Wednesday, May 9, 2012

Fwd: ख्वाबों को कँपकपाती है ...



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2012/5/8
Subject: ख्वाबों को कँपकपाती है ...
To:

रणेन्द्र की यह कविता अपने समय के लिए एक चुनौती भी है और इसका खारिजनामा भी. यह चुनौती है कि बदलाव के गीत बदलाव के सुरों में ही गाए जाएं, भले ही उनके लिए आवाज को बेसुरा ही करना पड़े. यह खारिजनामा है ताकत और नाइंसाफी को सहनीय बनाती उस चमक-दमक का, जिसने हमारे अपने चेहरों पर पुती राख और खून को छुपा रखा है. आइए, चांद के बरअक्स चांदमारी की इस कविता में शामिल हों, क्योंकि हम स्वीकार करें या न करें, यह हमारे पड़ोस में, हमारे आस-पास हर जगह चल रही है.

ख्वाबों को कँपकपाती है ...


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