Tuesday, March 18, 2014

शासक वर्ग सोने के अंडे देने वाली जाति की मुर्गी को मारना नहीं चाहते




आनंद तेलतुंबड़े का यह महत्वपूर्ण लेख जाति के उन्मूलन की जरूरत, आरक्षण की सामाजिक प्रासंगिकता और इन सबके उलट शासक वर्गों के वास्तविक इरादों की एक ऐतिहासिक पड़ताल करता है. अनुवाद: रेयाज उल हक

औपनिवेशिक दौर में अछूतों का गुस्सा पहली बार सामाजिक प्रक्रियाओं से उन्हें बाहर रखे जाने के खिलाफ जाहिर हुआ था. जोतिबा फुले के अलावा, जिन्होंने उनके मुद्दे को अस्पृश्यता के परे जाकर समझा और अछूतों को अपने 'शूद-अतिशूद्र' में एक ऐसे वर्ग के रूप में शामिल किया जो 'शेतजी और भातजी' [सेठ-साहूकार] के हाथों शोषित थे. दूसरे सभी समाज सुधारकों का पूरा जोर कुल मिला कर जाति की बीमारी के बजाए महज ऊपर से दिखने वाले अस्पृश्यता के लक्षण पर ही था. लखनऊ संधि के बाद कांग्रेस को सचमुच अछूतों को हिंदुओं के रूप में अपने साथ बनाए रखने की जरूरत महसूस हुई, कि कहीं ऐसा न हो कि वे मुसलमानों के हाथ अपना राजनीतिक हिस्सा खो दें. इसलिए उन्होंने छुआछूत के मुद्दे पर काम करना शुरू किया. बाबासाहेब आंबेडकर की लगातार कोशिशों के कारण, खास कर 1931-32 में गोलमेज सम्मेलन में उनकी जोरदार दलीलों से गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में अछूतों को 'अनुसूचित जातियों' के रूप में अलग और विशेष हैसियत मिली थी. 1937 के चुनावों से पहले, जब इस अधिनियम में दिए गए प्रावधानों को लागू कराने के लिए इस अनुसूची को तैयार करना था, इस सिलसिले में पूरे भारत में अस्पृश्यता के आधार पर जातियों की पहचान करने के लिए भारी मशक्कत की गई. ये प्रावधान राजनीतिक शक्ल में थे. अपने बुनियादी रूप से ये अलग निर्वाचक मंडलों के साथ आरक्षण की शक्ल में थे जो बाद में, पूना पैक्ट के कारण बदले हुए रूप में, साझे निर्वाचक मंडलों में आरक्षण के रूप में सामने आए. अधिनियम में तरजीही प्रावधान (preferment provisions) भी थे जिनमें राज्य को उनके हितों का खयाल रखने की जिम्मेदारी दी गई थी. इसी के मुताबिक अनुसूचित जातियों के सक्षम लोगों को सरकारी क्षेत्रों में नौकरियां दी गईं. जब डॉ. आंबेडकर 1942 में वायसरॉय की कार्यकारी परिषद के सदस्य बने, यह तरजीही नीति एक कार्यकारी आदेश के जरिए कोटा सिस्टम में बदल दी गई.

यहां इस बात पर गौर किया जाना महत्वपूर्ण है कि आरक्षण व्यवस्था का इस बिंदु तक विकास अवधारणा के स्तर पर सही था. एक आम नियम के अपवाद के रूप में आरक्षण को असाधारण लोगों तक विस्तार दिया गया (अछूत दुनिया में एक बेहद असाधारण समूह हैं, इस पर कोई भी असहमत नहीं होगा). लेकिन सत्ता हस्तांतरण के बाद, संविधान लिखे जाने के दौरान इस असाधारण प्रावधान का विस्तार इस तरह हुआ कि इसकी वजह से समाज में चले आ रहे सांप्रदायिक और जातीय विभाजन आने वाले दिनों के लिए पुख्ता हो गए, वरना वे राजनीतिक अर्थव्यवस्था में आने वाले बदलावों के जोर के आगे टिक नहीं पाते और मिट जाते. पहली बात तो ये हुई कि जो प्रावधान अछूतों के लिए बनाए गए थे, उन्हीं प्रावधानों को एक नयी अनुसूची बना कर आदिवासियों तक बढ़ा दिया गया. अगर सरकार आदिवासियों के लिए कुछ करना चाहती थी तो इसका एक विकल्प यह था कि अनुसूचियों को एक साथ मिला दिया जाता या अछूतों के लिए मौजूद अनुसूची को बढ़ा कर उसमें आदिवासियों को शामिल कर लिया जाता. ऐसा करने से जाति का मुद्दा धुंधला पड़ गया होता क्योंकि हालांकि आदिवासी पिछड़े थे, लेकिन उन पर अछूतों की तरह अछूत होने का सामाजिक कलंक नहीं था. अगर इन अनुसूचियों का मकसद ठीक-ठीक समान था तो इनको अलग किए जाने का कोई मतलब नहीं था सिवाए यह कि इसने अछूत जातियों को एक अलग श्रेणी के रूप में जिंदा रखा. अछूतों और आदिवासियों को एक साथ मिला देने से कम से कम यह होता कि जाति का कलंक फीका पड़ गया होता. लेकिन उन्हें अलग अलग रखे जाने से अछूतों की पहचान अलग लोगों के रूप में बनी रही. इस अलगाव का लाभ विभिन्न समुदायों की उन मांगों में बखूबी दिखता है जो खुद को अनुसूचित जनजातियों में तो शामिल किए जाने की मांग करते हैं, लेकिन अनुसूचित जातियों में कतई नहीं. यह उन्हें कमतर होने का सामाजिक कलंक उठाए बिना सारे फायदे मुहैया कराता है. हम यह साफ देखते हैं कि ये फायदे उठाने के लिए कोई भी अनसूचित जाति का होना पसंद नहीं करता!

आदिवासियों (जनजातियों) के लिए बनी अनुसूची में एक और समस्या थी, जो यह थी कि आदिवासियों के रूप में समुदायों की अनुसूची बनाने के लिए एक ढीले-ढाले मानक का इस्तेमाल किया गया था. अछूतों के उलट, जिनको अनुसूची में अछूतपन के एक ठोस मानक के आधार पर शामिल किया गया था, आदिवासियों के लिए ऐसा कोई मानक नहीं हो सकता था. या ऐसा कोई मानक किसी भी दूसरे समुदाय के बारे में असंभव था. यह समस्या इस शक्ल में सामने आई कि कुछ गलत समुदायों को अनुसूची में शामिल कर लिया गया जिन्होंने बजाहिर  आदिवासियों के लिए बने फायदों पर कब्जा कर लिया है. हरेक राज्य में यह दिखेगा कि महज एक या दो समुदायों ने, जो यों भी ऊंची जातियों जितने आगे बढ़े हुए हैं, जनजातियों के लिए अनुसूची में एकाएक महज शामिल कर लिए जाने की वजह से फायदों पर कब्जा कर लिया है.

सबसे बड़ा खेल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत खेला गया, जिसने अन्य पिछड़े वर्गों की भलाई को बढ़ावा देने को सरकारों के लिए बाध्यकारी बना दिया. यह अनुच्छेद कहता है:
राष्ट्रपति भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की दशाओं के और जिन कठिनाइयों को वे झेल रहे हैं उनकी खोजबीन के लिए और उन कठिनाइयों को दूर करने और उनकी दशा को सुधारने के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो उपाय किए जाने चाहिए उनके बारे में और इस मकसद के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा जो अनुदान किए जाने चाहिए और जिन शर्तों के अधीन वे अनुदान किए जाने चाहिए उनके बारे में सिफारिश करने के लिए आदेश द्वारा एक आयोग नियुक्त कर सकेगा...नियुक्त आयोग अपने को निर्देशित विषयों की खोजबीन करेगा और राष्ट्रपति को रिपोर्ट देगा जिसमें उसके द्वारा पाए गए तथ्य दर्ज किए किए जाएंगे और जिसमें ऐसी सिफारिशें की जाएंगी जिन्हें आयोग उचित समझे.

संविधान की हिमायत में कोई यह दलील दे सकता है कि अनुच्छेद में इस्तेमाल किया गया शब्द 'सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग' है न कि 'जातियां'. असल में संविधान अछूतों के संदर्भ को छोड़ कर कहीं भी 'जाति' का इस्तेमाल नहीं करता है. लेकिन इस बात को सब जानते थे कि अनुच्छेद में 'वर्ग' का मतलब क्या था. यह सिर्फ जातियों के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाने वाला था. इस अनुच्छेद को शासक वर्गों के लिए एक ऐसा हथियार बन जाना था, जिसे किसी सही मौके पर इस्तेमाल किया जा सके. शासक वर्ग को संविधान ने कहीं अधिक जरूरी जिम्मेदारियां सौंपी थीं. एक दशक के एक तयशुदा समय के भीतर पूरा किए जाने की मांग करती ऐसी एक जिम्मेदारी और अकेली ऐसी जिम्मेदारी थी: चौदह साल की उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान. उन्होंने इसकी अनदेखी कर दी लेकिन फौरन उन्होंने अनुच्छेद 340 का अनुसरण करते हुए 'पिछड़े वर्गों' की पहचान करने के लिए 29 जनवरी 1953 को कालेलकर आयोग का गठन कर दिया. कुदरती तौर पर, अपने सामाजिक पिछड़ेपन के संदर्भ में, जातियों को तो तस्वीर में आना ही था. वो आईं और आयोग ने ऐसी जातियों की पहचान की जो 'शैक्षणिक' रूप से पिछड़ी थीं और सरकारी नौकरियों के साथ साथ व्यापार, कारोबार और उद्योग में उनका कम प्रतिनिधित्व था.

कालेलकर आयोग ने 30 मार्च 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें 2399 पिछड़ी जातियों और समुदायों की पहचान पिछड़े के रूप में की, जिसमें से 837 को उसने 'सर्वाधिक पिछड़ा' माना. अन्य मामलों में इसने 1961 में जातिवार जनगणना कराने और सभी तकनीकी और प्रोफेशनल संस्थानों में पिछड़े वर्गों के योग्य छात्रों के लिए 70 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की. शायद इसके लिए सटीक मौका अभी सामने नहीं आया था इसलिए रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने इस आधार पर नकार दिया कि इसने पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए किसी वस्तुनिष्ठ मानदंड का इस्तेमाल नहीं किया था.

अगले दशक तक, आंशिक भूमि सुधार और हरित क्रांति की वजह से राजनीतिक अर्थव्यवस्था में बदलाव आने शुरू हुए, जिन्होंने भारी आबादी वाली शूद्र जातियों के बीच धनी किसानों के वर्ग को पैदा किया. इन जातियों ने व्यापक ग्रामीण भारत में ऊंची जातियों के हाथ से ब्राह्मणवाद की मशाल अपने हाथ में ले ली. इन बदलावों के नतीजे में क्षेत्रीय दलों के बनने में तेजी आई और चुनावी राजनीति (जो सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजयी घोषित करने पर आधारित है, जिसमें वोटों की एक छोटी संख्या भी नतीजों को बना और बिगाड़ सकती है) और ज्यादा प्रतिस्पर्धी बन गई.

पिछड़ी जातियों का उभार और उनके क्षेत्रीय दल धीरे धीरे स्थानीय स्वशासी निकायों से राज्यों में फैले और आखिर में इसका नतीजा 1977 में जनता पार्टी के हाथों कांग्रेस की हार के रूप में सामने आया. जनता पार्टी इन सभी तत्वों की एक पचमेल खिचड़ी थी. जनता पार्टी सरकार ने 1 जनवरी 1979 को दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया, जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है. इसकी जिम्मेदारी 'सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़ों की पहचान' करना थी. आयोग ने 'अन्य पिछड़ा वर्ग' (ओबीसी) की ग्यारह कसौटियों पर पहचान की लेकिन अनिवार्य रूप से जातीय अथवा धार्मिक समुदायों के संदर्भ में जो 3743 अलग अलग जातियों और समुदायों से आते थे और कुल आबादी का 54 फीसदी थे (अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को छोड़ कर). आयोग ने दिसंबर 1980 को अनेक सिफारिशों के साथ अपनी रिपोर्ट सौंप दी. आयोग के रिपोर्ट सौंपने के एक दशक के बाद 1989 में तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपने राजनीतिक मंसूबों के तहत जातियों का पिटारा खोलने का फैसला किया. इसका फौरी नतीजा यह हुआ कि देश भर में 'आरक्षण' के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आग फैल गई, जो तब तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों तक ही सीमित थी और हिचक के साथ ही लेकिन जिसको व्यापक रूप से मान लिया गया था. इस आग ने हास्यास्पद घटनाओं को जन्म दिया. हालांकि आरक्षण जिन पिछड़े वर्गों के लिए था, उस वर्ग के लोग अनुसूचित जातियों पर टूट पड़े जो बेवकूफी में 'आरक्षण' का बचाव करने उतर पड़े थे. आखिर में, ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण 1993 में लागू हुआ और उच्च शिक्षा संस्थानों में 2008 में. आरक्षण राजनीतिक दलों के हाथों में एक हथियार के रूप में अपने सच्चे रूप में सामने आए जिन्होंने अपने राजनीतिक गुणा-भाग के लिहाज से बेधड़क इस्तेमाल करना शुरू किया.

कोई भी समझदार इनसान आसानी से यह देख सकता है कि भारत जैसे एक पिछड़े देश में पिछड़ेपन को आरक्षण के एक असाधारण कदम के लिए कसौटी के रूप में इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता, जहां 80 फीसदी आबादी (सरकारी हिसाब से 22.5 फीसदी अनुसूचित जातियां-अनुसूचित जनजातियां तथा 54 फीसदी पिछड़ी जातियां जो मिल कर 76.5 फीसदी बनाती हैं. इनमें बाहर रखी गई जातियों के 5 फीसदी गरीब लोगों को रख दें, जिनमें से सभी ऊंची जातियों से ही नहीं हैं, तो यह आंकड़ा 80.5 फीसदी तक चला जाएगा) को पूरी तरह पिछड़ा कहा जा सकता है. कहने का मतलब ये नहीं है कि अछूतों के अलावा ऐसे लोग नहीं हैं जो उनसे गरीब और पिछड़े नहीं हैं. वे सचमुच हैं. और राज्य की उनके प्रति तयशुदा जिम्मेदारी बनती है. उसके पास इस जिम्मेदारी को पूरा करने के नीतिगत उपाय भी हैं न कि अकेला आरक्षण, जो एक ऐसी दोधारी तलवार है जिसका इस्तेमाल बहुत सावधानी से करने की जरूरत है. मिसाल के लिए, खुद संविधान में ही ऐसी एक नीति का संकेत दिया गया है. यह पास के स्कूलों में सभी बच्चों को एक परिपक्व उम्र तक मुफ्त, अनिवार्य और गुणवत्ता परक शिक्षा मुहैया कराने के बारे में था. (संविधान ने 14 वर्ष तक की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की बात सुझाई थी और उसे इतने अधिक शब्दों में विस्तार से नहीं बताया था). मुझे लगता है कि अगर सरकार ने इस अकेले मुद्दे को उचित भावना के साथ लिया होता और इस प्रावधान को लागू किया होता तो आरक्षणों की जरूरत तक नहीं रह गई होती. अगर सरकार जनता के पिछड़ेपन पर सचमुच चिंतित है, तो इस बात को यकीनी बनाने की जरूरत को समझा होता कि इस धरती पर आए हरेक बच्चे को उसके मां-बाप की अक्षमताएं पैदाइशी तौर पर हासिल न हों. गर्भ धारण करने वाली हरेक औरत को बेहतरीन डॉक्टरी देखरेख और उचित भोजन राज्य द्वारा मुहैया कराया जाता. वो एक सेहतमंद माहौल में बच्चे को पैदा करती और पैदाइश के बाद बच्चे के सेहतमंद विकास के लिए उचित भोजन और जरूरी चीजें मुहैया कराई जातीं. इसके बाद उसे बेहतरीन शिक्षा दी जाती. अगर सभी बच्चे केवल करीब के स्कूलों से समान शिक्षा हासिल करते तो एक स्वस्थ समाजीकरण होता और उनकी क्षमताओं को साकार करने के समान मौके मिलते. तथाकथित कल्याणकारी योजनाओं की एक भीड़ में उलझने के बजाए सरकार को इन कार्यक्रमों को प्राथमिकता देनी चाहिए थी. लेकिन इसने इनकी पूरी तरह अनदेखी की. इसके बजाए जब उसे हालात ने इस मामले में कुछ करने को मजबूर किया तो उसने संविधान द्वारा दी गई असली जिम्मेदारी को ही बदल दिया और 'शिक्षा का अधिकार' अधिनियम को लागू किया. इस अधिनियम ने केवल उस बहुस्तरीय शिक्षा व्यवस्था को कानूनी जामा ही पहनाया है, जो सरकार की मेहरबानी से देश भर में फली फूली है. यह व्यवस्था शिक्षा के स्तर को मां-बाप की सामाजिक-आर्थिक हैसियत की बुनियाद पर निर्धारित करती है, और यह ठीक मनु द्वारा पेश किए गए नियमों के समान है. यहां भी, बहुत शातिराना तरीके से आरक्षण के हथियार का इस्तेमाल निचली जातियों और वर्गों को बेवकूफ बनाने के लिए किया है.

कोई भी इस छोटे से इतिहास में शासक वर्गों के छिपे हुए मंसूबों को साफ साफ देख सकता है, कि वे अपनी सोने के अंडे देने वाली जाति की मुर्गी को कभी मरने नहीं देंगे! दूसरी तरफ यह दलित राजनीति के दिवालिएपन की दास्तान भी है, जिसे ऐसे मुद्दे दूर दूर तक भी नहीं छूते. बल्कि यह अजीब विरोधाभास है कि इसके उलट उनके बीच शिक्षा के प्रसार के साथ साथ अस्मिता या पहचान के आधार पर संकल्पित 'आंबेडकरवाद' के फैलाव के बावजूद, उनके बीच ऐसे लोगों की संख्या दिनों दिन कम होती जा रही है जो यह मानते हैं कि कि जातियां सचमुच खत्म की जा सकती हैं.

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