Monday, May 7, 2012

कैंसर की दवा का दाम कम करने का निर्णय राहत भरा

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[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1326-2012-05-06-14-46-02]कैंसर की दवा का दाम कम करने का निर्णय राहत भरा   [/LINK] [/LARGE]
Written by पलाश विश्वास Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 06 May 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=8798fa114d42cdfd306897f32f1334ef4f7aa136][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1326-2012-05-06-14-46-02?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
पिता और चाची के कैंसर से मौत के बाद हम भी कैंसर पीड़ितों की तकलीफों के सहभागी हैं और इलाज में राहत का हमें भी इंतजार है। सिप्ला द्वारा कैंसर की दवाओं की कीमतों में 75 फीसदी तक कटौती किए जाने से आने वाले दिनों में दवा कंपनियों के बीच कीमतें कम करने की होड़ शुरू हो सकती है। इसका फायदा ग्राहकों को मिलेगा, ऐसी उम्मीद की जा रही है। लेकिन भारत में चिकित्सा माफिया के चलते ऐसा संभव है या नहीं, इसपर अभी शक की गुंजाइश है। चिकित्सक कौन सी दवा पर्ची पर लिखेंगे, इस पर मरीज के तीमारदारों की जेब की सेहत निर्भर है। अमूमन चिकित्सक दवा की कीमत और गुणवत्ता के बजाय दवा कंपनी से मिलने वाले कमीशन, पैकेज और विदेश यात्राओं की सुविधा के मद्देनजर दवाएं लिखते हैं। व्यक्तिगत तौर पर हम सबको इसका कुछ न कुछ अनुभव है।

बहरहाल मरीजों की सेहत की फिक्र से कम बल्कि बाजार पर अपना कब्जा जमाये रखने की गरज से ऐसा किया गया है। सिप्ला ने कैंसर की दवाओं के सेगमेंट में बाजार में प्रतिस्पर्धा खत्म करने और अपना मार्केट शेयर बढ़ाने के लिए यह कदम उठाया है। इससे दूसरी दवा कंपनियों पर भी कीमतें घटाने का दबाव बढ़ेगा। इस कटौती से जाहिर है कि दवा कंपनियां किस हद तक ग्राहकों को लूटती है। कैंसर पीड़ित और उनके परिजनों के लिए हालांकि यह राहत की​ ​ खबर है। १९९४ में हमारी चाची श्रीमती उषा देवी और २००१ में पिताजी पुलिन बाबू की मौत कैंसर से हो गयी। वह वक्त और अनुभव अभी ​​हमारे दिल और दिमाग में सदाबहार नासूर की तरह जिंदा है। एक तो नाइलाज मर्ज और उसपर इलाज का बोझ कितने परिवार तो तबाह हो गये या फिर पीड़ित को मौत के इंतजार के लिए छोड़ दिया गया, हमारे चारों तरफ ऐसे किस्से देखने सुनने को मिल सकते हैं। बहरहाल सिप्ला ने एक बयान में कहा कि गुर्दे के कैंसर के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवा 'सोरानिब' की कीमत 76 प्रतिशत तक घटाकर 1,710 रुपये प्रति माह पैकेज कर दी गई है जो पहले 6,990 रुपये थी। वहीं, मस्तिष्क के कैंसर के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवा 'टेमोसाइड' की 250 मिग्रा की टैबलेट अब 20,250 रुपये के बजाय 5,000 रुपये में उपलब्ध होगी, जबकि फेफड़े के कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली 'जेफ्टीसिप 250 मिग्रा' की 30 गोली 10,200 रुपये के बजाय 4,250 रुपये में मिलेगी।

मेरे पिताजी बाबा नागार्जुन की तरह यायावर थे। अंतिम दिनों तक हम लगातार इस दहशत में थे कि पता नहीं कि वे कहां होंगे और किस हाल में होंगे, कहीं उन्हें कुछ हो न जाये। वे राहुल और बाबा की तरह प्रचंड विद्वान नहीं थे। पर उनका एक सूत्री जीवन दर्शन था, हमारा कोई नहीं है और हम किसी मसीहा का इंतजार नहीं कर सकते। हमारे लोगों की बदहाली के खिलाफ हम नहीं लड़ेंगे तो कौन लड़ेगा? हमारे नजरिये से विचित्र घालमेल था उनके विचारों में। मसलन वे कहते थे, बंगाली हो या सिख या फिर तमिल या फिलीस्तीनी, हर शरणार्थी दलित और सर्वहारा है। उनके हिसाब से जिनकी पहचान नहीं है, जिनकी नागरिकता नहीं है, जो भूगोल और इतिहास से बहिष्कृत हैं, जिन्हें नागरिक और मानव अधिकारों से वंचित कर दिया गया है, उनसे बढ़कर दलित और सर्वहारा कौन हो सकता है! उनका मानना था कि यह उनकी लड़ाई है क्योंकि और कोई लड़ेगा नहीं। वे कहते थे कि अगर हम अपने लोगों के लिए कुछ नहीं कर सकें तो हमारी विचारधारा और हमारी शिक्षा किस काम की!

उनका अजब जुनून था इस सिलसिले में। कहते थे कि काबिलियत से कुछ नहीं होता। जज्बा असल है। जज्बा हो तो काबिलियत हासिल की जा सकती है। हम अपने लोगों के लिए कुछ करने के काबिल न हो तो हमें हर काबिलियत हासिल करनी ही होगी, यही जज्बा ही असली प्रतिबद्धता है। उन्हें खाने पीने की फुरसत नहीं थी। बसंतीपुर में हमारे घर में एक कचहरी हुआ करती थी, जिसमें हमेशा लोगों की भीड़ उमड़ी रहती थी। लोग कटाई बुवाई शुरू​​ करने से पहले, ढोर डंगर खरीदने से पहले, कहीं सफर के लिए निकलने से पहले तक मामूली सी मामूली बात के लिए सलाह मशविरा के लिए दूर-दूर से पिताजी से मिलने चले आते थे। हमारी मां, ताई और चाची घर की तीनों महिलाएं सुबह तड़के से देर रात तक रसोई में जुटी रहती थीं। चूल्हे पर चाय की हंड़िया चौबीसों घंटे चढ़ी ही रहती थी। मिनट दर मिनट चाय की सप्लाई में लगे रहते थे हम भाई-बहन। हर वक्त घर में खाना पका होता क्योंकि कभी भी कहीं से भी मेहमान आ सकते थे। पिताजी घर हो या न हो, इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता था। वैसे वे नैनीतील, दिल्ली और लखनऊ के तो जैसे डेली पैसेंजर थे। घर और खेती के काम में रात हो या दिन, वे भूत की तरह लग जाते, जब घर में होते! और किसी को संकट हो, देशभर में कहीं भी, उनतक पुकार पहुंचते न पहुंचते, ठीक वहीं हाजिर हो जाते। झगड़ा फसाद की हालत में अमन चैन कायम न होने तक, लोगों में सुलह न होने तक मौका ए वारदात छोड़ते न थे कभी। खाते पीते कुछ न थे और चाय उनकी संजीवनी थी।

सत्तर के दशक में ही जब पिताजी बांग्लादेश की जेल से रिहा होकर घर लौटें, उन्हें बंगाल के एकीकरण का आंदोलन छेड़ने की कोशिश में​​ वहां महीने भर जेल में कैद रखा गया था, मित्रों के छुड़वाने तक, वे टीबी के मरीज बन चुके थे। उनके छोटे भाई हमारे चाचाजी डाक्टर थे, पर वे इस बीमारी में भी किसी की नहीं सुनते थे। खानपान की परवाह तो कभी नहीं की। धनबाद में उन्हें रोककर इलाज करवाया, जब वे बंगाल में चलने फिरने ​​लायक नहीं थे। जब उनके मित्र नारायण दत्त तिवारी देश के वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने पिताजी को राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भरती ​​करवाया, ठीक होते न होते वे भाग खड़े हुए। अस्सी के दशक में मेरठ मेडिकल कालेज के डा. नाथ की कोशिश से उनका लंबा इलाज चला। राम मंदिर आंदोलन के दौरान जब मेरठ महीनों तक कर्फ्यू् की चपेट में था, तब उन्हें मेडिकल कालेज अस्पताल में बाकायदा कैद रखकर इलाज करवाया गया। बाद में वहां से छूटते ही पिताजी हमारे पास कभी नहीं ठहरे इलाज के डर से। पूछने पर हमेशा कहते इलाज चल रहा है। हम हमेशा दवाएं भेजते रहते, पर वे उन्हें ढंग से लेते नहीं थे। लें भी तो क्या बीमारी कुपोषण की थी, खाना पीना तो उनके टाइम टेबिल में था ही नहीं!

दिसंबर दो हजार में हम बनारस में राजीव की फिल्म वसीयत की शूटिंग कर रहे थे, तो भाई पद्मलोचन ने उनके अस्वस्थ होने की खबर दी। फिर स्वस्थ होने की खबर भी मिली। हम जोशी जोसेफ के साथ इमेजिनरी लाइन की शूटिंग पर मणिपुर चले गये २००१ के मार्च में। इसी दौरान आंधी पानी की एक रात में बसंतीपुर से आधी रात करीब ७६ साल की उम्र में किसी को कुछ बताये बिना अंधेरे में ही साईकिल चलाकर करीब १५ मील दूर बिलासपुर के रास्ते एक​​ परिचित के वहां पहुंचे पिताजी। वहां साईकिल रखी, ट्रक पकड़ा और रामपुर रेलवे स्टेशन पहुंच गये। फिर वहां से न जाने कैसे महाराष्ट्र के चंद्रपुर और गढ़चिरौली से लेकर दंडकारण्य तक भटकते रहे। सत्तर के दशक से वे शरणार्थियों को नागरिकता छिन जाने के खिलाफ आगाह कर रहे थे। महाराष्ट्र के लोगों ने ​​उन्हें बुलाया, वे वहीं नहीं रुके, छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा के तमाम शरणार्थी कालोनियां घूमकर घर लौटे।

वापसी के बाद घर के पिछवाड़े​​ शौचालय जा रहे थे कि गिर पड़े। हमारा घर झोपड़ियों का समूह था और तब शौचालय भी कच्चा था। उन्हें हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल ले​​ जाया गया तो पता चला कि टीबी ने उनकी रीढ़ की हड्डी में कैंसर पैदा कर दिया। ​रीढ़ की हड्डी जो कि स्पाइन (पीठ की हड्डी) में सुरक्षित रहती है, में स्नायु गट्ठे होते हैं जो पूरे शरीर में मस्तिष्क और स्नायु तंतुओं के परस्पर सन्देश संचारित करते हैं। रीढ़ की हड्डी के ऊपर या पास का ट्यूमर संपर्क को बाधित कर सकता है, कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचा सकता है और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। रीढ़ की हड्डी के ट्यूमर असामान्य कोशिकाओं के ढेर होते हैं जो रीढ़ की हड्डी, इसकी सुरक्षा परतों, या रीढ़ की हड्डी को आवरित करने वाली परत की सतह पर विकसित होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका मे प्रति वर्ष लगभग 10,000 लोगों में रीढ़ की हड्डी के ट्यूमर विकसित होते हैं। अधिकतर नॉन-कैंसरअस ट्यूमर शरीर के अन्य भागों से फैलने के बजाय रीढ़ की हड्डी में ही विकसित होते हैं। इन्हें प्राईमरी ट्यूमर कहा जाता है और ये प्रायः नॉन-कैंसरअस (बिनाइन) होते हैं। प्राईमरी रीढ़ की हड्डी के कैंसर बिरले ही शरीर के अन्य भागों में फैलते हैं। ये असामान्य है, जिसने रीढ़ की हड्डी के ट्यूमर को वैज्ञानिक शोध का केन्द्र बना दिया है, क्योंकि ये अनुपम गुण कैंसर की रोकथाम और चिकित्सा के नए तरीके सुझा सकता है। अधिकतर कैन्सरअस रीढ़ की हड्डी के ट्यूमर सेकंडरी होते हैं, जिसका अर्थ है कि ये शरीर के अन्य भाग के कैंसर से फैलते हैं। प्रति चार लोगों, जिनमें कैंसर पूरे शरीर में फ़ैल चुका है, में से एक व्यक्ति में ये मस्तिष्क या रीढ़ की हड्डी में भी फ़ैल जाता है। ये सेकंडरी ट्यूमर अधिकतर फेफड़ों के कैंसर या स्तन कैंसर का परिणाम होते हैं। पिताजी के फेफड़ों में टीबी कैंसर में बदला फिर ऱीढ की हड्डी तक फैल गया। किसी अन्य अंग से रीढ़ की हड्डी में फैलने की प्रक्रिया को मेटास्टेसाइज़िंग कहते हैं। इस पूरी यात्रा के दोरान उनकी दिनचर्या या जीवन दर्शन में कोई पर्क नहीं पड़ा। न वे असहाय किसी ईश्वर के प्रति समर्पित हुए। अंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल को छोड़कर किसीको उन्होंने मसीहा माना ही नहीं।
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​मणिपुर से लौटकर हम सीधे घर पहुंचे और फिर उन्हें लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली पहुंचे। उधमसिंह नगर के जिलाधीश ने एंबुलेंस का बंदोबस्त किया तो दिल्ली में केसी पंत की कोशिश और मीडिया के सपोर्ट की वजह से उनके इलाज के लिए मेडिकल बोर्ड भी बना। पर विशेषज्ञ कुछ कर ही नहीं पाये। बहुत देरी हो चुकी थी। उन्होंने किमोथेरापी करके कह दिया कि अब फिर लाने की नौबत नहीं आयेगी। जिस दिल्ली को पैदल-पैदल दशकों तक नापते रहे, वे वहां से उन्हें हम अर्धबेहोशी की हालत में घर ले आये। नारायण दत्त तिवारी ने खबर सुनी तो दौड़ें चले आये। पिताजी तब मृत्यु​ शैय्या पर थे। तिवारी ने उनसे आखिरी इच्छा पूछी तो पिताजी इतना ही बोले कि कैंसर का दर्द क्या है, जान लिया। आप दिनेशपुर अस्पताल में​ ​कैंसर के इलाज का इंतजाम कर दें। तिवारी ने ऐसा ही करने का वायदा किया। बाद में वे मुख्यमंत्री बने उत्तराखंड के, लेकिन अपने दोस्त को किया वायदा भूल गये।

हम घर में बैठकर उनकी मौत का इंतजार नहीं कर सकते थे। हम सिर्फ इतना कर पाये कि दर्द का अहसास उन्हें कम हो, इसलिए होम्योपैथी के इलाज का बंदोबस्त कर दिया। जिससे दर्द थोड़ा कम हुआ। पर अहसास अपनी जगह था क्योंकि आखिर-आखिर तक उनके दिल और दिमाग दोनों काम कर​​ रहे थे। छोटे भाई पंचानन को बेटे पावेल का जन्म हुआ तो उन्होंने खुशी का इजहार किया। हम जब कोलकाता रवाना हो रहे थे, उन्हें बताया नहीं, पर वे जानते थे। हमारे कोलकाता लौटने पर सात दिनों के भीतर वे चल बसे। फोन पर पद्मलोचन ने कहा कि उनकी आखिरी इच्छा थी कि बसंतीपुर के उनके आंदोलन के साथियों के साथ ही उन्हें चिर विश्राम में रहने दिया जाये। ऐसा ही हुआ। वे मांदार बाबू, शिशुबर मंडल और दर्जनों दूसरे साथियों के बगल में ही बने हुए हैं।

इससे पहले १९९४ में  हमारी चाची की मृत्यु पैंक्रिएटिक कैंसर से हुई। पैंक्रिएटिक कैंसर अग्नाश्य का कैंसर होता है। प्रत्येक वर्ष अमेरिका में ४२,४७० लोगों की इस रोग के कारण मृत्यु होती है। इस कैंसर को शांत मृत्यु (साइलेंट किलर) भी कहा जाता है, क्योंकि आरंभ में इस कैंसर को लक्षणों के आधार पर पहचाना जाना मुश्किल होता है और बाद के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होते हैं। सामान्यत: इस कैंसर के लक्षणों में एबडोमेन के ऊपरी हिस्से में दर्द होता है, भूख कम लगती है, तेजी से वजन कम होने की दिक्कतें, पीलिया, नाक में खून आना, उल्टी होना जैसी शिकायत होती है। चाची को पेट में बयानक दर्द की शिकायत के कारण कोलकाता में विशुद्दानंद मारवाड़ी अस्पताल बड़ाबाजार में भरती कराया गया तो चिकित्सकों ने पित्ताशय में पथरी होने की बात कही और आपरेशन कर दिया। बायोप्सी रपट से कैंसर का पता चला। पर आपरेशन हो जाने की वजह से कैंसर तेजी से​​ फैलने लगा। हम उन्हें ठाकुरपुकूर कैंसर अस्पताल ले गये। पर वे कुछ ज्यादा मदद नहीं कर पाये। होम्योपैथी इलाज चला साथ में बेइंतहा दर्द से निजात पाने के लिए मार्फिन। बेहोशी की हालत में भी वे दर्द से चीखती रही। हालत यह हो गयी कि सविता के अलावा किसी में उनके साथ रहने की हिम्मत ​​नहीं थी। आखिर में उनके पेट में धमाका हुआ और उन्होंने दम तोड़ दिया। हम कुछ करने की स्थिति में नहीं थे।

चाची की उस वक्त ५२ -५३ साल की उम्र रही होगी जबकि माना यह जाता है कि बड़ी उम्र (60 से ऊपर), पुरुष, धूम्रपान, खाने में सब्जियों और फल की कमी, मोटापा, मधुमेह, आनुवांशिकता भी कई बार पैंक्रिएटिक कैंसर की वजह होते हैं। पैंक्रिएटिक कैंसर से पीड़ित ज्यादातर रोगियों को तेज दर्द, वजन कम होना और पीलिया जैसी बीमारियां होती हैं। डायरिया, एनोरेक्सिया, पीलिया वजन कम होने की मुख्य वजह होती है। चाची न मोटी थी और न मधुमेह की मरीज और उनका खान पान भी बेहद संयमित था। अमेरिकन कैंसर सोसाइटी ने इसके लिए किसी भी तरह के दिशा-निर्देश नहीं बनाए हैं, हालांकि धूम्रपान को इस कैंसर के लिए 20 से 30 प्रतिशत तक जिम्मेदार माना जाता है। सितंबर, 2006 में हुए एक अध्ययन में कहा गया था कि विटामिन डी का सेवन करने से इस कैंसर के होने की संभावना कम हो जाती है। इलाज पैंक्रिएटिक कैंसर का इलाज, इस बात पर निर्भर करता है कि कैंसर की अवस्था कौन सी है। रोगी की सजर्री की जाती है या फिर उसे रेडियोथेरेपी या कीमोथेरेपी दी जाती है। अमेरिकन कैंसर सोसाइटी के अनुसार अब तक इस कैंसर का पूरी तरह से इलाज संभव नहीं है। कैंसर सोसाइटी का कहना है कि 20 से 30 प्रतिशत पैंक्रिएटिक कैंसर की वजह ज्यादा धूम्रपान करना होता है। हमारी चाची तो धूमपान भी नहीं करती थीं। गौर करने वाली बात ये है कि यह कैंसर महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में ज्यादा होता है। वे महिला थी। लेकिन इलाज से पहले कैंसर का पता नहीं चलने से और इलाज में देरी के साथ साथ कैंसर का पता चलने से पहले आपरेशन हो जाने के कारण कुछ किया ही नहीं जा सका। हमें बताया गया कि अग्नाशय का कैंसर लाइलाज होता है।

जाहिर है कि यदि समय रहते कैंसर का पता चल जाए तो इलाज संभव है। महाराष्ट्र के जलगांव के हमारे युवा मित्र कादेर के पिता को पिछले महीने कैंसर होने का पता चला। बायोप्सी रपट मिलने के अगले दिन ही वह अब्बा को लेकर णुंबी के टाटा इंस्टीच्यूट पहुंच गये। सर्जरी से जाब के कैंसर से उनके अब्बा एकदम ठीक हो गये। खर्च भी ज्यादा नहीं पड़ा। इसीतरह इंडिया टुडे हिंदी के संपादक हमारे मित्र दिलीप मंडल की पत्नी अनुराधा ने कैंसर को हरा दिया और अपने अनुबभ पर उन्होंने एक किताब भी लिख दी। कुछ महीनों पहले जब युवराज सिंह के कैंसर की खबर सार्वजनिक हुई थी, तो पूरा देश चिंतित हो उठा था और तब से युवराज के लिए दुआएँ मांगी जा रही हैं। अब वही युवराज सिंह कैंसर के इलाज के बाद वापस वतन लौट आए हैं। हर कोई युवराज जैसा किस्मतवाला नहीं होता। जीवन के लिए आम आदमी के पास कोई सपोर्ट सिस्टम या लाइफ लाइन की गुंजाइश नहीं​​ होती। हमारी चाची के इलाज के लिए कोलकाता ठाकुरपुकुर कैंसर अस्पताल ने जब हाथ कड़े कर दिये या जब अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान​​ संस्थान के मेडिकल बोर्ड ने एकबार किमोथेरापी कराने के बाद कह दिया कि अब कुछ नहीं किया जा सकता, तो दूसरे विकल्प होने के बावजूद​ ​हमारे पास पैसे नहीं थे। स्वास्थ्य अब सेवा नहीं है, कारोबार है, जिसपर माफिया का कब्जा है, इसे हर भुक्तभोगी अच्छी तरह जानता है।
युवराज के किस्से में आशा की किरण यह है कि पैसे का इंतजाम हो जाये तो कैंसर कोभी हराया जा सकता है। बोस्टन से कैंसर के खिलाफ जंग जीतकर 74 दिनों के बाद स्वदेश लौटे मिस्टर फाइटर युवराज सिंह का इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जोरदार स्वागत किया गया। युवी की एक झलक पाने के लिए प्रशंसकों व मीडियाकर्मियों की भीड़ उमड़ पड़ी। युवराज को एयरपोर्ट लेने पहुंचीं उनकी मां शबनम ने कहा कि अपने बेटे की वापसी से उन्हें ऐसा लग रहा है कि देश ने एक और वर्ल्‍ड कप जीत लिया हो। उन्होंने संवाददाताओं से कहा, 'युवी ने यह पारी अकेले ही खेली है, लेकिन देशवासियों की दुआएं हमेशा उसके साथ थीं।' वहीं, युवराज के पिता योगराज से जब पूछा गया कि हवाईअड्डे पर वह अपने बेटे को लेने क्यों नहीं गए तो उन्होंने कहा, 'मैं युवराज से अकेले में मिलना चाहता था जहां मेरे, उसके और भगवान के अलावा कोई न हो। मैं खुश हूं कि वह विजेता की तरह लौटा है।' दाएं फेफड़े के समीप एक ट्यूमर उभरने के कारण युवी बोस्टन (अमेरिका) में इलाज करवाने गए। वहां यह स्पष्ट हो सका कि युवी को कैंसर है। कीमोथैरेपी के तीन दौर के बाद उन्हें कैंसर से पूरी तरह से निजात मिल सकी है। काश कि कैंसर पीड़ितों के हर परिजन को ऐसा ही अनुभव हो पाता! युवराज ने कहा कि वे कैंसर से पीड़ित लोगों को साइकिलिस्ट लांस आर्मस्ट्रांग की जीवनी सुनाकर प्रेरित करेंगे। कैंसर से निपटने के बाद इस बीमारी से पीड़ितों का मर्म बेहतर समझने वाले क्रिकेटर युवराज सिंह ने कहा कि वह भविष्य में इस दिशा में काम जरूर करेंगे।

अभी-अभी 1974 के आंदोलन की प्रमुख नेत्री और प्रख्यात समाजसेविका नूतन का पटना स्थित महावीर कैंसर अस्पताल में बीती रात निधन हो गया। वरिष्ठ पत्रकार हेमंत की पत्नी 55 वर्षीय नूतन कैंसर रोग से पीडि़त थीं! कैंसर से जूझ रहे वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज का कहना है कि वे रेडिएशन उपचार के एक अन्य चरण के लिए क्यूबा लौट रहे हैं! क्यूबा में लौटकर कैंसर का इलाज कराया जा सकता है, पर हमारे यहां तो इलाज के लिए अमेरिका भागना होता है। अमरीका के अरबपति निवेशक वॉरेन बफेट ने कहा है कि उन्हें स्टेज वन का प्रॉस्टेट कैंसर है, लेकिन इससे उनकी जिंदगी को खतरा नहीं है! कैंसर होने पर हम क्या इतना निश्चिंत भाव से लोगों को आश्वस्त कर सकते हैं? कैंसर की दलदल से बठिंडा वासियों को निकालने के लिए राज्य सरकार की कोई भी 'संजीवनी बूटी' काम नहीं आ रही। जिले में कैंसर पीड़ितों का ग्राफ काफी ऊंचा है। कैंसर ने महिलाओं को सबसे ज्यादा अपने शिंकजे में लिया है। यह खुलासा हुआ है सेहत विभाग बठिंडा द्वारा बठिंडा के ग्रामीण क्षेत्र में किए जा रहे सर्वे से। महज तीन लाख लोगों के सर्वे में विभाग के सामने छह सौ के करीब कैंसर पीड़ित सामने आए। जिले में शुरू हुए नेशनल प्रोग्राम फार प्रीवेंशन एंड कंट्रोल आफ कैंसर, डायबटिज, कार्डियो वास्कूलर डिजीज ((एनपीसीडीसीएस)) प्रोग्राम के अधीन सेहत कर्मी जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वे कर रहे हैं। चार अप्रैल तक के सर्वे में सेहत कर्मियों ने 6,70,723 लोगों को कवर किया जिनमें से तीस साल की आयु से ऊपर के 3,29,957 लोग हैं। सरकारी आंकड़े के मुताबिक उक्त सर्वे में तीस से साठ साल के 2,52,067 लोग हैं, जिनमें से 387 लोग कैंसर पीड़ित हैं। वहीं विभाग के मुताबिक साठ साल की आयु से ऊपर वाले 35,357 लोगों का सर्वे हो चुका है, जिनमें से 208 लोग कैंसर पीड़ित हैं। विभाग का सर्वे अभी पूरा नहीं हुआ और ये सर्वे महज ग्रामीण क्षेत्र में हो रहा है, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिले में कैंसर मरीजों का ग्राफ काफी ऊंचा है। वहां तो सर्वे से ऐसा पता चला, लोगों को तो आखिरी स्टेज से पहले पता ही नहीं चलता कि उन्हें कैंसर है।

कैंसर (चिकित्सकीय पद: दुर्दम नियोप्लास्म) रोगों का एक वर्ग है जिसमें कोशिकाओं का एक समूह अनियंत्रित वृद्धि (सामान्य सीमा से अधिक विभाजन), रोग आक्रमण (आस-पास के उतकों का विनाश और उन पर आक्रमण) और कभी कभी मेटास्टेसिस (लसिका या रक्त के माध्यम से शरीर के अन्य भागों में फ़ैल जाता है) प्रदर्शित करता है। कैंसर के ये तीन दुर्दम लक्षण इसे सौम्य गाँठ (ट्यूमर या अबुर्द) से विभेदित करते हैं, जो स्वयं सीमित हैं, आक्रामक नहीं हैं या मेटास्टेसिस प्रर्दशित नहीं करते हैं। अधिकांश कैंसर एक गाँठ या अबुर्द (ट्यूमर) बनाते हैं, लेकिन कुछ, जैसे रक्त कैंसर (ल्यूकेमिया) गाँठ नहीं बनाता है। चिकित्सा की वह शाखा जो कैंसर के अध्ययन, निदान, उपचार और रोकथाम से सम्बंधित है, ऑन्कोलॉजी या कैंसर विज्ञान कहलाती है। कैंसर को लेकर लोगों में भ्रांतियाँ काफी ज्यादा हैं। अस्सी प्रतिशत लोग यह अनुमान लगा लेते हैं कि उन्हें शरीर के किसी भाग में कैंसर है, लेकिन महिलाओं के साथ खासकर यह समस्या होती है कि वे किसी को इस बारे में बता नहीं पाती हैं। शरीर में कहीं गठान हो तो मरीज चिकित्सक के पास तब पहुँचता है जब कैंसर अंतिम दौर में हो। ज्यादातर लोग यह भी मानते हैं कि कैंसर का इलाज नहीं है, लेकिन प्रौन्नत तकनीकों के कारण बढ़े हुए कैंसर का इलाज भी संभव है।

सिप्ला ने ब्रेन, लंग और किडनी कैंसर के इलाज में इस्तेमाल की जानी दवाओं की कीमतें 76 फीसदी तक कमी कर दी है। सिप्ला ने यह कदम सरकार द्वारा घरेलू दवा कंपनी नेटको फार्मा को कैंसर की दवा नेक्सावर का जेनरिक वर्जन बनाने की अनुमति दिए जाने के बाद उठाया है। नेटको फार्मा का जेनरिक वर्जन पेटेंट धारक कंपनी बेयर कॉरपोरेशन की तुलना में 97 फीसदी तक सस्ता पड़ेगा। गौरतलब है कि सरकार ने घरेलू दवा कंपनी नैटको फार्मा को कैंसर के इलाज में काम आने वाली दवा नेक्सावर का विनिर्माण करने और उसे मूल पेटेंटधारक बेयर कॉर्पोरेशन के मुकाबले 30 गुना से कम कीमत में बेचने की अनुमति दे दी जिसके मद्देनजर सिप्ला ने यह पहल की है। मार्च में दवा नियंत्रक द्वारा जारी एक आदेश में नैटको को एक महीने के इलाज में आवश्यक 120 टैबलेट के पैक को 8,880 रुपये से कम में बेचने की अनुमति दी गई थी। मूल पेटेंटधारक बेयर द्वारा नेक्सावर दवा के लिए प्रति माह 2.80 लाख रुपये की कीमत वसूली जाती है।

कैंसर सभी उम्र के लोगों को, यहाँ तक कि भ्रूण को भी प्रभावित कर सकता है, लेकिन अधिकांश किस्मों का जोखिम उम्र के साथ बढ़ता है। कैंसर कुल मानव मौतों में से 13% का कारण है। अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अनुसार, 2007 के दौरान पूरे विश्व में 7.6 मिलियन लोगों की मृत्यु कैंसर के कारण हुई। कैंसर सभी जानवरों को प्रभावित कर सकता है। लगभग सभी कैंसर रूपांतरित कोशिकाओं के आनुवांशिक पदार्थ में असामान्यताओं के कारण होते हैं। ये असामान्यताएं कार्सिनोजन (कैंसर पैदा करने वाले कारक) के कारण हो सकती हैं जैसे तम्बाकू धूम्रपान, विकिरण, रसायन, या संक्रामक कारक. कैंसर को उत्पन्न करने वाली अन्य आनुवंशिक असामान्यताएं कभी कभी DNA (डीएनए) प्रतिकृति में त्रुटि के कारण हो सकती हैं, या आनुवंशिक रूप से प्राप्त हो सकती हैं, और इस प्रकार से जन्म से ही सभी कोशिकाओं में उपस्थित होती हैं।

फार्मा सेक्टर पर नजर रखने वाले विश्लेषकों का मानना है कि भारत में कंपलसरी लाइसेंसिंग का पहली बार उपयोग किया गया है। सिप्ला के कदम के पीछे कंपलसरी लाइसेंसिंग एक अहम कारण है। अब कैंसर की दवाएं बेचने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को भी अपना मार्केट शेयर बरकरार रखने के लिए कीमतों में कटौती करनी होगी। सिप्ला गुर्दे के कैंसर की सस्ती दवा पेश करेगी। यह दवा जर्मनी की कंपनी बेयर के नेक्सावर का जेनेरिक संस्करण होगी। इस दवा के मासिक इलाज की कीमत इस समय 2.8 लाख रुपये बैठती है। सिप्ला ने कहा है कि उसकी दवाई की कीमत वर्तमान बाजार मूल्य का सिर्फ एक-दसवां हिस्सा होगा। दिल्ली हाई कोर्ट ने पिछले साल सितंबर में बेयर की उस याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया था, जिसमें कंपनी ने भारत के दवा महानियंत्रक से भारतीय बाजार में इस दवा को उतारने संबंधी आवेदन को मानने से मना करने की मांग की गई थी। इसके बाद अब सिप्ला ने यह दवा उतारने की घोषणा की है। सिप्ला के संयुक्त प्रबंध निदेशक अमर लुला ने बाताया कि सोराफिनिब टासीलेट को सोरानिब ब्रैंड नाम से बाजार में उतारेगी। यह दवा नेक्सावर का जेनेरिक संस्करण होगी।

कैंसर की आनुवंशिकता सामान्यतया कार्सिनोजन और पोषक के जीनोम के बीच जटिल अंतर्क्रिया से प्रभावित होती है। कैंसर रोगजनन की आनुवंशिकी के नए पहलू जैसे DNA (डीएनए) मेथिलिकरण और माइक्रो RNA (आरएनए), का महत्त्व तेजी से बढ़ रहा है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार देश में 28 लाख कैंसर के रोगी हैं। साथ ही हर साल आठ लाख कैंसर के नए मामले भी सामने आ रहे हैं। लेकिन कैंसर की फोबिया से जिने वालों की संख्या 50 लाख से ऊपर है। कैंसर फोबिया की वजह है जागरुकता। इस जागरुकता का नेगेटिव पक्ष सामने आऩे लगा है। डाक्टर सुनील रस्तोगी कहते हैं खबरे छपती है मोबाइल से कैंसर हो सकता है। ये खाने से कैंसर हो सकता हैं। इससे कैंसर हो सकता हैं। जो लोग इन हालातों से जुड़े होते हैं उनमें से कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें कैंसर हो गया है। वे बेवजह टेस्ट कराते रहते हैं। डाक्टर अब ऐसे रोगियों को मनोचिकित्सक से इलाज कराने की सलाह दे रहे है। दूसरी ओर जिन्हें कैंसर हैं वे नकील दवाओं के कारण उनकी जिंदगी दांव पर लगी रहती है। सारी दुनिया में कैंसर मरीजों की बढ़ती संख्या के कारण दवा कारोबार कई गुना बढ़ गया है। चूंकि कैंसर की दवाएं काफी महंगी है इसलिए नकली दवाओं का कारोबार भी तेजी से फैल रहा है। मोबाइल फोन के लंबे वक्त तक इस्तेमाल करने से कैंसर हो सकता है, इसे साबित करने के लिए कोई 'ठोस सबूत' नहीं हैं। ब्रिटिश हेल्थ प्रोटेक्शन एजेंसी एडवाइजरी ग्रुप ऑन नॉन-आयोनाइसिंग रेडिएशन (एजीएनआईआर) ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि कैंसर की आशंका वाली कई स्टडी पब्लिश हुई हैं, लेकिन किसी से भी यह साबित नहीं हो पाया कि मोबाइल से दिमागी ट्यूमर या किसी भी अन्य तरह का कैंसर हो सकता है। कुछ व्यक्तिगत अध्ययनों में दावा किया गया है कि उनके पास मोबाइल फोन के बेहद इस्तेमाल और दिमागी ट्यूमर के आशंका में बढ़ोत्तरी के बीच सीधे रिश्ते को लेकर सबूत हैं। दो साल पहले इंटरफोन स्टडी में कहा गया कि मोबाइल फोन का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने वाले लोगों में दिमागी कैंसर की आशंका 40 फीसदी तक बढ़ जाती है, लेकिन अन्य अध्ययनों में ऐसा कोई रिश्ता नहीं जुड़ पाया। 333 पन्नों की रिपोर्ट की लॉन्च करते हुए एजीएनआईआर के चेयरमैन प्रो. एंथनी स्वेरडलो ने कहा कि मेरा मानना है इस सिलसिले में कैसर के रुख पर नजर रखने की जरूरत है, खासतौर से दिमागी ट्यूमर पर।

कैंसर में पाई जाने वाली आनुवंशिक असामान्यताएं आमतौर पर जीन के दो सामान्य वर्गों को प्रभावित करती हैं। कैंसर को बढ़ावा देने वाले ओंकोजीन प्रारूपिक रूप से कैंसर की कोशिकाओं में सक्रिय होते हैं, उन कोशिकाओं को नए गुण दे देते हैं, जैसे सामान्य से अधिक वृद्धि और विभाजन, क्रमादेशित कोशिका मृत्यु से सुरक्षा, सामान्य उतक सीमाओं का अभाव, और विविध ऊतक वातावरण में स्थापित होने की क्षमता। इसके बाद गाँठ का शमन करने वाले जीन कैंसर की कोशिकाओं में निष्क्रिय हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन कोशिकाओं की सामान्य क्रियाओं में कमी आ जाती है, जैसे सही DNA (डीएनए) प्रतिकृति, कोशिका चक्र पर नियंत्रण, ऊतकों के भीतर अभिविन्यास और आसंजन, और प्रतिरक्षा तंत्र की सुरक्षात्मक कोशिकाओं के साथ पारस्परिक क्रिया। आमतौर पर इसके निदान के लिए एक रोग निदान विज्ञानी को एक उतक बायोप्सी नमूने का उतक वैज्ञानिक परीक्षण करना पड़ता है, यद्यपि दुर्दमता के प्रारंभिक संकेत रेडियो ग्राफिक इमेजिंग असमान्यता के लक्षण हो सकते हैं।

अधिकांश कैंसरों का इलाज किया जा सकता है, कुछ को ठीक भी किया जा सकता है, यह कैंसर के विशेष प्रकार, स्थिति और अवस्था पर निर्भर करता है.एक बार निदान हो जाने पर, कैंसर का उपचार शल्य चिकित्सा, कीमोथेरपी और रेडियोथेरेपी के संयोजन के द्वारा किया जा सकता है।अनुसंधान के विकास के साथ, कैंसर की विभिन्न किस्मों के लिए उपचार और अधिक विशिष्ट हो रहे हैं। लक्षित थेरेपी दवाओं के विकास में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है जो विशिष्ट गाँठ में जांच योग्य आणविक असामान्यताओं पर विशेष रूप से कार्य करती हैं, और सामान्य कोशिकाओं में क्षति को कम करती हैं। कैंसर के रोगियों का पूर्व निदान कैंसर के प्रकार से बहुत अधिक प्रभावित होता है, साथ ही रोग की अवस्था और सीमा का भी इस पर प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, उतक वैज्ञानिक (हिस्टोलोजिक) श्रेणीकरण और विशिष्ट आणविक मार्कर की उपस्थिति भी रोग के पूर्व निदान में तथा व्यक्तिगत उपचार के निर्धारण में सहायक हो सकती है। बदलते लाइफस्टाइल के चलते देश की करीब साठ फीसदी औरतों को गर्भाशय का कैंसर हो जाने आशंका बन गई है। इसके अलावा स्तन कैंसर के मामलों में भी चिंताजनक तरीके से बढ़ोतरी हो रही है। डॉक्टर इस बात से चिंतित हैं कि अब कम उम्र की लड़कियों में भी गर्भाशय के कैंसर के मामले सामने आने लगे हैं।

हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर हुए एक सर्वे में सामने आया है कि करीब पचास से साठ फीसदी महिलाओं में प्रजनन अंगों का कैंसर पाया जाता है। ब्रेस्ट कैंसर की संख्या भी कम नहीं है। मोहाली स्थित मैक्स अस्पताल के गायनी विभाग की सीनियर कंसल्टेंट डॉ. प्रीति जिंदल के मुताबिक कि देश में हर साल करीब सत्तर हजार महिलाएं ऐसी सामने आती हैं, जिनके गुप्तांग कैंसर से प्रभावित होते हैं, जबकि 75 हजार से अधिक महिलाओं को छाती का कैंसर होता है। उन्होंने बताया कि इस तरह के कैंसर का सही और समय पर इलाज न होने के कारण ज्यादातर महिलाएं मौत के मुंह में चली जाती हैं। बीबीसी के मुताबिक शोधकर्ताओं ने कैंसर के आठ ऐसे लक्षणों पर प्रकाश डाला है जिनको कैंसर के साथ जोड़ा जाता है और जिनकी व्याख्या अबतक ठीक से नहीं की गई है।कैंसर पर शोध करनेवाली कीले विश्वविद्यालय की टीम ने ये भी बताया है कि उम्र के किस पड़ाव पर इंसान को कैंसर के इन लक्षणों के प्रति सबसे चिंतित रहना चाहिए। इन लक्षणों में पेशाब में आनेवाले ख़ून और ख़ून की कमी की बिमारी अनीमिया शामिल है। दूसरे लक्षण हैं पखाने में आनेवाला ख़ून,खांसी के दौरान ख़ून का आना,स्तन में गाँठ,कुछ निगलने में दिक़्कत होना,मीनोपॉस के बाद ख़ून आना और प्रोस्टेट के परीक्षण के असामान्य परिणाम।

कैंसर रिसर्च यूके का कहना है कि किसी भी व्यक्ति के स्वास्थ्य में असामान्य परिवर्त्तन की जाँच होनी चाहिए। शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के किसी भी लक्षण के दिखने पर उसकी जाँच तुरंत करवाए जाने की ज़रूरत है। इससे कैंसर का पता चलने और उसे रोक पाने की कोशिशों में आसानी होगी। कैंसर रिसर्च यूके का कहना है कि इन लक्षणों को कैंसर के एक मात्र लक्षण के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। कैंसर रिसर्च यूके के मुताबिक "कैंसर के ये लक्षण पहले से ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं.लेकिन कैंसर के 200 से भी ज़्यादा प्रकार हैं.और इनके कई अलग लक्षण भी हैं।" कैंसर रिसर्च यूके का ये भी कहना है कि "अगर आपको कैंसर के ये लक्षण नज़र आएँ तो आप तुरंत इसकी जाँच करवाएँ.कैंसर का पता अगर शुरुआती दौर में चल जाए तो इसके इलाज़ के सफल होने की संभावना ज़्यादा होती है।" रॉयल कॉलेज ऑफ़ जेनरल प्रैक्टिशनर्स की मानद् सचिव प्रोफ़ेसर अमांदा हॉवे का कहना है कि "प्राथमिक शोध में पहले से परिचित इन लाल झंडेवाले लक्षणों के बारे में जानकारी मिलना उपयोगी है.इससे डॉक्टरों के साथ अपने रोग के लक्षण पर चर्चा करने के लिए मरीज़ो को उत्साहित किए जाने की महत्ता को बल मिलेगा।"

[B]लेखक पलाश विश्वास पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकर्मी हैं. अमर उजाला समेत कई अखबारों में काम करने के बाद इन दिनों जनसत्ता, कोलकाता में कार्यरत हैं. अंग्रेजी के ब्लॉगर भी हैं. उन्होंने 'अमेरिका से सावधान' उपन्यास लिखा है.[/B]
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palashg aapne bahut hi acchi jankari di.aapne jis bhawukta k sath ek utkrist saili me likha usne ek sans me is lekh ko padhne pr majboor kr diya.maine bhi is kade yatharth ko bhoga hai.2003 me lagbhag tin mah tk tmh,mumbai me nana ka ilaj krwaya.ractum ca ki surgery k bad do kemo lekar ghar aanewale the en waqt pr huye bukhar aur bad me heart attac se unki maut wahi ho gayi.mai aur ma ne kisi tarah body ghar laye.unki maut nahi hui hoti to bhi usi din hamlogo ko ghar jana tha. do kemo ghar se lene ke bad vapas hospital me do kemo o radiation sath hona tha.lekin badkismati rahi ki achhe-bhale unhe gaon se laya aur deadbody lekar gya.kabhi-kabhi apradhbodh hota hai.kyo doctor's pr bharosa kiya?apne prayog k pher me ye marij ki jindgi ki ses khusiya bhi chhin lete hai.mere nana abhi tandurust the yahi karan hai ki doctors ne operation ki safalta ki prabal sambhavna jatayi thi.unke jane k bad maine to apna sachha abhibhawak kho diya sath hi aas-pas k kai gaon k logo ne apna sachha hitaisi o sukh-dukh ka bhagidar kho diya.gahe- bagahe logo ka dard pragat bhi hota hai.rajniti se to unka lena-dena nahi tha lekin samajik sarokar itna ki 12 bje brush krte.jaisa ki aapne bhi likha hai, aur inhi karno se yh lekh mere antarman ko chhu gai hai ki mere ghar bhi waise hi logo ka jamawda rahta tha.chhote-bade bivado ko suljhane se lekar sadi-byah o mawesi kharidne tk inki salah aham mani jati thi.paise k bgair kisi ka kam nahi rukta.gaon k aadmi se hi ek-dusre ko de dilakar sabki kam nikalwa dete.yaha tak ki gao me kam nahi chalne pr sahar k marwari ya sage ristedaro se khud karj le lete.baharhal apne dukhti rag pr hath rakh diya hai.is bimari k ilaj ko lekar sarkar ko sabse adhik gambhir hona chahiye.bihar jaise badi aabadiwale prades me ek adad dhang ka hospital nahi hona dukhad hai.
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