Wednesday, 09 May 2012 11:32 |
अरुण कुमार त्रिपाठी आदिवासी इसी तरह स्वशासन के लिए भूरिया कमेटी की रपट लागू होने का इंतजार करते रहे और जब 1996 में पेसा कानून बना तो काफी उम्मीद जगी। पेसा कानून के तहत हर ग्रामसभा को अपनी परंपरा, सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण के लिए पूर्ण अधिकार दिया गया और यह भी माना गया कि वह विवादों का निपटारा अपने पारंपरिक तरीके से कर सकेगी। पेसा कानून ने आदिवासी इलाकों में अद्भुत उत्साह का संचार किया था। नारा लगा, मावा नाटे मावा राज, यानी हमारे गांव में हमारा राज। लोकसभा से ऊंची ग्रामसभा। जगह-जगह जश्न मनाए जाने लगे और तमाम नेता और अफसर पूछने लगे कि अब हमारी क्या जरूरत रह जाएगी? पर बाद में यह कह कर उस कानून को बेकार कर दिया गया कि यह एक केंद्रीय कानून है और संविधान का हिस्सा नहीं, इसलिए इसे ज्यादा दूर तक नहीं खींचा जा सकता। विडंबना देखिए कि आज कभी एनसीटीसी, तो कभी लोकपाल के नाम पर स्वायत्तता का नारा बुलंद कर रहे राज्यों के मुख्यमंत्री कहीं भी आदिवासी स्वायत्तता की मांग नहीं कर रहे हैं। न तो उन्हें पेसा कानून के तहत स्वायत्तता-प्राप्त ग्रामसभा पसंद है, न ही पांचवीं अनुसूची का मजबूत होना। इस बारे में भारत को राज्यों का संघ बताने वाले तमाम संविधानविद भी खामोश हैं। आखिर यह कैसी स्वायत्तता है जहां देश के मूल जनों के लिए सम्मान ही नहीं है? दरअसल, हमारा संविधान आदिवासियों के सोच और उनकी संस्कृति को ध्यान में रख कर बनाया ही नहीं गया है। यही वजह है कि आजादी के पैंसठ वर्षों बाद जब देश की तमाम जातियां फल-फूल रही हैं, तब वे अपने ही देश में अस्तित्व के लिए एक प्रकार का युद्ध लड़ रहे हैं। उनका यह युद्ध बड़ी पूंजी के हित में काम कर रही अपनी सरकारों से है और इस लड़ाई में आज भले माओवादी उनके साथ हैं, लेकिन हकीकत में वे भी उनके साथ लंबी दूरी तक नहीं रहने वाले हैं। उन्होंने तो आदिवासी इलाकों को माओवादी विचारों की प्रयोगशाला बना रखा है जिसे आदिवासी न तो समझता है न ही उस पर लंबे समय तक चलना चाहता है। लेकिन इस बात को समझते हुए भी न समझने में ही हमारी राजनीति की भलाई है। क्योंकि अगर वह आदिवासियों को माओवादियों से अलग कर देगी तो संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति में सफल नहीं हो पाएगी। भारतीय संविधान और राजनीतिक प्रणाली की इसी विडंबना को महसूस करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी कहते हैं कि आदिवासियों को अपना आंबेडकर चाहिए। जाहिर-सी बात है कि अगर पहले वाले और दलितों के लिए लड़ने वाले आंबेडकर से काम चलता तो वे वैसा न कहते। उन्हें वैसा नेता और विद्वान चाहिए जो या तो संविधान को उनके लिए लिखे या फिर उसमें उनके लिए अहम स्थान बनवाए। वैसा व्यक्ति उनके भीतर का होगा या बाहर का, यह तो समय बताएगा। लेकिन उसकी निष्ठा कम से कम इस आधुनिकतावादी सभ्य समाज के प्रति नहीं होनी चाहिए। अगर वैसी होगी तो वह उनके साथ उसी तरह न्याय नहीं कर पाएगा जैसे आंबेडकर सहित हमारे स्वाधीनता संग्राम के तमाम नेता नहीं कर पाए। जाहिर है, आदिवासियों का संघर्ष उस सोच पर गहरे सवाल खड़ा करता है जो संविधान को सबसे पवित्र दस्तावेज मानते हुए उसकी रक्षा की सौगंध लेता है। देश और आदिवासी समाज के हित में हमें इसमें बदलाव करने होंगे और इसमें वेरियर एल्विन और बीडी शर्मा जैसे अध्येताओं और सिद्धांतकारों के उन विचारों का भारी योगदान होगा जो उन्होंने मुख्यधारा से हट कर आदिवासियों के साथ खडेÞ होकर तैयार किए हैं। |
Wednesday, May 9, 2012
आदिवासियों को चाहिए अपना आंबेडकर
आदिवासियों को चाहिए अपना आंबेडकर
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