Monday, 07 May 2012 10:58 |
भीम सिंह भारत के पास दो महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंच हैं- एक है गुटनिरपेक्ष देशों का, और दूसरा है ब्रिक्स, जिसमें भारत के अलावा ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। इन दोनों मंचों के नेताओं से भारत को विचार-विमर्श की पहल करनी चाहिए। अगर भारत अपनी यह जिम्मेदारी निभाने में कामयाब नहीं हुआ तो विश्व-शांति खतरे में पड़ सकती है और संयुक्त राष्ट्र की वही हालत हो सकती है जो लीग आॅफ नेशंस की हुई थी। इसीलिए प्रधानमंत्री को मैं पहले ही सुझाव दे चुका हूं कि विदेश मंत्रालय में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है, क्योंकि सीरिया में भारतीय राजदूत द्वारा वहां के हालात की रिपोर्ट भेजे जाने के बावजूद विदेश कार्यालय से कोई कदम नहीं उठाया गया। सीरिया के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध अत्यंत दुखद और अस्वीकार्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की अवहेलना है। ये प्रतिबंध मानवीय गरिमा के विरुद्ध हैं और बच्चों, वृद्धों और औरतों को खाद्य सामग्री और दवाओं से वंचित करते हैं, जैसा कि पहले इराक में हो चुका है, जिसके कारण लाखों बच्चों की मौत हुई थी। किसी देश को दूसरे संप्रभु देश के बच्चों की दवाएं, दूध और खाद्य सामग्री आदि पर प्रतिबंध लगाने का क्या अधिकार है? इन मुद््दों पर भारत के प्रधानमंत्री को कोई साहसिक निर्णय लेना होगा ताकि अरब देशों में भारत के प्रति वही सद्भावना जागृत हो सके, जो इंदिरा गांधी के जमाने तक थी। जहां तक लोकतंत्र का प्रश्न है, सीरिया में राष्ट्रपति पद के चुनाव हो चुके हैं और दो सौ पचास सदस्यों वाली संसद के चुनाव इस महीने होने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्र को इस मुश्किल राजनीतिक प्रक्रिया को सफल बनाने में सहयोग करना चाहिए, बजाय इसके सीरिया के राजनीतिक वातावरण को ही प्रदूषित किया जा रहा है। महात्मा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक, अरब दुनिया के बारे में भारत की अत्यंत प्रभावशाली भूमिका रही है, चाहे वह फिलस्तीन के लोगों के राज्य-निर्माण का प्रश्न हो या इराक की एकता का। मैंने सद्दाम हुसैन और यासिर अराफात के शब्दों में भारत की प्रशंसा सुनी है, जो इंदिरा गांधी को 'बहन इंदिरा गांधी' के नाम से पुकारने में बड़ा फख्र समझते थे। भारत ने भी अरब देशों को कभी निराश नहीं किया। भारत उन देशों में था जिसने 1947 में फिलस्तीन के विभाजन का विरोध किया था और फिलस्तीन के समर्थन में संयुक्त राष्ट्र के अंदर और बाहर हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर फिलस्तीनियों के राज्य-निर्माण के मसले पर समर्थन दिया था। ऐसा लगता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा यहूदी लॉबी के प्रभाव में उसी तरह आ चुके हैं, जिस तरह बुश सीनियर और बुश जूनियर आ गए थे। मध्य-पूर्व के प्रति संयुक्त राष्ट्र की दोहरी नीति समस्त विश्व के सामने खुल कर आ गई है। इजराइल के खिलाफ प्रस्तावों को चालीस वर्षों में भी लागू कराने की कोशिश नहीं की गई, पर इराक, लीबिया और अब सीरिया के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को तुरंत अमली जामा पहनाने में यूरोपीय मुल्कों को यानी नाटो को इस्तेमाल किया गया। सूडान के दो टुकडेÞ कर दिए गए और इजराइल के खिलाफ एक छोटा-सा प्रस्ताव भी लागू नहीं कराया जा सका। सीरिया की गोलन पहाड़ियां, विश्वविख्यात यरुशलम, आधी गाजा पट्टी और अन्य अनेक अरब क्षेत्र 1967 से इजराइल के गैरकानूनी कब्जे में चले आ रहे हैं। फिलस्तीन के अंदर यहूदी नई बस्तियों का निर्माण कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन हो रहा है। फिलस्तीन की गाजा पट्टी को तो इजराइल ने अनेक वर्षों से चारों तरफ से घेर रखा है। स्कूल बंद, तमाम सरकारी-निजी संस्थाएं बंद, यानी दस साल से फिलस्तीनी नागरिक भूखों मरने पर मजबूर कर दिए गए हैं। संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षक कोफी अन्नान को गाजा और यरुशलम जाना चाहिए था, न कि सीरिया में, ताकि वे पता लगाएं कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों की अवहेलना इजराइल ने कितनी ढिठाई से की हुई है। |
Monday, May 7, 2012
सीरिया संकट के गुनहगार
सीरिया संकट के गुनहगार
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