इच्छा मृत्यु के सामाजिक निहितार्थ भारत के लिए भयावह हैं
इच्छा-मृत्यु की वैधता के निहितार्थ
♦ विजय कुमार
मार्च में ब्रिटेन के कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया। ब्रिटिश उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने इस दिन 57 वर्षीय निकिल्सन की इच्छा-मृत्यु यानी यूथनेसिया धारण करने की अपील स्वीकार कर ली। बीबीसी के अनुसार, निकिल्सन लाकड-इन-सिंड्रोम से ग्रस्त है। इस बीमारी में व्यक्ति का शरीर तो लकवा ग्रस्त हो जाता है, लेकिन उसका मस्तिष्क पूरी तरह काम करता रहता है। पीड़ित व्यक्ति केवल पलक झपका कर इशारे से ही अपनी बात कह पाता है। निकिल्सन ने जनवरी महीने में न्यायालय से यह आग्रह किया था कि वह उसे मृत्यु के चुनाव की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत स्वेच्छा से इच्छा-मृत्यु का वरण करने की अनुमति प्रदान करे। निकिल्सन के वकील ने "यूरोपीय मानवाधिकार समझौता, जिसके तहत प्रत्येक मनुष्य को व्यक्तिगत-स्वायत्तता के आधार पर अपनी मृत्यु के ढंग का चुनाव करने की स्वतंत्रता दी गयी है, का हवाला देते हुए यह दावा पेश किया कि ब्रिटेन का इच्छा-मृत्यु संबंधी मौजूदा कानून पीड़ित पक्ष के 'व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन' के मूल अधिकार को बाधित करता है। अतः निकिल्सन को इच्छा-मृत्यु की अवैधता संबंधी कानून के विपरीत उसका वरण या चुनाव करने की अनुमति प्रदान की जाए। न्यायालय ने इस दलील को स्वीकार कर लिया।
ब्रिटिश न्यायालय के इस फैसले ने जहां ब्रिटेन में इच्छा-मृत्यु को कानूनी दर्जा प्रदान किये जाने का रास्ता खोल दिया है, वहीं इस फैसले ने इच्छा-मृत्यु से जुड़े सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक और नैतिक प्रश्नों को भी चर्चा में ला दिया है। यदि अभियोग पक्ष की इस दलील को मान लिया जाए कि मृत्यु के ढंग के चुनाव की स्वतंत्रता का मामला व्यक्ति की निजी स्वायत्तता से जुड़ा हुआ है, तो तार्किक रूप से किसी भी प्रकार की आत्महत्या को गैर कानूनी नहीं ठहराया जा सकता है। अंततः आत्महत्या में भी व्यक्ति अपनी मृत्यु का वरण स्वयं ही करता है। दूसरे, यह देखा गया है कि लंबी एवं गंभीर बीमारी से ग्रस्त लोग अधिकांशतया अवसाद एवं ग्लानि के शिकार रहते हैं। अतः उनके निर्णय स्वतंत्र न होकर अवसाद-जनित होते हैं। इसीलिए ऐसे निर्णयों को स्वतंत्र और न्यायसंगत निर्णय नहीं माना जा सकता। इस प्रकार, इच्छा-मृत्यु को इस अर्थ में भी वैध नहीं ठहराया जा सकता। इच्छा-मृत्यु वास्तव में गंभीर रूप से बीमार, मरणासन्न, बूढ़े, अनुत्पादक एवं अवांछित व्यक्तियों को मारने का लाइसेंस है। इच्छा-मृत्यु को वैधता प्रदान करने का सबसे बुरा प्रभाव यह है कि यह पीड़ित व्यक्ति के परिवार, दोस्तों एवं स्वास्थ्य कर्मियों को संवेदनहीन और अमानवीय बना देता है। परिणामस्वरूप मानवीय अंगों की बिक्री से प्राप्त धन के लालच में इच्छा-मृत्यु की घटनाएं खासी तादाद में बढ़ सकती हैं।
धार्मिक अर्थ में भी इच्छा-मृत्यु को उचित सिद्ध नहीं किया जा सकता। धार्मिक रूप से यह माना जाता है कि मानव जीवन ईश्वर की धरोहर है। व्यक्ति का यदि अपने जन्म पर कोई अधिकार नहीं है, तो उसका अपनी मृत्यु पर भी कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार, धार्मिक दृष्टि से इच्छा-मृत्यु को प्रकृति के विधान में हस्तक्षेप माना जाता है। भारतीय दर्शन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान उसके विगत कृत्यों का परिणाम है। जीवन के कष्ट व्यक्ति के बुरे एवं अनैतिक कर्मों का फल है। यह उसके पापों का दंड है। अब यदि, व्यक्ति इच्छा-मृत्यु के नाम पर आत्महत्या करता है, तो वह वास्तव में अपने कष्टों को समाप्त करने के बजाय अगले जन्म के लिए स्थगित कर रहा होता है। यानी एक तरह से वह ईश्वर के विधान में अड़ंगा डाल रहा होता है, जो कष्ट उसके वर्तमान जीवन के लिए निर्धारित थे, वह उन्हें भोगने के बजाय उनसे बचने का अनुचित रास्ता चाहता है।
इच्छा-मृत्यु के सामाजिक निहितार्थ तो, खासकर तीसरी दुनिया के गरीब लोगों के लिए, और भी अधिक भयावह है। तीसरी दुनिया में जहां स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी के बस से बाहर हो चुकी हैं, जहां व्यक्ति के लिए रोटी-कपड़ा-मकान हासिल करना मुहाल है, वहां यदि इच्छा-मृत्यु को कानूनी रूप दे दिया जाए तो असहाय एवं गंभीर रोगियों की इच्छा-मृत्यु के नाम पर हत्याओं की बाढ़ आ सकती है। पूंजीवादी समाज में जहां मानवीय सरोकार दिनों-दिन समाप्त होते जा रहे हैं, वहां पर इच्छा-मृत्यु के नाम पर लाखों मरणासन्न लोगों को अनइच्छित मौत की तरफ धकेला जा सकता है। अतः गिरते मानवीय सरोकारों एवं सामाजिक जीवन में पसरती जा रही अनैतिकता को देखते हुए ऐसे किसी भी फैसले के भयावह पहलुओं का भी आकलन करना जरूरी है। इच्छा-मृत्यु को वैधानिक बनाने के इस कानूनी फैसले का पुरजोर ढंग से विरोध किया जाना चाहिए। क्योंकि जैसा कि हमने ऊपर देखा, इच्छा मृत्यु समाधान न होकर एक कठोर, अमानवीय और खुद ही अनैतिक कृत्य है।
(विजय कुमार। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र में पीएचडी। कौमी रफ्तार से जुड़ कर थोड़े दिनों पत्रकारिता की। फिलहाल इग्नू में कंसल्टेंट इन फिलॉसफी हैं। उनसे baliyanvijay@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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