Saturday, 05 May 2012 14:15 |
पुण्य प्रसून वाजपेयी इतना ही नहीं, कांग्रेस पैंतालीस बरस पहले सरकारी नीति के तहत कहती दिखी कि किसानों-मजदूरों के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करना जरूरी है। पशुधन के लिए नीति बनानी है और खेत की उपज किसान ही बाजार तक पहुंचाए इसके लिए सड़क समेत हर तरह के आधारभूत ढांचे को विकसित करना जरूरी है। लेकिन आर्थिक सुधार की हवा में कैसे ये न्यूनतम जरूरतें हवा-हवाई हो गर्इं यह किसी से छिपा नहीं है। अब तो आलम तो यह है कि मिड-डे मील हो या पीडीएस, आम आदमी के प्रति न्यूनतम जिम्मेदारी तक से सरकार मुंह मोड़ रही है। इंदिरा गांधी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी पर हर किसी के अधिकार का सवाल भी उठाया। बच्चों को पोषक आहार मिले, इस पर कोई समझौता करने से इनकार कर दिया। जाहिर है, नीतियों को लेकर जब इतना अंतर कांग्रेस के भीतर आ चुका है तो यह सवाल उठाना जायज होगा कि आखिर कांग्रेस संगठन को वे कौन-से नेता चाहिए कि उसकी सेहत सुधर जाए। नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में कांग्रेस संगठन को लेकर सारी मशक्कत सरकार बनाने या चुनाव में जीतने को लेकर ही रही। पहली बार सत्ता या सरकार के होते हुए कांग्रेस को संगठन की सुध आ पड़ी है तो इसका एक मतलब साफ है कि सरकार की लकीर या तो कांग्रेस की धारा को छोड़ चुकी है या फिर कांग्रेस के लिए प्राथमिकता 2014 में सरकार बचाना है। यह सवाल खासतौर से उन आर्थिक नीतियों के तहत है जिनमें आर्थिक सुधार के 'पोस्टर बॉय' क्षेत्र दूरसंचार में सरकार तय नहीं कर पाती कि कॉरपोरेट के कंधे पर सवार हुआ जाए या देश के राजस्व की कमाई की जाए। एक तरफ 122 लाइसेंस रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ सरकार कॉरपोरेट के साथ खड़ी होती है और दूसरी तरफ ट्राई पुरानी दरों की तुलना में दस गुना ज्यादा दरों पर नीलामी का एलान करता है। यही हाल खनन, कोयला, ऊर्जा, इस्पात और ग्रामीण विकास तक का है। लेकिन याद कीजिए, इन्हीं कॉरपोरेट पर इंदिरा गांधी ने कैसे लगाम लगाई थी और यह माना था कि जब जनता ने कांग्रेस को चुन कर सत्ता दी है तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जनता का हित देखे। उसके लिए उन्होंने कॉरपोरेट लॉबी के अनुपयोगी खर्च और उपभोग, दोनों पर रोक लगाई थी। राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को सामाजिक जरूरतों के लिहाज से काम करने का निर्देश दिया था। पिछड़े क्षेत्रों में विकास के लिए राष्ट्रीय शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों से लेकर ऐसा आधारभूत ढांचा खड़ा करना था जो अपने आप में स्थानीय अर्थव्यवस्था विकसित कर सके। इतना ही नहीं, अब तो सरकारी नवरत्नों को भी बेचा जा रहा है। जबकि इंदिरा गांधी सार्वजनिक क्षेत्र को ज्यादा अधिकार देने के पक्ष में थीं, जिससे वह निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा में टिक सके। और तो और, जिन क्षेत्रों में सहकारी संस्थाएं काम कर रही हैं उन क्षेत्रों में कॉरपोरेट न घुसे इसकी भी व्यवस्था की थी। विदेशी पूंजी को देसी तकनीकी क्षेत्र में घुसने की इजाजत नहीं थी, जिससे खेल का मैदान सभी के लिए बराबर और सर्वानुकूल रहे। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी के जरिए युवा वोट बैंक की तलाश तो कांग्रेस कर रही है लेकिन सरकार के पास देश के प्रतिभावान युवाओं के लिए कोई योजना नहीं है। इंदिरा गांधी ने 1967 में कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में युवाओं के लिए रोजगार के रास्ते खोलने के साथ-साथ उन्हें राष्ट्रीय विकास से जोड़ने के लिए स्थायी मदद की बात भी कही और सरकार में आने के बाद अपनी नीतियों के तहत देसी प्रतिभा का उपयोग भी किया। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में प्रतिभा का मतलब आवारा पूंजी की पीठ पर सवार होकर बाजार से ज्यादा से ज्यादा माल खरीदना है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर कांग्रेस पटरी पर लौटेगी कैसे, जब सरकार भी वही है और सरकार की नीतियों को लेकर सवाल भी वही करने लगी है। |
Saturday, May 5, 2012
कांग्रेस मुश्किल में क्यों है
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/18634-2012-05-05-08-46-06
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