भारत रत्न बाजार
का प्रोडक्ट
करने लगा लांच
हम सारे लोग
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष
बाजार के ही दल्ला
पलाश विश्वास
खुला है बाजार
मुक्त बाजार
बाजार का कोई
ओर छोर नहीं है
इसवक्त और हम
कमबख्त टकरा
रहे हैं बाजार से
भारत रत्न बाजार
का प्रोडक्ट
करने लगा लांच
हम सारे लोग
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष
बाजार के ही दल्ला
जापानी तेल में
परोसी जाती
सूचनाएं सारी
और हम उत्तेजित
स्खलित बारंबार
हर कोई हर किसी
की औकात तौल
रहा है
पैसों से
गली गली में चोर
चोर मचाये शोर
चोर चोर चोर
मनुवा तू काहे रोये
देश हुआ बाजार
परिवार हुआ बाजार
समाज हुआ बाजार
मातृभाषाएं और
विविध सस्कृतियां
भी बाजार के हवाले
खाली हाथ हम सारे
ठन ठन गोपाला
छन छनकर हो
रहा है विकास
घना होता सत्यानाश
जिस्म से होती
हर सौदे की शुरुआत
जिस्म तब्दील
सीढ़ी में हर कहीं
जिस्मखोरों के
हवाले देश यह
आसपास बहता
मांस का दरिया
नीली संस्कृति में
निष्णात फिरभी
हम सारे शाकाहारी
हर किसी की
असलियत अब
बाजार में बिकाऊ
है खूब ,सामने आते
तमाम उत्पीड़क
राजनेता से लेकर
पत्रकार तक की
असलियतें खुल रहीं
है रोज रोज
मुद्दे भूलकर
रियलिटी शो
का मजा लाइव है
पूरा देश अब
बिग बास है
जो बिग ब्रदर भी
हो जायेगा बहुत
जल्द,अब चूंकि
कैमरे के आगे
कपड़ा उतारने का
टीआरपी सबसे
हाई है और प्रिंट
में भी लाइव मजा
लेकिन लगता है
सारे के सारे
अर्थशास्त्री इस देश
में समलैंगिक हैं
जिनका कोई
किस्सा खुलबे नहीं
करता कहीं से
कोई स्टिंग नहीं
है किसी अर्थशास्त्री के
खिलाफ खुले बाजार मे
कोई पूंछ उठाकर
देखने की
हिम्मत भी नहीं
करता,आखिर बिना
चुनाव लड़े, राजकाज
असली चला रहे हैं
वे ही लोग जो
शौच में पानी
का इस्तेमाल
करते ही नहीं है
पूरा देश कमोड है
इनदिनों और कागज
से लोग करते शौच
इनदिनों,शौच की
तहजीब नहीं जिन्हें
धोने का शउर नहीं
जिन्हें,वे राज
चला रहे हैं
इन दिनों
राजनेता से लेकर
सर्वशक्तिमान पत्रकार
भी उन्हीं के गुलाम
वैसे पाद रहा है
हर कोई मौके
के हिसाब से
गंध की जिम्मेदारी
से मुकर रहा है
हर कोई
पाद में भी
रंगभेद घनघोर
पाद पाद कर
संपादन करते
संपादक सारे
पादन संस्कृति
के हवाले हुआ देश
गंध से
महमहाता
पूरा देश
डियोड्रेंट माफिक
ओढ़ रहे हम
सारे पाद पकवान
कोई किसी मुद्दे
पर बोल ही नहीं रहा
सोशल मीडिया
गाली गलौज का
बन गया अखाड़ा
इलेक्ट्रानिक रोबोटिक
पाद जापानी तेल तर
तर बतर हम
और प्रिंट मीडिया
मे पेड बहार
खोजी जो थे
छिद्र में समाहित
हो गये वे भी
खोज लेकिन
पूरी होती नहीं कभी
रोज होता भंडाफोड़
रोज होती गिरफ्तारियां
रोज चलता मुकदमा
फिर बाइज्जत हो जाते
लोग दो चार दिन
की जेल यात्रा के बाद
तीर्थ यात्रा की
तरह यह अब
बाजार का रिवाज
और सबकुछ
लाइव है,शो में
शामिल तमाम
चरित्र जापानी
तेल से सराबोर
इसलिए बढ़ चढ़
कर हो जाती उत्तेजना
इसीलिए स्खलित
सारा देश बार बार
लेकिन आदिवासी या
अल्पसंख्यक या
वंचित बहुजनं में कोई
आ गया निशाने पर
तो बरी नहीं होता तबतक
जब तक न कोई
फर्जी मुठभेड़ की
खबर सुर्खियों में
शामिल न हो जाये
कानून का राज
सिर्फ राजधानियों में हैं
महानगरो तक सीमाबद्ध
कानून का राज
और लोकतंत्र
हरिकथा अनंत
बांच लो सारे मिथक
मिथकों में जीते रहो
पवित्र स्नान करते रहो
हासिल मगर कुछ
होना नहीं है
उसीतरह पवित्र
धर्म ग्रंथ हो गया है
भारत का संविधान
जो बांचने के लिए है
लागू होने के लिए नहीं
हर ईमानदार
आदमी अब
जनछवि के
मुताबिक
बुरबकै हैं
जिसने कुछ
जोड़ा न हो
मौके का फायदा
उठाया नहीं कभी
या जिसे मौका ही
नहीं मिला कभी
खुली लूट की
पवित्र गंगा में
नहाने को
जिसकी न हो
बेहिसाब
चल अचल संपत्ति
जिसने न चढ़ी
हो सत्ता गलियारे
की सीढ़ियां कभी
जिसने पैसा बनाने
की कोई जुगत
ही नहीं सोची कभी
परिवार और समाज
के लिए ऐसे सारे
लोग कैंसर हैं
उनसे निजात
जब तक नहीं मिलती
शर्मसार रहते
अपने ही लोग
गांधी ने बाजार
का किया विरोध
आज गांधी को
उद्धृत करने में
शरमा रहे हैं
गांधी के नाम
सत्ता चला रहे लोग
जिस अंबेडकर ने
संसाधनों और अवसरों के
न्यायपूर्ण बंटवारे
की बात की
संविधान रचा
लेकिन कमाया
नही ंकालाधन
उन्हें ईश्वर बना दिया
अनुयायियों ने ही
जो वे कर नहीं सके कभी
वे भी करने में
जुट गये हैं सारे
अनुयायी
जाति उन्मूलन
की बात कोई कर
नहीं रहा इन दिनों
हर कोई जाति अस्मिता
ओढ़ रहा है
खा रहा है
पी रहा है
सामाजिक न्याय
और समता की
बात करते हैं लोग
महज वोट बैंक
साधने के लिए
हर गली मं मूर्तियां
लग गयी हैं
जो मरे नहीं हैं
अब उनकी
मूर्तियां भी सजने
लगी है
सत्ता में भागेदारी
का लक्ष्य
अब कारपोरेट
चंदे में
अपना हिस्सा
हिस्सा बूझने
की कवायद है
कारपोरेट राज के
आइकन सारे
बाजार के गुब्बारे
फूलकर कुप्पा
रोज इतिहास
बदल रहे हैं
राजकाज का जिम्मा
मिल जाये तो
नस्ली भेदभाव
की विशुद्ध तरकीब
से देश का
भूगोल भी बदल देंगे
वे लोग
हर क्षत्रप
इंफ्रा एजेंट है
इनदिनों
बिन रक्षा सौदे के
कारपोरेट प्रोमोटर राज
की अनोखी कृपा से
वे भी अकूत
बेहिसाब कालाधन
के पहरेदार
और खुले बाजार
में हर कोई
प्रधानमंत्रित्व का
दावेदार,हर कोई
मजबूत
कारपोरेट विक्ल्प
सबसे मेधा संपन्न हैं
प्रगतिशील लोग तमाम
उनकी प्रगति
वक्त की नब्ज
समझकर
विचारधारा की प्रासंगिक
व्याख्या करते हुए
बाजार में खप जाने की है
क्रांति की बात होती है
बहुत खूब
सामाजिक न्याय
की बातें उससे ज्यादा
अनवरत घृणा अभियान
समुद्री जलजला और
हिमालयी सुनामी
से भी ज्यादा
प्रलयंकर,लेकिन
कारपोरेट हितों के
खिलाफ बोलने में
सबकी नानी
मर जाती है
एक दूजे पर
कीचड़ उछालो
की गजब होली है
एक दूजे को
आदमजाद नंगा
कर देने की
अजब कबड्डी है
सिर्फ चुनिंदा मसलों पर
जिनसे सीधे आम जनता
के सरोकार हैं
वजूद के सवाल हैं
जो आम निनानब्वे
फीसद के लिए
कामयाब कारपोरेट
मैनेजर संप्रदाय
बेहद हगते मूतते
रहने के बावजूद
रात दिन सातों दिन
प्रकाशित प्रसारित
होते रहने के बावजूद
उन सवालों पर सी ली
अपनी अपनी जुबान
और नूरा कुश्ती
घमासान
संसद से
लेकर सड़कों तक
जनमत कुछ
ऐसा बन रहा है
कि निर्णायक है
पैसा आखिर
पैसे का दोष नहीं
गुसाई,जैसा भी हो
जहा से हो
खूब कमा लो भाई
कमाते कमाते
मर जाओगे
बना लो पैसा
पैसा बनाना
अब मुख्य धंधा है
काम काज चौपट
और राजकाज भी
पैसे का खेल
पैसा फेंको और
नंगा होकर
तमाशा देखो
कोई माई का
लाल बोलकर
तो देखें कि ससुरा
नंगा है औघड़
मुक्त बाजार में विश्वास रखता हूँ-ओबामा
न्यूयॉर्क (भाषा), मंगलवार, 15 सितंबर 2009( 15:40 IST )
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने निजी क्षेत्र में अपने प्रशासन की बढ़ती भूमिका और हस्तक्षेप की आलोचना के बीच आज कहा कि वे मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में पक्का विश्वास रखने वाले व्यक्ति हैं।
ND
वित्तीय क्षेत्र की अग्रणी कम्पनी लेहमैन ब्रदर्स के धराशायी होने के पहली वर्षगाँठ के अवसर पर यहाँ वाल स्ट्रीट में अपने भाषण में ओबामा ने कहा मुझे हमेशा मुक्त बाजार की ताकत में जबरदस्त विश्वास रहा है।
ओबामा के कई आलोचकों ने लेहमैन ब्रदर्स के पतन के बाद कहा था कि उनका प्रशासन मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था से हट रहा है, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सफलता और उसकी जनता के जीवनयापन के उच्च मानदंड का कारण रहा है।
ओबामा ने कहा मेरा मानना है कि सरकार ही नौकरियों का सृजन नहीं करती, बल्कि उद्योग और उद्यमी भी एक अच्छे विचार के साथ जोखिम उठाने की इच्छा रखते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा हम जानते हैं कि यह हमारे लोगों की गतिशीलता है, जो अमेरिकी तरक्की और खुशहाली का स्रोत रही है।
मुक्त व्यापार क्षेत्र
http://hi.wikipedia.org/s/gdf
मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
वर्तमान मुक्त व्यापार क्षेत्र एफ़टीए
मुक्त व्यापार क्षेत्र (अंग्रेज़ी: फ्री ट्रेड एरिया; एफटीए) को परिवर्तित कर मुक्त व्यापार संधि का सृजन हुआ है। विश्व के दो राष्ट्रों के बीच व्यापार को और उदार बनाने के लिए मुक्त व्यापार संधि की जाती है। इसके तहत एक दूसरे के यहां से आयात-निर्यात होने वाली वस्तुओं पर सीमा शुल्क, सब्सिडी, नियामक कानून, ड्यूटी, कोटा और कर को सरल बनाया जाता है। इस संधि से दो देशों में उत्पादन लागत बाकी के देशों की तुलना में काफ़ी सस्ती होती है। १६वीं शताब्दी में पहली बार इंग्लैंड औरयूरोप के देशों के बीच मुक्त व्यापार संधि की आवश्यकता महसूस हुई थी। आज दुनिया भर के कई देश मुक्त व्यापार संधि कर रहे हैं। यह समझौता वैश्विक मुक्त बाजार के एकीकरण में मील का पत्थर सिद्ध हो रहा है। इन समझौतों से वहां की सरकार को उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण में मदद मिलती है। सरल शब्दों में यह कारोबार पर सभी प्रतिबंधों को हटा देता है।
इस समझौते के बहुत से लाभ हैं। हाल में भारत ने १० दक्षिण एशियाई देशों के समूह आसियान के साथ छह वर्षो की लंबी वार्ता के बाद बैंकॉक में मुक्त व्यापार समझौता किया है।[1] इसके तहत अगले आठ वर्षों के लिए भारत और आसियान देशों के बीच होने वाली ८० प्रतिशत उत्पादों के व्यापार पर शुल्क समाप्त हो जाएगा। इससे पूर्व भी भारत के कई देशों और यूरोपियन संघ के साथ मुक्त व्यापार समजौते हो चुके हैं।[2][3] यह समझौता गरीबी दूर करने, रोजगार पैदा करने और लोगों के जीवन स्तर को सुधारने में काफी सहायक हो रहा है। मुक्त व्यापार संधि न सिर्फ व्यापार बल्कि दो देशों के बीच राजनैतिक संबंध के बीच कड़ी का काम भी करती है। कुल मिलाकर यह संधि व्यापार में आने वाली बाधाओं को दूर करने और दोतरफा व्यापार को सुचारू रूप से चलाने में सहायक सिद्ध होती है। इस दिशा में अमरीका-मध्य पूर्व एशिया में भी मुक्त क्षेत्र की स्थापना की गई है।[4] सार्क देशों और शेष दक्षिण एशिया में भी साफ्टा मुक्त व्यापार समझौता १ जनवरी, २००६ से प्रभाव में है। इस समझौते के तहत अधिक विकसित देश- भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका अपनी उत्पाद शुल्क को घटाकर २०१३ तक ० से ५ प्रतिशत के बीच ले आएंगे। कम विकसित देश- बांग्लादेश, भूटान, मालदीव और नेपाल को भी २०१८ तक ऐसा ही करना होगा।[5] भारत और स्विट्ज़रलैंड के बीच भी प्रयास जारी हैं।[6]
समस्याएँ और सीमाएँ
मुक्त व्यापार क्षेत्र में कंपनियों को मानवाधिकार एवं श्रम संबंधी कानूनों से मुक्ति मिल जाती है। इसका अर्थ होता है श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों का हनन और शोषण। वास्तव में मुक्त व्यापार क्षेत्र की अवधारणा का विकास बहुराष्ट्रीय औद्योगिक घरानों द्वारा श्रम कानूनों एवं सामाजिक और पर्यावरणिय दायित्व संबंधी कानूनों से मुक्त रहकर अपने अधिकाधिक लाभ अर्जित करने की कोशिशों का परिणाम है। इसलिए मुक्त व्यापार क्षेत्र का मानवाधिकार संगठनों, पर्यावरणवादियों एवं श्रम संगठनों द्वारा प्रायः विरोध किया जाता है।
संदर्भ
वापिस ऊपर जायें↑ "भारत ने एफटीए पर हस्ताक्षर किए" (हिन्दी में). लाइव हिन्दुस्तान. १३ अगस्त.
वापिस ऊपर जायें↑ भारत-जापान एफटीए साल के अंत तक।नवभारत टाइम्स]]।२२ अक्तूबर, २००८।टोक्यो
वापिस ऊपर जायें↑ भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर वार्ता तेज हो : ईयू।२७ मार्च,२००९।इंडो एशियन न्यूज़ सर्विस।एनडीटीवी।
वापिस ऊपर जायें↑ "जॉर्ज बुश ने अमेरिकी-मध्यपूर्व मुक्त व्यापार क्षेत्र की पेशकश की" (हिन्दी में). वॉयस ऑफ अमेरीका. १० मई.
वापिस ऊपर जायें↑ "दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र का समझौता प्रभावी" (हिन्दी में). वॉयस ऑफ अमेरिका. २ जनवरी.
वापिस ऊपर जायें↑ "मुक्त व्यापार समझौता एक वर्ष में" (हिन्दी में). वेब दुनिया. २९ अप्रैल.
बाहरी सूत्र
Alok Putul
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/11/131129_chhattisgarh_jail_tribes_sks.shtml
आदिवासियों की रिहाई के मामले में खानापूर्ति कर रही सरकार - BBC Hindi - भारत
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जगदलपुर, ब्यूरो। बस्तर की जेलों में बंद नक्सल मामले के सौ से अधिक बंदी एक साल में रिहा हो चुके हैं। साल भर में जेल व जिला प्रशासन ने 160 बंदियों के प्रकरण निर्मला बुच कमेटी के सामने रखे थे। इसमें से आधे की रिहाई हो चुकी है। इसके अलावा विधिक सहायता, लोक अदालत और स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से भी छोटी सजा के दर्जनों बंदियों को रिहाई मिली है।
नक्सल मामलों के बंदियों को निर्मला बुच कमेटी की बैठक से रिहाई की आस जगी है। आयोग की दिसंबर में रायपुर में बैठक होगी। इसमें जेलों में बंद नक्सल मामलों के बंदियों के प्रकरण मंगाए गए हैं। ज्ञात हो कि सुकमा के तत्कालीन कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन के अगवा होने के बाद निर्मला बुच कमेटी ने नक्सली मामलों में पकड़े गए आदिवासी ग्रामीणों के साथ नरमी बरतने की अनुशंसा की थी। जानकारी के अनुसार पिछले एक साल में सेंट्रल जेल जगदलपुर से 160 बंदियों के प्रकरण आयोग को भेजे गए थे। इसमें से आधे की रिहाई हो चुकी है। शेष मामले आयोग और राज्य शासन के पास लंबित हैं।
भेजे गए प्रकरण मामले
दिसंबर 2012 - 33
जनवरी 2013 - 22
मार्च 2013 - 17
अप्रैल 2013 - 10
जून 2013 - 42
जुलाई 2013 - 36
योग - - 160
मुक्त बाजार व खुली सोच ही बचाएगी दुनिया को |
मंदी को सिर पर देखते हुए विकसित और विकासशील मुल्क, दोनों आज कल संरक्षणवादी सोच की तरफ रुख कर रहे हैं, लेकिन इससे किसी का भला नहीं होने वाला। बता रहे हैं अरविंद सुब्रमण्यन |
अरविंद सुब्रमण्यन / December 24, 2008 |
अगर 2008 वित्त का साल था, तो 2009 साल होगा कारोबार का। अगर 2008 में जिंसों (जो पहली छमाही में चढ़ीं) और इक्विटी (जो दूसरी छमाही में गिरी) की कीमतों का बोलबाला रहा, |
तो अगले साल मुद्राओं, खास तौर पर डॉलर की कीमतों का दबदबा रहेगा। जैसे-जैसे वित्त सेक्टर में मचे कोहराम का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ने लगा है, हर देश अपने कारोबार को बचाने की जी-तोड़ कोशिश में जुट गया है। जंग शुरू हो चुकी है और जंग का मैदान पूरी दुनिया है। आज पूरी दुनिया में कारोबार के लिए प्रतिबंधात्मक उपाय किए जा रहे हैं। खास तौर पर अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्राजील, रूस, इंडोनेशिया और अपने हिंदुस्तान में भी इन उपायों को लागू किया जा चुका है या फिर किया जा रहा है। क्या यह छोटी-मोटी मुठभेड़, किसी बड़ी जंग में तब्दील हो सकती है? यह काफी हद तक निर्भर करेगा डॉलर के उतार-चढ़ाव और अमेरिका-चीन के रिश्तों पर। वैश्विक मंदी की शुरुआत से ही डॉलर की कीमतों में काफी तेज इजाफा देखने को मिला है। वह भी तब, जब मंदी के इस तूफान का सबसे ज्यादा असर खुद अमेरिका पर हो रहा है। अगर यह वर्तमान स्तर पर रहा या उससे आगे बढ़ा, तो उसका असर निश्चित तौर पर कारोबार पर पड़ेगा ही। मजबूत डॉलर दो वजहों से मुक्त व्यापार के लिए काफी बड़ा खतरा है। अर्थव्यवस्था की मोटी बातों के नजरिये से देखें तो मजबूत डॉलर अमेरिका में मंदी के बादलों को और भी घना कर देगा। उपभोग और निवेश के न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाने के बाद निर्यात और सरकारी खर्च ही मांग को बढ़ाने का काम कर सकते हैं। लेकिन तेजी से चढ़ता डॉलर निर्यात के लिए स्पीड ब्रेकर का काम करता है। इस वजह से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बचाने की सारी जिम्मेदारी एक अकेले राहत पैकेज के सिर आ जाती है। राजनीतिक स्तर पर तेजी से चढ़ता डॉलर अमेरिका में संरक्षणवादी दबाव को बढ़ावा देगा। वजह है, उसके विनिर्माण सेक्टर का विदेशों से प्रतिस्पध्र्दा में तगड़ा इजाफा होना। मंदी और मजबूत मुद्रा का यह घातक मेल कारोबारी संरक्षणवाद के जोखिमों में जबरदस्त इजाफा कर देगा। अक्सर लोग यह बात भूल जाते हैं कि अमेरिका में संरक्षणवाद की सबसे भयानक घटना 1980 के दशक में देखने को मिली थी। उस वक्त इन्हीं कारणों से मुक्त व्यापार और मुक्त बाजार का गुणगान करने वाले रोनाल्ड रीगन को भी सरंक्षणवादियों की मांग के आगे झुकते हुए कारोबार में प्रतिबंधात्मक उपायों को अपनाना पड़ा था। इन कदमों का निशाना जापान था, जिसे उस वक्त अमेरिका में प्रतिस्पध्र्दा के लिहाज से सबसे बड़ा खतरा माना जाता था। मौजूदा हालात में सरंक्षणवादियों को डेमोक्रेटिक सरकार और कांग्रेस को अपनी तरफ करने में ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा। दरअसल, अमेरिकी कांग्रेस ने पहले से ही अपने एक्शन प्लान के लिए अमेरिकी मध्यम वर्ग की समस्याओं को केंद्र बिंदु घोषित कर दिया है। ऊपर से यह बात भी अब दबी-छुपी नहीं रह गई है कि भूमंडलीकरण को लेकर अमेरिकी मध्यम वर्ग की चिंता बढ़ती ही जा रही हैं। अगर 1980 के दशक में अमेरिका के मुकाबले में जापान खड़ा था, तो इस बार उसका सामना दुनिया की सबसे ज्यादा प्रतिस्पध्र्दात्मक अर्थव्यवस्था, चीन से है। चीन को इस मुकाम पर खड़ा किया है उसकी विनिमय दर ने। मंदी के शुरू के बाद से चीनी मुद्रा, युआन में 10 फीसदी का इजाफा हो चुका था। वजह है, इसका चढ़ते डॉलर के साथ रिश्ता। साथ ही, इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि चीन के सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी अर्थव्यवस्थाओं (कोरिया, ब्राजील, मेक्सिको और भारत) की मुद्राओं में आई तेज गिरावट। इसलिए अगर चीन इसके बाद अपनी कमतर आंकी गई मुद्रा में 'सुधार' करने का दावा कर रहा है, तो उसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन ज्यादातर आंकड़ों के हिसाब से अल्प मूल्यांकन का स्तर काफी बड़ा था। साथ ही, इसका व्यापार आधिक्य (टे्रड सरप्लस) में भी बड़े बदलाव के छोटे-छोटे लक्षण दिखा रहा है। इसलिए अमेरिका की नजरों में चीन की मुद्रा एक कांटे की तरह चुभेगी। अगर चीन ने मंदी से निपटने के लिए युआन की मजबूत हो रही सेहत में किसी तरह की रोक लगाने की कोशिश की, तो उससे एक बड़ा बखेड़ा खड़ा हो सकता है। आप सोच रहे होंगे कि इसका भारत पर क्या असर होगा? हिंदुस्तानी नीति-निर्धारक और प्राइवेट सेक्टर यही सोच रहे थे कि भारत चाहे कुछ भी कर ले, विकसित मुल्कों के बाजार तो हमेशा खुले रहेंगे। दोहा दौर की वार्ता को नाकामयाब होने देना भी इसी सोच का नतीजा था। वैसे, इस सोच के पीछे के कारण भी काफी जायज थे। दरअसल, पहले कभी भी भारत के सॉफ्टवेयर या टेक्सटाइल निर्यात पर प्रतिबंध का खतरा नहीं मंडराया था। अगर दुनिया इसी तरह से मंदी के भंवर में फंसती रही और डॉलर चढ़ता रहा, तो भारत को अपनी इस सोच जल्दी ही बदलना होगा। अब तो आशंका इस बात की है कि भारत ही नहीं, बल्कि सभी उभरते हुए देशों के निर्यात बाजार का खुलापन कम होगा। इससे जाहिर तो पर हमारी विकास की उम्मीदों को झटका लगेगा ही लगेगा। उम्मीद तो यह भी है कि भारत और दूसरे विकासशील मुल्कों को अपने इन बाजारों को खुला रखने के लिए अपने बाजारों को भी खोलना होगा। दरअसल, भारत के सिर्फ अपने बारे में सोचते हुए अपनी कारोबारी नीतियों को बनाने के दिन लद चुके हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय कारोबार का वैश्वीकरण, भारत के कारोबारी नीतियों के वैश्वीकरण के बिना नहीं हो सकता है। माना, आज की मंदी काफी बड़ी और खतरनाक है, लेकिन अब भी यह 1930 के दशक की महामंदी की बराबरी नहीं कर सकती है। दरअसल, आज नीति-निर्धारक जान चुके हैं कि ऐसे वक्त में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। आज मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों के बीच अच्छा-खासा रिश्ता बन चुका है। अमेरिका में नई सरकार अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए मोटी रकम भी खर्च करने के वास्ते तैयार है। वह इसके लिए वह इस खतरे को भी नजरअंदाज कर रही है कि इसकी वजह से कंपनियों की बैलेंस शीट पर बुरा असर पड़ सकता है। ऊपर से केंद्रीय बैंकों, खास तौर पर अमेरिकी फेड ने तो मुश्किल के इस दौर में संभलकर चलना छोड़ दिया है। फेड के अध्यक्ष के मुताबिक इन्हीं बातों से 1930 के महामंदी के भूत तो भगाने में मदद मिलेगी। लेकिन 1930 की कहानी में गलती सिर्फ अर्थव्यवस्था की मोटी-मोटी बातों को भूल जाने की नहीं थी। तब बैंकिंग और वित्त सेक्टर तबाह होती रही थी और फेड चुपचाप खड़ा देखता रहा था। दिक्कत वहां यह भी थी कि संरक्षणवादी सोच अपनाई गई थी। अमेरिका में स्मूट-हॉवले कानून से शुरू हुआ संरक्षणवाद का दौर जल्दी ही यूरोप तक भी पहुंच गया। इसकी वजह विश्व कारोबार का बाजा बज गया और शुरुआत हुई महामंदी की। इसीलिए सिर्फ विकसित मुल्कों की ही नहीं, बल्कि यह भारत जैसे विकासशील देशों की भी जिम्मेदारी है कि वैश्विक बाजार को खुला रखा जाए। इसके लिए जरूरत है एक नए सहयोग संगठन की। उसका नाम होना चाहिए...., कुछ भी रखिए, लेकिन दोहा से शुरुआत में करिएगा। |
http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=11921
05/02/2013 आरक्षण के मुकाबले दलितों के उत्थान में मुक्त बाजार ज्यादा कारगर | |
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दलित विचारक व चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने कहा है कि देश के दलितों के उत्थान की प्रक्रिया में आरक्षण के मुकाबले मुक्त बाजार व्यवस्था ज्यादा कारगर है। उन्होंने कहा है कि आरक्षण की व्यवस्था महज 10 प्रतिशत लोगों का फायदा कर सकती है जबकि मुक्त बाजार व्यवस्था में 90 प्रतिशत दलितों के उत्थान की क्षमता है। बाजारवाद के फायदों को गिनाते हुए चंद्रभान ने कहा कि यह बाजारवाद की ही देन है कि सदियों से जारी दलितों और गैर दलितों के बीच के रहन-सहन, खान-पान और काम-काज का फर्क समाप्त हो गया है। वह एशिया सेंटर फॉर इन्टरप्राइज (एसीई) द्वारा आयोजित पहले अंतर्राष्ट्रीय एशिया लिबर्टी फोरम (एएलएफ) के दौरान अपने विचार प्रकट कर रहे थे। सेंटर फॉर सिविल सोसायटी (सीसीएस), एटलस इकॉनमिक रिसर्च फाऊंडेशन (एईआरएफ), फ्रेडरिक नूमैन स्टिफटुंग फर डे फ्रेहेट (एफएनएफ) व एसीई के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस दो दिवसीय समारोह में दुनिया के तीस देशों के दो सौ से अधिक प्रतिनिधि व अर्थशास्त्री शामिल थे। दो दिवसीय एएलएफ कार्यक्रम के अंतिम दिन रविवार को �इकॉनमिक रिफॉर्म्स एंड कास्ट्स इन इंडिया� विषय पर बोलते हुए चंद्रभान प्रसाद ने कहा कि बाजार की विशेषता जात-पात से उपर उठकर अधिकतम लाभ प्राप्त करने की होती है। यह बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव का असर ही है कि आज सवर्ण जाति के लोग भी बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स, पांच सितारा होटलों आदि में हाऊस कीपिंग व सिक्योरिटी गार्ड का काम खुशी खुशी कर रहे हैं जो पूर्व में सिर्फ दलितों का काम माना जाता था। उन्होंने कहा कि मुक्त बाजार व उदारवाद के कारण कम से कम मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में आज जातियों के बीच खानपान, रहन सहन व पहनावे का भेद मिट चुका है। इसके पूर्व पहले दिन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उड़ीसा के केंद्रपाड़ा से लोकसभा के सांसद बिजयंत �जय� पांडा ने कहा कि देश में विदेशी निवेश और विदेशी उद्योगों का विरोध करने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी फोबिया के शिकार हैं। व्यापार करने के उद्देश्य से आयी ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा पूरे देश में कब्जा जमा लेने के वाकए का डर अबतक लोगों के दिलो दिमाग से निकल नहीं पाया है और विदेशी निवेश का विरोध उसी डर का परिणाम है। उऩ्होंने इस डर को दूर किया जाना की आवश्यकता पर भी जोर दिया। �स्टेट, मार्केट्स एंड सोसायटी� विषय पर विचार प्रकट करते हुए सांसद जय पांडा ने कहा कि जबतक दिल्ली में बैठे लोग योजनाएं बनाते रहेंगे सुदूर प्रदेशों का विकास नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि उड़ीसा के खदानों से कोयला निकालकर सैंकड़ों किलोमीटर दूर दूसरे राज्य में पावर प्लांट की स्थापना की जाती है जो समय, श्रम व अन्य संसाधनों की बर्बादी ही है। राजनैतिक दल से संबंधित होने के बावजूद उन्होंने कहा कि देश में लोकतंत्र है लेकिन राजनैतिक दलों के भीतर ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभाव है। पांडा के मुताबिक जनता में लोकप्रिय प्रतिनिधियों को ही पार्टी टिकट मिले यह जरूरी नहीं होता और इसके पीछे बहुत से छिपे कारक जिम्मेदार होते हैं। कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत थिंकटैंक सीसीएस के प्रेसिडेंट व जाने माने अर्थशास्त्री डा. पार्थ जे. शाह, एटलस के वाइस प्रेसिडेंट टॉम जी. पामर व एफएनएफ के रीजनल डाइरेक्टर सिगफ्रेड हरजॉग के वकतव्यों के साथ हुई। |
http://samacharvarta.com/news_detail.php?cu_id=4081&news_id=36
मुक्त बाजार का दुश्चक्र
Tuesday, 27 August 2013 10:56 |
सुनील जनसत्ता 27 अगस्त, 2013 : रुपया लुढ़कता जा रहा है। इसे रोकने की भारत सरकार और रिजर्व बैंक की सारी कोशिशें नाकाम होती जा रही हैं। चारों तरफ घबराहट फैल रही है। इसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ रहा है। पेट्रोल सहित तमाम आयातित वस्तुएं महंगी होने से महंगाई का एक नया सिलसिला शुरू हो रहा है। एक तरह से हम महंगाई का आयात कर रहे हैं। इतना ही नहीं, विदेशी पूंजी वापस जाने का खतरा बढ़ने और भुगतान संतुलन की हालत गंभीर होने से पूरी अर्थव्यवस्था के अस्थिर होने का संकट पैदा हो गया है। क्या हम 1991 की ओर जा रहे हैं, यह सवाल उठने लगा है। तब भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया था, भारत का सोना लंदन में गिरवी रखना पड़ा था और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से कर्ज लेना पड़ा था, जिसकी शर्तों ने भारत की नीतियों को पूरी तरह से बदलने की शुरुआत कर दी थी। इस संकट की चर्चा में ब्याज दरों, विदेशी पूंजी के मिजाज या मुद्रा प्रचुरता की नीति बदलने के अमेरिकी फैसले जैसी तात्कालिक घटनाओं और सतही उपायों की बात की जा रही है। लेकिन भारत इस शोचनीय हालत में क्यों पहुंचा, इसे समझने के लिए कुछ बुनियादी बातों पर गौर करना होगा। तभी इसका निदान हो सकेगा। नहीं तो दवा करने के साथ मर्ज बढ़ता जाएगा। पहली बात तो यह है कि भुगतान संतुलन में जिस चालू खाते के घाटे की बात की जा रही है, वह कोई आज की बात नहीं है। पिछले ढाई दशक में हमारा चालू खाता लगातार ऋणात्मक रहा है। इस खाते को घाटे में रखने वाली चीज है भारत के विदेश व्यापार का भारी घाटा, जो न सिर्फ लगातार बना हुआ है बल्कि बढ़ रहा है। निर्यात बढ़ाने के लिए सरकार ने सब कुछ किया- करों में छूट दी, अनुदान दिए, सेज (विशेष आर्थिक जोन) बनाए। लेकिन निर्यात जितना बढ़ा उससे ज्यादा आयात बढ़ता रहा। पिछले पांच साल से तो अमेरिका, जापान, यूरोप में मंदी आने के बाद से भारत के निर्यात को बढ़ाना और मुश्किल हो गया है। 'निर्यात आधारित विकास' की बात एक मृग मरीचिका साबित हुई है। इसके लिए 'मुक्त व्यापार' की वह नीति और विचारधारा भी दोषी है, जिस पर भारत ने 1991 से चलना शुरू किया और 1994 में डंकल मसविदे पर दस्तखत करने के साथ विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बन कर जिसे भारत ने पूरी तरह मंजूर कर लिया। इसके तहत भारत सरकार ने आयात पर से नियंत्रण और पाबंदियां पूरी तरह से हटा लीं और आयात शुल्क भी कम कर दिए। न केवल सोना-चांदी बल्कि विलासिता की तमाम वस्तुओं और उनके कल-पुर्जों के आयात को पूरी तरह खुला कर दिया और यह माना कि इससे विकास और वृद्धि में मदद मिलेगी। जिस पेट्रोल के बढ़े आयात-खर्च का हल्ला अब हो रहा है, उसकी खपत में कारों और मोटरसाइकिलों की तादाद बेतहाशा बढ़ने का काफी योगदान है। भारत अपनी खपत का करीब तीन चौथाई कच्चा तेल आयात करता है। अगर तेल के आयात का खर्च बढ़ता है तो परिवहन और ढुलाई का खर्च बढ़ता है और इसका असर बहुत सारी चीजों की मूल्यवृद्धि के रूप में देखने में आता है। पेट्रोल की खपत कम करने और उसके विकल्पों का विकास करने की कोई गंभीर कोशिश इस पूरे दौर में नहीं हुई। निर्यात बढ़ाने के नाम पर भी कच्चे माल या मशीनों और कल-पुर्जों के आयात की खुली छूट दी गई। जरूरी वस्तुओं (जैसे खाद्य तेल) के आयात की भी बाढ़ आती गई और उनका उत्पादन भारत में बढ़ाने की कोशिश नहीं की गई। कुल मिला कर स्वावलंबन की नीति को छोड़ देने की गहरी कीमत आज भारत चुका रहा है। इस पूरे दौर में विदेश व्यापार के घाटे और नतीजतन चालू खाते के बढ़ते घाटे के बारे में भारत सरकार बेपरवाह बनी रही, क्योंकि यह घाटा पूंजी खाते के अधिशेष से पूरा होता रहा। यानी सरकार इस घाटे की खाई को विदेशी कर्जे और विदेशी पूंजी से भरती रही। विदेशी कर्ज-पूंजी आने से भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भरता गया, जिस पर भारत सरकार फूलती रही। अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक की सरकार इसे अपनी उपलब्धि बताती रही। ये सरकारें और इनके साथ जुड़े अर्थशास्त्री एक साधारण-सी बात नहीं समझ पाए या उसे समझ कर भी नजरअंदाज करते रहे। वह यह कि पूंजी खाते में डॉलरों की आवक कोई हमारी कमाई नहीं है, वह तो उधार की आवक है। वह हमारी देनदारी बढ़ाती है। इस विदेशी पूंजी का प्रवाह कभी भी उलटा होकर हमारे लिए संकट पैदा कर सकता है। और वही आज हो रहा है। ऋणम कृत्वा घृतम् पिबेत' वाली इस नीति में दो चीजों पर निर्भरता खासतौर पर खतरनाक और जोखिम भरी थी- विदेशी पूंजी में पोर्टफोलियो निवेश और विदेशी कर्ज में अल्पकालीन कर्ज। पिछली सदी के अंतिम हिस्से में दक्षिण-पूर्व एशिया, मैक्सिको आदि कई देशों में इस उड़नछू पंूजी की कारस्तानियों के चलते आए संकट से भारत के नीति नियंताओं ने कोई सबक नहीं लिया और उसी आत्मघाती राह पर चलते रहे। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन और अमेरिका द्वारा भारत जैसे देशों के कर्णधारों को वृद्धि या विकास की जो पट््टी पढ़ाई गई, उसमें दो महत्त्वपूर्ण मंत्र थे- निर्यात करो और विदेशी पूंजी को बुलाओ। पलक-पांवड़े बिछा कर भारत में जिस विदेशी पूंजी को बुलाया गया, उसमें करीब आधी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या एफडीआइ के रूप में है तो आधी पोर्टफोलियो निवेश है। यह दूसरी किस्म की पूंजी मूलत: परजीवी सट््टा-पूंजी है जो भारत के शेयर बाजार, ऋण बाजार या वायदा बाजार में कीमतों के उतार-चढ़ाव से मुनाफे कमाना चाहती है। यह काफी चंचल है और कभी भी वापस जा सकती है। दस साल में आई पूंजी दस दिन में वापस जा सकती है। इसलिए वह अपनी गलत-सलत मांगें भी मनवाती रहती है और चाहे जब वापस जाने की धमकी देती रहती है। 'मारीशस मार्ग' से विशाल कर-चोरी, वोडाफोन कंपनी द्वारा 1100 करोड़ रुपए के कर-वंचन के मामले में समझौता करने की भारत सरकार की तैयारी और बजट में घोषित कर-वंचन रोकने के नियमों (गार) को 2015 तक टालने का फैसला इस बात के प्रमाण हैं कि विदेशी कंपनियों द्वारा कर-चोरी को भी सरकार बर्दाश्त कर रही है और उसकी इजाजत दे रही है। भारत पर विदेशी कर्ज बढ़ रहा है और उसमें अल्पकालीन कर्जों का हिस्सा भी पिछले कुछ समय में तेजी से बढ़ा है। अल्पकालीन ऋण वे हैं जिनकी अवधि एक बरस या उससे कम रहती है। अगर इनका नवीनीकरण न हो, यानी इनके परिपक्व होने पर उनकी जगह नए ऋण न मिलें तो भी वे भुगतान संतुलन का नया संकट खड़ा कर देते है। भारत पर विदेशी कर्ज में अल्पकालीन ऋणों का हिस्सा 2002 में 2.8 फीसद था, जो अब बढ़ कर पच्चीस फीसद हो गया है। गौरतलब है कि 1991 के संकट के वक्त यह 10.2 फीसद था। वित्तमंत्री और वित्त मंत्रालय के नौकरशाह कह रहे हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है; भारत 1991 की तुलना में काफी बेहतर हालत में है। तब विदेशी मुद्रा भंडार तीन सप्ताह के आयात के बराबर रह गया था, लेकिन अभी घटने के बावजूद वह छह-सात महीने के बराबर है। विदेशी कर्ज भी तब हमारी राष्ट्रीय आय के 28.7 फीसद के बराबर था, अब बीस फीसद है। लेकिन ऐसा भरोसा दिलाने के सिलसिले में वे अल्पकालीन कर्जों के बढ़ते अनुपात को छिपाने के साथ ही यह भी छिपा जाते हैं कि भारत विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के जाल में पूरी तरह फंस चुका है। जबकि 1991 में इस नाम की कोई चिड़िया भी नहीं थी। अब विदेशी मुद्रा और विदेशी पूंजी के लेन-देन पर सरकार का नियंत्रण भी नहीं के बराबर रह गया है। इसलिए विदेशी मुद्रा का भंडार खाली होते देर नहीं लगेगी। वैश्वीकरण, उदारीकरण, विनियमन, विनियंत्रण और मुक्त व्यापार की नीतियों का नतीजा यह हुआ है कि दो दशक बीतते-बीतते हम जहां से चले थे वापस वहीं पहुंच रहे हैं। ऊंची वृद्धि दर की उपलब्धियां और वाहवाही सब काफूर हो चली है। यह साफ हो रहा है कि इन नीतियों से भारतीय अवाम का कोई भला नहीं हुआ, उलटे उसका जीवनयापन और मुश्किल हुआ है, भारत का शोषण भी बढ़ा है। साथ ही ये नीतियां जबर्दस्त अस्थिरता और संकट पैदा करने वाली भी हैं। मगर इस बार संकट पहले से ज्यादा विकट और व्यापक होगा। कारण यह है कि जो भी और जैसा भी स्वावलंबन हमने आजादी के चार दशकों में हासिल किया था, उसे इन दो दशकों में योजनाबद्ध तरीके से खत्म किया गया है। अब हम दुनिया की वित्तीय पूंजी के खेल का मोहरा बन चुके हैं और हमारी निर्भरता काफी बढ़ चुकी है। मसलन, आज भारत में विदेशी ही नहीं, देशी कंपनियां भी बड़े पैमाने पर विदेशों से उधार लेकर काम कर रही हैं। रुपया सस्ता, डॉलर महंगा होने से उनकी देनदारी तेजी से बढ़ रही है। आयात महंगे होने से उनकी लागतें बढ़ रही हैं। अगर इन कंपनियों पर संकट आया तो उनमें भारी मात्रा में लगा भारतीय बैंकों का पैसा भी डूब सकता है। इसके गुणज असर की शृंखला कहां तक जाएगी इसकी कल्पना ही हमें सिहरा देने के लिए काफी है। भारतीय अर्थव्यवस्था और भारत सरकार बुरी तरह एक दुश्चक्र में फंस चुकी हैं, और इससे बाहर निकलने का कोई आसान रास्ता नहीं है। रास्ता यही है कि हम विकास और अर्थनीति की अपनी दिशा और आर्थिक ढांचे को बदलें। गांधी, लोहिया, जेपी, कुमारप्पा और शूमाखर को याद न करना चाहें तो कम से कम जोसेफ स्टिगलिट्ज, ऊगो चावेज, इवो मोरालेस, किशन पटनायक और सच्चिदानंद सिंहा की बातों पर ही गौर फरमाएं। लेकिन दिल्ली की सत्ता के वातानुकूलित कमरों में बैठे महानुभावों में न तो इसका कोई सोच है और न ही इसकी हिम्मत या इच्छाशक्ति। वे तो आत्मघाती राह पर चल रहे हैं।
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आदिवासियों की रिहाई के मामले में खानापूर्ति कर रही सरकार
आलोक प्रकाश पुतुल
रायपुर से बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
शनिवार, 30 नवंबर, 2013 को 09:36 IST तक के समाचार
बीडी शर्मा और हरगोपाल के बीच डीएम एलेक्स पॉल.
छत्तीसगढ़ की जेल में बंद नक्सली होने के आरोपी आदिवासियों की रिहाई का मामला अटक गया है. सरकार की हाई पावर कमेटी ने तय किया था कि वह राज्य की अलग-अलग जेलों में बंद आदिवासियों की ज़मानत याचिका का अदालत में विरोध नहीं करेगी.
लेकिन स्थानीय अदालतों के अलावा हाईकोर्ट में भी सरकार के क्लिक करेंहलफ़नामे महज खानापूर्ति साबित हो रहे हैं.
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कम से कम 131 मामले ऐसे हैं, जो इस हाई पावर कमेटी की अनुशंसा और क्लिक करेंराज्य सरकार के हलफ़नामे के बाद भी अदालत में अटके हुए हैं. इसके अलावा इस हाई पावर कमेटी के कामकाज की रफ्तार भी अत्यंत धीमी है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का दावा है कि क्लिक करेंछत्तीसगढ़की जेलों में तीन हज़ार से अधिक निर्दोष आदिवासी बंद हैं लेकिन डेढ़ साल में यह हाई पावर कमेटी दो सौ मामले भी नहीं पेश कर पाई है.
छत्तीसगढ़ सरकार की इस हाई पावर कमेटी की अध्यक्ष निर्मला बुच का कहना है कि उनका काम केवल अनुशंसा करना है और निर्णय लेना अदालतों का काम है.
लेकिन संवैधानिक मामलों के जानकार कहते हैं कि कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी राज्य सरकार की होती है और अगर सरकार के हलफ़नामे पर अदालत ज़मानत नहीं दे सकती तो सरकार इस मामले में राज्यपाल को हस्तक्षेप करने के लिए कह सकती है और ऊपरी अदालतों में जा सकती है.
माओवादियों से समझौता
असल में पिछले साल 21 अप्रैल को माओवादियों ने सुकमा ज़िले के मांझीपारा गांव से कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण कर लिया था, जिसके बाद यह हाई पावर कमेटी बनाई गई थी.
कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन के मामले में माओवादियों ने सरकार से बातचीत के लिए डॉक्टर ब्रह्मदेव शर्मा और प्रोफेसर हरगोपाल को अपना मध्यस्थ बनाया था. दूसरी ओर राज्य सरकार ने मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्य सचिव एसके मिश्रा को इस मामले में बातचीत के लिए अधिकृत किया था.
पिछले साल 21 अप्रैल को माओवादियों ने सुकमा ज़िले के मांझीपारा गांव से कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण कर लिया था
सरकार और माओवादियों के मध्यस्थों के बीच लिखित समझौते के बाद तीन मई को कलेक्टर को रिहा किया गया था.
इस समझौते के अनुसार राज्य सरकार ने कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन की रिहाई के तुरंत बाद मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच की अध्यक्षता में छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव एवं पुलिस महानिदेशक की एक उच्चाधिकार प्राप्त स्थायी समिति का गठन भी कर दिया.
यह समिति इस बात की समीक्षा करने के लिए गठित की गई थी कि राज्य की विभिन्न जेलों में बंद बंदियों के मामले सुलझाए जा सकें. माओवादियों के मध्यस्थों द्वारा इस समिति को जो सूची दी गई थी, उसे प्राथमिकता से समीक्षा करने की बात भी समझौते में दर्ज की गई थी.
नाराज़गी
ये और बात है कि माओवादियों के मध्यस्थ रहे प्रोफेसर जी हरगोपाल इस समिति के कामकाज से असंतुष्ट हैं.
वे कहते हैं- "मेरी नज़र में निर्मला बुच कमेटी पूरी तरह से निष्क्रिय है और हमारे साथ जो समझौता किया गया था, उसका लाभ छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को नहीं मिला."
छत्तीसगढ़ सरकार के साथ समझौते में सक्रिय भूमिका निभाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रवीण पटेल का आरोप है कि राज्य की जेलों में तीन हज़ार से अधिक निर्दोष आदिवासी कई सालों से बिना ट्रायल के बंद हैं. प्रवीण पटेल कहते हैं कि सरकार नक्सलियों के नाम आदिवासियों को जेलों में बंद कर देती है.
प्रवीण पटेल कहते हैं-" 6 अप्रैल 2010 को देश के सबसे बड़े नक्सली हमले में 76 जवान मारे गये थे और जिन निर्दोष 10 आदिवासियों को पकड़ा गया, उन्हें इसी साल अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया. अगर निर्मला बुच कमेटी चाहती तो जेलों में बंद हज़ारों आदिवासियों के मामले कम से कम अदालत की चौखट तक तो पहुंच ही जाते."
खानापूर्ति
हालांकि निर्मला बुच कमेटी की अनुशंसाएं भी महज खानापूर्ति ही नज़र आती हैं. हाईकोर्ट के अधिवक्ता सतीश वर्मा बताते हैं कि नक्सलियों के शहरी नेटवर्क चलाने के आरोप में गिरफ्तार मीना चौधरी की ज़मानत याचिका उन्होंने हाईकोर्ट में लगाई थी. सरकार ने इस ज़मानत का विरोध नहीं करने के लिये बकायदा हलफ़नामा भी दिया था लेकिन मीना चौधरी को अदालत ने ज़मानत देने से मना कर दिया.
हाई पावर कमेटी बैठक में निर्मला बुच.
छत्तीसगढ़ सरकार की हाई पावर कमेटी की अध्यक्ष निर्मला बुच का कहना है कि उनकी कमेटी का काम जेलों में बंद बेकसूर लोगों के मामलों की समीक्षा करना है और उसके बाद हम अपनी रिपोर्ट सरकार को देते हैं. सरकार यह तय करती है कि संबंधित मामले में जमानत का विरोध नहीं करना है.
निर्मला बुच कहती हैं- " यह कोर्ट पर निर्भर करता है कि वह किसी को ज़मानत दे या नहीं दे. हम इसमें कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं?"
लेकिन जानकार निर्मला बुच की इस राय से सहमत नहीं हैं. संविधान विशेषज्ञ और राज्य के वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी का कहना है कि राज्य सरकार अगर किसी आरोपी के चाल-चलन, उसका आपराधिक इतिहास और कानून व्यवस्था का आकलन करते हुये जमानत का विरोध नहीं करती है तो न्यायालय को सरकार पर भरोसा करना चाहिये.
कनक तिवारी कहते हैं- "सरकार ने अगर माओवादियों की मांग को स्वीकार करते हुये समझौता किया है तो उसे पूरा करने की भी जिम्मेवारी राज्य सरकार की है. सरकार अगर चाहे तो वह इस मामले में राज्यपाल से हस्तक्षेप करने के लिए कह सकती है. अपने समझौते का हवाला देते हुए इन ज़मानतों के लिए वह सुप्रीम कोर्ट भी जा सकती है. लेकिन सरकार इससे बच रही है."
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http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/11/131129_chhattisgarh_jail_tribes_sks.shtml
आदिवासियों की पहले जमीनें छिनीं, अब नक्सली बताने की साजिश!
Friday, 16 September 2011 10:48 | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
*राष्ट्रीय किसान पंचायत ने आर पार की लड़ाई के लिए कमर कसी अंबरीश कुमार लखनऊ, 15 सितंबर। प्रदेश के किसान संगठनों ने आरोप लगाया है कि केंद्र की यूपीए सरकार छिंदवाड़ा के आदिवासी किसानों की जमीन छीनने के बाद अब उन्हें नक्सली घोषित करने की साजिश कर रही है ताकि आदिवासियों की जमीन बड़े कारपोरेट घरानों को दे दी जाए। इसका विरोध करने के लिए उत्तर प्रदेश के सैकड़ों किसान महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश सीमा पर बसे गांवों की तरफ कूच करेंगे। ये किसान 17 से 21 सितंबर तक छिंदवाड़ा के आदिवासी गांवों में होने वाली पदयात्रा में शामिल होंगे और फिर 21 को किसानों की पंचायत में भी हिस्सा लेकर केंद्र की साजिश का विरोध करेंगे। किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि तीन बड़ी बिजली परियोजनाओं के लिए इस अंचल के पंद्रह आदिवासी बहुल गांवों की जमीन अधिग्रहित की गई है जिसका वहां के किसान विरोध कर रहे हैं। किसान आंदोलन का दायरा बढ़ रहा है और अब निशाने पर केंद्रीय मंत्री कमलनाथ हैं जिन पर कारपोरेट घरानों का साथ देने का आरोप है। आंदोलन को कुचलने के लिए पहले हिंसा का सहारा लिया गया तो अब समूचे जिले को नक्सल प्रभावित घोषित कर किसान नेताओं को फंसाने की साजिश की जा रही है। विनोद सिंह ने कहा कि छिंदवाड़ा में एक और भट्टा पारसौल गरमा रहा है। पंद्रह से ज्यादा गांवों के आदिवासी किसानों की जमीन तीन बिजली परियोजनाओं के नाम पर ली जा चुकी है। जिसके खिलाफ आंदोलन चल रहा है। अब इस आंदोलन को कुचलने के लिए केंद्रीय मंत्री कमलनाथ सरकार पर छिंदवाड़ा जिले को नक्सल प्रभावित जिला घोषित करने का दबाव डाल रहे है। इसके खिलाफ आंदोलन में किसान संघर्ष समिति, भारतीय किसान यूनियन (अम्बावत), किसान मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) और इंसाफ आदि शामिल हैं। जिन बिजली परियोजनाओं को लेकर आदिवासी किसान विरोध कर रहे हैं उनमें अडानी समूह की बिजली परियोजना के अलावा मैक्सो पावर प्रोजेक्ट और एसकेएस पावर प्रोजेक्ट शामिल हैं। ये परियोजनाएं अमरवाड़ा ब्लाक से लेकर दमुआ ब्लाक तक फैली हैं। इसके अलावा पेंच परियोजना को लेकर भी आंदोलन चल रहा है। इंसाफ के महासचिव चितरंजन सिंह ने कहा-केंद्र की कांग्रेस सरकार अण्णा हजारे के आंदोलन के बाद भी नहीं चेती है। तब भी कुछ मंत्रियों के अहंकार के चलते समूची सरकार संकट में फंसी और अब दूसरे मंत्री कमलनाथ भी राहुल गांधी के किसानों के मसीहा वाली छवि में पलीता लगा रहे हैं। राहुल गांधी किसानों के हक की बात कर रहे हैं तो कमलनाथ किसानों की जमीन छिनवाने के बाद किसानों को नक्सली बनाने पर आमादा है। इसके लिए वे समूचे छिंदवाड़ा को नक्सल प्रभावित जिला घोषित कराने की फिराक में हैं। इससे किसानों में भारी रोष है। उत्तर प्रदेश से कई जन संगठन किसानों की पंचायत में हिस्सा लेंगे और इस मुद्दे पर पुरजोर विरोध करेंगे। किसान पंचायत में शामिल होने के लिए महाराष्ट्र के कई जिलों के किसान छिंदवाड़ा पहुंच रहे हैं। किसान मंच के महासचिव प्रताप गोस्वामी नागपुर और कई अन्य जिलों से किसानों को लेकर इस पंचायत में शिरकत करेंगे। गोस्वामी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ कई वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने कहा-इस मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों एक हो जाते हैं। यह महाराष्ट्र में हुआ और यही मध्य प्रदेश में हो रहा है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/1226-2011-09-16-05-24-16 जंगल की जमीनों पर मालिकाना हक को दिखाई ताकतDainik Jagran के द्वारा | जागरण – सोम., २६ अगस्त २०१३ फ़ोटो देखें
चित्रकूट, कार्यालय संवाददाता : वनाधिकार कानून 2006 को लागू कर आदिवासी दलित परिवारों को जंगल की भूमि में मालिकाना हक दिलाने को अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन ने मुख्यालय में प्रदर्शन किया। सैकड़ों की संख्या में इकट्ठा आदिवासियों ने एनएच में जाम लगाकर नौ सूत्रीय मांगों का ज्ञापन सदर एसडीएम को सौंपा। अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन के नेतृत्व में सैकडों लोगों ने सोमवार को मुख्यालय में प्रदर्शन किया। मांगों के समर्थन में ट्रैफिक चौराहे में मानव श्रृंखला बनाकर जाम लगा दिया। एनएच में वाहनों के पहिए थम गए। राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संजय गर्ग ने कहा कि वनाधिकार कानून 2006 में लागू हो गया है। इसके बाद भी स्थानीय प्रशासन आदिवासियों को कानूनी अधिकार नहीं दिला रहा। मानिकपुर क्षेत्र के ऐलहा बढ़ैया, चुरेह केशरुआ, कोटा कंदैला, ऊंचाडीह, मऊ गुरदरी, सकरौंहा, रानीपुर, गिदुरहा, शेषापुर, कल्याणगढ़, जारौमाफी, छेरिहा खुर्द, छेरिहा बुजुर्ग, किहुनिया, अमचुर नेरुआ, बंबिहा बरेठी, टिकरिया, डोडामाफी व मऊ ब्लाक से जुड़ी ग्राम पंचायतों की 3 हजार हेक्टेयर भूमि डबल इंट्री के मकड़जाल में फंसी हैं जिनका आदिवासियों को वर्ष 1962 में पट्टा मिला था। वर्ष 1972 में सेंचुरी का गठन हुआ तो वन विभाग ने जमीनें खाली करवा ली। हजारों आदिवासी परिवार बेघर हो गए। इन परिवारों को राहत प्रदान करने के लिए संसद ने वनाधिकार कानून पारित किया। जिसे आज तक यहां लागू नहीं किया गया। राष्ट्रीय संगठन मंत्री रोमा ने कहा कि वन उपज पर समुदाय का पूर्ण अधिकार होने के कानूनी प्रावधान के बावजूद भी समुदाय का मालिकाना हक स्थापित नहीं हो पाया। महासचिव मातादयाल ने कहा कि आदिवासी व कोल जाति को अधिकार मिलने से जहां एक तरफ हजारों लोगों की आजीविका का साधन मिलेगा वहीं जंगल का संरक्षण व संवर्धन भी बढ़ेगा। धरना स्थल पर सदर एसडीएम अभयराज ने मुख्यमंत्री को संबोधित नौ सूत्रीय मांगों का ज्ञापन स्वीकार किया। इस मौके पर राममिलन, सुकेता कोल, चुनकी कोल, सुमन, मंगल प्रसाद, कुनुआ, कैलाश, छविलाल, बिट्टी कोल, बोधुलिया, बुद्धा कोल, जावित्री, बुंदिया, देवरुलिया व रन्नो आदि मौजूद रही। दिखाई ताकत पाठा क्षेत्र के दर्जनों गांवों के सैकड़ों कोल आदिवासियों के साथ मिर्जापुर व सोनभद्र जिले के कोल आदिवासी ट्रेनों में सवार होकर चित्रकूट धाम कर्वी रेलवे स्टेशन पहुंचे। जुलूस की शक्ल में तीर व कमान लेकर नारेबाजी करते हुए ट्रैफिक चौराहा पहुंचे। जहां मानव श्रृंखला बनाकर घंटों एनएच को जाम रखा। इस दौरान आदिवासी जंगल की भूमि पर कब्जा दिलाने की मांग करते रहे। पुलिस के जवान भी सक्रिय दिखे। सीओ सिटी सुरेश चंद्र रावत व कोतवाली प्रभारी विष्णुपाल सिंह पुलिस बल के साथ मौजूद रहे। झारखंड आंदोलनhttp://hi.wikipedia.org/s/4idमुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से झारखंड का अर्थ है "वन क्षेत्र", झारखंड वनों से आच्छादित छोटानागपुर के पठार का हिस्सा है जो गंगा के मैदानी हिस्से के दक्षिण में स्थित है। झारखंड शब्द का प्रयोग कम से कम चार सौ साल पहले सोलहवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। अपने बृहत और मूल अर्थ में झारखंड क्षेत्र में पुराने बिहार के ज्यादतर दक्षिणी हिस्से और छत्तीसगढ, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के कुछ आदिवासी जिले शामिल है। देश की लगभग नब्बे प्रतिशत अनुसूचित जनजाति का यह निवास स्थल है। इस आबादी का बड़ा हिस्सा 'मुंडा', 'हो' और 'संथाल' आदि जनजातियों का है, लेकिन इनके अलावे भी बहुत सी दूसरी आदिवासी जातियां यहां मौजूद हैं जो इस झारखंड आंदोलन में काफी सक्रिय रही हैं। चूँकि झारखंड पठारी और वनों से आच्छादित क्षेत्र है इसलिये इसकी रक्षा करना तुलनात्मक रुप से आसान है। परिणामस्वरुप, पारंपरिक रुप से यह क्षेत्र सत्रहवीं शताब्दी के शुरुआत तक, जब तक मुगलशासक यहाँ नहीं पहुँचे, यह क्षेत्र स्वायत्त रहा है। मुगल प्रशासन ने धीरे धीरे इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करना शुरु किया और फलस्वरुप यहाँ की स्वायत्त भूमि व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन हुआ, सारी व्यवस्था ज़मींदारी व्यवस्था में बदल गयी जबकि इससे पहले यहाँ भूमि सार्वजनिक संपत्ति के रुप में मानी जाती थी। यह ज़मींदारी प्रवृति ब्रिटिश शासन के दौरान और भी मज़बूत हुई और जमीने धीरे धीरे कुछ लोगों के हाथ में जाने लगीं जिससे यहाँ बँधुआ मज़दूर वर्ग का उदय होने लगा। ये मजदूर हमेशा कर्ज के बोझ तले दबे होते थे और परिणामस्वरुप बेगार करते थे। जब आदिवासियों के ब्रिटिश न्याय व्यवस्था से कोई उम्मीद किरण नहीं दिखी तो आदिवासी विद्रोह पर उतर आये। अठारहवीं शताब्दी में कोल्ह, भील और संथाल समुदायों द्वारा भीषण विद्रोह किया गया। अंग्रेजों ने बाद मेंउन्निसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी में कुछ सुधारवादी कानून बनाये। 1845 में पहली बार यहाँ ईसाई मिशनरियों के आगमन से इस क्षेत्र में एक बड़ा सांस्कृतिक परिवर्तन और उथल-पुथल शुरु हुआ। आदिवासी समुदाय का एक बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा ईसाईयत की ओर आकृष्ट हुआ। क्षेत्र में ईसाई स्कूल और अस्पताल खुले। लेकिन ईसाई धर्म में बृहत धर्मांतरण के बावज़ूद आदिवासियों ने अपनी पारंपरिक धार्मिक आस्थाएँ भी कायम रखी और ये द्वंद कायम रहा। झारखंड के खनिज पदार्थों से संपन्न प्रदेश होने का खामियाजा भी इस क्षेत्र के आदिवासियों को चुकाते रहना पड़ा है। यह क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा खनिज क्षेत्र है जहाँ कोयला,लोहा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और इसके अलावा बाक्साईट, ताँबा चूना-पत्थर इत्यादि जैसे खनिज भी बड़ी मात्रा में हैं। यहाँ कोयले की खुदाई पहली बार 1856 में शुरु हुआ और टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनीकी स्थापना 1907 में जमशेदपुर में की गई। इसके बावजूद कभी इस क्षेत्र की प्रगति पर ध्यान नहीं दिया गया। केंद्र में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, उसने हमेशा इस क्षेत्र के दोहन के विषय में ही सोचा था। आधुनिक काल[संपादित करें]आधुनिक झारखंड आंदोलन की शुरुआत 20 वी सदी के शुरुआत हुई, जिसकी पहल ईसाई आदिवासियों द्वारा शुरु की गयी लेकिन बाद में इसे सभी वर्गों जिसमें गैर आदिवासी भी शामिल थे; का समर्थन हासिल हुआ। पहले रोमन कैथोलिक ईसाई और प्रोटेस्टेंट ईसाई समुदायों में प्रतिस्पर्धा हुआ करता था लेकिन चुनाव के समय इनकी एकजुटता से1930 के चुनावों में इन्हें कुछ सफलताएँ हासिल हुईं। इस समय आंदोलन का नेतृत्व दिकु (झारखंड में बाहर से आये धनी ज़मींदारों और अन्य बाहरी लोगों के लिये उस समय के झारखंडी आदिवासियों द्वारा इस्तेमाल किया जानेवाल शब्द) कर रहे थे। झारखंड क्षेत्र के प्रवक्ता और प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार की संविधानिक संस्थाओं के पास अपना प्रतिवेदन लेकर जाते थे; लेकिन उसमें कोई उल्लेखनीय सफलता उन्हें नहीं मिलती थी। आजादी के बाद[संपादित करें]1947 में भारत की आज़ादी के बाद व्यवस्थित रूप से औद्योगिक विकास पर काफी बल दिया गया जो भारी उद्योगों पर केन्द्रित थी और जिसके लिये खनिजों की खुदाई एक जरूरी हिस्सा थी। समाजवादी सरकारी नीति के तहत भारत सरकार द्वारा आदिवासियों की जमीनें बगैर उचित मुआवज़े के अन्य हाथों में जाने लगीं। दूसरी तरफ़ सरकार का यह भी मानना था कि चूँकि वहाँ की जमीन बहुत उपजाऊ नही है इसलिये वहाँ औद्योगीकरण न सिर्फ़ राष्ट्रीय हित के लिये आवश्यक है बल्कि स्थानीय विकास के लिये भी जरूरी है। लेकिन औद्योगीकरण का नतीजा हुआ कि वहाँ बाहरी लोगों का दखल और भी बढ गया और बड़ी सँख्या में लोग कारखानों में काम के लिये वहाँ आने लगे। इससे वहाँ स्थानीय लोगों में असंतोष की भावना उभरने लगी और उन्हें लगा कि उनके साथ नौकरियों में भेद-भाव किया जा रहा है। 1971 में बनी राष्ट्रीय खनन नीति इसी का परिणाम थी। सरकारी भवनों, बाँधों, इत्यादी के लिये भी भूमि का अधिग्रहण होने लगा। लेकिन कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि इन बाँधों से उत्पादन होने वाली बिजली का बहुत कम हिस्सा इस क्षेत्र को मिलता था। इसके अलावा सरकार द्वारा वनरोपण के क्रम में वहाँ की स्थानीय रुप से उगने वाले पेड़ पौधों के बदले व्यवसायिक रुप से फ़ायदेमंद पेड़ों का रोपण होने लगा। पारंपरिक झूम खेती और चारागाह क्षेत्र सिमटने लगे और उनपर प्रतिबंधों और नियमों की गाज गिरने लगी। आज़ादी के बाद के दशकों में ऐसी अनेक समस्याएँ बढती गयीं। राजनैतिक स्तर पर 1949 में जयपाल सिंह के नेतृत्व में झारखंड पार्टी का गठन हुआ जो पहले आमचुनाव में सभी आदिवासी जिलों में पूरी तरह से दबंग पार्टी रही। जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना तो झारखंड की भी माँग हुई जिसमें तत्कालीन बिहार के अलावा उड़ीसा और बंगाल का भी क्षेत्र शामिल था। आयोग ने उस क्षेत्र में कोई एक आम भाषा न होने के कारण झारखंड के दावे को खारिज कर दिया। 1950 के दशकों में झारखंड पार्टी बिहारमें सबसे बड़ी विपक्षी दल की भूमिका में रहा लेकिन धीरे धीरे इसकी शक्ति में क्षय होना शुरु हुआ। आंदोलन को सबसे बड़ा अघात तब पहुँचा जब 1963 में जयपाल सिंह ने झारखंड पार्टी ने बिना अन्य सदस्यों से विचार विमर्श किये कांग्रेस में विलय कर दिया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप छोटानागपुर क्षेत्र में कई छोटे छोटे झारखंड नामधारी दलों का उदय हुआ जो आमतौर पर विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व करती थी और विभिन्न मात्राओं में चुनावी सफलताएँ भी हासिल करती थीं। झारखंड आंदोलन में ईसाई-आदिवासी और गैर-ईसाई आदिवासी समूहों में भी परस्पर प्रतिद्वंदिता की भावना रही है। इसका कुछ कारण शिक्षा का स्तर रहा है तो कुछ राजनैतिक । 1940, 1960 के दशकों में गैर ईसाई आदिवासियों ने अपनी अलग सँस्थाओं का निर्माण किया और सरकार को प्रतिवेदन देकर ईसाई आदिवासी समुदायों केअनुसूचित जनजाति के दर्जे को समाप्त करने की माँग की, जिसके समर्थन और विरोध में काफी राजनैतिक गोलबंदी हुई। अगस्त 1995 में बिहार सरकार ने 180 सदस्यों वालेझारखंड स्वायत्तशासी परिषद की स्थापना की। प्राचीन इतिहास क्रम[संपादित करें]
आदिवासियों के खिलाफ कारखानों की साजिशसंपादकीय 19 फरवरी 12 छत्तीसगढ़ में जगह-जगह कारखानों के लिए आदिवासियों की जमीनें लेने के लिए एक बड़ी साजिश चल रही है। देख भर के बड़े-बड़े कारखानेदार इस खनिज-संपन्न राज्य में कानून तोडऩे में लगे हैं। अभी कुछ ही महीने हुए हैं कि बस्तर में एस्सार नाम की कंपनी को नक्सालियों को एक फर्जी जनसंगठन के रास्ते से नक्सलियों को करोड़ों रूपये देने का मामला पकड़ाया। लेकिन कल हमने जो रिपोर्ट छापी है, वह और भी भयानक है। उद्योगपति इस राज्य में कारखाने लगाने के लिए सैकड़ों और हजारों एकड़ जमीनें खरीद रहे हैं। राज्य का शायद ही ऐसा कोई इलाका हो जहां पर बिजली हो, सड़क और पटरी हो, जो खदानों के पास हो और जहां आदिवासियों की जमीनें न हों। नतीजा यह हो रहा है कि तकरीबन हर कारखानेदार जालसाजी और साजिश करके कुछ गरीब आदिवासियों के नाम पर दूसरे आदिवासियों की जमीनें खरीद रहा है और ऐसे कर्मचारियों या बिचौलियों के नाम की जमीन को कारखाने की जमीन बताकर राज्य और केंद्र से तरह-तरह की मंजूरी भी ले रहा है। यह उसकी अपनी एक कारोबारी मजबूरी हो सकती है लेकिन भारत के आदिवासियों को शोषण से बचाने के लिए उनकी जमीनों की खरीदी-बिक्री गैरआदिवासियों को रोकने के कड़े कानून लागू हैं। और इन दिनों छत्तीसगढ़ में चल रही खरीदी में इस कानून को सोच-समझकर, जमकर तोड़ा जा रहा है जो कि आदिवासियों की लूट से कम कुछ नहीं है। कानून की हमारी बहुत साधारण समझ यह कहती है कि आदिवासियों के ऐसे षडयंत्र भरे शोषण पर एक कड़ी कार्रवाई करने के लिए आदिवासी कानून मौजूद हैं। राज्य सरकार का न सिर्फ यह अधिकार बनता है कि आदिवासियों की जमीन को एक साजिश से हथियाने वाले ऐसे लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाए, बल्कि सरकार की यह जिम्मेदारी भी बनती है। और सरकार से परे भी राज्य और केंद्र में आदिवासियों के हितों को बचाने के लिए कुछ संवैधानिक संगठन बने हुए हैं जिनमें मनोनीत नेताओं को जनता के खर्च से ऐशो-आराम मिलते हैं, और अगर ऐसे मामलों में ये संवैधानिक संस्थाएं कार्रवाई नहीं करती हैं तो हमारे हिसाब से वे अपनी जवाबदेही पूरी नहीं करतीं और उनकी इस अनदेखी के खिलाफ भी अदालत जाया जा सकता है। यह मामला आदिवासी हितों को लेकर लडऩे वाले जनसंगठनों के अदालत जाने लायक भी है और अदालतें खुद होकर भी ऐसे मामलों पर कार्रवाई शुरू कर सकती हैं। भारत की न्यायपालिका अपने जज के ट्रैफिक जाम में फंस जाने पर भी अदालती कार्रवाई शुरू करने का इतिहास दर्ज कर चुकी है, लेकिन मासूम और बेजुबान आदिवासियों के खिलाफ ऐसी बाजारू साजिश पर शायद अदालतों को किसी के आने और दरवाजा खटखटाने का इंतजार होगा। सरकारी रोजी के काम में लगे हुए गरीबी की रेखा के नीचे के आदिवासियों के नाम बैंक खाते खुलवाकर, उसमें करोड़ों रूपए डालकर दूसरे आदिवासियों की जमीनें खरीदने की साजिश देखने लायक है। कल के अखबार में हमने इसके दस्तावेजी सुबूतों और तस्वीरों सहित रिपोर्ट छापी है और छत्तीसगढ़ में आदिवासी हितों की बात करने वाले लोगों की परख का यह मौका है। अब लगे हाथों इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि उद्योगों के लिए जमीन लेने में जो दिक्कतें आती हैं, उनका क्या इलाज निकाला जा सकता है। इसके लिए केंद्र सरकार एक अलग कानून की बात कर रही है और वह आने को है। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने निजी उद्योगों के लिए जमीनें लेकर देने का सिलसिला बंद कर दिया है और अब कारखानेदारों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे बाजार में अपने लिए जमीन का इंतजाम करें। केंद्र और राज्य की इन दो नीतियों के बीच उद्योगों का लगना खासा मुश्किल है और इसका कोई रास्ता देश में निकालना होगा। लेकिन किसी दिक्कत की वजह से लोगों को कानून तोडऩे का हक नहीं मिल सकता। ऐसा हो तो फिर देश के हर गरीब और भूखे को यह हक मिल जाएगा कि वे संपन्न तबके की कारों को तोड़कर उसमें से सामान निकाल लें और दुकानों को तोड़कर उसमें से खाना निकाल लें। कानून के राज में ऐसी छूट गरीबों को नहीं मिल सकती, इसलिए अमीरों को भी कानून तोडऩे की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। छत्तीसगढ़ में आदिवासी जमीन को लेकर जो साजिश हुई है, उसमें हमारे हिसाब से आयकर विभाग की कार्रवाई भी बनती है और ऐसे तमाम लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसा न हो जाए कि अंधा कानून बीच में डाले गए आदिवासियों को जेल भेजकर साजिश करने वाले कारखानेदारों को बचा ले। http://glocaltoday.blogspot.in/2012/02/blog-post_4183.html आदिवासियों की जमीन लौटाने का आदेशPosted by संघर्ष संवाद on मंगलवार, मई 29, 2012 | 0 टिप्पणियाँ हमने संघर्ष संवाद के पिछले अंकों में यह बताया था कि छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में किस प्रकार फर्जी नामों से जमीन खरीद कर तथा बलात कब्जा कर जिंदल जैसे उद्योगपति आदिवासियों तथा अन्य किसानों की जमीनें हड़प रहे हैं। ऐसे फर्जी खरीद-फरोख्त के मामलों तथा कुछ भुक्तभोगियों के बयान भी हमने प्रकाशित किये थे। परंतु जाँजगीर चांपा के जिलाधिकारी का यह आदेश सरकारी तौर पर भी यह सिद्ध करता है कि ऐसा हो रहा है तथा इसमें राज्य के मंत्री तक शामिल हैं। छत्तीसगढ़ के जांजगीर चांपा जिले में गृहमंत्री के बेटे द्वारा उद्योग के लिए जमीन खरीदने की शिकायत के बाद कलक्टर ने आदिवासियों की जमीन लौटाने का आदेश दिया है। कलक्टर बृजेश चंद मिश्र ने आदेश दिया कि जिले के जांजगीर तहसील के भादा और गाड़ापाली गांव के पांच किसानों की 13.65 एकड़ जमीन उन्हें वापस लौटायी जाय। मिश्र ने बताया कि उन्हें जानकारी मिली है कि संदीप कंवर ने आदिवासियों की जमीन खरीदी है जिसका भुगतान निजी उद्योग विडियोकान ने किया है। जिले में आदिवासियों की जमीन यदि गैर आदिवासी व्यक्ति खरीदता है तो उसे कलक्टर की इजाजत लेनी होती है। हालांकि, संदीप कंवर भी आदिवासी हैं लेकिन भुगतान विडियाकान ने किया है। इसलिए आदिवासियों की जमीन उन्हें लौटाने का आदेश दिया गया है। कलक्टर ने बताया कि इस मामले में अभी पांच खातेदारों की 13.65 एकड़ जमीन लौटाने का आदेश दिया गया है। इन सभी खातेदारों को विडियोकान ने 54 लाख 86 हजार रुपए का भुगतान किया था। वहीं इस मामले में 80 एकड़ जमीन खरीदने की जानकारी मिली है, जिसकी जांच की जा रही है। उन्होंने बताया कि उन्हें जब विभिन्न माध्यमों से जानकारी मिली कि नियम विरूद्ध तरीके से आदिवासियों की जमीन खरीदी जा रही है तब उन्होंने इस मामले की जांच की और जब इससे भू-राजस्व संहिता का उल्लंघन पाया गया तो यह कार्रवाई की गई। इस मामले में राज्य के गृहमंत्री और संदीप कंवर के पिता ननकी राम कंवर ने कहा है कि इस मामले में उनकी कोई भूमिका नहीं है और केवल राजनीतिक मकसद पूरा करने के लिए उन्हें फंसाया जा रहा है। कंवर ने कहा कि वह पहले ही कह चुके हैं कि संदीप विडियोकान के कर्मचारी हैं और उसने उसके लिए जमीन खरीदी है। यदि संदीप आदिवासियों से जमीन खरीद कर ज्यादा कीमत में विडियोकान को जमीन बेचते तब यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है लेकिन ऐसा मामला नहीं है। उन्होंने कहा कि इस मामले में वे किसी भी तरह से जांच के लिए तैयार हैं। छत्तीसगढ़ में निजी उद्योग के लिए गृहमंत्री के बेटे द्वारा जमीन खरीदने का मामला सामने आने के बाद यहां राजनीति तेज हो गई है। कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि संदीप द्वारा आदिवासियों की जमीन सस्ती दरों में खरीद कर उसे शासन के प्रावधानों के अनुसार कई गुना अधिक दरों पर कंपनी को बेचा जा रहा है। इस कारण क्षेत्र के प्रभावित भू-मालिक की जहां एक तरफ से पूरी जमीन जा ही है वहीं, दूसरी ओर वे सरकार की पुनर्वास नीति के प्रावधानों के तहत लाभ से भी वंचित हो रहे हैं। Tags: छत्तीसगढ़ , विस्थापन विरोधी आंदोलन राज्य दमनपुलिस की बर्बरता: कहानी इतनी आसान नहीं जिंदल, जंगल और जनाक्रोश: 2008 का पुलिस दमन नहीं भूलेंगे रायगढ़ के लोग कारपोरेट लूट- पुलिसिया दमन के विरोध में दुर्ग में दस्तक: किसान-मजदूर-आदिवासियों ने किया प्रदर्शन धरमजयगढ का संघर्ष आख़िरी दौर में मानवाधिकारपरमाणु ऊर्जा विरोधी जन पहल: आंदोलन तेज करने के लिए एकजुट हो! इंदिरा सागर बांध: प्रत्याशियों से पुनर्वास पर रुख स्पष्ट करने को कहा लोगों ने जनता के अधिकारों को बहाल करो, चंद्रवंशी पर लगाए फर्जी मुकदमे वापस लो सरदार सरोवर बांध : खामियाजा भुगतती नर्मदा घाटी चुटका : घुप्प अंधियारे में रोशनी का खेल - See more at: 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are used in rituals and religious ceremonies, to pass down stories from
generation to generation, as well as to sing and dance to.
AMAPIANO MUSIC
South African house music is known for
its ability to constantly reinvent itself. And 2018 has been no different. A
new sound which is known as amapiano is a mix of deep house, gqom all mixed in
with the jazzy,soulful sound of a piano.of Born in Soweto, a homegrown label
which backed AmaPiano since its early days, Initially, Amapiano was a confined
success in the townships, playing in.
GQOM MUSIC
Gqom is a genre of electronic dance music that emerged in the early 2010s from
Durban, South Africa. It developed out of South African house music, kwaito
techno. Unlike other South African electronic music, gqom is typified by
minimal, raw and repetitive sound with heavy bass beats but without the four-
on-the-floor rhythm pattern.
KWAITO MUSIC
Kwaito is a music genre that emerged in Johannesburg, South Africa, during the
1990s. It is a variant of house music featuring the use of
African sounds and samples. Typically at
a slower tempo range than other styles of house music, Kwaito often contains
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vocalsTypically at a slower tempo range than other styles of house music,
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itself. And 2018 has been no different. A new sound which is known as amapiano
is a mix of deep house, gqom all mixed in with the jazzy,soulful sound of a
piano.of Born in Soweto, a homegrown label which backed AmaPiano since its
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