'हमारो जवाब पूरो ना भयो'
- WEDNESDAY, 11 APRIL 2012 09:49
- इरफान ने पान सिंह के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं- फौजी, धावक, पति, बागी और पिता के चरित्र को भरपूर जिया है। उनके कुशल और सशक्त अभिनय का ही कमाल है कि पान सिंह की जीवन झाँकी हमें एक ही साथ तनावग्रस्त करती है, प्रफुल्लित करती है, बेचैन करती है और उत्साहित भी करती है...
दिगंबर
तिग्मांशु धूलिया की फिल्म 'पान सिंह तोमर' स्टीपल चेज (बाधा दौड़) में सात बार राष्ट्रीय चैम्पियन रहे एक फौजी के जीवन पर आधारित है, जिसे हालात ने चम्बल का बागी बना दिया था। (स्टीपल चेज एक बहुत ही कठिन और थकाऊ खेल है जिसमें 3000 मीटर की दौड़ करते हुए 28 बाधाएँ और 8 पानी के गड्ढे पार करने होते हैं।)
चम्बल के बागियों पर अब तक न जाने कितनी मसालेदार हिन्दी फिल्में बनीं, जिनमें कुछ तयशुदा कथासूत्र या फिल्मी फारमूले हुआ करते थे। उन फिल्मों की एक खासियत यह भी होती थी कि छद्म-व्यक्तित्व वाले या निर्वैयक्तित्व डाकुओं का किरदार निभाने वाले अभिनेताओं का व्यक्तित्व इतना उभरता था कि वे दर्शकों के दिलोदिमाग पर और साथ ही फिल्मी दुनिया में भी छा जाते थे। इसके क्लासिकीय उदाहरण मेरी जानकारी में रजा मुराद, जोगिन्दर और अमजद खान हैं। लेकिन पान सिंह तोमर इस मायने में उन साब से एकदम अलग है कि इसमें लूट-पाट, हत्या, इंतकाम की आग और क्रूरता का सनसनीखेज, ग्राफिक चित्रण नहीं है।
इसमें डाकू के किरदार का गौरवगान या दूसरे छोर पर जाकर दानव के रूप चित्राण भी नहीं है। बागियों की बहादुरी और उनके अतिमानवीय चरित्र का बखान करने के बजाय यह फिल्म उन सामाजिक परिस्थितियों पर रोशनी डालती है, जिनमें एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी और अनुशासित फौजी को बागी बनने पर मजबूर कर दिया जाता है।
तिग्मांशु धूलिया ने शेखर कपूर की फिल्म 'बैंडिट क्वीन' में सह निर्देशन करते हुए जो तजुर्बा हासिल किया, उसका भरपूर इस्तेमाल किया और इसे एक उत्कृष्ट फिल्म बनाने में पूरी तरह कामयाब रहे। चम्बल की घाटी, नदी, बीहड़ और ग्रामीण अंचल के अब तक अनछुए, अनोखे भूदृश्यों को बखूबी कैमरे में कैद किया गया है। कथानक और माहौल के अनुरूप फिल्म के संवाद भिंड-मुरैना की ठेठ बोली में हैं जो आमतौर पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों में ही देखने को मिलते हैं। यथार्थ चित्रण के लिए निर्देशक ने यह जोखिम उठाया। फिर भी दर्शकों को इससे कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि संवाद के अलावा सिनेमा के दूसरे रूप विधान- अभिनय, दृश्यबंध और फिल्मांकन अपनी पूरी कलात्मकता के साथ दर्शकों को बाँधें रहते हैं। संजय चौहान ने पटकथा पर काफी मेहनत की है और तिग्मांशु धूलिया के संवाद ने उसे एकदम जीवन्त बना दिया है।
इरफान ने पान सिंह के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं- फौजी, धावक, पति, बागी और पिता के चरित्र को भरपूर जिया है। उनके कुशल और सशक्त अभिनय का ही कमाल है कि पान सिंह की जीवन झाँकी हमें एक ही साथ तनावग्रस्त करती है, प्रफुल्लित करती है, बेचैन करती है और उत्साहित भी करती है। पत्रकार की भूमिका में विजेन्द्र काला और पान सिंह की पत्नी की भूमिका में माही गिल का अभिनय भी काफी सहज-स्वाभाविक है। दूसरे सभी चरित्र अभिनेताओं ने भी गजब का अभिनय किया है। संगीत का अतिरेक नहीं है, इसलिए फिल्म के कथानक पर यह हावी नहीं होता। कुल मिलाकर इस फिल्म में अन्तर्वस्तु और रूप की एकता भी गजब है।
इस फिल्म की तारीफ तो सिर्फ इसी बात के लिए की जा सकती है कि मौजूदा दौर में जहाँ क्रिकेट खिलाड़ियों की करोड़ों में बोली लग रही हो और शतक बनाने वालों को भारत रत्न देने तक की माँग हो रही हो, जबकि बाकी तमाम खेलों के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की कोई पूछ न हो, वहाँ पान सिंह तोमर जैसे भूले-बिसरे धावक की कहानी को फिल्म का विषय बनाया गया। फिल्म के अन्त में ऐसे ही चार अन्य खिलाड़ियों को भी याद किया गया है जो राष्ट्रीय चैम्पियन होने के बावजूद कंगाली-बदहाली की हालत में इलाज के बिना गुमनाम मौत मरे और यहाँ तक कि अपना स्वर्ण पदक बेचने पर भी मजबूर हुए।
लेकिन यह फिल्म अपने देश के उपेक्षित और गुमनाम खिलाड़ियों को श्रद्धासुमन अर्पित करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती और कामयाबी यही है कि यह किसी एक बागी की कहानी मात्र नहीं रह जाती। इस फिल्म में नायक के चरित्र के साथ उसका सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश पूरी तरह अन्तर्गुंफित है। पान सिंह को गढ़ने वाला सामाजिक यथार्थ उसकी कहानी के साथ अन्तर्धारा की तरह प्रवाहित होता रहता है और उसके जीवन के समानान्तर चल रहा भारतीय समाज-व्यवस्था का विकृत चेहरा हमारे सामने सजीव रूप में आ उपस्थित होता है। किसी उत्कृष्ट कलाकृति की खासियत भी यही है। इस फिल्म का अनेक स्तरों पर रसास्वादन किया जा सकता है। तिग्मांशु धूलिया की यह फिल्म भारतीय सिनेमा की प्रवीणता और प्रौढ़ता की ओर बढ़ते जाने का एक सुखद संकेत है।
इस फिल्म में पान सिंह की जीवन झाँकी के माध्यम से बीहड़ के ग्रामीण अंचल की ही नहीं, बल्कि आजादी के बाद निर्मित समूचे भारतीय समाज की व्यथा-कथा कही गयी है। पत्रकार के इस सवाल के जवाब में कि आपने पहली बार बन्दूक कब उठायी, वह अपने जीवन के समानान्तर चलने वाली कहानी का निचोड़ सीधे सपाट ढंग से रख देता है- 'अंग्रेज भगे इस मुल्क से बस उसके बाद, पंडित जी प्रधान मंत्री बन गये और नव भारत के निर्माण के संगे-संगे हमओ भी निर्माण सुरू भओ।'
भारतीय राज्य और यहाँ के शासक वर्ग के चरित्र की झलक इस फिल्म में साफ-साफ देखी जा सकती है। आजादी के बाद हमारे देश में ढेर सारी विकृतियों वाली एक पूँजीवादी व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। औपनिवेशिक प्रशासनिक ढाँचे को थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ बनाये रखा गया जिसको लेकर अक्सर सवाल उठते रहते हैं- चाहे गुलामी के दौर में अंग्रेजों द्वारा बनाये गये औपनिवेशिक न्याय-तंत्र और कानून को जारी रखने की बात हो, जनविमुख सेना की अफसरशाही और फरमानशाही हो, पुलिस का उत्पीड़क और दमनात्मक चरित्र हो या प्रशासन तंत्र की जनता के प्रति बेरुखी और लापरवाही।
आजादी के इतने वर्षों बाद भी यहाँ का राज्य-तंत्रा अंग्रेजों की तरह ही,बल्कि कई मामलों में अंग्रेजों से भी क्रूरतापूर्वक देश की जनता के साथ प्रजा-पौनी के रूप में बर्ताव करता है। स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज को मजबूत बनाना और संचालित करना इस शासन तंत्र का दायित्व नहीं है। उसे तो बस कानून-व्यवस्था को कायम रखना है। बागी या अपराधी बनाने वाली परिस्थितियों और कारणों को बनाये रखना, लोगों को अपराधी बनने की ओर धकेलना और फिर कानून की रक्षा के नाम पर उन्हें मुठभेड़ में मारना ही जैसे पुलिस प्रशासन का काम हो।
पान सिंह के दो संवाद इस सच्चाई को तीक्ष्ण रूप से व्यक्त करते हैं। फौज का अधिकारी जब उससे सरेंडर करने की अपील करता है तो वह क्षोभ में आकर कहता है- 'उन लोगों से क्यों नहीं पूछते सवाल जो बनाते हैं बागी। पहले वे सरेंडर करें फिर हम करेंगे सरेंडर।' इसी तरह सेना का एक दूसरा अधिकारी जब सरेंडर करके कोच बनने की सलाह देता है तो वह कहता है कि 'खेल की कीमत ये पुलिस-पंचायती क्या जानें। इन्हें तो बीहड़ आबाद करने के लिए एक और मिल गयो बागी।'
आजादी के बाद गाँवों की आन्तरिक संरचना में हुए बदलावों को भी इस फिल्म में साफ-साफ देखा जा सकता है। फिल्म का खलनायक दद्दा पान सिंह का चचेरा भाई है जो उसकी जमीन हड़प लेता है और उसके परिवार का गाँव में रहना दूभर कर देता है। एक ही खानदान के दो परिवारों में से एक परिवार हर तरह के नाजायज तौर-तरीके अपना कर सरकारी तंत्र के सहयोग और समर्थन से उफपर उठता चला जाता है तथा पूँजी के बलबूते पर नये तरह की जोर-जबरदस्ती और स्वेच्छाचारिता का प्रदर्शन करता है।
मौजूदा भारतीय गाँवों की यह आम सच्चाई है जहाँ पुराने सामन्तों की जगह बहुत ही थोड़ी संख्या में, खासतौर पर ऊपरी और मध्यम जातियों के बीच से एक नव धनाढ्य वर्ग उभरा है। इसी वर्ग के हाथ में स्थानीय स्तर पर सत्ता की बागडोर है। वह अपने पट्टीदार को तो क्या,अपने ही सगे भाई को भी अपनी खुशहाली के रास्ते से हटा सकता है।
इसी त्रासद और अमानुषिक रास्ते से हमारे गाँवों में किसानों के विभेदीकरण यानी, वर्गीय ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पूरी हुई है। मूलतः सवर्ण काश्तकारों का एक हिस्सा कंगाली का शिकार होकर समाज के निचले पायदान पर स्थित बहुसंख्य दलित और पिछड़ी जातियों की पहले से ही वंचित जमात में शामिल होता गया। इस नयी सामाजिक संरचना के ऊपरी पायदान पर कुलकों, भूस्वामियों, फार्मरों,धनी किसानों, ठेकेदारों और सरकारी तंत्र से नाभिनालबद्ध परजीवियों के छोटे से तबके का ग्रामीण क्षेत्रों में वर्चस्व कायम हुआ है। इस परिघटना की एक झलक पान सिंह के दद्दा और उसके परिवार के रूप में देख सकते हैं। फिल्म में इस तबके की हेकड़ी उत्कट रूप में उस दृश्य में सामने आती है जब कलक्टर यह कहते हुए भाग खड़ा होता है कि 'यह चम्बल का खून है, तुम लोग आपस में निपट लो।' यही स्थिति आज स्थानीय भिन्नताओं के साथ हर इलाके में मौजूद है।
इस फिल्म में पान सिंह तोमर के व्यक्तित्व में क्रमशः तीन अलग-अलग चारित्रिक बदलाव दिखाई देते हैं। फौज में भर्ती होने तक स्वाभाविक रूप से उसके ऊपर सामन्ती परिवेश का प्रभाव है। फौज की नौकरी के शुरुआती दिनों में उसके आचार-व्यवहार में इसकी साफ झलक मिलती है। दूसरा, एक सैनिक के रूप में वह आजादी के बाद स्थापित नयी शासन व्यवस्था और राज्य के प्रति वफादारी का पाठ पढ़ता है तथा सेवानिवृत होकर गाँव लौटने के बाद भी उसे निभाने का प्रयास करता है। तीसरा, इस व्यवस्था से मोहभंग होने और बागी बनने के बाद का व्यक्तित्व है। इन तीनों चरित्रों की बारीकियों को इरफान ने अपने सशक्त अभिनय से बखूबी उभारा है।
फौजी अफसरों के सामने पेशी के समय वह सहज, बेबाक और भोले लहजे में जिन सच्चाइयों का बयान करता है वह उसकी ठेठ समान्ती और गँवई मानसिकता का इजहार है। वह अपने मामा के बागी होने और अब तक पुलिस की गिरफ्त में न आने का बखान करता है। यह पूछे जाने पर कि तुम देश के लिए मर सकते हो, वह कहता है कि 'मार भी सकता हूँ...' इस सवाल के जवाब में कि क्या वह सरकार पर विश्वास करता है उसका कहना है कि 'सरकार तो चोर है, इसीलिए तो फौज की नौकरी में आया हूँ, सरकारी नौकरी नहीं की।'
अपने कोच द्वारा गाली दिये जाने पर पान सिंह कहता है कि 'हमारे यहाँ गाली पर गोली चल जाती है।' लेकिन यहीं से फौजी जीवन जीने के साथ-साथ उसका रूपान्तरण शुरू होता है। वह राज्य की नयी संरचना को स्वीकारते हुए उसके द्वारा निर्मित अनुशासन के साँचे में ढलने लगता है। इस तरह उसके व्यक्तित्व में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव आता है। पान सिंह काफी हद तक पुराने सामंती संस्कारों की जगह नये जीवन मूल्यों को अपनाता है। गाँव की चौहद्दी लाँघने और बाहरी दुनिया से सामना होने के बाद जैसा कि फिल्म की शुरुआत में पत्रकार को अपनी कहानी सुनाते हुए उसने कहा था, यानी 'नव भारत के निर्माण के संगे-संगे हमओ भी निमार्ण शुरू भओ', वह सब उसके निजी जीवन में घटित होता है।
फौज की नौकरी के दौरान वह कायदे-कानून के प्रति जिस आस्था का पाठ पढ़ता है, उसे बाद में भी अपने जीवन में उतारने की भरपूर कोशिश करता है। गाँव लौटने के बाद अपने विरोधियों का अत्याचार सहते हुए और बार-बार अपने करीबी लोगों के उकसाने पर भी बन्दूक उठाने को तैयार नहीं होता। वह कमिश्नर के जरिये पंचायत में जमीन का विवाद सुलझाने की कोशिश करता है, लेकिन न्याय दिलाने के बजाय कमिश्नर उसे अपने हाल पर छोड़ देता है। विरोधियों की मार-पिटाई से बेटे के बुरी तरह लहूलुहान हो जाने पर वह पुलिस से फरियाद करता है। यह बताने के बावजूद कि वह राष्ट्रीय खिलाड़ी और फौजी रहा है, थानेदार उसके मामले को गम्भीरता से नहीं लेता, उसका मजाक उड़ाता है, उसके साथ दुर्व्यवहार करता है।
वह कहता है कि 'तुम्हारे बेटे की सांस तो चल रही है, मरा तो नहीं। मुरैना पुलिस की इज्जत है। बिना दो-चार लाश गिरे हम कहीं नहीं जाते।' पान सिंह गुस्से से आग बबूला हो उठता है, दरोगा को खरी-खोटी सुनाता है और मायूस होकर लौट जाता है। फिर भी वह कानून को हाथ में नहीं लेना चाहता, क्योंकि नवभारत के निर्माण और कायदे-कानून पर उसे भरोसा है। लेकिन भारतीय राज मशीनरी एक नागरिक के रूप में पान सिंह की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरती।
उधर दद्दा का परिवार उसके घर पर हमला करके उसकी बूढ़ी माँ को पीट-पीट कर मार डालता है। उसका परिवार गाँव छोड़ने पर मजबूर होता है। अनेक कटु अनुभवों से गुजरने के बाद उसे यह सबक मिलता है कि मौजूदा शासन-प्रशासन उसके लिए बेमानी है। उसका मोहभंग होता है और अंतिम विकल्प के रूप में वह बंदूक उठा कर बीहड़ों की राह लेता है।
सच तो यह है कि राज्य मशीनरी की निर्मम उपेक्षा और समाज व्यवस्था की क्रूरता और चरम स्वार्थपरता ने पान सिंह के लिए मरने या मारने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा। इतने पर भी वह अपने घायल बेटे को अगले ही दिन फ़ौज की यूनिट में हाजिर होने का आदेश देता है। जब उसका भतीजा पूछता है कि दद्दा हमारी यूनिट कब निकलेगी तो वह अपने अन्तरद्वंद्व पर बड़ी मुश्किल से काबू पाते हुए डबडबाई आँखों और भारी मन से कहता है कि 'हमई यूनिट निकलेगी कल सुबे।'
पान सिंह का यह मोहभंग दरअसल उस व्यवस्था से है जो लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं को भारतीय समाज में गहराई से रोपने में पूरी तरह से असफल साबित हुआ। भारतीय शासक वर्गों ने आजादी के बाद अपने संकीर्ण स्वार्थों के चलते सभी तरह के प्रतिगामी मूल्यों से समझौता किया और सामन्तवादी सामाजिक संरचना को मूलतः बने रहने दिया। उसने जातिवाद, सम्प्रदायवाद,कबीलाई जत्थेबंदी और हर तरह के भेदभाव को मिटाने के बजाय उन्हें अपनी नयी संरचना का सहायक अंग बना लिया। उसने जनता से किये गये आमूल भूमि सुधार के वादे को तिलांजलि दे दी जो एक ऐसा ऐतिहासिक कार्यभार था जो अतीत से चली आ रही ढेर सारी सामाजिक विकृतियों और विद्रूपताओं को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अनिवार्य था।
बागी होने के बावजूद पान सिंह डकैत और बागी के फर्क को मिटाता नहीं। उसे इस बात का सख्त अफसोस है और गुस्सा भी कि जब उसने देश के लिए मैडल लाया तो उसे कोई पूछने वाला नहीं था, लेकिन जब बागी बन गया तो सब उसका नाम ले रहे हैं। फिल्म के शुरुआती दृश्य में इन्टरव्यू लेने आये पत्रकार द्वारा खुद को डाकू कहे जाने पर वह एतराज करते हुए कहता है कि 'बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत पार्लियामेंट में होते हैं।'
वह उस पत्रकार से पूछता है कि 'इस इन्टरव्यू के छपने से तुम्हारी तरक्की होगी?' वह उसका अनादर करता है, उसे जमीन पर बिठाता है। पत्रकारों को बिना मेहनत की कमाई करने वाला बताते हुए उसका मजाक उड़ाता है और कहता है कि बहुत चर्बी चढ़ी हुई है, रोज दौड़ लगाओ। तीन राज्यों की पुलिस को चकमा देने के बाद चर्चित होने की घटना का बयान करने के बाद पत्रकार की चापलूसी और तारीफ सुनकर वह नफरत और गुस्से कहता है-'सत्ताइस बैरियर, सात पानी का गड्ढा पार करके तीन हजार मीटर दौड़ पुरा किये, नेशनल चैम्पियन भये कउनो ना पूछा। ये तीन स्टेट की पुलिस को चकमा देके एक किडनैपिंग कर लेई तो पूरा देश में पान सिंह पान सिंह हो गवो।'
जाहिर है कि बागी बनने के बाद भी उसका अतीत और भविष्य का सपना- 'नव भारत का निर्माण' दुःस्वप्न की तरह उसका पीछा करता है। लेकिन जैसा कि वह बागियों के सरदार द्वारा सरेंडर करने का आग्रह ठुकराते हुए कहता है- 'बाबा आप कभी रेस दौड़े हैं, बाबा रेस को एक नियम होतो है, एक बार रेस शुरू है गई, फिर आप आगे हो कि पीछे हो, रेस को पूरो कारणों पडतो है। वो दूर, वो फिनिस लें,वोको छुनो पडतो है। सो हमहू रेस पूरी करेंगे, हम हरे कि जीते...' उसके लिए पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं है क्योंकि 'बीहड़ में दुश्मन खत्म हो जाते हैं दुश्मनी नहीं।'
फिल्म के एक मार्मिक दृश्य में पान सिंह दद्दा को दौड़ा कर जमीन पर गिरा देता है और वह उसके आगे अपनी जान की भीख माँगते हुए गिड़गिड़ाता है। वह बड़ी ही आत्मीयता, तकलीफ और क्षोभ के साथ उससे यह सवाल पूछता है कि 'हम तो एथलीट हते। धावक। इन्टरनेशनल। अरे हमसे ऐसी का गलती है गयी। का गलती है गयी की तैने हमसे हमारो खेल को मैदान छीन लेयो। और ते लोगों ने हमारे हाथ में जे (बन्दूक) पकड़ा दी। अब हम भाग रए चम्बल के बीहड़ में। जा बात को जवाब कौन दैगो, जा बात को जवाब कौन दैगो?'
पान सिंह का यह सवाल दरअसल अपने दद्दा से ही नहीं, आजादी के बाद अस्तित्व में आयी नयी व्यवस्था के स्वप्नदर्शियों और कर्णधारों से है जिनके रचे समाज में दद्दा जैसे लोग पैदा हुए और फले-फूले। राज्य मशीनरी ने उन्हें संरक्षण दिया। बागियों को खत्म करने में दिन-रात जुटी रहने वाली राज्य मशीनरी ही बागी पैदा करने वाली सामाजिक संरचना का पोषण-संरक्षण करती रही। उसका लाभ उठाकर गाँव के इलाकों में एक नया शोषक वर्ग पैदा हुआ जो पुराने सामन्ती शोषकों से भी अधिक क्रूर, शातिर और हर तरह के सड़े-गले विचारों का पोषक है।
मौजूदा व्यवस्था को टिकाये रखने वाला सबसे निचले स्तर का अवलम्ब यही वर्ग है जो 1981 से लेकर आज तक, दिन-ब-दिन और भी ताकतवर होता गया है। पान सिंह का अपने दद्दा से सवाल पूछने का सिलसिला चल ही रहा होता है कि उसके गिरोह का एक आदमी गोली दाग कर उसका काम तमाम कर देता है। पान सिंह व्याकुल होकर चीखता है- 'हमरो जवाब पूरो ना भयो।' यह सवाल दद्दा से नहीं क्योंकि वह मार दिया गया। यह सवाल मौजूदा व्यवस्था से है और हम सब से भी है।
सचमुच पान सिंह का प्रश्न अभी अनुत्तरित है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से आइजल तक आज भी पान सिंह तोमर नाना रूपों में पैदा हो रहे हैं और गुमनाम मौत मर रहे हैं, जबकि उन्हें पैदा करने और मारने वाली व्यवस्था का कुछ नहीं बिगड़ रहा है। कुछ ही साल पहले की बात है, जब हरित क्रान्ति का सिरमौर जिला मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) में कुछ ही महीने के अन्दर पचास से भी अधिक नौजवान पुलिस मुठभेड़ में मारे गये थे।पान सिंह तोमर फिल्म में उठाये गये सवाल हमारे मौजूदा दौर के बेहद जरूरी सवाल हैं। इसका जवाब ढूँढे बिना बगावत के आत्मघाती सिलसिले को बुनियादी बदलाव की दिशा में मोड़ना और भारतीय समाज को आगे की मंजिल तक ले जाना मुमकिन नहीं।
वरिष्ठ अनुवादक दिगंबर सामाजिक सरोकारों की पत्रिका देश-विदेश के संपादक हैं. यह् लेख उनके ब्लाग 'विकल्प मंच' पर प्रकाशित हो चुका है.
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