Sunday, October 4, 2015

वीरेनदा आपको अपने बीच खड़े मिलेंगे उसी खिलंदड़ बेपरवाह अंदाज में हमेशा हमेशा सक्रिय! वीरेनदा के जनपद और उनकी कविता को समझने के लिए पहले जानें सुधीर विद्यार्थी को,फिर जरुर पढ़ें उनका संस्मरण वीरेनदा की कविताओं पर केंद्रित! पलाश विश्वास

वीरेनदा आपको अपने बीच खड़े मिलेंगे उसी खिलंदड़ बेपरवाह अंदाज में हमेशा हमेशा सक्रिय!

वीरेनदा के जनपद और उनकी कविता को समझने के लिए पहले जानें सुधीर विद्यार्थी को,फिर जरुर पढ़ें उनका संस्मरण वीरेनदा की कविताओं पर केंद्रित!

पलाश विश्वास

जनपद के कवि वीरेनदा,हमारे वीरेन दा कैंसर को हराकर चले गये!लड़ाई जारी है इंसानियत के हक में लेकिन,हम लड़ेंगे साथी!
आज लिखा जायेगा नहीं कुछ भी क्योंकि गिर्दा की विदाई के बाद फिर दिल लहूलुहान है।दिल में जो चल रहा है ,लिखा ही नहीं जा सकता।न कवि की मौत होती है और न कविता की क्योंकि कविता और कवि हमारे वजूद के हिस्से होते हैं।वजूद टूटता रहता है।वजूद को समेटकर फिर मोर्चे पर तनकर खड़ा हो जाना है।लड़ाई जारी है।

Let Me Speak Human!



 An Ode to Freedom fighters whom nobody remembers!


https://youtu.be/iFxjJK0IThI

कल दिन में जब यह संस्मरण हमारे इनबाक्स में लैंड हुआ तो बिना पढ़े मुझे अंदाजा हो गया कि सुधीर जी ने क्या लिखा होगा।


मेरी औकात भी जनपदों की कीचड़ मिट्टी बदबू तक सीमाबद्ध हैं और जनपदों के महायोद्धाओं जैसे त्रिलोचन शास्त्री या बाबा नागार्जुन को देखते रहने का फायदा भी मिला है,तो इन दोनों के दिलोदिमाग को अपने दिलोदिमाग,अपने वजूद का हिस्सा बना लेने में मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई।


मुश्किल यह है कि सुधीर जी तकनीकी तौर पर अभी दक्ष नहीं है और गुगल ड्राइव या मेल पर लिखते नहीं हैं।


जैसे पश्चिम बंगाल के तमाम प्रतिबद्ध एक्टिविस्ट और संस्कृतिकर्मी गुगल पर लिखने के अभ्यस्त नहीं हैं।


ये लोग ऐचेचमेंट से और अक्सरहां पीडीएफ फािल में अपना लिखा भेजते हैं,जो किसी और प्लाटफार्म  में ले जाने की तकनीकी दक्षता हमारी है नहीं।


सुधीर जी कंप्यूटर में लिखने के अभ्यस्त नहीं हैं।

हम उनकी यह समस्या समझते हैं।

वे आफिस पाइल और कृतिदेव फांट में लिख रहे हैं।

कोलकाता में आकर वे लगातार इसीतरह लिख रहे हैं वरना वे कलम से लिखते रहे हैं।


मेरी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है।अंग्रेज बच्चों के वर्चस्व के मुकाबले मैंने नैनीताल में जिद करके अंग्रेजी माध्यम अपना लिया।


मेरी अंग्रेजी भाषा पर डा. मानसमुकुल दास का कहना था कि एवरेज है।1979 में कालेज छोड़ा और अंग्रेजी साहित्य से नाता टूट गया।


चिपको आंदोलन की वजह से नैनीताल समाचार,दैनिक पर्वतीय और पहाड़,तारांच्द्र त्रिपाठी,कपिलेश भोज और गिर्दा की वजह से हिंदी से अंग्रेजी माध्यम में कालेज लाइफ बिताने के बावजूद नाता कभी नहीं टूटा तो पत्रकारिता हिंदी में करने मेंअसुविधा भी नहीं हुई।साहित्यकर्म भी जारी रहा।जो अब मुद्दों को संबोधित करने में निष्णात भी हो गया है और हम इतिहास से बाहर हैं।


1991 के ग्लोबीकरण के आतंक ने सबकुछ स्वाहा कर दिया।फिर भी हमने हार नहीं मानी क्योंकि हमारे सामने ,हमारे साथ आनंद स्वरुप वर्मा और पंकज बिष्ट थे तो वीरेनदा और सुधीर विद्यार्थी भी थे।बाद में अमलेंदु,रेयाज,यशवंत,अभिषेक और डा. आनंद तेलतुंबड़े से लेकर तमाम मित्र विभिन्न भाषाओं में हमारे कारवां में शामिल होते रहे।तो यह कारवां लंबा होते जा रहा है।


इस कारवां को छोड़कर चले गये गिरदा और फिर वीरेनदा,लेकिन सफर हमारा जारी है।

लड़ाई हमारी जारी है।


आनंद,पंकजदा,मंगलेशदा,सुधीर जी,तेलतुंबड़े हैसियत और उम्र में हमसे बड़े हैं।शेखर पाठक तो हमारे प्रोप्सर रहे हैं लेकिन छात्र जीवन से ही उनसे दोस्ती रही है।तो हमारे प्रोफेसर बटरोही के मित्र राजीव लोजन साह भी हमारे बड़े भाई कम,मित्र ज्यादा हैं।


हमारा वजूद इन लोगो से बना है।

यह साझा वजूद है,साझे चूल्हे की तरह,जिसकी आग कभी बूझती नहीं है।


शुक्र है कि हमें अमलेंदु,रेयाज,अभिषेक और यशवंत भी मिल गये और हमारे कारवां में शामिल है सीनियर पत्रकार सीमा मुस्तफा,कामायनी महाबल,रुक्मिण सेन,रोमा जैसी मजबूत स्त्रियां,जिनकी ताकत हमारी ताकत बन रही है।


अनेक लोग हैं अभी हमारे मोर्चे पर,उन पर अलग अलग लिखने का इरादा भी है।

फिलहाल अनकही बातों का सैलाब इतना घनघोर है कि लिखी नहीं जा सकती सारी बातें।

कही भी नहीं जा सकती।

हम शर्टकट बतौर लिखे के साथ साथ अब अंग्रेजी में वीडियों भी जारी कर रहे हैं ताकि देश दुनिया को जोड़ा जा सकें।


हम इंटरनेट आने पर मैदान में गुगल के आने से पहले तक लगातार अंग्रेजी में लिखते रहे हैं।यह भी दुस्साहस था लेकिन एक पाठक वर्ग तैयार हो गया।


मुश्किल यह था कि आम हिंदुस्तानी को कैसे संबोधित किया जाये।हमारे सहकर्मी इतिहासकार डा.मांधाता सिंह ने लगभग कोंच कोंचकर हमसे हिंदी में लिखवाना शुरु किया।


अविनाश ने एक जबरदस्त प्रोफाइल बना डाला जो अब भी चल रहा है।हमारे साथी और तराई निवासी जगमोहन फुचेला ने लगातार हमें छापना शुरु किया अंग्रेजी और हिंदी में।जर्नलिस्ट डाट काम में।


शुरु में तो हिंदी लिखने में भारी गलतियां हो जाती थीं।

अविनाश को तो बाकायदा गलत वर्तनियों की सफाई साथ लगानी होती थी।तबसे गुगल बाबा की महिमा से हम बिना तकनीक दक्ष हुए अपना संबोधन तब से जारी रखे हुए हैं।


हिंदी या अंग्रेजी या बांग्ला या भोजपुरी या मराठी हम अब भी विशुद्ध लिख नहीं पाते।फिरभी लिखते हैं।अपने सोरकार के लिए लिखते हैं।


हस्तक्षेप जब से शुरु हुआ,तबसे हम तमाम साथियों को गोलबंद करने में लगे हुए हैं।


हर हालत में रीयल टाइम में जनसुनवाई जारी रखना चाहते हैं और जैसे नागरिक और मानवाधिकार हम किसी भी सूरत में निलंबित नहीं चाहते ,वैसे ही खुले लब पर हम तमाम मुद्दों और मसलों को देश दुनिया के सामने लाने की हर चंद कोशिश बिना संसाधन कर रहे हैं।बिना किसी मदद के।सिर्फ मदद की गुहार लगा रहे हैं।


जितनी सामग्री हम टांग पाते हैं,उसके मुकाबले दस गुणा सामग्री रोज छूट जाती है।


बांग्लादेश और नेपाल से भी धुँआधार फीडबैक लगातार आ रहा है।बाकी दुनिया से भी अबाध सूचना प्रवाह है अबाध पूंजी प्रवाह के मुकाबले।हमारे पास संसाधन नहीं है।


लोग हैं तो हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते और उन्हें भी घर चलाना होता है।हम उन्हें घेर भी नहीं सकते।


अमलेंदु अमूमन भाषा वर्तनी वगैरह ठीकठाक कर लेते हैं यथासंभव।अक्सरहां मुद्दों और मसलों को तत्काल संबोधित करने के लिए अकेले यह कर पाना मुश्किल हो जाता है।


अक्सर मैं लिखने के बाद फिर दोबारा देखे बिना पोस्ट करके अमलेंदु को कह देता हूं कि देख लेना।


हमारी प्राथमिकता न रक्त की विशुद्धता है और न भाषा की विशुद्धता है।

हम इंसानियत की दास्तां पेश कर रहे हैं।

हम लहूलुहान दिलोदिमाग का अफसाना जस का तस लगा रहे हैं।


यह सारी सफाई इसलिए कि सुधीर जी की अदक्ष टाइपिंग से आप यह न समझें कि उन्हें वर्तनी की कोई तमीज नहीं है।


बेहतर हो कि उनकी तमाम किताबें पढ़ लें।


यह हमारी खामी है कि वीरेनदा की चरचा जारी रखने के लिए मने उनका संस्मरण जस का तस टांग दिया क्योंकि उसकी फौरी प्रासंगिकता भाषा की शुद्धता के मुकाबले ज्यादा भारी है।


हमारे पाठक विद्वतजन हैं और हम जब भाषा और वर्तनी में चूक जाते हैं तो हम उम्मीद करते हैं कि वे सुधारकर पढ़ लेंगे और जो लिखा,जैसे लिखा है,उसे कला कौशल के आरपार,लिफाफे पर नहीं,मजमूं पर गौर करेंगे तो हम लगातार तुरंते ऐसी तमाम सामग्री आपको पहुंचाने का दुस्साहस करते रह सकते हैं।


आप हस्तक्षेप पर लगा यह संस्मरण पढ़ें जरुर और लगातार पढ़ते रहे हस्तक्षेप क्योंकि विशुद्धता के झंडेवरदार जो कर रहे हैं,उसका पर्दाफाश हम लगातार हस्तक्षेप पर रीयल टाइम में कर रहे हैं।


फुटेला कोमा में जाने के बाद लगता है हमारे साथी एक एक कर कोमा में जा रहे हैं।


हम भी जा सकते हैं।

फिलहाल हम कोमा में नहीं है।


सुधीर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हमारा वीडियो भी देख लें साथ साथ।

वीरेनदा पर हमने खास लिखा नहीं है लेकिन उनके अवसान पर हमने उन्हें जैसे याद किया,उसका वीडियो भी देख लें साथ साथ।

फिर पढ़े सुधीर जी का यह संस्मरण।

वीरेनदा आपको अपने बीच खड़े मिलेंगे उसी खिलंदड़ बेपरवाह अंदाज में हमेशा हमेशा सक्रिय!

पलाश विश्वास

शहर को बड़ा बनाती है वीरेन डंगवाल की कविता

Posted by: हस्तक्षेप 2015/10/03 in शख्सियत 0 Comments

स्मृति: वीरेन डंगवाल

एक कवि के सही बने रहने की कवायद

सुधीर विद्यार्थी

अपनी लंबी तकलीफ भरी कैंसर जैसी बीमारी को झेलते हुए वीरेन डंगवाल जब जिंदगी की उम्मीद के साथ 'ग्रीष्म की तेजस्विता और गुठली जैसा छिपा शरद का ऊष्म ताप' अपनी कमजोर आंखों में छिपाये दिल्ली से अपने शहर बरेली लौटे तब हम काफी आष्वस्त थे। तुर्कू (फिनलैंड) के साथी सईद शेख ने मुझसे दो बार उनकी वापसी की तस्दीक की थी जिसके लिए हम लंबे समय से प्रतीक्षारत भी थे। लेकिन बरेली आने के दो दिन बाद ही जब वे फिर से आईसीयू में जा पहुंचे तब चिंता की कीलों ने हमें बुरी तरह घेर लिया। इसके बाद जो कुछ हुआ वह इतना भयावह था जिसके लिए आषंकित होते हुए भी हम किसी तरह तैयार नहीं थे। खास तौर से बीते दो सालों में वीरेन मौत के जबड़े से बार-बार अपने को बाहर निकाल लाए थे, सो हम आष्वस्त थे कि इस बार भी वे यह 'मोर्चा' जीत ही लेंगे। लेकिन 28 सितम्बर को मुंह अंधेरे जब मैं पश्चिम बंगाल के बर्नपुर से 'अग्निवीणा' के कवि क़ाज़ी नज़रूल इस्लाम के गांव चुरूलिया जाने की तैयारी कर रहा था, मुझे वीरेन के न रहने की खबर मिली। यह सूचना मित्रों को पहुंचाना सचमुच बहुत भारी था मेरे लिए। फिर भी उदास मन से मुझे यह कहना पड़ा कि इसी दुनिया का राग गाने वाला हिंदी का यह चहेता कवि हम सभी को अलविदा कह कर आज किसी और दुनिया में चला गया है। वीरेन कहते भी थे 'एक दिन चलते-चलते यों ही ढुलक जायेगी गरदन/सबसे ज्यादा दुख सिर्फ चश्मे को होगा।'

अब कहां रखा होगा वीरेन का वह चश्मा जिसे पहन कर उन्होंने अपने शुरूआती कवि जीवन में ही कहा था, 'तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह/तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगली हो/किसका उठा हुआ हाथ/किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना/जिन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार/कौन हैं वे, कौन।'


याद आता है कि वीरेन का पहला ही कविता संग्रह छापने का निर्णय नीलाभ कर चुके थे, पर वे अपनी रचनाएं भेजने में निरन्तर टाल-मटोल दिखा रहे थे।

नीलाभ के कहने पर मैंने बरेली जाकर वीरेन से उनकी कविताएं भिजवाईं। वीरेन की यह लापरवाही और उदासीनता कोई ओढ़ी हुई चीज नहीं थी। वह उनके जीने का ढब था जो उनके अलमस्त स्वभाव में प्रतिक्षण झलकता और ध्वनित होता था। वे अपनी पूरी जिंदगी भर इसी दोस्ताना अंदाज और खिलंदड़ेपन में जीते-बहते रहे। भयंकर बीमारी और दारूण कष्ट के दिनों में भी उन्होंने इसे छोड़ा और विस्मृत नहीं किया। कोई मिलने पहुंचता तो अपने कष्टों के बजाय उसी का हालचाल पूछते, 'कैसे हो प्यारे।' वे अपनी असहनीय पीड़ा के दिनों में भी हर पल मौत की खिल्ली उड़ाते रहे। उन्होंने कहा भी था,

'मैं पपीते का बीज हूं/अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को/अपने भीतर छिपाए/नाजुक ख्याल की तरह।'

हम जैसे उनकी रचनाओं के मुकम्मल पाठक उनके व्यक्तित्व के इस अलमस्त पक्ष के साथ ही उनके सृजन में गहरी सम्वेदना और सामाजिक चिंता को बखूबी चीन्हते और रेखांकित करते रहे। वीरेन ने प्रतिक्षण बहुत आदमकद होकर अपने कवि कर्म का निर्वाह किया। वे बहुत सचेत और जिम्मेदार कवि थे। उनके लिए 'पोथी पतरा ज्ञान कपट से मानव बहुत बड़ा' था। उनकी सामाजिक चिंताओं से आमना-सामना करना किसी के लिए भी मुश्किल भरी कवायद कभी नहीं रही। जीवट और उम्मीद के इस कवि को 'आएंगे अच्छे दिन जरूर आएंगे' की उम्मीद हमेशा बांधती और प्रेरित करती रही। उनके भीतर निराला और नागार्जुन एक साथ ध्वनित और प्रतिबिम्बित होते दिखाई पड़ते थे। लहरों के थपेड़ों से पानी में डूबता हुआ कोई जिस तरह बार-बार अपनी कोषिषों से सतह पर उछर कर आ जाता है, वीरेन उसी भांति अपनी बीमारी के दिनों में भी कविताएं रचकर अपनी जिजीविषा और पक्षधरता का साक्ष्य प्रस्तुत करने में कहीं ओछे नहीं पड़े। यह सब सचमुच हमें हैरत में डालने वाला था।

'अभी मैं मरूंगा नहीं' कह कर हर पहुंचने वाले को जैसे वे खुद ही दिलासा देते। दो साल पहले वीरेन के मित्रों ने उनके जन्मदिन पर एक आयोजन किया जिसमें

सुधीर विद्यार्थी, प्रख्यात साहित्यकार हैं।

सुधीर विद्यार्थी, प्रख्यात साहित्यकार हैं।

केदारनाथ सिंह की उपस्थिति में उन्होंने जिस जीवंतता के साथ अपनी कविताओं का पाठ किया, उसने सभी को चौंका दिया था। उसके इस साहस को देखकर हम सभी खुश थे। साथी अजय सिंह के काव्य संग्रह 'राष्ट्रपति भवन में सूअर' के विमोचन में भी वे बहुत उत्साह से सम्मिलित हुए। उनके तीन-तीन ऑपरशन के दिनों में ही मैंने 'बरेली: एक कोलाज' पुस्तक रची जिसे मैं उनकी बस्ती का शहरनामा कह सकता हूं। अफसोस है कि इसे मैं खुद उनके हाथों में सौंप नहीं पाया और अपनी अनंत यात्रा पर चले जाना जब उन्होंने तय किया तब मैं भौगोलिक रूप से मैं उनसे बहुत दूर था। याद आते हैं बरेली कालेज में उनके पढ़ाने के दिन। तब वे 'अमर उजाला' के स्थानीय संस्करण का संपादन भी देख रहे थे। खालिस्तानियों के हाथों पाश की हत्या हो चुकी थी। हमने शाहजहांपुर में 'भगतसिंह और पाश' पोस्टर प्रदर्शनी लगाने के साथ ही दो दिवसीय आयोजन में वीरेन का कविता पाठ भी रखा जिसमें उन्होंने भगतसिंह के साथी क्रांतिकारी जयदेव कपूर की उपस्थिति में 'राम सिंह' सहित अपनी अनेक रचनाओं का पाठ किया।

बाद को उस प्रदर्शनी को उन्होंने बरेली कालेज में भी लगवाया। बरेली में रहकर उन्होंने 'अमर उजाला' की पत्रकारिता को एक विशिष्ट तेवर और धार दी। उन दिनों साहित्य के उसके साप्ताहिक परिशिष्टों का स्वरूप वीरेन ही तय करते रहे। लेकिन उनके संपादक रहते जब एक बार उस अखबार ने साम्प्रदायिकता के पक्ष में खड़े होकर अपने प्रचार-प्रसार को बढ़ाने की नीति अपनाई तब उस जिम्मेदारी को छिटकने में वे जरा भी नहीं हिचके। वीरेन ने उन दिनों कहा भी था, 'यही तो एक पक्ष है, इसे भी बिसरा दूंगा तो कहां जिंदा रहूंगा।'

वीरेन कितने शहरों में कितनी बार रहे। 1948 में टिहरी गढ़वाल में जन्मे, इलाहाबाद में पढ़े और एमफिल् करने बाद वे बरेली कालेज में पढ़ाने लगे। एक समय सहारनपुर और कानपुर भी उनके रहने की जगहें बनीं। उनके पास अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता का सघन अनुभव था। पीलीभीत के न्यूरिया और बदायूं में हिंसक साम्प्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने खुद वहां जाकर रिपोर्टिंग की थी। इसी तरह मेरठ में टिकैत के किसान आंदोलन में भी वे ललक के साथ शामिल हुए थे। 'जन संस्कृति मंच' से उनका सक्रिय जुड़ाव अंतिम दिनों तक बना रहा। बरेली शहर को अपनी उपस्थिति से उन्होंने साहित्यिक भूगोल पर जो जगह दी उस पर हम सदैव गर्व करते रहे। मैंने अपनी एक कविता में कहा भी था, 'चिकनी और चौड़ी सड़कों से नहीं बनते बड़े शहर/बहुमंजिली इमारतों और रेस्त्राओं से भी नहीं/चमचमाती गाड़ियां, पार्क और हवाई अड्डे भी किसी शहर को बड़ा नहीं बनाते/ शहर को बड़ा बनाती है वीरेन डंगवाल की कविता।'

वीरेन की अनुपस्थिति से हिंदी का काव्य जगत बहुत सूना हुआ है। जनवादी कविता धारा को उन्होंने अपने सृजन कर्म से निरन्तर सषक्त और सम्पन्न किया। उनके पास भीतर तक बेधने वाली भाषा थी। 'रघुवीर सहाय सम्मान, 'श्रीकांत वर्मा पुरस्कार', 'षमषेर सम्मान' और उसके बाद 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' पाने वाले कवि वीरेन डंगवाल ने जैसे कविता में ही जीना-मरना सीख लिया था। वही उनका कुरूक्षेत्र था। उनकी कविताओं के अंग्रेजी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए। उन्होंने स्वयं भी पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्त ब्रेख्त, मीदोस्लाव होलुव, तदेऊष रूजोविच और नाजि़म हिकमत की कविताओं के अच्छे अनुवाद किए थे। जानना होगा कि वे बहुत सशक्त गद्यकार भी थे जिनका रचा-लिखा संकलित किए जाने की जरूरत है।

वीरेन जिन दिनों बरेली में होते तब किसी साहित्यिक मित्र के आने पर वे उसे कैण्ट इलाके में ले जाकर उस पुरानी तोप को दिखाया करते थे जिस पर उन्होंने लिखा था, 'अब तो बहरहाल/छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो/तो उसके ऊपर बैठकर/चिडि़यां ही अक्सर करती हैं गपशप/कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं खासकर गौरैयें/वे बताती हैं दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप/एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बन्द।'

वीरेन के सामने जिंदगी के अर्थों का खुलासा बहुत साफ था। अपनी कविताओं में कई बार वे दार्शनिक होते जाकर भी अपनी राजनीतिक जनपक्षधरता के प्रति बहुत सचेत, मजबूत और मुखर बने रहने से उन्होंने तनिक भी चूक नहीं की। हाषिये का आदमी उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं हुआ। षायद इसी से 'रद्दी पेप्पोर वाले' की आवाज को वे कभी अनसुना नहीं कर पाए। छोटी-छोटी और मामूली चीजों पर लिखी उनकी कविताओं को पढ़कर आश्चर्य होता कि वे उन स्थितियों में भी रचना की तलाश कर लेते थे, जहां दूसरे किसी के लिए वैसी संभावनाएं नितांत मुश्किल होतीं। 'समोसा', 'इमली', 'झण्डा' और 'कमीज' उनकी ऐसी ही कठिन लेकिन सहज कविताएं हैं। बरेली कालेज के अध्यापन से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने मुझसे कहा था, 'सुधीर, अब मैं एक साइकिल खरीदूंगा जिस पर चढ़कर मुझे पूरे शहर की गलियां घूम-घूमकर कविताएं लिखनी हैं।'

दरअसल इस तरह आम जिंदगी को नजदीक से देखने की यह उनकी ललक ही थी जिसे बीमारी से घिर जाने के चलते वे पूरा नहीं कर पाए। फिर भी शब्दों के मार्फत हमारी 'इसी दुनिया में' हरदम उपस्थित बने रहकर वे अपने पूरे कद के साथ 'एक कवि के सही बने रहने' की कवायद में जिस तरह संलग्न बने रहे वह हमें सदैव प्रेरित और सचेत करता रहेगा।

                                   (कोलकाता में लिखा गया संस्मरण)

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