Monday, 14 May 2012 10:35 |
भारत डोगरा नई तकनीक आने के बाद पहले से चले आ रहे फसल-चक्रों और मिश्रित फसलों के चुनाव में भी बदलाव आया और विशेषकर नई खेती के क्षेत्रों में दलहन की फसल पहले की अपेक्षा कहीं कम बोई जाने लगी। उदाहरण के लिए, पंजाब की कृषिभूमि में दलहन का हिस्सा वर्ष 1966-67 में तेरह प्रतिशत से कम होकर वर्ष 1982-83 में मात्र तीन प्रतिशत रह गया। इस कारण भी भूमि की उर्वरता को क्षति पहुंची। प्राय: रासायनिक खाद और कीटनाशक का बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक उद्देश्य के काम आता है। इसका एक बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जल-स्रोतों में पहुंच जाता है और भू-जल को प्रदूषित करता है। इसके कारण गंभीर स्वास्थ्य-समस्याएं इस पानी का उपयोग करने वाले स्थानीय निवासियों और पालतू पशुओं, दोनों में देखी गई हैं। नदी और अन्य जल-स्रोतों के प्रदूषण का बुरा असर मछलियों को भी भुगतना पड़ता है। एक खाद्य उत्पादन बढ़ाने के प्रयास में इस तरह दूसरे खाद्य का ह्रास होता है। तालाब जैसे जल-स्रोत में नाइट्रोजन अधिक पहुंचने से हानिकारक पौधों का तेज प्रसार तालाब की उपयोगिता को समाप्त भी कर सकता है। भारत जैसे गर्म जलवायु और भारी मानसूनी वर्षा के क्षेत्र में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के बह जाने और पर्यावरण को प्रदूषित करने की संभावना अधिक रहती है। मिट््टी का उपजाऊपन बनाने वाले अनेक सूक्ष्म जीवों, केंचुओं आदि के लिए तो ये रसायन कहर ढाते हैं। रासायनिक खाद का अधिक उपयोग होने पर केंचुओं को तड़पते हुए देखा जा सकता है। साथ ही किसानों के मित्र अनेक अन्य कीट-पतंगों, पक्षियों और अन्य जीवों के लिए भी ये रसायन हानिकारक हैं। अब समय आ गया कि ऐसे सवालों को हम खेती संबंधी नीतियों के संदर्भ में पर्याप्त महत्त्व दें और आज हम जो उत्पादकता भूमि से प्राप्त कर रहे हैं, उसे भविष्य में भी बनाए रखने की चिंता करें। कृषि के जिस अनुसंधान को आज महत्त्व दिया जा रहा है, उसमें निरंतर नए महंगे तौर-तरीकों और रसायनों को अपनाने के लिए कहा जाता है। छोटे किसान इस कारण निरंतर संकटग्रस्त होते जा रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आता है कि वे इन निरंतर महंगे तौर-तरीकों में कहां तक फंसते जाएं। देश के अनेक राज्यों से किसानों की आत्महत्या की खबरें बरसों से आती रही हैं। ये घटनाएं यही बताती हैं कि किसान ऐसे आर्थिक संकट में फंस गए हैं कि उससे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें नहीं सूझ रहा। कृषि अनुसंधान के प्रति हमारा एक बिल्कुल अलग नजरिया भी हो सकता है। वह यह कि हम जानने-समझने का प्रयास करें कि किस तरह प्रकृति अपनी ओर से मिट्टी को उपजाऊपन बनाती है और पौधों को विभिन्न पोषण तत्त्व उपलब्ध कराती है। इसकी समझ बनाने के बाद हम अपनी खेती को प्रकृति की इस प्रक्रिया से जोड़ कर ही चलें और उसमें व्यवधान डालने वाला कोई कार्य न करें। वास्तविक वैज्ञानिक प्रक्रिया तो यही है जो किसानों की दृष्टि से सबसे सस्ती और टिकाऊ सिद्ध होगी। इस विधि में विभिन्न जीवाणु, केंचुए, वनस्पतियां, मधुमक्खियां, मेंढक आदि अपने आप मिट्टी के उपजाऊपन को बढ़ाने और कीड़ों से रक्षा करने का कार्य करेंगे। रसायनों से की जा रही खेती में एक समस्या ठीक की जाती है तो कोई दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है। कभी एक पोषक तत्त्व की कमी थी तो कभी उसकी अधिकता हो जाती है। कभी विभिन्न पोषक तत्त्वों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। कभी किसी सूक्ष्म पोषक तत्त्व की कमी हो जाती है तो कभी दूसरे की। अलग-अलग सूक्ष्म तत्त्व के लिए, अलग-अलग कृत्रिम खाद के लिए किसान को कहा जाता है। सूक्ष्म पोषक तत्त्व तो कितने ही हैं। आखिर कितना आर्थिक बोझ सहने की किसान की क्षमता है? अत: उचित यही होगा कि प्रकृति द्वारा संतुलित पोषक तत्त्व उपलब्ध करवाने की जो व्यवस्था है उसी को अच्छी तरह समझा जाए और उसके अनुकूल कृषि कार्य किए जाएं। अगर कृषि अनुसंधान को इस रूप में विकसित किया जाए, तो हमारे देश का हर किसान इसमें भागीदार बन सकेगा। कृषिभूमि को धीरे-धीरे रसायनों की लत से मुक्त कर हमें अपने देश में उपलब्ध जैविक खाद का भरपूर उपयोग करना होगा और किसानों को इस कार्य के लिए तकनीकी और आर्थिक सहायता देनी होगी। पर यह भी ध्यान में रहे कि केवल रसायनों को छोड़ने से मिट्टी की रक्षा नहीं हो पाएगी। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि गांवों में वृक्षों की हरियाली बढेÞ और जल संरक्षण के समुचित उपाय हों। |
Monday, May 14, 2012
जमीन में घुलता जहर
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/19275-2012-05-14-05-06-40
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