Thursday, April 19, 2012

आग की तलाश में मेरे कई चिराग बिछड़ गये! #SARA

http://mohallalive.com/2012/04/19/seema-azmi-play-on-sara-shagufta/

आमुखनज़रियासंघर्षसिनेमा

आग की तलाश में मेरे कई चिराग बिछड़ गये! #SARA

19 APRIL 2012 NO COMMENT

सीमा… सारा… अमृता…

♦ शारदा दुबे

सॉरी सीमा और सॉरी शारदा कि यह राइटअप बहुत दिनों से मोहल्‍ले की दराज में पड़ा था और हम आज इसे निकाल पाये हैं। सीमा हमारे समय की बेहतरीन अदाकारा हैं और सिनेमा और रंगमंच पर वो जिस तेजी से आवाजाही करती हैं, उससे बार-बार ये साफ होता है कि अपने भीतर जमा किरदारों को बाहर निकालने की बेचैनियों को लेकर वो गहरे कमिटमेंट से बंधी हैं। एनएसडी के बाद सिनेमा के परदे पर उनकी शुरुआत सुपरहिट फिल्‍म चक दे की झारखंडी लड़की रानी डिसपोट्टा से होती है। सारा शगुफ्ता के जीवन पर आधारित उनकी एकल नाट्य प्रस्‍तुति पर इससे पहले वरिष्‍ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह ने अपने अनुभव हमसे शेयर किये थे, चार बार मेरी शादी हुई और चार बार मैं पागलखाने गयी! वह मुंबई में हुई प्रस्‍तुति थी। इस बार हम बनारस की प्रस्‍तुति पर शारदा दुबे का लिखा यहां शेयर कर रहे हैं : मॉडरेटर


बनारस में हुई सारा की प्रस्‍तुति के दो इमेज

नकी दोस्ती ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान की सरहद की फिक्र कभी नहीं की और उनके बीच का पत्राचार अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन गया। जब पाकिस्तान की युवा शायरा सारा शगुफ्ता अपनी दोस्त अमृता प्रीतम को खत लिखती, तो उन खतों में उनके जीवन के बहुत से उतार-चढ़ाव कैद थे, जिन्हें अमृता प्रीतम ने 'एक थी सारा' कहानी के रूप में उतारा था। अब शाहिद अनवर ने इस कहानी को एकल नाटक के रूप में लिखा है, जिसे महेश दत्तानी के निर्देशन में सीमा आजमी पेश कर रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय नाट्य दिवस (27 मार्च 2012) के अवसर पर सीमा ने इस नाटक को वाराणसी में प्रस्तुत किया, तो मेरा वहां उपस्थित होना एक सुंदर संयोग लगा।

एक शाम पहले मेरी मुलाकात सीमा जी से हुई थी। मंच सज्जा, लाइटिंग, ऑडिटोरियम में हर तरह के इंतजाम के बारे में वे खुद पूछताछ कर रही थीं और काफी चिंतित भी थीं। हालांकि वही पूरे नाटक की स्टार हैं, पर उन्हें अपने लाइट के सहयोगी राजेश शर्मा के साथ सब कुछ बारीकी से सुपरवाइज करना पड़ रहा था। उनके अपने बैनर का पहला शो था और वाराणसी की परिस्थितियां अपने आप में एक चैलेंज भी थीं। एनएसडी से निकली हुई फिल्म और टीवी सीरियल्‍स की अदाकारा सीमा आजमी का ये अपना जूनून है कि वे रंगमंच को न ही भूलेंगी, और न ही अपने नये काम से उसमें प्रयोग करना बंद करेंगी। 'सारा' सीमा आजमी की जुझारू निष्ठा की प्रस्तुति है। नाटक को देखने से पहले ही मैं उसके इस पहलू से परिचित हो गयी थी।

अगली शाम पहले ही क्षण से सारा शगुफ्ता की जिंदगी ने मुझे ऐसे अपने दर्द में समेट लिया, जैसे बहुत कुछ मुझ पर ही बीत रहा हो। और ऐसा क्यूं न होता? आखिर सारा की कहानी उन कितनी कितनी महिलाओं की कहानी है, जो कभी खुद खुल कर बयां नहीं कर पायी। सारा की कहानी मुझे मेरी कहानी लगी। मुझे कई जगहों पर अपने अनुभव याद आ रहे थे – कैसे मेरी बेटी फर्श पर मेरे पैरों के आस पास खेलती रहती… और मैं अपनी कहानियां एक टाइपराइटर पर टाइप करती रहती…

जीवन को पूरी तरह जीने के लिए आतुर महिला को जब समाज से समर्थन पाने वाले पुरुषों की अपेक्षाओं से टकराना पड़ता है, तो अक्सर बहुत ही दर्द पैदा करने वाली परिस्थितियां खड़ी होती हैं। पहली बार जब सारा की शादी होती है, तब जल्द ही उसके बच्चे हो जाते हैं और पति तलाक दे देता है। इस तलाक के बाद सारा के बच्चे उससे छिन जाते हैं। उन्हें वापस पाने के लिए वह अपनी व्यक्तिगत छवि, समाज में अपनी 'इज्जत' दांव पर लगा देती है।

एक दुपट्टे के ओढ़ने से सीमा आजमी ने फिर हमें दिखाया सारा को दूसरी बार दुल्हन बनते। इस शादी से खुलासा होता है उस पुरुषवादी बुद्धिजीवी दुनिया का, जहां एक शायर की पत्नी अकेलापन का सफर काट रही है, और शायर के मित्र महफिल में मगन हैं, वो बगल के कमरे में अकेली, चाय बनाती हुई सारा से किसी चिंतन की उम्मीद नहीं रखते। किस तरह बहुत से बुद्धिजीवी उन घरेलू और व्‍यावहारिक जिम्मेदारियों से दूर रहते हैं, जिनके निभाने से उनकी संवेदनशीलता का सही पता लगता, यह भी सारा की जिंदगी से साफ समझ में आता है। मेरी अपनी आंखों में बीच-बीच में जो आंसू घिर जा रहे थे, वह कई ऐसे क्षणों की पहचान के कारण थे। मेरी लिखी तेरहवीं किताब अभी हाल ही में छपी है, पर मैं बहुत बार सुन चुकी हूं वह चिर-परिचित संबोधन 'तुम नहीं समझ पाओगी…'

सारा शगुफ्ता डिप्रेशन या अवसाद की शिकार थी। क्या इस पर किसी प्रकार का ताज्जुब किया जा सकता है? हर शादी के टूटने पर उसे अपनी अम्मी की नसीहतों को फिर से सुनना पड़ता। हम महिलाएं इन नसीहतों में इसलिए फंस जाती हैं कि एक तरह से तो इन्‍हीं नसीहतों में अम्मी का प्यार भी रहता है। अपनी अम्मी की मान कर सारा फिर शादी करती है, एक बहुत रईस परिवार के लड़के से। यहां उसका जीवन ननदों के लिए एक नौकरानी जैसा बन जाना और हर बात पर सुनना पड़ता है कि 'हमारे घर में ऐसा नहीं किया जाता'। इस माहौल को भी उसे त्याग देना पड़ता है। अब जिंदगी अजीब दुह-मुखी हो चली है… एक तरफ सारा का अपना दर्द है, दूसरी तरफ लोग उसकी किताबों पर उससे ऑटोग्राफ मांग रहे हैं!

नाटक का सबसे सुंदर और सुखद मोड़ तब आता है, जब सारा अमृता को मिलने दिल्ली आती है। ओह! वह कॉफी हाउस जाना! वह आजाद हवा में सांस लेना, दोस्तों के साथ बाजार टहेलना – कुछ क्षण तो हम सब सारा के साथ 'पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में' मन ही मन गाने लगे। फिर नाटक का स्वाभाविक और गंभीर अंत होना ही था।

बहुत दिनों बाद मैंने एक ऐसी प्रस्तुति देखी, जिस में मेरे नारी होने का इतना तीखा और गहरा एहसास हुआ। एक जगह पर सारा कहती है 'आग की तलाश में मेरे कई चिराग बिछड़ गये…' और मुझे लगा जैसे मेरी अपनी जुबां हो। सीमा आजमी ने इतने कम सामान, महज सवा घंटे के नाटक में इतना कुछ पैक किया है, कि हर क्षण में उनका कमिटमेंट झलक रहा है। कोई भी लड़की, महिला, अबला, सबला, विदुषी या गृहणी इस नाटक को बिना इससे आत्मीयता महसूस किये नहीं देख पाएगी।

इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए सीमा आजमी, शाहिद अनवर, महेश दत्तानी और 'सारा' की पूरी टीम सलाम के हकदार हैं।

(शारदा दुबे। अंग्रेजी की मशहूर राइटर। अभी हाल ही में अयोध्‍या पर एक किताब वेस्‍टलैंड ने छापी है। शारदा ने बच्‍चों के लिए भी लिखा है। अन्‍ना के आंदोलन पर उनकी एक किताब हार्पर कॉलिन्‍स से आने वाली है। उनसे scharada@gmail.com पर संपर्क करें।)


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