Monday, May 14, 2012

जमीन में घुलता जहर

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Monday, 14 May 2012 10:35

भारत डोगरा 
जनसत्ता 14 मई, 2012: कृषि को स्थानीय बीजों और संसाधनों पर आधारित करने और रासायनिक खादों, कीटनाशकों से मुक्त करने का महत्त्व पर्यावरण की दृष्टि से तो समझा जाने लगा है, पर बहुत-से लोग अब भी इसकी व्यावहारिकता के बारे में सवाल उठाते हैं। उन्हें लगता है कि इससे पैदावार में कमी आएगी और साथ ही किसान की आय भी घटेगी। दूसरी ओर, दुनिया के अनेक भागों से ऐसे उदाहरण सामने आ रहे हैं जहां किसानों ने पर्यावरण की रक्षा वाली टिकाऊ खेती को अपना कर अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में भी सफलता प्राप्त की।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ मिग्येल अलतियरी ने कुछ समय पहले किए अध्ययनों में विश्व के लगभग पचीस लाख परिवारों के बारे में बताया है, जो लगभग पचास लाख हेक्टेयर के फार्मों पर पर्यावरण-रक्षा के अनुकूल उपायों से मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन को नवजीवन दे रहे हैं। इस तरह जूल्स प्रिटी ने सत्रह देशों के पैंतालीस प्रयोगों का जिक्र किया है, जिनमें सात लाख से अधिक किसानों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों का त्याग कर अपनी उपज और खाद्य सुरक्षा को बेहतर किया। इन प्रयासों से एक दीर्घकालीन उपलब्धि हासिल हुई, मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन और उसकी नमी संरक्षित रखने की क्षमता बढ़ी।
चूंकि मिट्टी हमारे चारों ओर प्रचुर मात्रा में बिखरी हुई है अत: हमें इसकी कोई चिंता नहीं होती। इसकी गुणवत्ता में जो कमी आ रही है वह नजर नहीं आती, पर उससे हमारी अर्थव्यवस्था, करोड़ों लोगों की आजीविका और खाद्य-उपलब्धता, सब गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं। मिट्टी का अपना जीवन है, उसमें असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं का निवास है, जल ग्रहण करने और वायु के संचार की व्यवस्था है, अनेक तरह के पोषक तत्त्व पेड़-पौधों को संतुलित रूप में देने की क्षमता है। जब यह पूरी व्यवस्था टूटती है तो भूमि की उर्वरता नष्ट होती है। बाहर से तो वही मिट्टी नजर आती है, पर उसकी जीवनदायिनी क्षमता बहुत कम हो जाती है।
जो चीज बहुमूल्य होती है, उसके संरक्षण और रखरखाव पर ध्यान देने की जरूरत भी उतनी ही ज्यादा होती है। हमारी वर्षा और जलवायु की स्थिति ऐसी है कि मिट्टी के कटाव की आशंका अधिक है। पिछली लगभग दो शताब्दियों में वनों का विनाश और कटान बहुत बडेÞ पैमाने पर हुआ है। साथ ही औपनिवेशिक शासन द्वारा लाई गई विकृतियों से जलसंग्रह और संरक्षण की परंपरागत व्यवस्थाओं को बहुत धक्का पहुंचा। इन दोनों कारणों से मिट्टी के उपजाऊपन को बहुत क्षति पहुंची। पिछले चार-पांच दशकों में एक अन्य बड़ी गलती हमने यह की कि मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने के अनुकूल खेती के जो तौर-तरीके बहुत समय से चले आ रहे थे, उन्हें छोड़ कर रसायनों के भारी उपयोग की ऐसी तकनीकें अपनार्इं, जो मिट्टी के उपजाऊपन के लिए और हानिकारक सिद्ध हुर्इं।
फसलों को जिन विभिन्न पोषक तत्त्वों की आवश्यकता है- कुछ की अधिक मात्रा में और कुछ की सूक्ष्म मात्रा में- उन्हें उपलब्ध करवाने के लिए प्रकृति की अपनी व्यवस्था है। हमारे पूर्वज किसान आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली के ये नाम तो नहीं जानते थे कि इतना नाइट्रोजन चाहिए, इतना फासफोरस या इतने सूक्ष्म तत्त्व, पर पीढ़ियों के संचित अनुभव से उन्होंने यह सीख लिया था कि इन पोषक तत्त्वों को संतुलित मात्रा में उपलब्ध करवाने के लिए कौन-से उपाय जरूरी हैं। दलहनी फसलों में वायुमंडल से नाइट्रोजन निशुल्क प्राप्त करने की 
अद््भुत क्षमता है।
अत: किसानों ने सदा फसल-चक्र में या मिश्रित खेती में इन फसलों पर समुचित ध्यान दिया। अलग-अलग गहराई की जड़ें मिट्टी की विभिन्न तहों से पोषण प्राप्त करती हैं, ताकि एक ही तरह का अधिक दोहन न हो। इस बात का ध्यान भी मिश्रित खेती की फसल चुनने या फसल-चक्र को चुनने में रखा गया। फायदा यह हुआ कि एक फसल ने नाइट्रोजन प्राप्त की तो दूसरे ने नाइट्रोजन उपलब्ध करवा दी। इस तरह लगभग पांच हजार वर्षों से देश में खेती होती रही और इन फसलों का पोषण करने की मिट्टी की क्षमता भी बनी रही।
दूसरी बात हमारे किसानों ने यह सीख ली थी कि पशुओं के गोबर, फसलों के अवशेषों, वनों की पत्तियों आदि का भरपूर उपयोग मिट्टी के उपजाऊपन को बनाए रखने के लिए किया जाए। यहां तक कि अपने पशुओं का गोबर कम पड़ता था तो अनेक स्थानों पर घुमंतू पशुपालकों को बडेÞ मान-सम्मान के साथ निमंत्रण दिया जाता था कि वे फसल कटने के बाद खाली पड़े खेतों में पशुओं को रहने दें ताकि उनके मल-मूत्र से भूमि को अनेक पोषक तत्त्व मिल सकें।
इन गुत्थियों को वैज्ञानिक आज तक सुलझा रहे हैं कि इन अवशिष्ट पदार्थों के मिट्टी में मिल जाने से किन प्रक्रियाओं से विभिन्न पोषक तत्त्व बनते हैं जो पौधों के लिए जरूरी हैं, पर किसानों ने इनके महत्त्व को अपने अनुभव के आधार पर बखूबी समझ लिया था और इनका उपयोग करते रहे। इससे एक ओर प्रदूषण और गंदगी की समस्या से हमारे गांवों को राहत मिली और दूसरी ओर मिट्टी का उपजाऊपन बना रहा।
मगर पिछले चार-पांच दशकों में जिस रसायन आधारित खेती को बहुत जोर-शोर से बढ़ावा मिला है, वह प्रकृति की पोषक तत्त्वों को उपलब्ध कराने वाली व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करती है। उदाहरण के लिए, मिट्टी की जलधारण क्षमता बढ़ाने, वायु संचार के लिए इसे भुरभुरा बनाने और उसे अनेक पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने का बहुमूल्य कार्य केंचुए करते हैं, वे इन रसायनों के असर से बड़े पैमाने पर मारे जाते हैं। इसी तरह अनेक अन्य उपयोगी जीवाणु और वनस्पतियां, जो अनेक जटिल प्रक्रियाओं   से मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने में बहुत सहायता करते हैं, वे भी नष्ट हो जाते हैं।

इनमें नाइट्रोजन की व्यवस्था करने वाले जीवाणु भी हैं। किसान के मित्र अनेक अन्य कीटों और जीवों जैसे मधुमक्खी, तितली और मेंढक आदि पर इन रसायनों का प्रतिकूल असर पड़ा है। रसायनों के अंधाधुंध उपयोग से जलस्रोतों और भूजल के प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हुई है; इसके अलावा मिट्टी के कटाव का खतरा भी बढ़ा है। रासायनिक खाद के उपयोग से मिट्टी की अम्लीयता भी बढ़ती है।
नई तकनीक आने के बाद पहले से चले आ रहे फसल-चक्रों और मिश्रित फसलों के चुनाव में भी बदलाव आया और विशेषकर नई खेती के क्षेत्रों में दलहन की फसल पहले की अपेक्षा कहीं कम बोई जाने लगी। उदाहरण के लिए, पंजाब की कृषिभूमि में दलहन का हिस्सा वर्ष 1966-67 में तेरह प्रतिशत से कम होकर वर्ष 1982-83 में मात्र तीन प्रतिशत रह गया। इस कारण भी भूमि की उर्वरता को क्षति पहुंची।
प्राय: रासायनिक खाद और कीटनाशक का बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक उद्देश्य के काम आता है। इसका एक बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जल-स्रोतों में पहुंच जाता है और भू-जल को प्रदूषित करता है। इसके कारण गंभीर स्वास्थ्य-समस्याएं इस पानी का उपयोग करने वाले स्थानीय निवासियों और पालतू पशुओं, दोनों में देखी गई हैं। नदी और अन्य जल-स्रोतों के प्रदूषण का बुरा असर मछलियों को भी भुगतना पड़ता है। एक खाद्य उत्पादन बढ़ाने के प्रयास में इस तरह दूसरे खाद्य का ह्रास होता है। तालाब जैसे जल-स्रोत में नाइट्रोजन अधिक पहुंचने से हानिकारक पौधों का तेज प्रसार तालाब की उपयोगिता को समाप्त भी कर सकता है।
भारत जैसे गर्म जलवायु और भारी मानसूनी वर्षा के क्षेत्र में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के बह जाने और पर्यावरण को प्रदूषित करने की संभावना अधिक रहती है। मिट््टी का उपजाऊपन बनाने वाले अनेक सूक्ष्म जीवों, केंचुओं आदि के लिए तो ये रसायन कहर ढाते हैं। रासायनिक खाद का अधिक उपयोग होने पर केंचुओं को तड़पते हुए देखा जा सकता है। साथ ही किसानों के मित्र अनेक अन्य कीट-पतंगों, पक्षियों और अन्य जीवों के लिए भी ये रसायन हानिकारक हैं।
अब समय आ गया कि ऐसे सवालों को हम खेती संबंधी नीतियों के संदर्भ में पर्याप्त महत्त्व दें और आज हम जो उत्पादकता भूमि से प्राप्त कर रहे हैं, उसे भविष्य में भी बनाए रखने की चिंता करें। कृषि के जिस अनुसंधान को आज महत्त्व दिया जा रहा है, उसमें निरंतर नए महंगे तौर-तरीकों और रसायनों को अपनाने के लिए कहा जाता है। छोटे किसान इस कारण निरंतर संकटग्रस्त होते जा रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आता है कि वे इन निरंतर महंगे तौर-तरीकों में कहां तक फंसते जाएं। देश के अनेक राज्यों से किसानों की आत्महत्या की खबरें बरसों से आती रही हैं। ये घटनाएं यही बताती हैं कि किसान ऐसे आर्थिक संकट में फंस गए हैं कि उससे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें नहीं सूझ रहा।
कृषि अनुसंधान के प्रति हमारा एक बिल्कुल अलग नजरिया भी हो सकता है। वह यह कि हम जानने-समझने का प्रयास करें कि किस तरह प्रकृति अपनी ओर से मिट्टी को उपजाऊपन बनाती है और पौधों को विभिन्न पोषण तत्त्व उपलब्ध कराती है। इसकी समझ बनाने के बाद हम अपनी खेती को प्रकृति की इस प्रक्रिया से जोड़ कर ही चलें और उसमें व्यवधान डालने वाला कोई कार्य न करें। वास्तविक वैज्ञानिक प्रक्रिया तो यही है जो किसानों की दृष्टि से सबसे सस्ती और टिकाऊ सिद्ध होगी। इस विधि में विभिन्न जीवाणु, केंचुए, वनस्पतियां, मधुमक्खियां, मेंढक आदि अपने आप मिट्टी के उपजाऊपन को बढ़ाने और कीड़ों से रक्षा करने का कार्य करेंगे।
रसायनों से की जा रही खेती में एक समस्या ठीक की जाती है तो कोई दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है। कभी एक पोषक तत्त्व की कमी थी तो कभी उसकी अधिकता हो जाती है। कभी विभिन्न पोषक तत्त्वों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। कभी किसी सूक्ष्म पोषक तत्त्व की कमी हो जाती है तो कभी दूसरे की। अलग-अलग सूक्ष्म तत्त्व के लिए, अलग-अलग कृत्रिम खाद के लिए किसान को कहा जाता है। सूक्ष्म पोषक तत्त्व तो कितने ही हैं। आखिर कितना आर्थिक बोझ सहने की किसान की क्षमता है? अत: उचित यही होगा कि प्रकृति द्वारा संतुलित पोषक तत्त्व उपलब्ध करवाने की जो व्यवस्था है उसी को अच्छी तरह समझा जाए और उसके अनुकूल कृषि कार्य किए जाएं। अगर कृषि अनुसंधान को इस रूप में विकसित किया जाए, तो हमारे देश का हर किसान इसमें भागीदार बन सकेगा।
कृषिभूमि को धीरे-धीरे रसायनों की लत से मुक्त कर हमें अपने देश में उपलब्ध जैविक खाद का भरपूर उपयोग करना होगा और किसानों को इस कार्य के लिए तकनीकी और आर्थिक सहायता देनी होगी। पर यह भी ध्यान में रहे कि केवल रसायनों को छोड़ने से मिट्टी की रक्षा नहीं हो पाएगी। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि गांवों में वृक्षों की हरियाली बढेÞ और जल संरक्षण के समुचित उपाय हों।

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