Saturday, 12 May 2012 12:09 |
लाल्टू आखिर किसके खिलाफ कौन तैयार हो रहा है? भारत के नागरिक को किससे सुरक्षा चाहिए? क्या वह पाकिस्तान या चीन का वह आम आदमी है, जो तमाम कठिनाइयों के बीच अपनी रोजाना जिंदगी गुजार रहा है? सच यह है कि इस तैयारी में न तो भारत का आम नागरिक शामिल है, और ऐसे ही दीगर मुल्कों के शस्त्रों के बारे में कहा जा सकता है, कि न ही यह उनके हित में है जो पाकिस्तान या चीन के बहुसंख्यक लोग हैं। यह सब एक खेल है, जिसे इन राष्ट्रों में मौजूद कुछ लोग खेलते हैं और इसे बाकी विशाल जन-समुदाय पर थोपते हैं। इस खेल में जुटे लोगों को धरती, प्रकृति, हवा, पानी से कोई मतलब नहीं, पर ये ताकतवर लोग हैं। उनके पास ताकत है कि वे जैसे चाहें हमारा-आपका पैसा खर्चें, हमारे विनाश के रास्ते बनाएं और फिर हमसे कहें कि वे हमारी सेवा कर रहे हैं। यह पुरानी बहस है कि उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों में बहुत सारा पैसा जाया होता है और स्कूली शिक्षा में पैसा नहीं लगाया जा रहा। उच्च शिक्षा में जो चल रहा है वह कितना देश के हित में है; कुछ लोग तो पढ़-लिख कर विदेशों में जाकर बस जाते हैं, आदि आदि। यह बहस दरअसल बेमानी है। उच्च शिक्षा में सुधार की गुंजाइश कम नहीं, पर जो खर्च लगना है वह तो लगना ही है। खर्च स्कूली शिक्षा में भी लगना है, पर हमारे जैसे सुविधासंपन्न लोगों में यह समझ नहीं है कि देश के हर बच्चे के लिए स्तरीय शिक्षा की जरूरत है। पूरे दक्षिण एशिया में बडेÞ पैमाने पर भुखमरी, अशिक्षा और बेहाली की स्थिति है। सरकारें इसे कभी गरीबी रेखा की परिभाषा बदल कर, कभी साक्षरता की परिभाषा बदल कर नकारने की कोशिश करती हैं। पर किसे नहीं पता कि सच क्या है? कल्पना करें कि रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानी 'इच्छापूरन' की तरह हम और आप एक सुबह झारखंड के गांव के बच्चों के मां-बाप बन जाएं, जहां की एक प्राथमिक शाला के बारे में हाल ही में एक टीवी चैनल पर यह खुलासा हुआ था कि अध्यापिका 'संडे' की मात्राएं गलत रटाती हैं। यह उस रिपोर्टर की महानता है कि उसे लगता है कि अंग्रेजी में 'संडे' की मात्राओं की जानकारी झारखंड के गांव के बच्चों के लिए जरूरी है, मगर इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि उन बच्चों को भी उचित शिक्षा चाहिए। बहरहाल, अगर हमारे दिमाग शहरी मध्यवर्ग के नागरिकों की तरह रहें तो 'इच्छापूरन' के बाद ग्रामीण मां-बाप होकर भी सरकार से हम यही कहेंगे कि भइया मारक या विनाशक मिसाइलों से हमें क्या लेना, आप हजारों करोड़ रुपए पश्चिमी मुल्कों के मोटे व्यापारियों को देकर शस्त्र खरीदना बंद करें। हमारे बच्चों के लिए स्तरीय प्रशिक्षण-प्राप्त, अच्छी तनख्वाह वाले अध्यापक और डॉक्टर भेजिए। हमें अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा चाहिए। पर रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानी तो कहानी है और हम-आप जो हैं सो हैं, शहरी, संपन्न; हमें क्या मतलब कि देश में बच्चों की एक बड़ी संख्या स्कूल नहीं जाती, और जो जाते हैं उनमें से ज्यादातर प्राथमिक स्तर में ही रुक जाते हैं। हमारी अपनी राजनीति है, जो हमारे कहने से नहीं, हम जो करते हैं उन क्रियाकलापों से, हमसे अलग परिभाषित होती है। हम जानते हैं कि निरक्षर, भूखे लोगों का देश मजबूत नहीं होता, पर हमें सेना चाहिए, पुलिस चाहिए ताकि लाचार लोगों को दूर रख सकें, ताकि हमारा मुनाफा बढेÞ, ताकि हम अन्याय से मिली सुविधाओं को भोग सकें। हमें स्वस्थ, शिक्षित लोग नहीं, मारक शस्त्र चाहिए। हम महान परंपराओं, संस्कृतियों की दुहाई देकर दूसरों को ही नहीं, खुद को भी धोखा देना चाहते हैं। आज हम इस बहस में डूबे हैं कि हम चीन से कितना आगे और पीछे खडेÞ हैं, हमारे मिसाइल साढ़े पांच या साढ़े छह हजार किलोमीटर जाते हैं; जो हम नहीं जानते, वह सच यह है कि प्रक्षेपास्त्र अरिहंत हो, अग्नि या शाहीन, जो वंचित हैं वे इन मिसाइलों की परवाह किए बिना अपनी तैयारी कर रहे हैं, उन्हें पता है कि जीवन का नाम सिर्फ जंग नहीं है। वे आएंगे, और जब वे आएंगे, आप हम अपनी सारी तैयारियों के बावजूद समझ न पाएंगे कि प्रलय की शुरुआत कब कैसे कहां से हुई। हम वापस शिक्षा पर चलें। जब तक हम सामरिक खाते में खर्च कम न करेंगे, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थिति सुधर नहीं सकती। यह बहस चलती रहेगी और हमें यह कहते रहना पडेÞगा। |
Saturday, May 12, 2012
मिसाइल बनाम स्कूल
मिसाइल बनाम स्कूल
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