करीब साढ़े छह दशक पुराने नई दुनिया के ताजातरीन अवतार (जागरण स्वामित्व नई दुनिया और आलोक मेहता संपादित नेशनल दुनिया मार्केट में आ चुके हैं। दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है लेकिन उद्गम स्रोत इंदौर स्थित देश का सर्वश्रेष्ठ (कभी था!) हिंदी दैनिक नई दुनिया है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। हिंदी दैनिक पत्रकारिता का इतिहास इसे इस रूप में दर्ज करेगा।
करीब तीन महीने पहले नई दुनिया के बिकने की खबर मीडिया जगत में फैल चुकी थी। कई तरह की अफवाहें बाजार में गर्म थीं। मैंने सही स्थिति जानने के लिए नई दुनिया के प्रधान संपादक और कभी सर्वेसर्वा के रूप में विख्यात अभय छजलानी को इंदौर में फोन किया। उन्होंने अत्यंत वेदनाभरी आवाज में नई दुनिया की बिक्री की खबर की पुष्टि की। उन्होंने बताया कि ''सब कुछ बिक चुका है। नई दुनिया परिसर बिक चुका है। परिसर में स्थित हमारे निवास के गेट के लिए अलग से व्यवस्था की जा रही है।"
''क्या इसे आप रोक नहीं सकते? नई दुनिया का बिकना, सिर्फ अखबार का बिकना नहीं है, विरासत का बिकना भी है।" मैं भी कुछ भावनाओं से भरा हुआ था।
''जोशी जी, आप जैसा चाहें समझ लें। पर सच्चाई यही है कि इस बिक्री को अब नहीं रोका जा सकता। मैं विवश हूं।"
अभय छजलानी उर्फ अब्बूजी के स्वरों में पीड़ा, लाचारी और विकल्पहीनता को मैं महसूस कर रहा था। इस पटाक्षेप के अवसाद को वे कितनी गहराई से महसूस कर रहे होंगे, इसकी मैं कल्पना कर सकता हूं।
इधर दिल्ली स्थित नई दुनिया के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे 20 अपै्रल को फोन पर जानकारी दी कि ''अखबार का सौदा तो दो-ढाई वर्ष पहले ही हो चुका था। अब्बू जी के पुत्र विनय छजलानी तो नई व्यवस्था में सीईओ थे। आलोक मेहता को भी शुरू से ही इसकी जानकारी थी। लेकिन, निचला स्टाफ इसी भ्रम में रहा कि दिल्ली - संस्करण समेत नई दुनिया के सभी संस्करण आज भी असली मालिकों (अभयचंद छजलानी और महेंद्र सेठिया) के पास हैं।" अंबानियों ने सिर्फ पैसा लगाया है। विगत तीन वर्षों में इसमें लगातार घाटा होता रहा। अंतत: अंबानियों ने इसे जागरण ग्रुप (कानपुर स्थित) को बेच दिया।
सच्चाई तो यह है कि तीन वर्ष पहले ही छजलानी और सेठिया ने अपना पैसा अंबानी से ले लिया था। बिक्री की कुछ औपचारिकताएं बची थीं, जिन्हें निश्चित अवधि में पूरा होना था। बस! यदि छजलानी-सेठिया परिवार नई दुनिया को नहीं बेचते तो भी यह जहाज पूंजी नियोजन के अभाव में डूबने जा रहा था। चतुर व्यापारी की शैली में दोनों-परिवारों ने डूबते जहाज से भी मुनाफा कमा लिया है। इससे अधिक पुराने मालिकों को क्या चाहिए। वैसे यह दुख तो रहेगा ही कि अब्बूजी के पुरखों की विरासत का अंत उनके जीवनकाल में ही हो गया, और उनके पुत्र विनय छजलानी व चहेते संपादक आलोक मेहता ने इसका अंतिम संस्कार कर दिया है।" अब यह वरिष्ठ पत्रकार पाला बदलकर जागरण के 'नई दुनिया अवतार' में शामिल हो गया है। करीब 25 वर्ष तक नई दुनिया से संबद्ध रहने के पश्चात।
पत्र-पत्रिकाओं और चैनलों की खरीद-फरोख्त आम बात है। इस दृष्टि से नई दुनिया की घटना सामान्य लगनी चाहिए। लेकिन यह कोरा अखबार नहीं था, निश्चित ही एक समृद्ध विरासत का प्रतिनिधि था। इस विरासत की धारा मूल्य आधारित साफ-सुथरी व्यवसायिक पत्रकारिता से निकलती थी। इसके मालिक और संपादक स्वतंत्रता आंदोलन, धर्मनिरपेक्ष व प्रगतिशील विचारधारा से अनुप्राणित रहे हैं। कौन भूल सकता है नरेंद्र तिवारी, बाबूलाभ चंद छजलानी, राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर जैसी शख्सियतों को जिन्होंने उत्कृष्ट पत्रकारिता का दीप विपरीत परिस्थितियों में भी जताए रखा था। 1975 में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर प्रहारात्मक संपादकीय लिखकर भारत में तहलका मचाया था और प्रेस-स्वतंत्रता के परचम को बुलंद रखा था। नई दुनिया के संपादकीय विभाग से कई माक्र्सवादी, समाजवादी और गांधीवादी बुद्धिजीवी जुड़े रहे हैं जिन्होंने इसके वैचारिक व्यक्तित्व का निर्माण किया तथा क्षेत्रीय दैनिक होने के बावजूद इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। यह एक ऐसा हिंदी दैनिक रहा है जिसकी प्रतिष्ठा भाषायी प्रेस के साथ-साथ अंगे्रजी प्रेस में भी समान रूप से रही है। सारांश में, नई दुनिया भारतीय व्यवसायिक पत्रकारिता के लिए कुतुबनुमा का रोल लंबे समय तक अदा करता रहा है।
सच तो यह है कि नई दुनिया - विरासत के अवसान का सिलसिला जून, 2001 में शुरू हो चुका था। 2007 में इसके साठ वर्ष धूमधाम के साथ इंदौर में मनाए गए थे। जून में आयोजित भव्य समारोह में अभय छजलानी ने नई दुनिया की कमान अपने पुत्र विनय छजलानी को सौंपी (या उनसे ले ली गई?) थी। इस अवसर के प्रत्यक्षदर्शी के रूप में मैंने तब सवाल उठाए थे ''क्या अब नई दुनिया पहले जैसा रह जाएगा?, क्या नई पीढ़ी इसे औसत कद में तब्दील कर डालेगी?, क्या यह भी वैश्विक पूंजीवादी मीडिया संस्कृति का पुछल्ला बनकर रह जाएगा? क्या इसे भी अब एक 'उत्पाद' के रूप में देखा जाना चाहिए?" (देखें : समयांतर, जुलाई, 2007) समारोह के तेवरों को देखकर नई दुनिया के दिल्ली ब्यूरो में वर्षों तक मेरे सहयोगी रहे होनकार पत्रकार सुरेश बाफना ने सटीक ही टिप्पणी की थी, ''जोशी जी, देखा आपने, कितनी खूबसूरती के साथ अभयजी का विदाई समारोह संपन्न किया गया। अब उनका अध्याय समाप्त और विनयजी का शुरू।" (समयांतर : जुलाई, 2007)
मैं नई दुनिया का ऋणी हूं। दो दशकों तक मैं राष्ट्रीय राजधानी में इसका ब्यूरो प्रमुख (1980-1999) रहा। इसकी विरासत व कार्यशैली से मैं संस्कारित हुआ। इस दो दशकीय यात्रा में कई उतार-चढ़ाव आए; नई दुनिया को छोड़ा और लौटा भी; दो वर्ष तक आई.बी. से 'सिक्यूरिटी क्लियरेंस' नहीं मिला; कांगे्रस नेताओं ने अब्बूजी पर मुझे हटाने के लिए दबाव भी डाला; प्रबंधकों व संपादक ने झुकने से इंकार कर दिया; संपादक राजेंद्र माथुर ने अपने वेतन से अधिक पैकेज मुझे दिलवाया और जंगपुरा एक्सटेंशन जैसी पॉश बस्ती में आवास दिया; संपादक राहुल बारपुते कहा करते थे - पत्रकार विचारहीन नहीं हो सकता, कुछ और हो सकता है। ये चंद अनुभव हैं जो नई दुनिया में मैंने बटोरे थे। नई दुनिया के आधुनिकीकरण और विस्तार को लेकर मेरे और अब्बू जी के बीच तब पत्र व्यवहार भी हुआ था। मैंने उन्हें तब 'महाजनी पूंजीपति' कहा था। उन्होंने मुझसे कहा था, ''जोशी जी, धैर्य रखिए। समय आने पर सब कुछ पर सब कुछ होगा। लेकिन याद रखिए हर परिवर्तन की कीमत होती है। नई दुनिया कुछ मूल्यों पर टिकी हुई है। यह परिवर्तन की कितनी व कैसी कीमत चुका पाएगी, यह अभी कहना मुश्किल है। कुछ काम भविष्य पर छोड़ दिया जाए तो ठीक है।" (वर्ष 2008, देखें प्रतिबिंबन; प्रका. राजकमल, पृ. 135-38)
आज अब्बूजी की भविष्यवाणी टेवरी निकली है। लेकिन, नई दुनिया की विरासत का मर्सिया लिखने में उनकी भूमिका निरापद रही है, इसमें एक तटस्थदर्शी को हमेशा संदेह रहेगा। इस गौरवशाली विरासत के नाटक की कथा का असली लेखक और नायक या खलनायक कौन था। इतिहास ही बतलाएगा। फिलहाल इसका ट्रेजिक अंत हुआ है, यही यथार्थ है!
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