Sunday, May 13, 2012

फिर उस शहर में

फिर उस शहर में


Sunday, 13 May 2012 14:15

ओम थानवी

जनसत्ता 13 मई, 2012: एक अखबार के जीवन में पच्चीस बरस का वक्फा बड़ा नहीं होता। स्व. प्रभाष जोशी ने हिंदी में एक आधुनिक दैनिक की कल्पना की।

भाषा, शैली और तेवर की दकियानूसी परंपरा को तोड़ते हुए 17 नवंबर, 1983 को जनसत्ता पहले दिल्ली में निकला। फिर 1987 में चंडीगढ़ से। छह मई को चंडीगढ़ संस्करण की रजत जयंती मनाई गई। 
आयोजन नितांत अनौपचारिक था। खास बात यह थी कि उसकी पहल उन मित्रों ने की, जो जनसत्ता से पहले कभी जुड़े रहे थे। वहां के संस्करण ने उतार-चढ़ाव देखे हैं। बीच में संस्करण जब कुछ समय के लिए स्थगित हो गया तो कुछ सहयोगी दिल्ली आ गए, बाकी दूसरे अखबारों, टीवी चैनलों आदि में चले गए। कुछ पुराने सहयोगी दूसरे क्षेत्रों में भी गए। कोई एमएलए हुआ, कोई सूचना कमिश्नर तो कोई उच्च पुलिस अधिकारी।
सबका आग्रह था कि उस इतवार की दोपहर मैं वहां जरूर रहूं। दरअसल, तेईस वर्ष पहले जनसत्ता से मैं चंडीगढ़ में ही जुड़ा। और पूरे दस वर्ष इन्हीं साथियों के साथ उस संस्करण के स्थानीय संपादक के बतौर काम किया। सो जाना चाहता था, पर पेशोपस यह थी कि स्वास्थ्य में मामूली विचलन के चलते थोपे हुए अवकाश पर था। बहरहाल, दिमाग पर ज्यादा जोर डाले बगैर सुबह की शताब्दी पकड़ी। पुराने सहकर्मियों, उनके परिजनों से मिलकर खुशी हुई। वे लोग भी बिछड़े साथियों से मिलकर प्रफुल्लित थे, जैसा स्कूल-कॉलेज के पुराने सहपाठियों में मेल-मिलाप के मौके पर होता है। पुराने दिन हमेशा अच्छे लगते हैं। 
आयोजन के बाद शहर में कहीं नहीं गया। चंडीगढ़ के दिनों के मित्र और इंडियन एक्सप्रेस के स्थानीय संपादक विपिन पब्बी के साथ उनके घर जाकर चाय जरूर पी। फिर थोेड़ी देर को लेट गया। नींद नहीं आई, चंडीगढ़ में बिताए दशक की यादें आती-जाती रहीं, जिन्होंने शाम की गाड़ी में भी पीछा नहीं छोड़ा। अब तक सता रही हैं!
चंडीगढ़ संस्करण के संपादन के लिए 1989 में प्रभाष जी ने जब प्रस्ताव किया, तब मैं राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण का बगैर नाम वाला संपादक था। उससे पहले सात वर्ष जयपुर में उसी पत्र-समूह के साप्ताहिक इतवारी पत्रिका का संपादन (वह भी बेनामी) करता था, जिसके कारण दिल्ली के पत्रकार और लेखक थोड़ा जानते थे। 1985 में नवभारत टाइम्स का संस्करण जयपुर से निकालने का इरादा बना तो स्व. राजेंद्र माथुर ने मुझे समाचार संपादक का जिम्मा संभालने को कहा। पहले दिल्ली बुलाया और स्वास्थ्य विहार में अपने घर ले गए। कंपनी की सफेद एम्बेसेडर कार वे खुद चला रहे थे। आज कुछ के गले न उतरे, पर अच्छी तरह याद है उन्होंने कहा था—जयपुर के नवभारत टाइम्स के लिए आप हमारा दिल्ली संस्करण न देखें, मैं जयपुर से ऐसा अखबार निकालना चाहता हूं जो जनसत्ता के करीब हो!  
जयपुर में नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ पत्रकार आदित्येंद्र चतुर्वेदी के घर अखबार के आसन्न संस्करण के संपादक दीनानाथ मिश्र के साथ बैठकी हुई। नियुक्ति की औपचारिक लिखा-पढ़ी के लिए मैं फिर दिल्ली आया। माथुर साहब ऊपर की मंजिल पर टाइम्स समूह के तत्कालीन कार्यकारी निदेशक जगदीश चंद्र से मिलाने ले गए। संक्षिप्त मुलाकात के बाद हम नीचे लौट आए। उसके बाद अंतिम कार्रवाई के लिए उन्होंने मुझे इमारत के मुख्य द्वार के नजदीक बैठने वाले एक प्रबंधक के पास भेज दिया। प्रबंधक ने बहुत मीठे स्वर में वेतन पर नए सिरे से बात शुरू की, जो मुझे नागवार गुजरी। 
बात दुबारा उन्होंने इस तरह उठाई कि राजस्थान पत्रिका छोटा अखबार है (उन्होंने 'बनिए की दुकान' कहा था) और टाइम्स समूह विराट साम्राज्य है, इसलिए यहां आने के महत्त्व को समझूं। ऐसी बातचीत में अपने आपको असहज अनुभव करते हुए मैं अचानक उठ खड़ा हुआ। इतना कहा—''बेशक टाइम्स के सामने पत्रिका छोटा अखबार है, पर राजस्थान में उसी का साम्राज्य है और नवभारत टाइम्स का फिलहाल वहां नाम तक नहीं है, उसे वहां हमारे भरोसे ही शुरू करने की कवायद हो रही है। पर मैं अब यहां काम नहीं करूंगा।'' 
नमस्कार कर मैं चल दिया। भौचक प्रबंधक उठ खड़े हुए, समझाने-रुकने के कुछ शब्द वे बोल रहे थे। मैंने बाहर जाकर आॅटो पकड़ा और सीधे बीकानेर हाउस पहुंच कर जयपुर जाने (आने) वाली बस में बैठ गया। 
इसके उलट प्रभाष जी के तेवर देखे। गर्मियों के दिन थे, जब बीकानेर के निकट उदयरामसर के एक टीबे पर रेत में हमारी जीप धंस गई। वहां यह आम बात है। शुभू पटवा सबको बाहर उतार गाड़ी आगे ठेले जाने की जुगत कर रहे थे, तभी प्रभाष जी ने मुझे पूछा—आप चंडीगढ़ जाएंगे? मैंने न सोचने के लिए वक्त मांगा, न उनको दुबारा सोचने का मौका दिया और कहा—जरूर। दोनों जानते थे कि पंजाब आतंकवाद से त्रस्त है, जोखिम भरा इलाका है। पर इस पर हमारी कोई बात नहीं हुई। बल्कि मुझमें इसे लेकर रोमांच ही था कि जहां रोज कुछ घटित होता है, वहां पत्रकारिता का अनुभव अपना होगा। जीवन में जोखिम तो सड़क पार करने के साथ शुरू हो जाता है।
जून का महीना उतार पर था, जब चंडीगढ़ की राह पकड़ी। बीकानेर से सीधी गाड़ी थी, जिसमें अपनी यज्दी मोटरसाइकिल चढ़ा दी। खुद प्रभाष जी के निर्देश के मुताबिक पहले दिल्ली पहुंचा। दिल्ली से अपनी कार में साथ लेकर वे चंडीगढ़ चल पड़े। प्रभाष जी 'तूतक-तूतक' वाले मलकीत सिंह का गायन अपने वॉकमैन पर अकेले सुनते जाते   थे। अंबाला पार हुए तब प्रभाष जी ने कान पर से हैडफोन उतारा। बोले, अब पंजाब शुरू होता है। फिर अकाली दल के इतिहास से लेकर आतंकवाद के पनपने तक की कहानी समझाई। लालड़ू में गाड़ी धीमे करवा कर बताया कि यहीं बस की तमाम सवारियों को एक कतार में खड़ा कर भून दिया गया था। जीरकपुर के बाद जनसत्ता दफ्तर की ओर मुड़े तब उन्होंने बताया कि जनसत्ता के भीतर क्या हालात हैं, मुझसे वहां क्या अपेक्षा की जाती है। 
चंडीगढ़ पहुंचने के बाद पता चला कि एक्सप्रेस का परिवेश किस तरह अलग है। प्रबंध के लोग वहां संपादक के कक्ष में आते थे। अंग्रेजी और हिंदी अखबार पूरी तरह स्वायत्त थे, हालांकि न पढ़ने वाले जनसत्ता को एक्सप्रेस का अनुवाद समझने की भूल कर सकते थे। प्रभाष जी ने स्थानीय प्रबंधक को हिदायत दी कि मेरे लिए घर तलाश करें, ''ये सरकारी मकान में नहीं रहेंगे।'' प्रभाष जी खुद जब इंडियन एक्सप्रेस, चंडीगढ़ के स्थानीय संपादक थे, तब किराए के घर में रहते थे। पर जब मैं पहुंचा, अर्जुन सिंह पत्रकारों की नीयत बिगाड़ कर जा चुके थे। वरिष्ठ पत्रकार बड़े-बड़े सरकारी बंगलों में रहते थे। सरकारी कोटे से प्लाट लेकर उन पर अपने घर बना लेने के बाद भी सरकारी घर उनसे छूटते नहीं थे।
बात-बात में साफ हुआ कि संपादक के लिए गाड़ी और ड्राइवर का बंदोबस्त भी वहां है! सो बीकानेर से आई मोटरसाइकिल जल्दी ही वापस भेज दी गई। उसे रख सकता था। दोनों बच्चों को आगे-पीछे बिठाकर हम चारों ने उस पर थोड़ी सैर की भी। पर जल्दी ही एक पुलिस अधिकारी घर आए और इतनी हिदायतें दीं कि मोटरसाइकिल रेलगाड़ी पर लद गई। पुलिस की हिदायतों में दफ्तर की गाड़ी में भी मुख्य मार्ग पर चलना, रोज अलग-अलग रास्तों से आना-जाना, रोके न रुकना आदि तरह-तरह की युक्तियां थीं। कुल मिलाकर यह अहसास उन्होंने दिलाया कि जान संभालो, सैर-सपाटे के लिए यह शहर नहीं है। 
भारत से अलग एक पंजाब खालिस्तान नाम से बनाने के मुगालते वाला आंदोलन तब चरम पर था। पंजाब सचिवालय में सरकार तब बरसों केंद्र के नुमाइंदे यानी राज्यपाल चलाते थे। हालांकि आम दिनचर्या में चंडीगढ़ और शहरों-सा ही लगता था। हिंसा पंजाब में हर जगह थी, पर चंडीगढ़ के भीतर नहीं पसरी थी। शहर के किनारे शिवालिक की तलहटी में बनी सुखना झील पर सुबह-शाम लोग बेखौफ सैर को जाते। 
एक बार बंबई से रामदयाल मामा आए हुए थे। हम अड़तीस सेक्टर से दफ्तर के लिए निकले। सैंतीस सेक्टर के भीतर की सड़क पर आठ लाशें पड़ी थीं। आतंकवादी हमला हुआ था। चालक बनवारी ने गाड़ी दूसरी तरफ से निकाल ली। इसके बाद तो शहर ने हिंसा की कई घटनाएं देखीं। आकाशवाणी के निदेशक आरके 'तालिब' को घर के बगीचे में चाय पीते मारा। मुख्यमंत्री बेअंत सिंह को सचिवालय के ठीक बाहर। 
एक बार दफ्तर जाते वक्त आतंकवादियों के साथ पुलिस की असल मुठभेड़ देखी। पुलिस को आतंकवादियों के वहां छिपे होने की इत्तला मिली थी। देखते-देखते छिटपुट गोलीबारी शुरू हो गई। दीवार के साथ दोनों हाथ से एक पिस्तौल को ताने जिस शख्स को हमने पहले आतंकवादी समझा, वह सादी वर्दी में पुलिस अधिकारी था। दरअसल, हरकत में न हों तो वहां सड़क चलते पहचान पाना मुश्किल होता कि कौन पुलिस वाला है, कौन आतंकवादी। शहर भर में बड़ी तादाद में सादी वर्दी वाले पुलिसकर्मी तैनात थे।
चंडीगढ़ पहली बार में बड़ा नीरस शहर लगा। मशीनी गति की आमदरफ्त। चौड़ी मगर सूनी सड़कें। जरूरत से ज्यादा हरे सजावटी पेड़, जिन पर पक्षी बैठें तो किस उम्मीद से! सबसे ऊपर, ली कर्बूजिए के नाम और काम की बदौलत वास्तुकला से लगभग आक्रांत शहर। मंदिर, श्मशान और कचरा जमा करने वाले पक्के गड्ढे भी वास्तुकला की छाप लिए हुए! तब एक-आध चौराहे को छोड़ लाल-पीली बत्तियां नहीं थीं। चौराहों पर भीड़ हो तो यातायात की गति बस धीमी हो जाती थी, थमती नहीं थी। कार चलाना मैंने वहीं सीखा। 

चंडीगढ़ शहर की अवस्थिति विकट है। वह दो राज्यों—पंजाब और हरियाणा—की राजधानी है। तीसरी राजधानी केंद्रशासित प्रदेश (यूटी) के मुख्यालय के नाते। शहर का प्रशासन और सुरक्षा का जिम्मा यूटी-पुलिस का। एक रोज एक पुलिस अधिकारी आए और अपने साथ आए एक सादी वर्दी वाले पुलिसकर्मी को वहीं छोड़ गए—''ये हरदम आपके साथ रहेंगे।'' 
बड़े लोगों में सुरक्षाकर्मी रखने का खब्त तब भी था। कुछ जरूरत भी रहती होगी। पर एक-दो संपादकों ने अपनी रक्षा के लिए वहां केंद्रीय रिजर्व पुलिस (सीआरपीएफ) के अनेक सुरक्षाकर्मी लिए। वे अपनी जीप में संपादक की गाड़ी के पीछे चलते थे, जैसा मंत्रियों के साथ होता है। कुंवरपाल सिंह गिल जब सीआरपीएफ के महानिदेशक बने तो चंडीगढ़ और पंजाब के संपादकों पर उनका यह अनुग्रह हुआ। शहर में यों मुख्यत: पांच ही दैनिक थे, तीन ट्रिब्यून समूह के और दो हमारे एक्सप्रेस के। जो हो, मुझे सुरक्षा की गर्ज नहीं थी!
पहले ही दिन से उस सुरक्षाकर्मी की उपस्थिति से मुझे बेचैनी हुई। दफ्तर जाऊं या किसी के घर या पान खाने जाऊं तब भी साथ। फिर इस तरह के सुरक्षाकर्मी बदलते रहते हैं। इसका भी कोई कायदा काम करता होगा। मुझे एक बार इतना डरावना सुरक्षाकर्मी मिला कि पुलिस और अपराध की बीट देखने वाले सहकर्मी मुकेश भारद्वाज को कहा, कोई सुदर्शन व्यक्ति नहीं मिल सकता? किसी के घर जाएं तो वे   डरें तो नहीं! मुकेश ने शायद महानिरीक्षक से बात की, जिसका उलटा असर हुआ। एक और भी बांका मुच्छड़ आ पहुंचा! 
एक सुरक्षाकर्मी सबसे अलग था। एक रोज उसका तमंचा उलट-पलटकर देख रहा था। उसने कहा, साहब लोग तो हाथ लगाते हुए डरते हैं। मैंने तमंचे कीचरखी को खाली कर साफ किया। हैमर को खींचा, छोड़ा। गोलियां फिर चैंबर में फिट कीं और फिर उसे कुछ प्रभावित करते हुए कहा कि यह तो पंद्रह साल पुराना मॉडल है।  
चंडीगढ़ में अपने सुरक्षाकर्मी के तमंचे से इस चुहल का नतीजा कुछ यों हुआ कि 'वैपन'—वह तमंचे के लिए हमेशा यही शब्द बरतता था—दिन में मेरे पास छोड़कर घर या अपने काम निपटाने जाने लगा। एक रोज प्रमुख संवाददाता महादेव चौहान (अब दिल्ली में) मेरे कमरे में अचानक आ गए। फुरसत में भावी सुरक्षा के लिए मैं तमंचे के चैंबर को चमका रहा था। शायद उन्हें मैंने अचानक कुछ सफाई पेश की! पर मजा तब हुआ जब एक रोज प्रभाष जी आए और कहा, लिखियों (शहर में उनका मित्र परिवार) के यहां चलते हैं। अब, सुरक्षाकर्मी तो लौटा नहीं था। मैंने उसका 'वैपन' उठाया तो प्रभाष जी ने पूछा यह क्या माजरा है। मैंने किस्सा बताया। उन्होंने कहा, ऐसी सुरक्षा किस काम की। उस वक्त तो हथियार ठूंस कर प्रभाष जी के 'गनमैन' की तरह छत्तीस सेक्टर को चल दिया। पर कुछ रोज बाद बाकायदा पत्र  लिखकर उस सुरक्षाकर्मी से मैंने मुक्ति पा ली। 
अगली दफा प्रभाष जी आए तो बोले—मगर पंडित, कुछ सुरक्षा तो रखनी चाहिए। अगले रोज उन्होंने पंजाब के नए राज्यपाल जनरल ओमप्रकाश मल्होत्रा से मिलने का वक्त लिया, जो नियमानुसार चंडीगढ़ के प्रशासक भी थे। आजकल वे 'शिक्षा' और 'चिकित्सा' नामक दो स्वयंसेवी संस्थाओं के अध्यक्ष हैं। हम सचिवालय पहुंचे तो छूटते ही प्रभाष जी ने मांग रखी, हमारे संपादक को सुरक्षा नहीं, सुरक्षा के लिए रिवाल्वर चाहिए। ये जरूरत के वक्त उसका प्रयोग कर सकते हैं। क्या आपका प्रशासन मुहैया करवाएगा? 
जनरल मल्होत्रा ने कहा, हमें कोई दिक्कत नहीं, अगर एक औपचारिक पत्र इस आशय का दे दें। मुझे एक नई आफत की कल्पना कर झुंझलाहट-सी हुई। अखबार निकालेंगे या चांदमारी जाकर निशाना साधेंगे! और सचमुच नौबत आ पड़ी तो एके-47 के सामने टिकेगा कौन? वह पत्र मैंने कभी नहीं दिया। बाद में एक ही बार प्रभाष जी ने इस बारे में पूछा तो मैंने कहा, हालात अब बेहतर हो रहे हैं।
लेकिन हालात आगे और विकट हो गए। इसकी कुछ शुरुआत जनरल मल्होत्रा के आने से पहले ही हो चुकी थी। जनरल को शायद इसीलिए लाया गया कि उनसे पहले के राज्यपाल वीरेंद्र वर्मा ढीले थे। मुझे याद है, जलंधर में एक सलाहकार समिति की बैठक में चाय के कप में तीन चम्मच चीनी डालते हुए वर्मा ने कहा था, मैं गन्ना उगाने वाले इलाके से आता हूं जनाब। लेकिन पत्रकारों को वर्मा ने कड़वी झिड़की दी। कुछ अखबारों में आतंकवादियों की तरफ से मिलने वाली विज्ञप्तियां और आपत्तिजनक विज्ञापन प्रमुखता से छपने लगे थे। पंजाब सरकार ने अखबारों को एक धमकी भरी हिदायत जारी की। उसका कुछ असर पड़ा। पर ज्यादा नहीं। तब सरकार ने छपते अखबार रोके, छपे अखबारों का वितरण रोका। 
इस पर आतंकवादियों ने नया दांव खेला। डॉ. सोहन सिंह के नेतृत्व वाली पंथक कमेटी ने- जो पांच प्रमुख आतंकवादी गुटों का समूह थी- पूरे मीडिया के लिए एक ''आचार संहिता'' जारी की। आतंकवादियों को खबरों में आतंकवादी, उग्रवादी आदि की जगह ''मिलिटैंट, खालिस्तानी सेनानी या खालिस्तानी मुजाहिद्दीन'' लिखने का ''निर्देश'' दिया गया। इसी तरह, भिंडरांवाले के नाम से पहले संत लिखना जरूरी था। पंथिक कमेटी के साथ पाकिस्तान स्थित लिखने की मनाही थी। 
ऐसी ही कई हिदायतों के साथ पीटीआई-यूएनआई समाचार समितियों को अलग निर्देश था कि वे जब मिलिटैंट लिखें और कोई अखबार ये शब्द बदल दे तो उस अखबार के तार काट दिए जाएं। इस ''आचार संहिता'' का पालन न करने वालों को सीधे मौत के घाट उतार देने का एलान था। साथ में यह निर्देश भी कि ''मौत की सजा'' के खिलाफ कोई पत्रकार ''अपील'' करना चाहे तो पंथक कमेटी को करेगा, सरकार को नहीं।
इस विज्ञप्ति रूपी ''आचार संहिता'' पर सोहन सिंह, वाधवा सिंह बब्बर, हरमिंदर सिंह सुल्तानविंड, महल सिंह बब्बर और सतिंदर सिंह के हस्ताक्षर थे। उसे 1 दिसंबर, 1990 से ''लागू'' करना था और ''संपूर्ण विज्ञप्ति बगैर कोई शब्द काटे हुए'' हर अखबार को छापनी थी। 
विज्ञप्ति पढ़ते ही मैंने अपने वरिष्ठ सहयोगियों को बुलाया। जनसत्ता को तात्कालिक तौर पर कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। आतंकवादियों के लिए हम स्थानीय शब्दावली में प्रचलित ''खाड़कू'' शब्द प्रयोग करते थे। अखबार चलाए रखने के लिए भिंडरांवाले को शायद 'संत' भी लिख सकते थे। लेकिन पूरी विज्ञप्ति का प्रकाशन, जिसका अनुवाद अखबार का पूरा पन्ना भरने को काफी था?
विज्ञप्ति के पीछे आतंकवादियों की एक मंशा यह लगी कि लोकतंत्र के बाकी खंभे पंजाब में लगभग चरमरा गए थे, निशाने के लिए चौथा खंभा ही बचा था जो अब तक उनके काबू से बाहर था। पंजाब के स्कूल-कालेजों में सलवार-कुरते के अलावा कोई पोशाक नहीं पहनी जाती थी। केसरिया दपुट्टे, केसरिया पगड़ियां हर तरफ दिखाई देती थीं। नीली पगड़ी पहनने वाले कई अकाली भी केसरिया पगड़ी धारण कर चुके थे। दुकानों-दफ्तरों के सारे नाम-पट्ट, गाड़ियों के नंबर आदि   गुरुमुखी में ही हो सकते थे। पंजाब की हवा के झोंके बड़ी तेजी से चंडीगढ़ पर थाप देने लगे थे।
सहयोगियों से बातचीत में यह भी अनुभव किया गया कि अखबारों पर सरकार की आचार संहिता पहले से लागू है, आतंकवादियों की नियमावली उन्हें ऐसे मोड़ पर ले आई है जहां अखबार 'ना' कहें, वरना वे बंद होने के रास्ते पर हैं। यानी चौथा खंभा भी ढहने के कगार पर। इस आशंका के पीछे मेरा एक तर्क यह था कि यह विज्ञप्ति पहला 'टैस्ट फायर' है; अगली दफा अगर आतंकवादियों ने हुक्म दिया कि पंजाब राज्य को सब अखबार खालिस्तान लिखेंगे, तब हम क्या करेंगे?
इस विचार-विमर्श के बाद अगले ही रोज दिल्ली पहुंचा। प्रभाष जी ने फौरन ट्रिब्यून समूह के प्रधान संपादक वीएन नारायणन को फोन मिलाया। प्रभाष जी जानना चाहते थे कि संपादकों को अंतत: क्या अब भी साफ रुख अख्तियार नहीं करना चाहिए। प्रभाष जी को उधर से जो जवाब मिला, उसे सुन अक्सर मस्ती में रहने वाले प्रभाष जी गुमसुम हो गए। नारायणन साहब ने कहा था, हमने तो ''विज्ञप्ति'' आज ही छाप दी है, एक हफ्ता कौन जोखिम ले। बाद में पता चला कि हिंदी संस्करण में विज्ञप्ति कुछ कट कर छपी थी, जिसे अगले रोज हू-ब-हू दुबारा भी छाप दिया गया। आतंकवादियों को हिंदी अखबारों ने सर्वत्र 'मिलिटैंटों' लिखा।
प्रभाष जी ने मेरी ओर देखकर पूछा, फिर? मैंने कहा, जोखिम जरूर है। फिलहाल कोई संकट सामने नहीं है। पर यह ''विज्ञप्ति'' हम नहीं छापेंगे। एक संदेश जाना चाहिए कि बीच का रास्ता हम तलाश रहे हैं। शायद यह गीदड़-भभकी ही हो। न हो तो आर, नहीं तो पार!
''मैं तुम्हारे साथ हूं। अपन वही'च करेंगे न जो अपना जमीर बोला। गणेश! चांदनी चौक जाओ और हल्दीराम से लड्डू-समोसे लेकर आओ!'' गणेश उनके सेवक का नाम था।
और जनसत्ता चंडीगढ़ में अकेला अखबार रहा जिसने आतंकवादियों की ''आचार संहिता'' प्रकाशित नहीं की। यह इतिहास है, जो वहां अखबार की फाइलों में दर्ज है। इसका स्मरण कर पुराने साथियों ने गए हफ्ते वहां गर्व अनुभव किया। गल्त कित्ता?

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