प्रतीकात्मक संघर्षों में फंसी दलित राजनीति
पिछले कई दशकों से तमाम चुनावबाज दलित पार्टियाँ व उनके नेता प्रतीकात्मक राजनीति ही कर रहे है,जिससे देश के दलितों को कोई न तो रोजगार मिलना है,न ही कोई शिक्षा व स्वास्थ्य क़ी सुविधा और न ही उनकी आर्थिक,सामाजिक हालातों में किसी किस्म का सुधार आने वाला है...
जेपी नरेला
बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के विवादास्पद कार्टून एनसीइआरटी की पुस्तक में प्रकाशित होने के मुद्दे पर 11 मई को संसद में जमकर हंगामा हुआ. भारी हंगामे के कारण लोकसभा दिन भर के लिए स्थगित करनी पड़ी ,जबकि राज्यसभा की कार्यवाही तीन बार स्थगित हुई. दोपहर बाद जब राज्यसभा की कार्यवाही फिर शुरु हुई तो कापिल सिब्बल ने भरोसा दिया कि इस मामले में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही होगी.
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती इससे असंतुष्ट होकर बोलीं कि कार्यवाही कब तक होगी ? मायावती ने कहा कि तीन दिन के भीतर यदि कार्यवाही नहीं हुई तो फिर संसद कि कार्यवाही नहीं चलने दी जाएगी. उन्होंने कहा कि अंबेडकर का यह कार्टून भारतीय लोकतंत्र का अपमान है.
भारत के विभिन्न हिस्सों में आये दिन दलितों के घर जलाये जा रहे है. उनकी बहू-बेटियों के साथ बलात्कार हो रहे है. गावों में नंगा कर घुमाया जा रहा है. दलित युवक यदि समाज क़ी ऊपरी जाति क़ी युवती से प्रेम या शादी कर ले तो मध्ययुगीन, बर्बर ,रुढ़िवादी ,तालिबानी खाप पंचायतें उनको फांसी क़ी सजा के फरमान जारी करती है. परिवारों और टोलों गावों से बेदखल कर दिया जाता है.
तब खुद को दलित नेता कहने वाली बहन मायावती या अन्य दलित नेताओं को क्या सापं सूंघ जाता है. मौके पर जाने क़ी बात तो छोड़ ही दीजिये, कोई बयान तक जारी करने क़ी जरूरत नहीं समझते. न ही संसद में कोई सवाल उठाता है. दिल्ली से सटे राज्य हरियाणा में ही झज्जर, दुलिना से लेकर गोहाना और मिर्चपुर में दलितों पर सरेआम अत्याचार हुए तो मायावती व किसी भी दलित नेता ने पीड़ितों को न्याय दिलवाने व इन अत्याचार क़ी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए क्या किया ?
मिर्चपुर के बहुत सारे परिवार आज भी दबंग जातियों के डर के कारण अपने गावं में दोबारा बस नहीं पाए है.मायावती ही जब बीजेपी के समर्थन से पहली बार यूपी क़ी मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने बीजेपी के साथ एक शर्मनाक समझौते के तहत के दलितों पर अत्याचारों के खिलाफ बने कानून अनु .जाति /.अनु. जन जाति .अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 को निष्प्रभावी बना दिया था. इसके बाद यु.पी. में दलितों पर अत्याचारों में निरंतर बढ़ोतरी हुई और पिछले दिनों तक मायावती के मुख्यमंत्री रहते हुए ही दलितों पर अत्याचार क़ी बढती घटनाएँ किसी से छुपी बात नहीं है.
हम यह कतई नहीं कह रहे है कि बाबा साहेब का किसी भी रूप में कोई अपमान होना चाहिए, उसका विरोध अवश्य ही होना चाहिए. लेकिन क्या उनके आदर्शों को भुला दिया जाना चाहिए. हम समझते हैं कि तमाम दलित नेताओं एवं पार्टियों ने उनके आदर्शों को भुलाया है. उदाहरण के तौर पर बाबा साहेब उद्योगों व जमीन के राष्ट्रीयकरण की बात कही थी और बताया था कि हिन्दू धर्म की जड़ तमाम वेद- शास्त्रों का निषेध होना चाहिए.
आभासी दुनिया की लड़ाई में मशगुल इन दलित नेताओं और पार्टियों ने इन आदर्शों पर कभी भी कोई जन आन्दोलन चलाने का प्रयास किया ? नहीं. और करेंगे भी नहीं, क्योंकि इन्हें सिर्फ और सिर्फ दलितों के वोट बैंक क़ी राजनिति ही करनी है और भारतीय समाज में जाति का बने रहना ही इनके निहित स्वार्थों क़ी पूर्ति करता है. इसलिए कोई भी ऐसा मुद्दा ये नहीं उठाएंगे जो रास्ता जाति उन्मूलन की ओर जाता हो. आखिर जब जाति समाप्त हो जाएगी तो ये तथाकथित दलित नेता मुख्यमंत्री और मंत्री कैसे बनेंगे.
दूसरा मसला आज निजीकरण के इस दौर ने दलितों को नौकरियों में मिल रहे आरक्षण पर तलवार लटका दी है. ये सभी पार्टियाँ व नेता एक स्वर में निजीकरण के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ते है. निजीकरण के खिलाफ जन आन्दोलन खड़ा करने के बजाय ये निजी क्षेत्रों में आरक्षण की मांग पर ही ठहर गये है.
इसलिए वर्तमान दलित आन्दोलन केवल प्रतीकात्मक राजनीति कर वर्तमान व्यवस्था व शासक वर्गों क़ी ही सेवा करना चाहता है, वास्तव में दलित हितों से इनका कोई लेना देना नहीं है.
(जेपी नरेला जाति विरोधी मोर्चा के संयोजक हैं.)
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