Sunday, May 13, 2012

कैसे कहें इन लोगों को पढ़ा-लिखा

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कैसे कहें इन लोगों को पढ़ा-लिखा

कैसे कहें इन लोगों को पढ़ा-लिखा

By  | May 13, 2012 at 8:30 pm | No comments | शब्द

सुभाष राय
बार-बार इस बात की चर्चा होती है कि हमें एक पढ़ा-लिखा समाज बनाना है। यह पढ़े-लिखे का क्या मायने है? क्या वो पढ़ा-लिखा माना जाना चाहिए जिसने बहुत सारे तथ्य और आंकड़े अपने दिमाग में ठूस रखे हैं और जब-तब उनके जरिये लोगों पर अपने ज्ञान का आतंक पैदा करता रहता है? या वह पढ़ा-लिखा माना जाना चाहिए, जिसने कई साल मेहनत करके, परीक्षाएं पास करने की तकनीक में निपुणता हासिल करकेकोई बड़े ओहदे वाली नौकरी हासिल कर ली है, आईएएस या आईपीएस बन गया है या किसी बड़ी सरकारी, गैर-सरकारी कंपनी में लाख रुपये का गुलाम बन गया है? ज्ञान की दुनिया का बहुत विस्तार हो गया है। कंप्यूटर और इंटरनेट के इस जमाने में हर विषय पर इतनी सामग्री उपलब्ध है कि कोई भी की-बोर्ड पर जमे-जमे ज्ञानी बन सकता है। सूचनाएं भी आतंकित करती है। कुछ लोग अल्लम-गल्लम सूचनाओं के हजारों पृष्ठï अपनी स्मृति में सहेज कर रखने की क्षमता रखते हैं। कुछ भी पूछो, उन्हें मालूम रहता है। तो क्या उसे पढ़ा-लिखा मान लेना चाहिए, जिसकेपास दुनिया भर की सूचनाओं का अकूत भंडार है?
कबीर होते तो कहते कि फिजूल की बातें न करो मियाँ। किताब पढऩे से कोई पंडित नहीं हो जाता। उनकी भाषा में बेद-कतेब हो या आज का अभिनव उपकरण अंतरनेत्र, वही इंटरनेट, केवल पोथी पढ़ लेने से काम चलने वाला नहीं है, समझदारी तो प्रेम में है। पर जगत से प्रेम जिस गहरी समझदारी से आता है, वह न तो किताबें बताती हैं, न सूचनाएं, न इंटरनेट। वह तो भीतर से आता है, संवेदनशीलता से आता है, परायों का दुख समझने से आता है। वह तो जीवन मूल्यों के प्रति नैष्ठिïक प्रतिबद्धता से आता है। पढ़ा-लिखा वह है जो अपने समय को समझ सकता हो, अपने समय की कठिनाइयों को समझ सकता है, जो उसमें पिस रहे मनुष्य की नियति को समझ सकता  हो और उसे बदलने केबारे में सोच सकता हो, कुछ कर सकता हो। पढ़ा-लिखा उसे कैसे मानें, जिसके पास ज्ञान हो, शक्ति भी हो, लेकिन जो अपने उसी ज्ञान और शक्ति केकारण मनुष्यता की सतह से या तो ऊपर उठ गया हो या नीचे गिर गया हो, जो खुद को उन मनुष्यों में गिनता ही न हो, जो अपने हिस्से के दुख से लड़ रहे हों, अपने हिस्से के सुख को जीते हुए भी आशंकित हों। ऐसे पढ़े-लिखे लोगों को असक्त, निरीह, गरीब और महिलाएं तो मनुष्य जैसे दिखायी ही नहीं पड़ते। ऐसे ही लोग इस समाज में अब भी सामंती सोच बनाये रखने केलिए जिम्मेदार हैं। वे किसी को भी उसका अधिकार नहीं देना चाहते, वे गरीबों को हेय नजर से देखते हैं, उनको गुलामी के लिए अभिशप्त मानते हैं, कीड़े-मकोड़ों से ऊपर नहीं समझते। इन लोगों के लिए स्त्रियाँ केवल वस्तु हैं, अधिकारविहीन और भोग्य। स्त्री कोई फैसला कैसे कर सकती है, वह अपने अधिकार की बात कैसे कर सकती है। वह ऐसा करती है तो यह शर्म की बात है।
सत्ता के शक्ति केंद्रों में, नौकरशाही में इस मानसिकता के लोगों की भरमार है। वे ऐसी शिकायत सुनना नहीं चाहते कि कोई लड़की किसी से प्रेम करने लगी है, घर से बाहर निकल गयी है, किसी के साथ चली गयी है, किसी से शादी रचा लिया है। अफसोस, अगर ऐसी लड़की उनके घर में होती तो वे या तो खुदकशी कर लेते या फिर उसे ही गोली मार देते। लड़कियों केबारे में इतनी घटिया राय, वे लोग रखते हैं, जिन्हें आम तौर पर लोग पढ़ा-लिखा मानते हैं। वे क्या करें, दरअसल पढ़ाई-लिखाई के नाम पर कुछ खास तरह की सूचनाएँ एकत्र करना और परीक्षाएं पास करने की कला जानना भर जरूरी रह गया है। इस तरह बड़ी-बड़ी परीक्षाएं पास करकेभी अमूमन तमाम लोग अनपढ़ रह जाते हैं। इन्हीं अनपढ़ों केहाथ में जनता की तकदीर होती हैं, इन्हीं पर उसकी समस्याओं के निवारण की जिम्मेदारी होती है। उनसे आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है।
हमारे समाज को जिन चीजों की इस समय सबसे बड़ी जरूरत है, वे हैं समाज की, जीवन की समझ और मनुष्य केप्रति संवेदनशीलता। आर्थिक वैश्वीकरण की चमकीली  गत्यात्मकता ने समाज पर गहरा असर डाला है। इस चमक पर अधिकांश लोगों की आँखें टिकी हुई हैं। एक चौंधिया देने वाला परिवर्तन है, जो हमें इधर-उधर देखने ही नहीं देता, जो भटका देता है, जो लोभ की भीषण आग जगा देता है, ऐसी आग, जिसमें संवेदन और भावात्मकता जल जाती है। आदमी रोबोट की तरह काम करने लगता है। सिर्फ अपने लिए। उसकेलिए सामाजिक विरुपताओं का कोई मतलब नहीं रह जाता, उसके लिए गरीबी मजाक की चीज बन जाती है, उसकेलिए समाज और देश का अर्थ खो जाता है। यह पागल दिशाहीनता भ्रष्टï करती है, नष्टï करती है। जो इस तरह नष्टï होने को तैयार नहीं है, वह किनारेपड़ जाता है। यही कुछ लोग होते हैं, जिन्हें अपने मनुष्य होने का स्पष्टï बोध होता है, जिन्हें समाज की, देश की और सबसे ऊपर लगातार टूटते-बिखरते सामाजिक ताने-बाने की चिंता रहती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसे लोग भी हैं, जो बड़े से बड़े लोभ को भी अपनी इसी व्यावहारिक सैद्धांतिकी के आगे ठुकरा देते हैं, जो जीवन को समझते भी हैं और उसे सहारा भी देते हैं।
धन, पद, यश के लोभ से खुद को बचाकर रखना बहुत आसान नहीं है। बचाने का अर्थ यह नहीं कि इन्हें ठुकरा देना, बल्कि इनकी प्राप्ति केबाद भी धरातल से न छूटना, आदमी बने रहना। जीवन में धन की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन अपनी जरूरत केसाथ दूसरों की जरूरत को भी महसूस करना, अपने धन में धूसरों का भी हिस्सा समझना थोड़ा कठिन तो है लेकिन यह एक बड़े बदलाव का कारक बन सकता है। अपना पद केवल अधिकार जताने के लिए नहीं बल्कि दूसरों की मुश्किलें आसान करने केलिए। किसी भी सत्ता का अंश अगर आप केपद में निहित है तो आप दूसरों केकाम आ सकते हैं, उनकी मदद कर सकते हैं। इससे लोगों में एक-दूसरे की मदद करने का साहस पैदा हो सकता है। अगर आप अपना धन, अपना अधिकार बाँटने की सदाशयता रखते हैं तो आप बदलाव की प्रक्रिया में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। परंतु यह समझ बहुत सावधानी से आती है, जन सरोकार केगहरे दर्शन की मांग करती है। यही समझ आदमी को संवेदनशील भी बनाती है। आज केवक्त की सबसे बड़ी जरूरत यही है। कोई नेता है, कोई अफसर है, कोई प्रबंधक है, कोई व्यवसायी, कोई चिकित्सक पर आधुनिक अर्थशास्त्र की चमक ने बहुत कम लोगों को मनुष्य रहने दिया है। मनुष्य बने रहने के  लिए बहुत सारे किताबी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। बस संवेदना और प्रेम से काम चल सकता है। कबीर की नजर में वही पंडित है, जिसने ढाई आखर जान लिया। ऐसे पंडितों की आज बहुत जरूरत है।
सुभाष राय

डॉ. सुभाष राय वरिष्ठ पत्रकार हैं, जन्म जनवरी १९५७ में मऊ नाथ भंजन के बड़ा गाँव में. प्रारंभ से ही लेखन में रूचि. छात्र जीवन से ही कविताओं, कहानियों तथा लेखों का प्रकाशन. शिक्षा-दीक्षा काशी, प्रयाग और आगरा में. भाषा और साहित्य में स्नातकोत्तर. संत कवि दादू दयाल के रचना संसार पर शोध के लिए आगरा विश्व विद्यालय से पीएच- डी की उपाधि. लोकगंगा, वर्तमान साहित्य, वसुधा, अभिनव कदम, शोध-दिशा, मधुमती, अभिनव प्रसंगवश, समन्वय जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन.फिलहाल डेली न्यूज एक्टिविस्ट के संपादक.

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