Thursday, 03 May 2012 11:04 |
सुनील इसका जवाब करीब-करीब वही है जो भारत या गरीब दुनिया के अन्य देशों के अनुभव से मिलता है। 1994 मेंं रंगभेदी राज खत्म होने के बाद सत्ता हस्तांतरण तो हुआ, लेकिन आर्थिक ढांचे को बदलने का काम नहीं हुआ। यानी राजनीतिक आजादी तो मिली, लोकतंत्र कायम हुआ, मगर आर्थिक आजादी नहीं मिल पाई। राजनीतिक और कानूनी रंगभेद तो खत्म हुआ, लेकिन आर्थिक रंगभेद जारी रहा। हालांकि अफ्रीकी राष्ट्रीय कांंग्रेस का 1952 का 'आजादी का घोषणापत्र' काफी क्रांतिकारी था, जिसमें खदानों के राष्ट्रीयकरण, जमीन और संपत्ति के पुनर्वितरण आदि बातें थीं और मंडेला समेत कांग्रेस के नेता इसकी कसमें खाते थे, लेकिन ऐसा लगता है कि इन नेताओं ने 1994 आते-आते इसे तजने का मन बना लिया था। इसके संकेत उन्होंने ब्रिटेन-अमेरिका को भी दे दिए थे। बाद में तो धीरे-धीरे वे पूरी तरह उन्हीं के रंग में रंग गए। वे न केवल पूंजीवादी रास्ते पर चलने लगे, बल्कि नवउदारवादी नीतियों और वैश्वीकरण को भी पूरी तरह अंगीकार कर लिया। सत्ता में आने के तुरंत बाद उन्होंने गैट और विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने का फैसला लिया। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, सिटी बैंक, मेरील लिंच, गोल्डमेन सेक्स और हावर्ड-शिक्षित अर्थशास्त्री उनकी नीतियां तय करने लगे। दक्षिण अफ्रीकी मंत्री भी दावोस के विश्व आर्थिक मंच के जलसे में पहुंचने लगे। 1994 में 'पुनर्निमाण एवं विकास कार्यक्रम' शुरू किया गया था। लेकिन दो साल बाद ही इसे चुपचाप बंद कर दिया गया। इसकी जगह 'विकास, रोजगार एवं पुनर्वितरण कार्यक्रम' शुरू किया जिसका जोर वित्तीय कंजूसी, घाटे में कमी, करों में कमी आदि पर था। आयात-निर्यात शुल्क कम किए गए। पूंजी और विदेशी मुद्रा के लेन-देन पर नियंत्रण उत्तरोत्तर कम किए गए जिससे दक्षिण अफ्रीका की कई कंपनियां अपनी पूंजी विदेश ले जाने लगीं। सरकारी उद्यमों को या उनके शेयरों को निजी हाथों में बेचने का सिलसिला शुरू किया गया। विदेशी कंपनियों को बुलाने के लिए रियायतें दी गर्इं। लोगों के असंतोष का ध्यान बंटाने के लिए दक्षिण अफ्रीका ने 2010 के फुटबॉल विश्वकप का आयोजन किया और पांच-छह साल पहले जो पैसा अस्पताल, स्कूल, पेयजल या गरीबों के आवास के लिए खर्च होना चाहिए था, उसे अति-महंगे विशाल स्टेडियम बनाने में लगा दिया। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन जैसा ही यह मामला था। दक्षिण अफ्रीका में पिछले अठारह वर्षों में तीन राष्ट्रपति रहे हैं- नेल्सन मंडेला, थाबो मबेकी और जेकब जुमा। लेकिन तीनों के कार्यकाल में दक्षिण अफ्रीका की आर्थिक नीतियों की दिशा कमोबेश एक ही रही। इनमें महत्त्वपूर्ण भूमिका 1995 से 2008 तक वित्तमंत्री रहे ट्रेवोर मेनुएल की रही, जैसे भारत में मनमोहन सिंह या चिदंबरम की रही है। वर्ष 2008 में राष्ट्रपति पद से मबेकी की विदाई इन्हीं नीतियों से उपजे असंतोष का नतीजा थी। लेकिन तब तक अंतरराष्ट्रीय पूंजी, कंपनियों, शेयर बाजार, नवउदारवाद समर्थकों और अमेरिका-यूरोप की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी थी कि जुमा भी इस जाल से बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाए और उसी धारा में बहने लगे। 'अश्वेत आर्थिक सशक्तीकरण' का एक कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसका कुल मिला कर मतलब रहा है काले लोगों में पूंजीपति, ठेकेदार और अभिजात वर्ग पैदा करना। कंपनियों के निदेशक बोर्ड में कुछ काले लोगों को जगह मिल गई और कुछ ठेके और आॅर्डर काले लोगों को मिलने लगे। इस छोटे-से काले तबके ने अमेरिकी विलासितापूर्ण जीवन-शैली अपनाई, मर्सिडीज बैंज जैसी महंगी आयातित गाड़ियों में घूमने लगा और यह भी वैश्वीकरण-नवउदारवाद का समर्थक बन गया। एक तरह से अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस ने गोरे पूंजीवाद की जगह काले पूंजीवाद को कायम करने की कोशिश की। अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व की शायद एक मुश्किल यह भी थी कि सोवियत प्रयोग के धराशायी होने के बाद पूंजीवाद से अलग वैकल्पिक विकास की कोई कल्पना उसके सामने नहीं रही। वह मुक्त बाजार का अनुगामी बन गया। घोर विषमतापूर्ण नीतियों को अपनाते हुए वह भी फायदों के 'रिसाव' की बात करने लगा। देश के अंदर जमीन और संपत्ति का क्रांतिकारी पुनर्वितरण करके, यूरोपीय-अमेरिकी नकल के बजाय रोजगार-प्रधान देशज उत्पादन पद्धति को अपना कर, प्राकृतिक संसाधनों का राष्ट्रीयकरण-समाजीकरण करके उनका देश के अंदर के विकास में इस्तेमाल करके, अमीर पूंजीवादी देशों के साथ गैर-बराबर विनिमय को बंद या सीमित करके, बहुराष्ट्रीय पूंजी के साथ संबंध विच्छेद करके, समानता, स्वावलंबन और विकेंद्रीकरण पर आधारित विकास का प्रयोग करके दक्षिण अफ्रीका के नेता एक नया इतिहास रच सकते थे। पर उन्होंने यह मौका गंवा दिया। कुल मिला कर दक्षिण अफ्रीका की यह त्रासदीपूर्ण कहानी भारत या अन्य कई देशों की कहानी से मिलती-जुलती है। इससे कुछ सबक मिलते हैं। एक तो यही कि दुनिया की शोषित-पीड़ित जनता की मुक्ति के लिए महज राजनीतिक स्वतंत्रता काफी नहीं है, आर्थिक-सामाजिक समानता और आर्थिक ढांचे में बुनियादी बदलाव भी जरूरी हैं। लोकतंत्र की कायमी महत्त्वपूर्ण है, लेकिन एक घोर विषमतापूर्ण पूंजीवादी ढांचे में लोकतंत्र स्वत: समस्याओं को हल नहीं कर पाता है। पूंजीवाद लोकतंत्र पर हावी हो जाता है। इसीलिए लोकतंत्र और समाजवाद परस्पर पूरक और अभिन्न हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। |
Thursday, May 3, 2012
एक संपन्न देश की गरीबी
एक संपन्न देश की गरीबी
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