Thursday, May 10, 2012

मुकेश अंबानी के ताल पर मीडिया का नंगा नाच

http://visfot.com/home/index.php/permalink/6387.html

मुकेश अंबानी के ताल पर मीडिया का नंगा नाच

By  
मुकेश अंबानी के ताल पर मीडिया का नंगा नाच
Font size: Decrease font Enlarge font

हमारे अखबार और टीवी चैनल अपने ईमान की लंगोटी कमर में कम बांधते हैं हाथ में ज्यादा लहराते हैं. बस, कोई ऐसा चाहिए जो उनकी लंगोटी की कीमत लगा दे। अभी हाल में ही रिलायंस और मुकेश अंबानी के झूठ पर अखबारों ने जिस प्रकार से पत्रकारिता के सिद्धांत को बेचा, वह इसी बात को साबित करता है। हिन्दी-अंग्रेजी का एक भी ऐसा अखबार सामने नहीं आया जिसने रिलायंस-मुकेश अंबानी के झूठ, स्वार्थ और फरेब द्वारा निवेशकों को भरमाने की खबर पर से पर्दा हटाने की ईमानदारी दिखाने की हिम्मत दिखाई। पहले इससे संबंधित प्रसंग पर 23 और 24 अप्रैल को अखबारों की हेडलाइन देख लीजिये...

रिलायंस इंडस्टीज कंपनी बनी कर्ज मुक्त इकाई.... हिन्दुस्तान. पेज नबंर ... 13
मुकेश अबांनी ने निभाया वादा, रिलायंस को बनाया कर्जमुक्त ..... दैनिक जागरण, पेज नं. 11
मुकेश ने पूरा किया कर्ज से छुटकारा दिलाने का वादा... जनसत्ता .... पेज नबंर ...10
कर्ज मुक्त कंपनी बनी रिलांयस .... दैनिक भाष्कर ... पेज नबंर .........  13
कर्जमुक्त रिलायंस .............. हरिभूमि

यह कुछ अखबारों की हेडलाइनें हैं। इन अखबारों के हेडलाइन देख कर लगता है कि सही में रिलायंस और मुकेश अ्रंबानी की इकाई कर्जमुक्त हो गयी है। पर कहानी कुछ और ही है। रिलायंस इंडस्टीज न तो कर्जमुक्त कंपनी है और न ही रिलायंस का मालिक मुकेश अंबानी ने शेयर धारकों से कर्जमुक्त होने का वायदा निभाया है। हेडलाइन में अखबारों ने रिलायंस इंडस्टीज को जरूर कर्जमुक्त कंपनी बना दिया पर पूरी खबर पढ़ने पर अखबारों का दिवालियापन और मुकेश अंबानी के सामने नतमस्तक होने के नजारे को देख सकते हैं, जान सकते हैं। रिलायंस इंडस्टीज के पास 70 हजार 252 करोड़ की पूंजी है जबकि 68 हजार 259 करोड़ का कर्ज रिलायंस इंडस्टीज कंपनी के उपर है। जब रिलायंस ने अपने उपर का 68 हजार 259 करोड़ का कर्ज चुकाया ही नहीं है तो फिर वह कंपनी कर्जमुक्त हुई तो कैसे? इतना ही नहीं बल्कि शेयर धारकों से रिलायंक इंडस्टीज को कर्जमुक्त बनाने का वादा मुकेश अंबानी ने कैसे निभाया? कोई दस माह पहले मुकेश अंबानी ने अपनी कंपनी के शेयरधारकों से कर्जमुक्त कंपनी होने की उपलब्धि हासिल करने का वादा किया था।

संपादक नाम की संस्था का पतन

सवाल यहां यह उठता है कि एक साथ सभी अखबारों ने रिलायंस इंडस्टीज को कर्जमुक्त कंपनी बनाने की गिरहबाजी और गिरोहबाजी दिखायी क्यों? खबर का स्रोत रिर्पोर्टर होता है। रिर्पोर्टर खबर लिखता है। खबर डेस्क पर एडिट होती है। डेस्क पर खबर एडिट होने के बाद कई स्तरों पर जांची परखी जाती है। इनमें से किसी अखबार के संपादक ने ऐसी झूठी और रिलायंस इंडस्टीज को लाभ हासिल करने वाले तथ्यारोपण पर ध्यान क्यों नहीं दिया। सभी एक ही राह पर चले। सभी एक ही बोली बोले। वह राह और बोली सिर्फ और सिर्फ रिलायंस इंडस्टीज के पैसे और शक्ति की थी। गलतियां एक दो अखबारों से हो सकती है? एक लाइन से सभी अखबारों में एक ही तरह से तथ्यारोपित और लाभ पहुंचाने वाली खबर छपती है तो शक की सुई रिपोर्टर, डेस्क और संपादक की की ईमानदारी पर कैसे और क्यों नहीं उठेगी?यह माना जा सकता है कि अखबारों में अब संपादक नाम की संस्था का पतन हो गया है। अखबारों में गैरजिम्मेदार -चापलूस और पैरोकार टाइप के रिपोर्टरों, डेस्क् इंचार्जो और संपादकों का कब्जा हो गया है। अगर ऐसा न होता तो खबर इस तरह से आपको बताई जाती कि- रिलायंस इंडस्टीज और मुकेश अंबानी की कर्ज से अधिक पूंजी मात्र दो हजार करोड़ है और वे शेयरधारको से वायदा खिलाफी कर रहे हैं और झूठ का प्रलोभन दे रहे हैं।

अगर इन हैडिंग से खबर छपती तो होता क्या ?
अगर अखबारों में यह खबर छपती कि रिलायंस इंडस्टीज और मुकेश अंबानी के पास मात्र दो हजार करोड़ की ही पूंजी है तब रिलायंस इंडस्टीज और मुकेश अंबानी की विश्वसनीयता सीधेतौर धड़ाम से नीचं गिरती। इतना ही नहीं बल्कि शेयर धारकों में बैचने उठती। शेयर धारकों को अपने पैसे डूबने का डर होता। रिलायंस के शेयर भाव का पतन हो जाता। रिलायंस के शेयरधारक अपने शेयर बेचने के लिए शेयर मार्केट में धमाचौकड़ी मचा देते। दस माह पूर्व मुकेश अंबानी ने अपनी कंपनी को कर्जमुक्त बनाने का वायदा शेयर धारकों से किया था वह सीधे तौर उनके साम्राज्य के लिए फांसी का फंदा बनता। छोटे-छोटे शेयर धारक जिनकी खून और पसीने की कमाई लगी हुई है वे मुकेश अंबानी से सवाल करते। छोटे-छोटे शेयर धारकों के सवालों का जवाब मुकेश अंबानी देते तो क्या देते? सबसे बड़ी बात तो यह है कि रिलायंस इंडस्टीज के शेयर धारक अपने शेयर बेचने और पैसा अन्य जगह लगाने के लिए तत्पर होते। अगर ऐसा होता तो रिलायंस एकाएक दिवालिया के कगार पर पहुंच जाती और मुकेश अंबानी की आकाश से बातें करने वाली अट्टालिका तक बिक जा सकती थी। रेटिंग नियामकों पर रिलायंस की मार्केटिंग और विश्वसनीयता की रेटिंग गिराने का दबाव होता है।

खबर छपी कैसे?
रिलायंस इंडस्टीज और मुकेश अंबानी ने खबर छपवाने के लिए करोड़ो रूपये खर्च किये हैं। कहा यह जाता है कि रिलायंस का मीडिया प्रचार कंपनी ने खुद यह खबर तैयार की थी। खबर तो बनायी ही गयी थी, इसके अलावा खबर के साथ कुछ सजेंस्टिंग हेडिंग भी लगायी गयी थे। यह खबर सिर्फ अखबारो ही नहीं बल्कि संवाद एजेंसियो को भी उपलब्ध करायी गयी थी। रिलायंस इंडस्टीज और मुकेश अंबानी की पीआर कंपनी ने इसके लिए बड़ी एक्सरसाइज की थी। नीरा राडिया प्रकरण से सबको ज्ञात ही है कि पीआर कंपनियां अपनी तिजोरी भरने वाली आर्थिक शक्तियों के लिए क्या न क्या करती है? सीधे तौर पर कहा जाये तो अखबारों के आर्थिक डेस्क के इंचार्ज और संपादक को मैनेज किया गया। कुछ अखबारों में सीधे मालिकों को मैनेज कर लिया गया हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। मैं कई अखबारो का संपादक रह चुका हूं। इसलिए मैं अखबारों के मालिकों की मानसिकता और उनकी मनस्थिति से पूरी तरह से अवगत हूं। कई बार मालिकों को खबरों के पीछे छुपी हुई कारस्तानी मालूम नहीं होती है। काबिल और ईमानदार संपादक मालिक को वास्तविकता बता कर रिलायंस जैसी कंपनी की साजिश और तथ्यारोपण का पर्दाफाश कर सकता है और पत्रकारिता की विश्वसनीयता व ईमानदारी की रक्षा कर सकता है। मैंने कई बार इस तरह का सफल प्रयोग किया हैं।

जन नुकसान क्या?
भूंमडलीकरण के दौर में निजीकरण के दैत्यों का एक मात्र सिद्धांत है: प्रपंच करना, झूठ फरेब परोसना और झूठे ख्वाब दिखाकर आमजन के भविष्य पर डाका डालना है। दुनिया भर में यह बात सच्ची साबित हो रही है। किस तरह एनरॉन के बारे में बातें फैलायी गयी थी वह भी जगजाहिर है। दुनिया भर की रेटिंग एजेंसियों ने एनरॉन को उंची रेटिंग दी थी और उसे विश्वसनीय कंपनी बताया गया था। दुनिया भर की रेटिंग एजेंसियों के सर्टिफिकेट पर एनरॉन के शेयरो को उंची कीमत मिलने लगी थी। कुछ ही दिनों के अंदर एनरॉन दिवालिया हो गयी थी। शेयरधारकों के रूपये डूब गये। यह तो रहा विदेशी कंपनियों का हाल। अब इंडियन कंपनियों का उदाहरण देख लीजिये। फर्जी बैलेंस सीट पर सत्यम कंपनी के शेयर भाव किस कदर तेज हुए और फर्जी बैलेंस सीट के उजागर होते ही सत्यम कंपनी किस कदर अविश्वसनीयता का शिकार हुई, यह भी सभी को मालूम है। पैसे के बल पर कर्जमुक्त कंपनी होने का तथ्य मीडिया प्रत्यारोपित कराने का सीधा अर्थ छोटे-छोटे शेयर धारकों को लुभाना और उनकी खून-पसीने की कमाई को अपने साम्राज्य में निवेश करने के लिए लालच देकर बटोरना है। निजीकरण के दैत्यों की कुदृष्टि अब ग्रामीण क्षेत्रों के छोटे-छोटे निवेशकों पर लगी हुई है। शहरी क्षेत्र का निवेशक जहां छानबीन कर निवेश करता है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के निवेशक आकर्षक और मनगढं़त विज्ञापनों और समाचारों से प्रभावित होकर निवेश करने के लिए आगे आ जाते हैं। रिलांयस में निवेश करने वालो की संख्या बढेगी। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। भविष्य में रिलायंस के ग्रामीण क्षेत्रों के निवेशकों की गाढ़ी कमाई डूब सकती है। उसी तरह से जिस तरह से एनरॉन और सत्यम कंपनी में आम निवेशकों की गाढ़ी कमाई डूबी। यह भी हो सकता है कि आकर्षक विज्ञापन और झूठी खबर के जाल फंसने वाले निवेशकों को उतना मुनाफा नहीं  हो ,जितना उन्होंने अनुमान लगाया होगा और रिलायंस के एजेंटो ने जितना लालच दिया होगा।

वेश्याओं की सुविधा भी देता है रिलायंस?
अगर आप रिलायंस की उंगलियों पर नाचते हैं और रिलायंस कंपनी के पैरोकार हैं तो आपको दुनिया के विख्यात वेश्याघरों में भी सैर कराने के लिए वह तत्पर रहता है और सेक्स की इच्छा को तृप्त करा सकता है। यह हवाहवाई बातें नहीं हैं। पुख्ता सबूत है। अभी कुछ दिन पूर्व ही रिलायंस ने बिजनेस भास्कर के पत्रकार स्वतंत्र मिश्रा, दैनिक जागरण के पत्रकार बृज बिहारी चौबे, अमर उजाला के पत्रकार उमेश्वर कुमार, हिन्दुस्तान टाइम्स के पत्रकार महुआ वेंकटेश, इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार बिसुवा योंयन, न्यूज एजेंसी पीटीआई के पत्रकार जोयता डे सहित हिन्दी और अंग्रेजी के दर्जनों पत्रकारो को सिंगापुर का दौरा कराया था। दौरे कराने का बहाना कुछ और था। पर असली मकसद पत्रकारों को मौज-मस्ती कराना था। सिंगापुर मे कई क्लब ऐसे हैं जहां पर सीधे तौर पर रियल सेक्स जीवंत प्रत्यक्ष प्रदर्शन होता है और देखने वाला पात्र अपनी सुविधा व इच्छा के अनुसार वेश्या सुख का आनंद सरेआम उठा सकता है और अपनी सेक्स इच्छा को तृप्त कर सकता है। उपर्युक्त इन सभी पत्रकारों को  थाईलैंड के वेश्याधर 'जेजे क्लब' का दर्शन कराया गया। ओरियंटल मसाज सेंटर में महिला मसाजदारों से इन सभी पत्रकारों का मसाज कराया गया। इतना ही नहीं, कहा जाता है कि विदेशों की सैर कराने के अलावा अपने परिवार हेतु खरीददारी कराने के लिए अनलिमिटेड गिफ्ट वाउचर तक उपलब्ध कराया जाता है। जाहिर सी बात यह है कि अगर पत्रकारों को वेश्याघर तक दर्शन कराने और उपलब्ध कराने का काम रिलायंस करेगा तब पत्रकार रिलायंस की उगलियों पर नाचेंगे ही और पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों की कब्र खोदेगे ही। पत्रकार पत्रकारिता के मूल सिद्धांत की कब्र खोद भी रहे हैं। रिलायंस ने एक शोध संस्थान भी खोल रखा है, जिसमें शायद पत्रकारों को पटाने के तरीके ढूढने के लिए भी शोध होता है। कई पत्रकार अपनी पत्रकारिता छोड़कर वहां काम कर रहे हैं।

मीडिया में शेयर और जगह की खरीद
आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि प्रिंट ही नहीं बल्कि इलेक्टॉनिक्स मीडिया में रिलायंस का निवेश है। निवेश का स्तर प्रत्यक्ष भी हो सकता है और अप्रत्यक्ष भी हो सकता है। अंदर खाने की बात यह है कि कई अखबारों में रिलायंस ने अघोषित तौर पर पन्ने खरीद रखें हैं, जिसका सालाना भुगतान रिलायंस करता है। रिलायंस की खबर उसी खरीदे हुए पेज पर मनमाफिक तौर पर छपती है। यह पेड न्यूज सरीखा खेल है और इस पेड न्यूज सरीखे खेल से आम निवेशक और आम जनता ही भ्रमित होते है।

चोरी और सीना जोरी
हिन्दी में एक कहावत है 'चोरी और सीनाजोरी'। इस कहावत को मीडिया जगत ने अपना मूल आदर्श मान लिया है। मैंने जब 23 अप्रैल को यह झूठी और मनगढ़त खबर पढ़ी तब मैने दैनिक भास्कर अखबार को फोन लगाया। मालूम हुआ कि प्रमुख संपादक हैं नहीं। मैने जब जोर डाला तो दैनिक भास्कर के रिशेपशनिष्ट ने मेरी बात हरमोहन मिश्रा से करायी। हरिमोहन सिंह दैनिक भास्कर की संपादकों की टोली में हैं। जब मैनें झूठी और मनगढ़त खबर छापने की बात कही तो वे आग-बबुला हो गये। कहने लगे कि आप ही जानते हैं सबकुछ, खबर गलत कैसे हैं? मैंने हरिमोहन मिश्रा को कहा कि पहले आप अपने अखबार में छपी खबर को पढ़िये? थोड़ा शांत होकर हरिमोहन मिश्रा कहते हैं कि आपने बता दिया तो देख लेगे हम? फिर हमनें सवाल किया कि झूठी और मनगढ़त खबर छापकर रिलायंस को लाभ पहुंचाने के कुकृत्य को लेकर आम पाठकों से माफी मांगेंगे या नहीं? फिर हरिमोहन मिश्रा गुस्से लाल होकर बोले कि आप हमारे मालिक हैं? इस पर हमनें कहा कि मैं पाठक हूं और मेरा यह अधिकार है। हरिमोहन मिश्रा ने यह कहकर टेफीफोन लाइन काट दी कि पाठक हैं तो जाइये न्यायालय।

झूठी खबर पर संज्ञान क्यों नहीं?
एक सिद्धांत स्वयं संज्ञान लेने का है। आमतौर पर यह सिद्धांत न्यायिक प्रक्रिया में बहुप्रचलित है। न्यायाधीश किसी बड़ी और उपेक्षित संवर्ग से जुड़ी घटना पर स्वयं संज्ञान लेकर दंड का प्रावधान को सुनिश्चित करते हैं। मीडिया को नियंत्रित करने वाला एक नियामक 'प्रेस परिषद' है। प्रेस परिषद के सदस्य पत्रकार भी होते हैं। नियामकों में आरएनआई और खुद सूचना प्रसारण मंत्रालय भी है। पर किसी ने इस झूठी खबर पर संज्ञान क्यों नहीं लिया। प्रेस परिषद के जो पत्रकार सदस्य हैं, उन्हें यह झूठी खबर क्यों नहीं झकझोर और आंदोलित कर पायी। अगर इसकी सत्यता प्रेस परिषद के अध्यक्ष काटजू के पास रखी जाती तो अखबारों के खिलाफ कार्रवाई संभव हो सकती थी। कम से अखबारों के संपादकों-प्रबंधकों के चेहरे से ईमानदारी का नकाब तो हट जाता। सच तो यह है कि प्रेस परिषद का सदस्य वैसे पत्रकारों को बनाया जाता है जो सरकारी की प्रतिकूल नीतियों पर प्रहार करने से बचते है और जनमुद्दों पर पानी डालते हैं।

No comments: