Thursday, May 10, 2012

संपादकीय : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम पैसा कमाने की स्वतंत्रता लेखक : पंकज बिष्ट

http://samayantar.com/editorial-freedoom-of-speech-or-art-of-money-making/

संपादकीय : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम पैसा कमाने की स्वतंत्रता

Corporate Media Liesइस वर्ष दो ऐसी बड़ी घटनाएं हुई हैं जो देश के मीडिया उद्योग को तेजी से एकाधिकारी और संकेंद्रित करने में निर्णायक साबित होने जा रही हैं।  यह इस उद्योग के लिए कितना लाभप्रद होगा, कहना मुश्किल है पर यह जरूर कहा जा सकता है कि जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यहां याद किया जा सकता है कि मीडिया जनमत को प्रभावित करता है और उसका संबंध अभिव्यक्ति की आजादी से है। लोकतंत्र के लिए अभिव्यक्ति की आजादी आधारभूत तत्त्व है और इस आजादी का तभी कुछ अर्थ है जब कि यह विकेंद्रित है। यानी जब इस का उपयोग ज्यादा से ज्यादा लोग कर सकने की स्थिति में हों। ऐसे देश में जहां इतने बड़े पैमाने पर अशिक्षा और आर्थिक असमानता हो, जनमत बनाने के माध्यमों का कुछ हाथों में (वह भी जिनके निहित स्वार्थ हों) केंद्रित हो जाने को लोकतंत्र के भविष्य के लिए खतरे की घंटी माना जाना चाहिए।

पहली घटना जनवरी की है, जब देश के सबसे बड़े  उद्योग समूह मुकेश अंबानी के रिलाएंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) ने मीडिया समूह 'नेटवर्क18/टीवी18Ó में रु. 1,600 करोड़  का निवेश किया। यह राशि बढ़कर 4,000 करोड़ तक पहुंच सकती है। दूसरी घटना, मार्च के अंत में देश के सबसे ज्यादा बिकनेवाले अखबार समूह दैनिक जागरण (कानपुर) द्वारा हिंदी के बहुचर्चित और प्रतिष्ठित अखबार नई दुनिया  को खरीद लेना।

जहां तक नेटवर्क18/टीवी18 का सवाल है इस समूह के पास जो सात चैनल हैं उनमें समाचार और वाणिज्य समाचारों के चैनल शामिल हैं। कंपनी के पास इनाडु टीवी (इटीवी) का भी नियंत्रण है (इस तरह से रिलाएंस की पकड़ दस राज्यों में दिखलाए जानेवाले 12 क्षेत्रीय भाषाई चैनलों पर भी हो गई है।)। यद्यपि अब तक समाचार चैनलों को चलाने वालों में अखबार निकालनेवाली कंपनियों के अलावा मुख्यत: छोटी पूंजी के कंट्रेक्टर, बिल्डर आदि शामिल रहे हैं। पर यह पहली बार है जब किसी गैर-मीडिया कंपनी ने इतने बड़े पैमाने पर निवेश कर किसी मीडिया कंपनी पर नियंत्रण हासिल किया हो। वैसे अंबानी भाईयों – मुकेश और अनिल – का थोड़ा-बहुत पैसा इनाडु, नई दुनिया और टीवी टुडे आदि कई मीडिया समूहों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगा हुआ था।  देश में इस समय 745 टीवी चैनल हैं उनमें से 366 समाचारों के हैं पर सच यह है कि अधिसंख्य मीडिया कंपनियां घाटे में हैं। जो शीर्ष कंपनियां लाभ में भी हैं उनके लाभ का प्रतिशत भी बहुत कम है। स्वयं नेटवर्क 18 कई प्रमुख चैनलों का मालिक होने के बावजूद जबर्दस्त घाटे में चल रहा है। यह घाटा कुल 2,100 करोड़ तक पहुंच चुका है। इसके बावजूद चैनल चलाने का आकर्षण घटा नहीं है। सरकार के पास इस समय भी नये चैनलों की मंजूरी के लिए छह सौ आवेदन पड़े  हैं। यह तो हम जानते ही हैं कि मुकेश अंबानी जैसा चतुर व्यापारी यों ही इस नुकसान के धंधे में इतनी बड़ी राशि नहीं लगाएगा। साफ है कि ये चैनल मात्र पैसे के लाभ के लिए नहीं चलाए जाते। ये चैनल और अखबार भी – उदाहरण के लिए दिल्ली से एक कांग्रेसी नेता द्वारा निकाला जानेवाला दैनिक  – मुख्यत: अपने राजनीतिक या व्यवसायिक हितों के लिए चलाए जाते हैं। आरआईएल पर पहले से ही अप्रत्यक्ष रूप से इनाडु में पैसा लगाने के आरोप हैं, जिसका लाभ उसे कावेरी-गोदावरी बेसिन में गैस के भंडारों को कब्जाने में मिला। दैनिक भास्कर समूह ने अखबारों की कमाई को खदानों और बिजली पैदा करने आदि की विभिन्न कंपनियों में लगाया हुआ है। ध्यान रहे कि उसके संस्करण मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व झारखंड आदि में हैं जहां सबसे ज्यादा निवेश खदानों और बिजली उत्पादन जैसे कामों में हो रहा है। क्या मान लिया जाए कि अखबार की उपस्थिति उस के उद्योगों को मदद नहीं करती होगी?

बड़ी मछली छोटी मछली

Jagran Takes Over Nai Duniaजहां तक नई दुनिया का सवाल है उसे किसी भी तरह छोटा अखबार समूह नहीं माना जा सकता। वह हिंदी का बड़ा अखबार तो है ही देश के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले दस अखबारों में से भी है। तकरीबन पांच लाख की प्रसार संख्यावाला यह अखबार इंदौर के अलावा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चार अन्य शहरों से भी प्रकाशित होता है। एक जमाने में यह मध्यप्रदेश का सबसे ज्यादा बिकनेवाला अखबार था और संभवत: आज भी इसका इंदौर संस्करण राज्य में किसी एक जगह से निकलनेवाला सबसे बड़ा अखबार है। इस 65 वर्ष पुराने अखबार की संपादकीय निष्ठा व आदर्श पत्रकारिता के लिए विशेष प्रतिष्ठा रही है। इसने हिंदी पत्रकारिता को कई महत्त्वपूर्ण संपादक और पत्रकार दिए।  तब प्रश्न है इतना बड़ा अखबार आखिर बिक कैसे गया? निश्चय ही इस अखबार के बिकने से इस का नाम बचा रहेगा पर क्या दैनिक जागरण समूह जो अपनी संपादकीय मूल्यवत्ता के लिए नहीं बल्कि व्यवसायिक दक्षता के लिए जाना जाता है, नई दुनिया की निष्पक्षता और संपादकीय स्तरीयता को बचा पाएगा?

यह बात आसानी से नहीं मानी जा सकती कि नई दुनिया  घाटे का सौदा था। यह ठीक है कि इसका दिल्ली संस्करण घाटे में था पर दिल्ली से नया अखबार निकालना, जहां पहले ही हिंदी के कम से कम एक दर्जन के करीब बड़े दैनिक निकल रहे हों कोई समझदारी का व्यवसायिक निर्णय नहीं कहा जा सकता।  इसके पीछे इतर कारण रहे हों, यह अलग बात है।  पर यह भी सच है कि नई दुनिया की भूमिका सिमटती जा रही थी और उसके साथ ही लाभ का प्रतिशत भी घट रहा था। जो भी हो नई दुनिया संस्थान समय पर अपना विस्तार उस गति से करने में असफल रहा जिस गति से इसके समकालीन मध्यप्रदेश के ही अन्य अखबार – दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर समूहों ने किया। इसका एक कारण अखबार के प्रबंधन में आवश्यक गत्यात्मकता का अभाव हो सकता है तो दूसरा यह भी कि मालिकों की तीसरी पीढ़ी की रुचि अखबार की जगह ज्यादा लाभ के व्यवसायों में रही हो।

पर इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण यह है कि दैनिक जागरण द्वारा नई दुनिया समूह को खरीदने के पीछे मध्यप्रदेश में अपना विस्तार करना है जहां वह पारिवारिक विवाद के कारण संस्करण नहीं निकाल सकता। दैनिक जागरण समूह लगातार अपना विस्तार करने में लगा हुआ है और इसने एक-आध वर्ष  पहले ही मुंबई के मिड डे समूह को खरीदा था।  दैनिक जागरण समूह को इस खरीद के लिए इक्विटी कंपनी ब्लैकस्टोन गु्रप से 225 करोड़ रुपये मिले थे। यह पैसा एक मायने में सीधा विदेशी निवेश है। नई दुनिया का प्रत्यक्ष सौदा सिर्फ 150 करोड़  रुपये का बतलाया गया है।

पर दैनिक जागरण ऐसा अकेला समूह नहीं है जिसने दूसरे अखबारी संस्थानों का अधिग्रहण किया हो। दैनिक भास्कर और टाइम्स आफ इंडिया के प्रकाशक बैनेटकोलमैन समूह ने भी अन्य भाषाओं के अखबारों का अधिग्रहण किया है।

बहुसंस्करणों की फांस

Many Types of News Papers in Indiaइसके अलावा अखबारों में जो एक और प्रवृत्ति दिखलाई दे रही है और जिसका विस्तार हो रहा है वह है नये संस्करण निकालने की। इस बीच दैनिक भास्कर के संस्करणों की संख्या 65 हो गई है। इसी तरह पिछले दिनों बैनेटकोलमैन ने केरल में टाइम्स आफ इंडिया को दस जगह से एक साथ छापने की शुरुआत की। अब यह अखबार पश्चिम से पूर्व, उत्तर से दक्षिण तक 15 केंद्रों से प्रकाशित व 37 जगहों से छप रहा है। समूह के हिंदी दैनिक का भी जल्दी ही विस्तार होने जा रहा है। इसी तरह का विस्तार एक और बड़े  मीडिया समूह हिंदुस्तान टाइम्स का भी हो रहा है। ये असल में वे समूह हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर अपना विस्तार कर रहे हैं। दूसरी ओर लोकमत, सकाल, प्रभात खबर, इनाडु, साक्षी, गुजरात समाचार और संदेश जैसे समूह हैं जो क्षेत्रीय भाषाओं के होने के कारण अपने राज्यों में विस्तार कर रहे हैं।

ये दोनों घटनाएं भारत में अखबारों में बढ़ते एकाधिकार और संकेंद्रण की ओर इशारा करती हैं। गोकि अभी यह अधिग्रहण  तुलनात्मक रूप से छोटे समूहों का हो रहा है पर जल्दी ही ऐसी स्थिति आ जाएगी जब कि बड़े समूहों का अधिग्रहण होने लगेगा।  यद्यपि समाचारपत्र उद्योग में भी लाभ का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं है पर बड़े  संस्थानों को जो लाभ है, वह आकार में इतना ज्यादा है कि वे इससे छोटे प्रकाशनों को आसानी से खरीद लेने की स्थिति में रहते हैं। उदाहरण के लिए बैनेटकोलमैन का वार्षिक शुद्ध लाभ कुछ वर्ष पहले 1400 करोड़ के आसपास बताया जाता था। टाइम्स आफ इंडिया अपने असीमित संसाधनों और पूंजी के साथ जिस आक्रामकता से विशेष कर दक्षिण में विस्तार करने में लगा है उसने द हिंदू, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, डेक्केन क्रानिकल और डेक्केन हेराल्ड जैसे कई स्थापित अखबारों के लिए संकट पैदा कर दिया है। इसने कन्नड़ और तेलुगु के भी कुछ अखबार खरीदे हैं।

अधिग्रहण, विस्तार और कम दामों में बिक्री के कारण बाजार पर पूरी तरह एकाधिकार हो जाने के बाद इन एकाधिकारी घरानों की आय में वृद्धि हो जाना लाजमी है। अभी भी अखबारों के दो-तीन समूहों का कुल विज्ञापन के 75 प्रतिशत पर कब्जा है। तब ये विज्ञापन की भी मनचाही दरों को हासिल करने की स्थिति में होंगे। इसका एक नतीजा यह होगा कि अखबारों में अभी जो 26 प्रतिशत तक सीधे विदेशी निवेश का प्रावधान है उसका असली लाभ बड़े  संस्थानों को ही मिलेगा। अगर विदेशी निवेश का प्रतिशत बढ़ा तो यह अधिग्रहणों को बढ़ावा  देने का ही काम करेगा।  ऐसी स्थिति में छोटे स्वतंत्र अखबारों का बचना मुश्किल हो जाएगा।

कीमत की मार

अखबारों के आवरण मूल्य में अस्वाभाविक कमी के पीछे भी प्रतिद्वंद्विता की असमान स्थितियां ही हैं और यह खेल मुख्यत: बड़ी पूंजीवाले संस्थान ही खेलते हैं। गोकि आजादी के बाद से ही इस प्रवृत्ति को नोटिस कर लिया गया था और प्रेस कमीशन ने सुझाव भी दिया था कि अखबारों की आवरण कीमतों का निर्धारण उनकी कुल पृष्ठों की संख्या से भी निर्धारित हो। आयोग ने एकाधिकार को रोकने के लिए तो यह भी सुझाया था कि अखबारों में समाचार और विज्ञापनों का औसत 60 व 40 का हो पर आयोग की शायद ही किसी सिफारिश को माना गया हो।

यहां याद किया जा सकता है कि आस्ट्रेलियाई मीडियापति रूपर्ट मुर्डाख ने कम दामों में अखबार बेचने के तरीके का सबसे घातक इस्तेमाल इंग्लैंड के बाजारों पर कब्जा करने के लिए किया था। उसकी देखा-देखी टाइम्स आफ इंडिया ने यह तरीका पहली बार दिल्ली के बाजार पर कब्जा करने के लिए अपनाया था। यह तरीका अब भी किसी न किसी रूप में जगह-जगह जारी है। इसके चलते छोटे अखबार, जिन्हें विज्ञापन कम मिलता है और जो अपनी आय के लिए मुख्यत: बिक्री पर निर्भर रहते हैं, देखते ही देखते बाजार से बाहर हो जाते हैं और बंद होने या बिकने की स्थिति में आ जाते हैं।

बहुसंस्करणों का मसला तो और भी गंभीर है और इसके आयाम भी कई हैं। सबसे  पहले यह छोटे मीडिया समूहों के अस्तित्व से जुड़ा मसला है। यह बात नई दुनिया के ताजा उदाहरण से एक बार फिर स्पष्ट हो जाती है। बड़े अखबारों के संस्करण अपनी बेहतर पूंजीगत स्थिति, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन और संसाधनों के चलते गैर महानगरीय केंद्रों के कम पूंजी के स्वतंत्र अखबारों को देखते ही देखते या तो बाजार से बाहर कर देते हैं या उन्हें इतने पैसे का प्रस्ताव दे दिया जाता है कि उनके पास बिकने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं रहता।  नई दुनिया के साथ काफी हद तक यही हुआ। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका  जैसे अखबारों ने उसके लिए स्थिति कठिन बना दी थी। दूसरी ओर दैनिक जागरण अपना विस्तार मध्यप्रदेश में करना चाहता था पर अपने नाम से नहीं कर सकता था और नये ब्रांड को स्थापित करना आसान नहीं था, क्योंकि आज नया अखबार शुरू करने और उसे स्थापित करने के लिए कम से कम एक हजार करोड़ की पूंजी चाहिए। ऐसे में पुराने नाम को खरीदना सबसे अच्छा सौदा था।

पैसा बनाम अभिव्यक्ति

News and Moneyभारत में अखबार और मीडिया उद्योग के मामले में सबसे बड़ी खामी यह है कि इन को लेकर सरकार की कोई नीति ही नहीं है।  ये सामान्य उद्योग नहीं हैं इसलिए इन के लिए दुनिया भर में, खासकर पश्चिमी लोकतंत्रों में, विशेष नियम बनाए गए हैं। उदाहरण के लिए बहु संस्करण की आजादी अमेरिका में भी नहीं है जो अपनी भौगोलिक स्थिति में कम बड़ा नहीं है। योरोप में तो कहीं है ही नहीं। इसका कारण यह है कि बहुसंस्करण  अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल कम और कमाने की आजादी का इस्तेमाल ज्यादा हैं। इससे भी खतरनाक बात यह है कि यह दूसरे की अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करना है।

एक बड़ी समस्या विभिन्न माध्यमों में एक साथ स्वामित्व (जिसे अंग्रेजी में क्रास मीडिया स्वामित्व कहा जाता है) को लेकर है। यह एकाधिकार का एक और बड़ा कारण है।  सरकार ने अब तक इस बारे में कोई नियम नहीं बनाया है पर दबाव में, कुछ प्रतिबंधों के साथ, समाचारपत्र उद्योग में विदेशी निवेश की इजाजत दे दी है। इस बीच नये माध्यम आ रहे हैं और कन्वर्जन (संगमन) जैसी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है इसका परिणाम यह हुआ है कि हर बड़ा अखबार मालिक विभिन्न माध्यमों में उपस्थित नजर आता है। उदाहरण के लिए देश का सबसे बड़ा प्रकाशन समूह बैनेटकोलमैन टाइम्स आफ इंडिया, इकोनॉमिक टाइम्स, नवभारत टाइम्स, महाराष्ट्र टाइम्स आदि का प्रकाशक तो है ही साथ में वह टाइम्स नाउ, ईटी नाउ आदि चैनल भी चलाता है। उसके पास दो दर्जन से ज्यादा रेडियो स्टेशन हैं और इंडिया टाइम्स डॉट कॉम जैसे पोर्टल भी हैं। इसी तरह से एचटी मीडिया, सन टीवी, दैनिक भास्कर व दैनिक जागरण  समूह आदि सभी टीवी, इंटरनेट, रेडियो प्रसारण आदि में उपस्थित हैं। यह सही है कि कुछ माध्यमों जैसे कि इंटरनेट और समाचारपत्रों के बीच आधारभूत संबंध है पर इंटरनेट की अपार क्षमता और संभावना को देखते हुए जरूरी है कि उसमें एकाधिकार की प्रवृत्ति को बढऩे न दिया जाए।

मीडिया में बढ़ता एकाधिकार क्या करने जा रहा है इसे आरआईएल के टीवी 18 पर निवेश से भी समझा जा सकता है। पहले ही कहा जा चुका है कि मुकेश अंबानी जैसा चतुर व्यापारी 4000 करोड़ का निवेश किसी नुकसान के सौदे में नहीं करेगा। इस समूह की एक उपकंपनी इनफोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज ने 4जी स्पैक्ट्रम का एक बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया है और अब उसका नेटवर्क18 के साथ अनुबंध है कि वह सबसे पहले उसे हर तरह की सामग्री (कंटेंट) उपलब्ध करवाएगा। साफ है कि इस तरह से इनफोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज को 4जी के बाजार में पकड़  मजबूत करने में नेटवर्क18 सहायक होगा और टीवी दर्शकों के बाजार में नेटवर्क18 को इनफोटेल से मजबूती मिलेगी।

पेड न्यूज : डरता कौन है?

Paid News: Journalism for Saleजो स्थिति समाचारपत्र/मीडिया उद्योग को लेकर है वही स्थिति पत्रकारिता के मानदंडों को लेकर है। सरकारें तब मीडिया पर बरसती हैं जब सत्ताधारी दलों को लगता है कि वे घिर गए हैं। दूसरी ओर मालिकों/पत्रकारों द्वारा लगातार तर्क दिया जाता है कि वे स्वयं अपने लिए आचार संहिता बनाएंगे और अपनाएंगे। विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का यह स्टैंड है पर यह लागू कितना हो रहा है इसे  निर्मल बाबा वाले मामले से समझा जा सकता है।

अखबारों के लिए जरूर प्रेस काउंसिल है पर वह कितनी नख-दंत विहीन है इसका प्रमाण पेड न्यूज का मामला है जिसमें कई बड़े-बड़े संस्थान शामिल हैं। सारे प्रमाण सामने हैं पर किसी का कुछ नहीं बिगड़ा है उल्टा पिछले दिनों हुए राज्यों के चुनावों में अकेले उत्तर प्रदेश में ही करीब 50 मामलों में चुनाव आयोग को पेड न्यूज की शिकायतें मिली थीं। इसी महीने के मध्य में हुए मुख्य निर्वाचन अधिकारियों के सम्मेलन में मुख्य चुनाव आयुक्त ने माना कि राज्यों के चुनावों में भी पेड न्यूज का सिलसिला जारी रहा। इस बार तरीका यह निकाला गया कि उच्च मूल्यवाले विज्ञापनों को कम मूल्य का दिखलाया गया और इस तरह चुनाव के खर्चे  न्यूनतम दिखलाए गए। जाहिर है कि यह मीडिया समूहों की मिली भगत के बिना नहीं हो सकता था। इस तरह का एक बड़ा उदाहरण अप्रैल के शुरू में इंडियन एक्सप्रेस द्वारा छापी गई सैनिक विद्रोह की पूरे पहले पृष्ठ की रिपोर्ट है। आधारहीन और अतार्किक  सिद्ध हो जाने के बावजूद अखबार का अपनी खबर पर अड़ा रहना बतलाता है कि संपादक प्रेस परिषद् की कितनी परवाह करते हैं।

लोकतंत्र को खतरा 

कुल मिला कर सरकार ने मीडिया के संबंध में विदेशी निवेश के सिवा किसी और मामले में कोई नीति नहीं बनाई है। समझने की बात यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र के लिए आधारभूत होती है जबकि मीडिया में एकाधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा बनता है और इस तरह से अंतत: लोकतंत्र की ही नींव खोदनेवाला साबित होता है। यह पूंजीवादी व्यवस्था की तथाकथित स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता को ही खत्म नहीं करता बल्कि विचारों की विविधता और स्वतंत्रता को भी पनपने नहीं देता। एकाधिकारी माध्यमों के अपने मालिकों के आर्थिक हितों या फिर सत्ताधारियों के राजनीतिक हितों के लिए काम करने की संभावना सदा बनी रहती है। वैसे भी भारत जैसे देश में जहां भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषायी विभिन्नता इतनी ज्यादा है बहुसंस्करणीय अखबार और मीडिया का एकाधिकार एक बहुत बड़ा खतरा है।

इसका एक और पक्ष कर्मचारियों को लेकर भी है जो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। बहु संस्करणीय अखबार विशेषकर पत्रकारों की नौकरियों के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। उनकी पदोन्नति की संभावनाओं को तो कम कर ही रहे हैं पदों को भी घटा रहे हैं।

इस में शंका नहीं है कि अब तक बहुसंस्करणीय अखबारों ने जो रूप ले लिया है उसे खत्म करना आसान नहीं है। पर ऐसा भी नहीं है कि इसे रोका ही नहीं जा सकता।  इस दिशा में सबसे पहला कदम बहुसंस्करणों की सीमा को निर्धारित करना है और दूसरा कदम क्रास मीडिया होल्डिंग पर रोक लगाना है। समाचार है कि सरकार इस बारे में सोच रही है, पर इस तरह के समाचार काफी समय से आ रहे हैं और वर्तमान सरकार जिस तरह से डरी हुई है उसके चलते नहीं लगता कि वह बेइंतहा ताकतवर हो चुके मीडिया को ऐसे समय में नाराज करने की हिम्मत करेगी।

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