Monday, May 7, 2012

सीरिया संकट के गुनहगार

सीरिया संकट के गुनहगार

Monday, 07 May 2012 10:58

भीम सिंह 
जनसत्ता 7 मई, 2012: इराक, मिस्र, ट्यूनीशिया और उसके बाद लीबिया, सूडान में राजनीतिक उथल-पुथल के बाद ऐसा लग रहा है जैसे इस्लामीदुनिया का खास मुल्क अलशाम (सीरिया) भी अमेरिका और नाटो के घेरे में आ चुका है। 1968 में मैंने मोटरसाइकिल पर सीरिया में प्रवेश किया था, जब मैं विश्व-यात्रा कर रहा था। फिर 1975 में वहां गया था। उस समय फिलस्तीनी नेता यासिर अराफात सीरिया में रह रहे थे। फिर अरब देशों में उथलपुथल और इराक युद्ध के दौरान लेबनान के गृहयुद्ध के संबंध में भारतीय दूरदर्शन के लिए मुझे वृत्त-फिल्में बनाने का भी मौका मिला। मेरे कितने ही लेख भारत-अरब संबंधों पर प्रकाशित हुए हैं, पर अभी स्वतंत्र पर्यवेक्षक के रूप में जाने का अनुभव कुछ और ही था।
सीरिया की राजधानी दमिश्क पहुंचते ही सारे रहस्यों पर से परदा उठ गया, जब वहां निजी और सरकारी कार्यालयों में कामकाज और कारोबार यानी कि हर काम सामान्य रूप से चल रहा था। लेकिन विदेशी एजेंसियों के प्रसारण सुन कर ऐसा लगता था जैसे कि पूरा सीरिया आग के दहाने पर खड़ा है। सीरिया में सात दिनों के दौरान मैं दर्जन भर मंत्रियों, कई उच्चाधिकारियों, मीडियाकर्मियों और विदेशी संवाददाताओं से भी मिला। अलेप्पो, जो दमिश्क से तीन सौ किलोमीटर के फासले पर है, होम्स भी उसी शृंखला में आता है, जो तुर्की की सीमा से चालीस-पचास किलोमीटर पर है।
अलेप्पो के गवर्नर के राजनिवास पर पहुंचा ही था कि थोड़ी दूर पर एक धमाका हो गया। सैनिकों से भरी एक बस को उग्रवादियों ने उड़ा दिया था। हम लोग अस्पताल में घायलों की मिजाजपुर्सी के लिए गए। हमलावरों की कोई पहचान नहीं हो सकी। संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षक उस समय एक पांचसितारा होटल में आराम फरमा रहे थे। जब उनसे पूछा गया कि सीरिया का यह युद्धविराम किसके साथ है या किसके खिलाफ है, तो वे यह भी नहीं बता सके कि विरोधी पक्ष कौन है? और यही कहानी है उन ठिकानों की, जहां पर 'भूत' रातोंरात गोलाबारी करके गायब हो जाते हैं।
जिस दिन यानी छब्बीस अप्रैल को हम लोग सीरिया से लौट रहे थे, लंदन की स्वतंत्र प्रसारण टीम दमिश्क पहुंची। उन्हें सीरिया की पुलिस ने पूरी सुरक्षा प्रदान की और सुविधाएं भी दीं कि वे जहां चाहे जा सकते हैं। जब यह टीम दमिश्क के एक मोहल्ले बेगम जेनवा पहुंची, जो उग्रवाद के लिए बहुत कुख्यात है, मोहल्ले के अंदर इतना बड़ा विस्फोट दिनदहाडेÞ हुआ कि दूर-दूर खडेÞ लोगों को हवा में लाशों के टुकडेÞ-टुकडेÞ दिखाई दिए।
यहां पर संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों की क्या भूमिका हो सकती है, इसका उत्तर तो वही देश दे सकते हैं, जिन्होंने प्रस्ताव संख्या-2042 पारित करके सीरिया में पर्यवेक्षक भेजने का फैसला किया था। सीरिया के लोगों को उग्रवाद के इन धमाकों से इतना आश्चर्य नहीं है, जितना कि सीरिया के विरुद्ध प्रस्ताव को भारत के समर्थन देने पर है। यह प्रश्न मुझसे बार-बार पूछा गया, चाहे मैं सीरिया के सरकारी टेलीविजन के सामने खड़ा था या किसी निजी चैनल से मुखातिब था। वहां के बुद्धिजीवियों ने बार-बार याद दिलाया कि क्या भारत अलशाम (सीरिया) की मित्रता को भूल गया है?
सीरिया के पूर्व राष्ट्रपति हाफिज अल-असद पहले अरब नेता थे, जिन्होंने अपने देश के अल-तहरीर मैदान पर एक राष्ट्रीय राजमार्ग का नाम जवाहरलाल नेहरू के नाम पर रखा था। जिस देश में महात्मा गांधी को स्कूलों में पढ़ाया जाता हो और जिस देश ने हर स्थिति में भारत के साथ मित्रता निभाई हो, उस देश के खिलाफ हिंदुस्तान ने वोट क्यों दिया?
दमिश्क विश्वविद्यालय के बाहर एक बहुत बुजुर्ग व्यक्ति ने मुझे अरबी भाषा में बताया कि ''मैं भारत में, चकराता में, सेना का प्रशिक्षण लेने गया था और हमें हिंदुस्तान से बेहद प्यार है। इंदिरा गांधी ने हमारा बहुत साथ दिया था। क्या आप इंदिरा गांधी से सीरिया को बचाने की गुजारिश कर सकते हैं?'' उस शख्स ने इतनी गंभीरता से यह बात कही थी कि मैं उसे यह बताने की हिम्मत नहीं जुटा सका कि इंदिरा गांधी अब इस दुनिया में नहीं हैं।
ऐसा लगता है कि ब्रिटिश-अमेरिकी धड़ा सीरिया के नेतृत्व और सभ्यता को मिटाने पर आमादा है, जैसा कि उन्होंने इराक, लीबिया और अन्य अरब देशों में किया। सीरियाई दृष्टिकोण से इसका मुख्य कारण यही है कि यहूदी लॉबी ओबामा प्रशासन पर हावी है और उसके द्वारा वह 'भेड़िए और मेमने' की कहानी को दोहरा रही है।
सीरिया के लोगों में यह आम धारणा है कि लोकतंत्र के नाम पर सीरिया में मौजूदा संकट इसलिए खड़ा किया गया है ताकि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव संख्या 242, 338, 425 और दर्जन भर अन्य प्रस्तावों की विफलता से विश्व का ध्यान बंटाया जा सके, क्योंकि इजराइल ने अमेरिका की शह पर इन प्रस्तावों को कार्यान्वित करने से इनकार कर दिया। इन प्रस्तावों में इजराइल द्वारा कब्जा किए गए तमाम अरब क्षेत्रों, सीरिया की गोलन पहाड़ियों, यरुशलम आदि को खाली करने का निर्देश दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों को गाजा भेज कर यरुशलम में बसाई जा रही यहूदी बस्तियों को रोका जा सकता था। संकट लोकतंत्र या नागरिक अधिकारों के लिए नहीं, बल्कि अरब तेल, पानी और रणनीतिक क्षेत्रों पर एंग्लो-अमेरिकी हितों को साधने के लिए पैदा किया गया है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सीरिया के विरुद्ध भारत के वोट देने पर अरब दुनिया में गहरा आक्रोश है। सीरिया ने संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के अनुसार वहां कोई तीन सौ पर्यवेक्षकों को आने देने की रजामंदी   जताई है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह तथाकथित युद्धविराम किन पक्षों में या किन पक्षों के विरुद्ध किया गया है। निर्दोष लोगों का मारा जाना, आधी रात को अलेप्पो और होम्स में इमारतों को उड़ा देना और ऐसे ही आतंकवादी हमलों को सही नहीं कहा जा सकता। फिर भी यह सीरिया सरकार की जिम्मेदारी है कि वह सीरिया के प्रत्येक नागरिक के जीवन और स्वाधीनता की रक्षा करे।
भारत के पास दो महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंच हैं- एक है गुटनिरपेक्ष देशों का, और दूसरा है ब्रिक्स, जिसमें भारत के अलावा ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। इन दोनों मंचों के नेताओं से भारत को विचार-विमर्श की पहल करनी चाहिए। अगर भारत अपनी यह जिम्मेदारी निभाने में कामयाब नहीं हुआ तो विश्व-शांति खतरे में पड़ सकती है और संयुक्त राष्ट्र की वही हालत हो सकती है जो लीग आॅफ नेशंस की हुई थी। इसीलिए प्रधानमंत्री को मैं पहले ही सुझाव दे चुका हूं कि विदेश मंत्रालय में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है, क्योंकि सीरिया में भारतीय राजदूत द्वारा वहां के हालात की रिपोर्ट भेजे 
जाने के बावजूद विदेश कार्यालय से कोई कदम नहीं उठाया गया।
सीरिया के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध अत्यंत दुखद और अस्वीकार्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की अवहेलना है। ये प्रतिबंध मानवीय गरिमा के विरुद्ध हैं और बच्चों, वृद्धों और औरतों को खाद्य सामग्री और दवाओं से वंचित करते हैं, जैसा कि पहले इराक में हो चुका है, जिसके कारण लाखों बच्चों की मौत हुई थी। किसी देश को दूसरे संप्रभु देश के बच्चों की दवाएं, दूध और खाद्य सामग्री आदि पर प्रतिबंध लगाने का क्या अधिकार है? इन मुद््दों पर भारत के प्रधानमंत्री को कोई साहसिक निर्णय लेना होगा ताकि अरब देशों में भारत के प्रति वही सद्भावना जागृत हो सके, जो इंदिरा गांधी के जमाने तक थी।
जहां तक लोकतंत्र का प्रश्न है, सीरिया में राष्ट्रपति पद के चुनाव हो चुके हैं और दो सौ पचास सदस्यों वाली संसद के चुनाव इस महीने होने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्र को इस मुश्किल राजनीतिक प्रक्रिया को सफल बनाने में सहयोग करना चाहिए, बजाय इसके सीरिया के राजनीतिक वातावरण को ही प्रदूषित किया जा रहा है।
महात्मा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक, अरब दुनिया के बारे में भारत की अत्यंत प्रभावशाली भूमिका रही है, चाहे वह फिलस्तीन के लोगों के राज्य-निर्माण का प्रश्न हो या इराक की एकता का। मैंने सद्दाम हुसैन और यासिर अराफात के शब्दों में भारत की प्रशंसा सुनी है, जो इंदिरा गांधी को 'बहन इंदिरा गांधी' के नाम से पुकारने में बड़ा फख्र समझते थे।
भारत ने भी अरब देशों को कभी निराश नहीं किया। भारत उन देशों में था जिसने 1947 में फिलस्तीन के विभाजन का विरोध किया था और फिलस्तीन के समर्थन में संयुक्त राष्ट्र के अंदर और बाहर हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर फिलस्तीनियों के राज्य-निर्माण के मसले पर समर्थन दिया था। ऐसा लगता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा यहूदी लॉबी के प्रभाव में उसी तरह आ चुके हैं, जिस तरह बुश सीनियर और बुश जूनियर आ गए थे।
मध्य-पूर्व के प्रति संयुक्त राष्ट्र की दोहरी नीति समस्त विश्व के सामने खुल कर आ गई है। इजराइल के खिलाफ प्रस्तावों को चालीस वर्षों में भी लागू कराने की कोशिश नहीं की गई, पर इराक, लीबिया और अब सीरिया के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को तुरंत अमली जामा पहनाने में यूरोपीय मुल्कों को यानी नाटो को इस्तेमाल किया गया। सूडान के दो टुकडेÞ कर दिए गए और इजराइल के खिलाफ एक छोटा-सा प्रस्ताव भी लागू नहीं कराया जा सका।
सीरिया की गोलन पहाड़ियां, विश्वविख्यात यरुशलम, आधी गाजा पट्टी और अन्य अनेक अरब क्षेत्र 1967 से इजराइल के गैरकानूनी कब्जे में चले आ रहे हैं। फिलस्तीन के अंदर यहूदी नई बस्तियों का निर्माण कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन हो रहा है। फिलस्तीन की गाजा पट्टी को तो इजराइल ने अनेक वर्षों से चारों तरफ से घेर रखा है। स्कूल बंद, तमाम सरकारी-निजी संस्थाएं बंद, यानी दस साल से फिलस्तीनी नागरिक भूखों मरने पर मजबूर कर दिए गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षक कोफी अन्नान को गाजा और यरुशलम जाना चाहिए था, न कि सीरिया में, ताकि वे पता लगाएं कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों की अवहेलना इजराइल ने कितनी ढिठाई से की हुई है।

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