Thursday, May 10, 2012

बथानी टोला जनसंहारः न्याय का पाखंड लेखक : सुभाष गाताडे

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बथानी टोला जनसंहारः न्याय का पाखंड

Bathani Tola Statue

मूर्तिकार मनोज पंकज द्वारा बथानी नरसंहार के शदीहों को श्रद्धांजलि देती प्रतिमा

बथानी टोला जनसंहार के बारे में उच्च अदालत का फैसला आ गया है। पटना हाईकोर्ट ने सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया है। न्यायमूर्ति नवनीति प्रसाद सिंह और न्यायमूर्ति ए के सिंह की द्विसदस्यीय बेंच ने पिछले दिनों यह फैसला सुनाया। पीडि़तों के वकील आनन्द वात्स्यायन भी फैसले से हतप्रभ हैं। उनके मुताबिक "जनसंहारों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश बिल्कुल स्पष्ट हैं। गवाहों के लिए सभी नामों को याद रखना कोई जरूरी नहीं है। और इस मामले में तो छह प्रमुख गवाहों ने निचली अदालत द्वारा सजा पाए सभी के खिलाफ मजबूती से गवाही दी है।"

अदालती आदेश के खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश को देखते हुए बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही है, मगर वहां भी दलितों-मेहनतकशों को न्याय मिलेगा इसकी उम्मीद कम ही है। लोग यह पूछ रहे हैं कि अमौसी हत्याकाण्ड में संलिप्त बताए जानेवाले दस महादलितों को सजा-ए-मौत सुनाने में उच्च अदालत ने आनाकानी नहीं की मगर जब दलितों के कतलेआम का मसला सामने आया तो उसने तकनीकी कारणों की आड़ ली। याद रहे कि लगभग दो साल पहले आरा की अदालत ने 21 दलितों के बथानी टोला कत्लेआम की घटना के 23 दोषियों को अपराध में लिप्त पाया था और सजा सुनायी थी।

विदित हो कि 11 जुलाई 1996 को दिन में रणबीर सेना – जो ऊंची जाति के जमींदारों की निजी सेना थी – के कातिलों ने भोजपुर जिले के सहार ब्लॉक की इस छोटी-सी बस्ती पर हमला कर 21 दलितों का गला रेत दिया था। दिनदहाड़े प्रायोजित इस कत्लेआम में मारे जानेवालों में अधिकतर महिलाएं, किशोरियां और दस माह से छोटे बच्चे शामिल थे। रणबीर सेना के अजय सिंह पर यह आरोप था कि उसने दस साल की फूल कुमारी को मार डाला, मनोज सिंह पर यह आरोप था कि उसने नईमुद्दीन की तीन माह की बेटी की हत्या की और नागेन्द्र सिंह पर यह आरोप था कि उसने संझारू और रामरतिया नामक दो महिलाओं को मारा था।

इलाके के दलितों का संगठित होना तथा उनका इंकलाबी कम्युनिस्ट संगठनों के बैनर तले एकत्रित होना इन भूस्वामियों को नागवार गुजरा था और उन्हें सबक सिखाने के लिए इस जनसंहार का आयोजन किया गया था। देखा जा सकता है कि दलितों एवं अन्य शोषितों के जनसंहार का यह सिलसिला लक्ष्मणपुर बाथे तक चलता रहा था (1 दिसम्बर 1997) जिसमें रणबीर सेना गिरोह के लोगों ने दिनदहाड़े 57 लोगों को भून डाला था।

वैसे इस कांड में फैसला दलितों-मेहनतकशों के खिलाफ जाएगा इसके आसार पहले से दिख रहे थे।

2005 में जब नीतीश की अगुआई में जनता दल यू एवं भाजपा की मिलीजुली सरकार का गठन हुआ था तो उसने सबसे पहला काम यही किया था कि बाथे जनसंहार की जांच के लिए बने आमीर दास आयोग को आखिरी समय भंग किया था और एक तरह से स्पष्ट कर दिया था कि उसकी सहानुभूति किसके साथ है। यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी कि राष्ट्रीय जनता दल की सरकार द्वारा गठित उपरोक्त आयोग का काम लगभग पूरा होने के करीब था और उसने रणबीर सेना के राजनीतिक संपर्कों की पड़ताल की थी, ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि अगर आमीर दास आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक होती तो सत्ताधारी खेमे के कई चेहरे बेनकाब हो सकते थे।

निचली अदालत की कार्रवाई से -जिसमें आततायियों को दंडित किया गया था – इन जनसंहारों के 'मास्टरमाइंड' कहे जा सकनेवाले रणबीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह को पूरी तरह अलग रखा गया था। गौरतलब है कि बाथे जनसंहार के फैसले से भी इसके इस प्रमुख अभियुक्त एवं मास्टरमाइंड को कुछ दिखावटी कारणों से अलग रखा गया था। पुलिस ने अदालत को बताया था कि वह "फरार" है जबकि वर्ष 2002 से यह शख्स आरा जेल में पुलिस की विशेष निगरानी में सलाखों के पीछे पड़ा था। यह अकारण नहीं था कि बथानी टोला जनसंहार मुकदमे के पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने रिपोर्टर को बताया कि ब्रह्मेश्वर सिंह का आज भी नानएफआईआर अभियुक्त अर्थात ऐसा अभियुक्त जिस पर अभी प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर नहीं हुई हो, इसी बात का परिचायक है कि "पुलिस एवं सरकार की इस बात में दिलचस्पी नहीं है कि न्याय हो (द हिंदू, 7 मई 2010) जब पुलिस अधीक्षक से इस विचित्र स्थिति के बारे में पूछा गया कि आरा जेल में बंद होने के बावजूद उसे किस वजह से अभियुक्त नही बनाया गया, तब उन्होंने एक कमजोर सी सफाई दी कि "उसके खिलाफ चल रही कुछ अदालती कार्रवाईयां अभी पूरी की जानी हैं।" अभी पिछले ही साल ब्रह्मेश्वर सिंह की जेल से बेदाग रिहाई हुई है, और जिसकी अगवानी के लिए सैकड़ों कारों, बसों का काफिला जेल के बाहर जुटा था। आज वह एक 'सम्मानित नागरिक' की जिंदगी बिता रहा है, जिसे उन तमाम हत्याकांडों पर कोई पश्चाताप तक नहीं है, जिसे उसके 'सैनिकों' ने अंजाम दिया था।

यह कहना गलत नहीं होगा कि आम लोगों के मारे जाने को लेकर नीतीश सरकार का रवैया इसी तरह उपेक्षापूर्ण है। अगर हम 3 जून 2011 को अंजाम दिए गए फारबिसगंज गोलीकांड को देखें तो वही स्थिति दिखती है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के सामने उपस्थित होकर बिहार सरकार की तरफ से यही कहा गया कि फारबिसगंज, अररिया में हुआ गोलीकांड एक 'मामूली घटना थी लिहाजा सीबीआई जांच की कोई जरूरत नहीं है।' मालूम हो कि एसोसिएशन फार प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट्स की तरफ से यह मांग की गयी थी कि मुस्तफा अंसारी उम्र 24 वर्ष, मुख्तार अंसारी उम्र 22, शाजमिना खातून उम्र 35 और नौशाद अंसारी उम्र सिर्फ 10 महीने, इन चारों की मौत पुलिस गोलीकांड में हुई, उसकी सीबीआई जांच करायी जाए।

मीडिया की तरफ से नीतीश सरकार के बारे में यह कहा जाता है कि वहां 'न्याय के साथ विकास' हो रहा है। बथानी टोला जनसंहार का फैसला हो या फारबिसगंज गोलीकांड का मामला हो, यही कहना अधिक मुनासिब जान पड़ता है कि बिहार की वर्तमान सरकार की पहचान 'अन्याय के साथ विकास' वाली बन रही है।

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