Saturday, September 12, 2015

बहुत खतरनाक है कि कश्मीर फिर जल रहा है। उससे भी खतरनाक है कि हिंदू राष्ट्र का मिशन जलवा शबाब है और इंसानियत शिक कबाब है। अब पूरा देश मुकम्मल गुजरात है। अनंत मीडिया मधुचक्र को आखिर उत्सवों और कार्निवाल से ऐतराज क्यों हो? बेहद खतरनाक दौर है कि विदेशी पूंजी और विदेशी हितों की सुनहरी कोख से निकलकर मीडिया अब सत्तावर्ग में शामिल है। कश्मीर में गोवध निषेध के प्रतिरोध में सरेआम गोवध का जो सिलसिला है,समझिये कि बाकी देश के गैरहिंदुओं के लिए शामत है कयामत है बाबरी विध्वंस से भी भयावह।

बहुत खतरनाक है कि कश्मीर फिर जल रहा है।

उससे भी खतरनाक है कि हिंदू राष्ट्र का मिशन जलवा शबाब है और इंसानियत शिक कबाब है।


अब पूरा देश मुकम्मल गुजरात है।


अनंत मीडिया मधुचक्र को आखिर उत्सवों और कार्निवाल से ऐतराज क्यों हो?


बेहद खतरनाक दौर है कि विदेशी पूंजी और विदेशी हितों की सुनहरी कोख से निकलकर मीडिया अब सत्तावर्ग में शामिल है।


कश्मीर में गोवध निषेध के प्रतिरोध में सरेआम गोवध का जो सिलसिला है,समझिये कि बाकी देश के गैरहिंदुओं के लिए शामत है कयामत है बाबरी विध्वंस से भी भयावह।


पलाश विश्वास


बहुत खतरनाक है कि कश्मीर फिर जल रहा है।उससे भी खतरनाक है कि हिंदू राष्ट्र का मिशन जलवा शबाब है और इंसानियत शिक कबाब है।


अब पूरा देश मुकम्मल गुजरात है।

फिलहाल वे खान पान के तौर तरीकों पर रोक लगा रहे हैं।

फिर वे जीने मरने के तौर तरीके पर भी फतवा दागेंगे।


अभी वे कह रहे हैं गोहत्या बंद है।

फिर मसला यह होगा कि लोग सूअर क्यों पालते हैं और क्यों खाते हैं सूअर का मांस।


फिर वे कहेंगे कि जैसे मुसलमान पांच दफा नमाज पढ़ते हैं,वैसे ही पांच दफा ध्यान,पांच दफा मंत्र जाप,पांच दफा पवित्र स्नान,पांच दफा देहशुद्धि,पांच दफा यज्ञ होम,पांच दफा आरती,पांच दफा योगाभ्यास वगैरह वगैरह जो न करें,जो पांच हिंदू पैदा न करें वे सारे लोग मुसलमान की औलाद और अपने लिए कोई और मुल्क वे चुन लें वरना दाभोलकर या कुलबुर्गी का अंजाम भुगत लें।


बेहद खतरनाक है कि कश्मीर के सिवाय बाकी राष्ट्र हिंदू राष्ट्र है।


बेहद खतरनाक है कि  कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक है और बाकी देश में कहीं भी मुसलमान बहुसंख्यक नहीं है।


बेहद खतरनाक है कि कश्मीर राष्ट्र की एकता और अखंडता का मसला कतई नहीं है,हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र का मसला है कश्मीर।


2020 तक भारत को हिंदू राष्ट्र और 2030 तक दुनिया को हिंदू दुनिया बनाने के लिए कश्मीर में हिंदुत्व का राजकाज है और इसीलिए मुफ्ती और महबूबा की सहमति से कश्मीर जल रहा है।


अदालती फैसला हुआ है कोई तो न्याय प्रणाली का दोष भी नहीं है।कोई न कोई कानून होगा जिसके मुताबिक फैसला हुआ होगा।


सवाल यह है कि गोवध निषेध कश्मीर में करने के लिए मुकदामा किसने दायर किया और किसने की पैरवी और बिना अपील हालात के मद्देनजर किये हुकूमत ने पाबंदी रातोंरात कैसे लगा दी।


जबकि किसी भी मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी कमसकम फौरन लागू होता नहीं है।

जल जंगल जमीन के मामलात में तो हरगिज लागू होता नहीं है।


यहां तक कि सत्तावर्ग में शामिल पत्रकारों गैरपत्रकारों के मजीठिया लागू करने में भी कोताही है सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के बावजूद और अदालत की अवमानना रघुकुल रीति है अटूट।


चट मंगनी पट व्याह की तर्ज पर अदालती फैसले के साथ साथ कश्मीर में गोवध निषेध और कश्मीर आग के हवाले तो समझ लीजिये कि साजिश कितनी गहरी है।

अब सोने का वक्त नहीं है कि सिर्फ कश्मीर जल रहा है।

पूरा देश मुकम्मल गुजरात है।


कश्मीर में गोवध निषेध के प्रतिरोध में सरेआम गोवध का जो सिलसिला है,समझिये कि बाकी देश के गैरहिंदुओं के लिए शामत है कयामत है बाबरी विध्वंस से भी भयावह।


बेहद खतरनाक दौर है कि जनता के शरणस्थल से वह सत्ता के कारपोरेट गलियारा में तब्दील है,जहां संपादक शूट बूट में चाकचौबंद अबाध पूंजी के शयनकक्ष से बुलावे के इंतजार में होते हैं कि वे बताते रहे कि खबरें कैसी हों और लेआउट कैसे बनें,रेखाएं खड़ी रहें या रेखायें सोयी रहें या रेखाओं को सिरे से खत्म कर दिया जाये जैसे गायब मीडिया की रीढ़ है।


सबसे खतरनाक बात यह है कि भाषाएं, बोलियां, अस्मिताएं, कला, संस्कृति, साहित्य, माध्यम और विधायें,नैतिकता और सौंदर्यशास्त्र के व्याकरण,वर्तनी और प्रतिमान बाजार के हैं और हम डंके की चोट पर इसीकी वकालत कर रहे हैं कि ग्लोबल विलेज है तो इसीतरह बाजार की चुनौतियों के सामने आत्मसमर्पण करके हमें मर मर कर जीना है और तरक्की का नाम यही है और यही सभ्यता का विकास है।यही उत्तरआधुनिक यथार्थ है।खाओ,पिओ और मौज करो।


सबसे खतरनाक बात यह है कि हम चीख चीखकर कह रहे हैं कि इतिहास की मृत्यु हो चुकी है।


सबसे खतरनाक बात यह है कि हम चीख चीखकर कह रहे हैं कि विचारों और विचारधाराओं की मृत्यु हो चुकी है।


सबसे खतरनाक बात यह है कि हम चीख चीखकर कह रहे हैं कि ज्ञान विज्ञान और जिज्ञासा की मृत्यु हो चुकी है।


दरअसल हम चीख रहे हैं कि मुक्त बाजार की निर्णायक जीत हो चुकी है और खबरदार के कोई चूं भी बोले।बोलोगे तो भेड़िया आ जायेगा।गब्बर खा जायेगा।टाइटेनिक बाबा बख्शेगा नहीं।


दरअसल हम चीख रहे हैं कि मुक्त बाजार की निर्णायक जीत हो चुकी है और श्रम और उत्पादन का किस्सा खत्म है।


दरअसल हम चीख रहे हैं कि मुक्त बाजार की निर्णायक जीत हो चुकी है और मेहनतकशों के हकहकूक जमींदोज हैं।


दरअसल हम चीख रहे हैं कि मुक्त बाजार की निर्णायक जीत हो चुकी है और कहीं नहीं बचेगा कोई देहात,कोई खेत खलिहान।


दरअसल हम चीख रहे हैं कि मुक्त बाजार की निर्णायक जीत हो चुकी है और कहीं नहीं बचेगा कोई इंसान तो क्या खाक,कोई चिड़िया का बच्चा भी नहीं बचेगा।


दरअसल हम चीख रहे हैं कि मुक्त बाजार की निर्णायक जीत हो चुकी है और जिंदा रहने की निर्णायक संजीवनी बूटी क्रयशक्ति है और जो बड़बोले हैं वे आकिर कंबंध बन जायेंगे और जो चुप्पु हैं,खामोशी से अपनों को दो इंच छोटा कर देने का कला कौशल जो जाने हैं,वहीं बचे रहेंगे,सीढ़ियां फलांग कर वे सत्ता के शयनकक्ष में हानीमून करेंगे।


उस अनंत मधुचक्र का नाम है अब मुक्तबाजारी मीडिया।जिसने न सिर्फ जनता के मसलों और मुद्दों से किनारा कर लिया है बल्कि  कातिलों का दाहिना हाथ बन गया है और जिसका न कोई दिल है और कोई दिमाग है।


यहां हर शख्स पीठ पर सीढ़ी लादे घूम रहा है और उस सीढ़ी को कायदे से लगाकर आसमान फतह करने की फिराक में है और हर शख्स जमीनसे कटा हुा जड़ो से कटा हुआ एक अदद कंप्यूटर है,जो प्रोग्राम के हिसाब से चलता है और जिसकी कोई रचनाधर्मिता भी नहीं है।जिसकी पूंजी साफ्टवेय़र और ऐप्पस हैं।


अनंत मधुचक्र को आखिर उत्सवों और कार्निवाल से ऐतराज क्यों हो?





मैं अब जवान नहीं रहा। जो अब धारावाहिक लिख पाता,मीडिया से सावधान!जिसकी सबसे सख्त जरुरत है।सियासत मजहब हुकूमत त्रिशूल की की जहरीली धार में तब्दील है मीडिया।बेहद खतरनाक वक्त है।


देश जल रहा है और हम समझते हैं कि कश्मीर जल रहा है या मणिपुर जल रहा है।


देश तब भी जल रहा था जब पंजाब जल रहा था या असम जल रहा था या गुजरात जल रहा था या समूची गायपट्टी जल रही थी।


हम देश को अपने गांव,अपने शहर और अपने सूबे के दायरे से बाहर मुकम्मल इंसानियत का मुल्क कभी नहीं मानते।


जो राष्ट्रीय कहलाते हैं।उनकी औकात मोहल्ले के रंगदार मवाली से कुछ ज्यादा नहीं है।वैसे कम भी नहीं है।


जो लोग बायोमेट्रिक,रोबोटिक,डिजिटल,स्मार्ट,बुलेट और क्लोनिंग का मतलब ना बूझै,जो लोग मीडिया की कतरनों और क्लिपिंग और फेसबुकिया वंसतबहार से जिंदगी का सारा हिसाब किताब तय करते हैं और दिलोदिमाग के सारे दरवज्जे और खिड़कियां बंद करके बैठे,उनके लिए ज्ञान महज आईक्यू है और शिक्षा सिर्फ तकनीक है।


तथ्यों और आंकड़ों के मायाजाल में फंसे सच की खोज और उसका सामना तंत्र मंत्र यंत्र के गुलाम नागरिकों का काम है नहीं है।


इसीलिये जिन्हें न राष्ट्र की परवाह है,जिन्हे न एकता और अखंडता की परवाह है,जिन्हें न धर्म की परवाह है और न अपने रब के वे बंदे हैं,जिन्हें न इंसानियत से कोई सरोकार है,न कायनात से और न सभ्यता से, कटकटेला अंधियारा के वे तमाम कारोबारी तरक्की के सपने और लालीपाप बांटते हुए पूरे देश को आग को हवाले कर रहे हैं। हम इसी को तरक्की मान रहे हैं।यही हमारा उत्सव है।


सुबह को फोन लगाया अमलेंदु को कि बहुत मेहनत कर रहे हो लेकिन अब रात को सोना नहीं है।


रात अब सिर्फ आगजनी है।


मुहब्बतों की पनाह नहीं होगी रातें अब इस मुल्क में कभी।

अब वारदातें और वारदातें हैं।


ग्लोबल विलेज है।

मुक्त बाजार है तो हिंदी बाजारु हो गयी है।

बांग्ला आहा कि आनन्दो,आहा बाजार है।

आमाची मराठी भी इंगमराठी है।

हर भाषा बाजारु है।हर बोली बाजारु है।


मीडिया बल्ले बल्ले है कि भाषाएं बाजार की भाषाएं हैं और मनुष्यता की कोई खुशबू उसमें बची नहीं है और कायनात की सारी खुशबू अब डियोड्रेंट है और तमाम माध्यम सुगंधित कंडोम हैं।


बोलियां भी बेदखल हैं।

लोक जमीन पर खड़े होने के लिए संतों फकीरों की ब्रज और अवधी,मैथिली तो सदियों पुरानी हैं।


आजाद भारत में देहात की सारी खुशबू भोजपुरी जुबान में भरी हुई थी।साहित्य और फिल्मों में भोजपुरी देहात भारत की,किसान भारत की इकलौती आवाज बनकर उभरी जिसमें एकमुश्त दिलीपकुमार अमिताभ से लेकर वैजंती,वहीदा,वगैरह वगैरह का पूरा जलवा बहार होई रहत बा।


उस भोजपुरी की गत भी देख लीजिये कि कैसे मांस का दरिया वहां लबालब है।


मैंने पहले खाड़ी युद्ध शुरु होते न होते कहकशांं शीर्षक से एक लंबी कहानी लिखी थी ।तब सुनील कौशिश जिंदा थे।कहानी उनको भेजी तो उनने जबाव दिया कि यार,यह तो उपन्यास है।पूरा लिखकर भेजो।जब तक लिखता तब तक वे दिवंगत हो गये।


तब तक मैं दैनिक जागरण को अलविदा कहकर दैनिक अमर उजाला में बरेली में सुनील साह और वीरेनदा के साथ मोर्चाबंद हो चुका था और तभी निर्णायक खाड़ी युद्ध शुरु हो गया।


फिर खाड़ी युद्ध हमारे देखते देखते मंदिर मसजिद युद्ध में तब्दील हो गया और मेरा देश हमारी आंखों के आगे मुक्त बाजार में तब्दील होता रहा और हम बेबस देखते रहे।अब इस जिंदगी का मतलब भी क्या.हम जिये या मरे,हमारे लोग हरगिज जीने की हालत में नहीं हैं।


सुनील साह और मैं खाड़ी डेस्क पर थे।

इंदुभूषण रस्तोगी हमारे समाचार संपादक थे तो उदित साहू सहायक संपादक बतौर हमारे साथ काम कर रहे थे।

अतुल माहेश्वरी मेरठ में थे और राजुल माहेश्वरी बरेली में तो अशोक और अजय अग्रवाल आगरा में।

साहित्य संपादक वीरेन डंगवाल थे।

अमर उजाला छोड़कर राजेश श्रीनेत दीप अग्रवाल के साथ साप्ताहिक समकालीन नजरिया निकाल रहे थे और वीरेनदा के साथ मैं भी उनके साथ लगे हुए थे।


हम सबने मिलकर तय किया कि सीएनएन के आंखों देखा हाल का मुकाबला करना है।इंटरनेट था नही।रस्तोगी बेहद तेज दिमाग के थे और उनने सुझाया कि क्यों न हम टैलेक्स और टेलीप्रिंटर से मध्यपूर्व और यूरोप को सीध कनेक्ट करें और उधर जितने दोस्त हैं,उनको अपने साथ जोड़े।हमने दरअसल वही किया और बिना इंचरनेट सीएनएन लाइव से लोहा लिया।


रात में अमरउजाला और दिन में नजरिया के मोर्चे से रातदिन हम भी एक सूचना महायुद्ध लड़ते रहे।


उसीकी फसल है अमेरिका से सावधान।जो 1991 से लेकर 1996 तक लिखा गया आर्थिक सुधारों और ग्लोबीकरण के विरोध में और 2001 तक देशभर में छपता रहा तमाम लघुपत्रकाओं में ।फिर यकबयक सबने मुझे छापना एकमुश्त बंद कर दिया।


दैनिक आवाज जब तक बंद नहीं हुआ तब तक धारावाहिक जमशेदपुर और धनबाद से से करीब तीन साल तक छपता रहा अमेरिका से सावधान।


गद्य लेखकों ने फतवा दे दिया कि यह उपन्यास है ही नहीं।लेकिन शीर्षस्थ से लेकर हर छोटे बड़े कवि ने शुरु से लेकर आखिर तक इस मुहिम का साथ दिया।


शलभ श्रीराम सिंह छापना चाहते थे किताब और राजकमल प्रकाशन की पेशकश भी थी लेकिन वक्त इतनी तेजी से बदला कि धारावाहिक छपे उस मुहिम को किताब की शक्ल दे पाना मेरे लिए नामुमकिन हो गया।


अब भी देशभर में जहां जाता हूं लोग अमेरिका से सावधान पढ़ने को कब मिलेगा,पूछते जरुर हैं।मैं उनका अपराधी हूं।


अब उस उपन्यास को दोबारा लिखा जा नहीं सकता और बिना दोबारा लिखे जस का तस छापा भी नहीं जा सकता ।इतना वक्त मेरे पास अब नहीं है।


इसका कोई गम भी नहीं है ,यकीन मानो दोस्तों कि अमेरिका से सावधान किताब के रुप में कभी नहीं छपेगा।

वह उपन्यास दरअसल था भी नहीं।


वह एक रचनात्मक अभियान था।

जो बुरी तरह फेल है।

हम अपने देश को अमेरिका बनने से आखिर बचा नहीं सके।

हम लड़े तो हरगिज नहीं,अपनी हार का कार्निवाल मनाने लगे।


अफसोस कि मेैं अमेरिका से सावधान की तर्ज पर मीडिया से सावधान मुहिम चला नहीं सकता और न जल रहे देश में अमन चैन वास्ते कुछ भी कर लेने की औकात कोई हमारी है।



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