों के किसी सम्मेलन की खबर बनाते समय कभी भी भीड़ का सही आकलन नहीं कर पाता था। यदि भाजपा की कोई जनसभा हो तो संघ पृष्ठभूमि वाले पत्रकार जहां इसमें उपस्थित लोगों की संख्या लाखों में दिखाते हैं तो उसी सभा को कम्युनिस्ट पत्रकार कुछ हजार में ही समेट देते हैं। एक ही जनसभा में उपस्थित लोगों के आकलन में इतना अंतर कैसे हो सकता है। विचारधारा और पूर्वाग्रह अवरोध खड़े करते हैं और मेरा यह मानना है कि पत्रकार बनने के बाद किसी व्यक्ति को ऐसे सभी पूर्वाग्रहों से दूर हो जाना चाहिए।

भ्रष्टाचार विरोधी किसी आंदोलन का खुलकर समर्थक हो जाने में कोई बुराई नहीं है। हो सकता है कि कल को आशुतोष भी टीम अन्ना के सदस्य हो जाएं, लेकिन हम पत्रकार तो उनसे यह उम्मीद जरूर करते थे कि वे इस बात का मार्गदर्शन करें कि अन्ना आंदोलन की रिपोर्टिंग किस तरह से की जाए। आंदोलन को कवर करने में अगर कमियां दिखें तो उसका खुलासा किया जाए या नहीं। इस मामले में आशुतोष कमजोर पड़े हैं। अंतिम अध्यायों में उन्होंने टीम अन्ना के कुछ निर्णयों पर सवाल उठाये हैं और उसमें मतभेदों की चर्चा जरूर की है, लेकिन पूरे आंदोलन के दौरान उन्हें किसी तरह का कोई हिप्पोक्रैसी नहीं दिखा है जो मेरे जैसे बहुत से सामान्य लोगों को भी देखने को मिला था।

मेरे ख्याल से अन्ना का आंदोलन घूसखोरी खत्म करने के भ्रष्टाचार के सीमित मसले से ही जुड़ा है और इस सीमित मसले को भी पाने में वर्षों लगने वाले हैं क्योंकि इसमें खुद के सुधार पर नहीं बल्कि दूसरों पर अंकुश लगाने पर ज्यादा जोर है। यह भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने का कोई व्यापक आंदोलन नहीं है। भ्रष्टाचार शब्द भ्रष्ट आचरण या विचार से बना है और घूसखोरी तो उसका एक छोटा हिस्सा ही है। अन्ना के आंदोलन में सिर्फ घूसखोरी खत्म करने पर ही जोर है और उसके लिए भी सरकारी कर्मचारियों एवं नेताओं के छोटे से वर्ग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह मान लिया गया है कि सरकारी कर्मचारियों एवं नेताओं के घूसखोरी पर अंकुश लगाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। यह आंदोलन युग निर्माण योजना की तरह व्यक्ति में चारित्रिक बदलाव, 'हम सुधरेंगे, युग सुधरेगा' जैसे तथ्यों पर जोर नहीं देता। यह लोगों के भ्रष्ट आचरण में सुधार लाने का कोई अभियान नहीं है। यह मानता है कि सरकारी कर्मचारियों, नेताओं के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। जबकि भ्रष्टाचार की असल वजह लालच, असीम महत्वाकांक्षा है जो ज्यादातर लोगों के भीतर है। यह आंदोलन उस आम आदमी के भीतर बदलाव की अपील नहीं करता। 'हमें सुधरने की जरूरत नहीं है, तुम सुधरो' यह है इस आंदोलन का नारा। जरा सोचिए, क्या देश का आम आदमी कम भ्रष्ट है? अन्ना के आंदोलन में जिस मध्यमवर्गीय 'आम आदमी' की भीड़ दिखती है वह वास्तव में अपने जीवन-आचरण में कितना ईमानदार है? वह आम आदमी जो लाइन में लगकर काम कराने में यकीन नहीं करता, जो सड़क पर जेब्रा क्रॉसिंग और रेड लाइट जंप करने को अपनी आदत में शुमार कर चुका है, जो अपने बच्चे का एडमिशन शहर के टॉप स्कूल में कराना चाहता है चाहे उसका बच्चा इसके योग्य हो या नहीं और इसके लिए चाहे कितनी भी सिफारिश या पैसा क्यों न खर्च करना पड़े। जिन नेताओं को हम भ्रष्टाचार के लिए गाली देते हैं, उनके यहां ऐसे ही आम जनता के कितने सिफारिशी पत्र पड़े रहते हैं। वह आम आदमी जो प्रॉपर्टी आधा ब्लैक और आधा व्हाइट में खरीदता है, टैक्स, बिजली की चोरी करता है, वह आम आदमी जो ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलने पर टीटीई को 100-200 रुपये पकड़ा कर यात्रा करने की कोशिश करता है, वह आम आदमी जो चाहता है कि विवेकानंद और गांधी दूसरे के घर में पैदा हों, उसके घर में नहीं। इस गैर जिम्मेदार आम आदमी को अन्ना के रूप में फिर एक गांधी मिल गया है। वह जानता है कि भ्रष्टाचार का यह आंदोलन उसके लिए काफी आसान है क्योंकि इसके लिए उसे कोई खास त्याग नहीं करना है, सिर्फ राष्ट्रीय झंडा लिए, गांधी टोपी लगाये जंतर-मंतर या रामलीला मैदान पहुंच जाना है।

आशुतोष अन्ना के आंदोलन में जुटने वाली फेसबुकिया पीढ़ी की भारी भीड़ से आह्लादित दिखते हैं, लेकिन उन्हें इस भीड़ की भी हिप्पोक्रेसी नजर नहीं आती। इस भीड़ में बहुत बड़ा वर्ग ऐसे युवाओं का भी था, जो 'मस्ती' करने के लिए लोदी गार्डन, बुद्धा गार्डन, पुराना किला की जगह रामलीला मैदान पहुंच रहा था। ऑफिस से देर रात घर के लिए निकलते वक्त मैंने ऐसी ही एक अन्ना समर्थक को बर्कोज रेस्त्रां से लुढ़कते हुए बाहर निकलते देखा, जिसे उसके दो साथी संभाल कर ले जा रहे थे। इसमें कोई शक नहीं कि फेसबुकिया पीढ़ी ने ही मध्य एशिया के कई देशों में क्रांति की अलख जगायी है, लेकिन क्या भारत में यह युवा अपने आचरण में कोई बदलाव लाने को तैयार हैं? अन्ना के 'अनुशासन पर्व' में शामिल हुआ यह दिल्ली का वही युवा है, जो मेट्रो में जरा सा धक्का लग जाने पर आसमान सिर पे उठा लेता है। यही नहीं, सड़क पर चलती उसकी गाड़ी को अगर खरोंच भी लग जाए तो वह दूसरे गाड़ी चालक की हत्या तक कर डालता है। जन लोकपाल बन जाने से क्या युवाओं के इस चरित्र में भी कोई बदलाव आ पाएगा? अन्ना का आंदोलन इस तरह गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम से काफी पीछे रह जाता है। गांधी जी स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही व्यक्ति निर्माण, चरित्र निर्माण पर भी जोर देते थे। अन्ना अपने समर्थकों के सदाचारी होने की कमजोर सी अपील तो जरूर करते हैं, लेकिन यह कोई अभियान नहीं बन पाता। अन्ना अभियान का सारा जोर जन लोकपाल लाने और उसके द्वारा घूसखोरी पर अंकुश लगाने का है। आपने पढ़ा होगा कि गांधी जी ने किस तरह दंगों के समय अनशन कर एक जिद के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम सौहार्द बनाने में सफलता हासिल की थी। मौजूदा सांप्रदायिकता के लिए तो अन्ना का ऐसा तेवर कहीं भी नहीं दिखता है और दुख की बात यह है कि इस आंदोलन के लोग राजनीतिक नेताओं की तरह टोकनिज्म का सहारा लेते हैं, मंच पर मुस्लिम, दलित बच्चों को बैठा कर।

अन्ना का आंदोलन आम आदमी के भ्रष्ट आचरण में बदलाव का आंदोलन नहीं है। अन्ना के आंदोलन से व्यापारियों, उद्योगपतियों, स्वयं सेवी संस्थाओं, निजी क्षेत्र के कर्मचारियों या समाज के अन्य वर्गों को भी कोई डर नहीं है क्योंकि जन लोकपाल से उन पर तो कोई अंकुश लगने वाला है। इस बारे में दो काल्पनिक दृश्य प्रस्तुत कर रहा हूं जिसे आप सच भी मान सकते हैं।

दृश्य एक

चांदनी चौक के व्यापारी गेंदामल फूड इंस्पेक्टर कीमत राय के भ्रष्टाचार से काफी परेशान हैं। गेंदामल की दुकान में काली मिर्च में पपीते का बीज, धनिया पाउडर में लकड़ी का बुरादा, चावल में कंकड़ और अन्य अन्य वस्तुओं में न जाने किस-किस चीज की मिलावट होती है, लेकिन यह सब लोकपाल के दायरे में नहीं आता। गेंदामल फूड इंस्पेक्टर कीमत राय की काफी इज्जत करते हैं… हर महीने जब कीमत राय अपना हिस्सा (रिश्वत) लेने पहुंचते हैं, तो वह अपने भाई से कहते हैं, 'आ गया कुत्ता, भाई इसे हड्डी डाल दो।' पिछले दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना का आंदोलन शुरू होने पर गेंदामल की खुशी को कोई ठिकाना नहीं रहा। उन्हें लगा कि लोकपाल आने पर उन्हें ऐसे भ्रष्ट इंस्पेक्टर से मुक्ति मिल जाएगी। उन्होंने बढ़-चढ़कर इस आंदोलन में हिस्सा लिया। यही नहीं, रामलीला मैदान में आये लोगों को खाना खिलाने पर उन्होंने एक लाख रुपये खर्च कर डाले।

अन्ना टीम का जन लोकपाल फूड इंस्पेक्टर कीमत राय के घूस पर तो अंकुश लगाएगा, लेकिन गेंदामल के मिलावट पर नहीं क्योंकि यह कोई चारित्रिक शुद्धि का आंदोलन तो है नहीं।

दृश्य दो

एबीसीडी चैनल के रिपोर्टर कुलजीत सिंह के साथ मैं भी जंतर-मंतर पर जुटी भीड़ को देखकर आह्लादित हूं। रविवार का दिन है और शाम के 4.30 बज चुके हैं। मुझे अब ऑफिस जाकर डेस्क का काम संभालना है। कुलजीत से बताता हूं तो वह कहता है कि मैं भी चलता हूं तुम्हे रीगल तक छोड़ दूंगा, बस दो-चार 'आम आदमी' की बाइट ले लेता हूं। हम लोग भीड़ से बाहर निकलते हुए पीछे की तरफ जाते हैं। कुलजीत पहले एक पति-पत्नी की बाइट लेता है, जो एक साथ एक अनूठा बैनर लिये घंटों से कुछ 'अलग' दिखने की कोशिश करते हुए खड़े हैं। इस बीच टीवी कैमरा देखकर बहुत से लोगों की भीड़ लग जाती है। सब अपना-अपना रिएक्शन देना चाहते हैं। कुलजीत को ऐसे दो-तीन बाइट ही चाहिए थे, लेकिन वह सोचता है चलो बाइट लेने में क्या जाता है और वह लोगों को खुश करने की कोशिश में करीब 20-25 मिनट तक आठ-दस लोगों की बाइट लेता है। इस बीच एक बूढ़े अन्ना समर्थक मेरा हाथ खींच-खींच कर बार-बार अपनी बाइट लेने को कहते हैं। मैं कुलजीत को जल्दी खत्म करने को कहता हूं क्‍योंकि मुझे ऑफिस पहुंचने की जल्दी है। कुलजीत भी खीज गया है, वह जल्दी निकलना चाहता है। वह बाइट लेना बंद करता है, लेकिन इस बीच वह बुजुर्ग सज्जन अपनी बाइट देने के लिए झगड़ पड़ते हैं, हम वहां से तेजी से चल पड़ते हैं, लेकिन वह सज्जन हमारे पीछे लग जाते हैं और हम वहां से लगभग दौड़ते हुए गाड़ी तरफ बढ़ते हैं।

टीवी पर चेहरा दिखाने के लिए पागल 'आम आदमी'।

आशुतोष को अन्ना आंदोलन के ये रंग नहीं दिखाई पड़ते। वह आंदोलन में जुटी भीड़ को देखकर पूरी तरह भावनाओं में बह जाते हैं क्योंकि यह भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए चलने वाला दूसरी आजादी का आंदोलन है। लेकिन खुद आशुतोष ने यह लिखा है कि आपातकाल के दौरान जेपी के आंदोलन को लेकर भाव प्रवण रिपोर्टिंग की गयी थी, लेकिन बाद में उसके बारे में आकलन काफी बदल गया था। हमने यह देखा है कि वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान किस तरह से देश के युवाओं ने उन्हें 'राजा नहीं फकीर है' के नारे के साथ सिर आंखों पर बिठा लिया था और बाद में इस आंदोलन का क्या हश्र हुआ? पत्रकार को किसी आंदोलन की धारा में न बहते हुए उसकी जमीनी हकीकत से रूबरू कराना चाहिए और इस बात की दूरदर्शिता भी रखनी चाहिए कि आंदोलन कितना आगे बढ़ पाएगा। मैं यहां यह नहीं कह रहा कि अन्ना का वही हश्र होगा जो बाद में जेपी या वीपी सिंह के आंदोलन का हुआ, लेकिन मेरा यह जरूर मानना है कि अगर ऐसे आंदोलन की रिपोर्टिंग किसी खुमारी में न की जाए तो उसकी असली तस्वीर जनता के सामने आती है।

इन सबके बावजूद मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्ना का आंदोलन भारत में भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए शुरू हुआ अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन है। मैं आशुतोष की इस बात से सहमत हूं कि सत्ता प्रतिष्ठान इस आंदोलन को तरह-तरह से बदनाम करने की कोशिश कर रहा है। मैं इस सरकारी कोरस का हिस्सा नहीं बनना चाहता, मैं तो एक अलग ही राग अलाप रहा हूं। मेरा तो बस इतना मानना है कि यह आंदोलन व्यापक नहीं है और इससे सैकड़ों साल की अवधि में हम सरकारी विभागों में घूसखोरी पर ही कुछ हद तक अंकुश लगा पाएंगे, समूचे तौर पर भ्रष्टाचार को खत्म करने में तो कई युग लग जाएंगे और अगर आम आदमी अपने आचरण में बदलाव नहीं लाता है तो शायद भ्रष्टाचार कभी खत्म न हो।

(दिनेश अग्रहरि। वरिष्ठ पत्रकार। फिलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता। एक दशक से भी ज्यादा समय से राजधानी दिल्ली की पत्रकारिता में सक्रिय। करीब आठ साल तक इकनॉमिक टाइम्स (हिंदी), दैनिक भास्कर, नई दुनिया जैसे प्रमुख संस्थानों में आर्थिक पत्रकारिता। चिनगारी नाम का ब्‍लॉग। उनसे agdinesh@gmail.com और 9891308838 पर संपर्क किया जा सकता है।)


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